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Sunday, August 4, 2013

प्रेसीडेंसी क्यों छोड़ रहे हैं अध्यापक?

प्रेसीडेंसी क्यों छोड़ रहे हैं अध्यापक?


एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास​


प्रेसीडेंसी कालेज की अकादमिक जगत में भारी प्रतिष्ठा है और बंगाली मेधा के विकास में उसका ऐतिहासिक योगदान है। बंगाल में बदलाव की पहल में प्रेसीडेंसी का ठप्पा जरुर लगता है। लेकिन विश्वविद्यालय बनने के बाद प्रेसीडेंस में सबकुछ ठीकठाक नही चल रहा है। उपकुलपति मालविका सरकार के कार्यकाल और मेंटर ग्रुप की भूमिका को लेकर विवाद चल ही रहा है।इसके मध्य न राज्य सरकार और न नागरिक समाज को इसका ख्याल है कि प्रेसीडेंसी से एक के बाद एक अध्यापक विदा ले रहे हैं। ऐसा क्यों हो रहा है


बेंजामिन जकारिया के बाद फिर एक अध्यापक ने रहस्यपूर्ण परिस्थिति यों में प्रेसीडेंसी छोड़ दिया। बेंजामिन तो अपने फेसबुक मंतव्य से चर्चित भी हो गये, लेकिन दर्शन शास्त्र विभाग की अध्यापिका पौलभी दास ने विश्वविद्यालय से खामोशी के सात विदा ली है।कहां कोई हल्ला नहीं हो रहा है।विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार प्रवीर दासगुप्त हालांकि कह रहे हैं कि वेतनमान माफिक न होने के कारण पौलभी प्रसीडेंसी छोड़कर चली गयीं। फौलभी को लेकर पिछले तीन महीने में आठ अध्यापकों ने प्रेसीडेंसी छोड़ दिया है। प्रसीडेंसी जैसे नामी शिक्ष संस्थान से अध्यापकों की बारंबार विदाई की यह परंपरा बनती जा रही है और यह निहायत प्रेसीडेंसी की प्रतिष्ठा के लिएहैरतअंगेज है। अगर यही हाल रहा तो भविष्य में कोई प्रेसीडेंसी में पढ़ाने केलिए बाहर से आयेगा भी नहीं,इसे लेकर संदेह है। लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन को शायद इसकी कोई खास परवाह नहीं है।


रजिस्ट्रार के मुताबिक दिल्ली से ायी पौलभी के प्रेसीडेंसीछोड़नेकी वजह नापसंद वेतनमान के अलावा कुछ निजी वजहें भी है। लेकिन पौलभी ने इस बारे में कोई टिप्पणी करने से ही सिरे से इंकार कर दिया है।


इस सिलसिले में मेंटर ग्रुप की भूमिको को लेक भी सवाल उठ रहे हैं । नये ्ध्यापकों की नियुक्ति के वक्त जो वेतनमान और सुविधाओं का प्रस्ताव मेंटर ग्रुप करता है, वह हकीकत में मिलता ही नहीं है। जिससे निरास होकर अध्यापक विश्वविद्यालय छोड़ रहे हैं। अगर यह सच है कि तो यह मेंटर ग्रुप और विश्वविद्यालय पर्शासन में तालमेल का अभाव ही दर्शाता है।


दूसरी ओर रसायन शास्त्र विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष दीपक मंडल ने भी इस्तीफा दे दिया है। वे प्रेसीडेंसी कालेज के अध्यापक थे। विश्वविद्यालय बनने के बाद उन्होंने विकल्प प्रपत्र भरा ही नहीं। वैसे इसी नवंबर में उन्हें रिटायर होना था। इसलिए कहा जारहा है कि रिटायर होने से संबंधित सुविधाएं हासिल करने के लिए ही ुन्होंने इस्तीफा दे दिया है।


इससे पहले जिन हालात में फेसबुक मंतव्य के लिए विख्यात इतिहासविद बेंजामिन जकारिया की प्रेसीडेंसी कालेज से विदाई हो गयी, उससे यादवपुर विश्वविद्यालट के शिक्षक अंबिकेश महापात्र की याद ताजा हो गयी। लेकिन इस मामले को लेकर सिविल सोसाइटी की खोमोशी हैरत में डालने वाली है। इंग्शेलैंड के शेफील्ड विश्वविद्यालय में दक्षिण एशियाई इतिहास के शिक्षक पद से इस्तीफा देकर स्वायत्त विश्वविद्यालय प्रेसीडेंसी के बुलावे पर वहां की पक्की नौकरी छोड़कर चले आये बेंजामिन जकारिया के साथ जो सलूक परिवर्तन राज में हुआ , वह न केवल शर्मनाक है, बल्कि प्रेसीडेंसी कालेज की उपकुलपति मालविका सरकार जैसी विदुषी प्रशासक की साख को बट्टा लगाने वाला है।


प्रेसीडेंसी के स्नातक और स्नातकोत्तर छात्रों में बेंजामिन की भारी लोकप्रियता उनकी आधुनिक दृष्टि और शिक्षा की विशिष्ट शैली की वजह से है। वे सारे छात्र उनके पक्ष में हैं। बेंजामिन पाठ्यक्रम का आधुनिकीकरण करना चाहते थे, जिसके खिलाफ में हैं इतिहास विभाग के बाकी शिक्षक। इसको लेकर लंबे अरसे से खींचातानी चल रही थी।प्रेसीडेंसी के 158 साल के इतिहास में किसी अध्यापक को इस तरह हटाये जाने की कोई नजीर नहीं है।


बेंजमिन ने केम्ब्रिज विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी करने के बाद वहीं से पीएचडी की और लगातार ग्यारह साल तक शेफील्ड विश्वविद्यालय में पढ़ाने से इतनी प्रतिष्ठा अर्जित की प्रेसीडेंसी से उन्हें शिक्षकता का आमंत्रण भेजा गया। अब बेंजामिन के साथ जो सलूक हुआ और राज्य के विश्वविद्यालयों में राजनीति जिस कदर हावी है, जैसे वर्चस्ववादी गिरोहबंदी है, इस वारदात के बाद राज्य के किसी विश्वविद्यालय से विदेश की क्या कहें, देश के दूसरे विश्वविद्यालयों को कोई आने को तैयार होगा या नहीं, यह शंका पैदा हो गयी है।





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