From: dilip mandal <dilipcmandal@gmail.com>
Date: 2010/3/11
Subject: Budget 2010-2011/ see the attachment.
To: dilipcmandal <dilipcmandal@gmail.com>, palashbiswaskl@gmail.com
मूलनिवासियों के खिलाफ षड्यंत्र है प्रणव मुखर्जी का बजट
लेखक- दिलीप मंडल, आर्थिक पत्रकार (dilipcmandal@gmail.com)
मार्गदर्शन- माननीय वामन मेश्राम
तीन-चौथाई मूलनिवासी आबादी के लिए 0.42% पैसा
इस देश की कुल दलित, आदिवासी और पिछड़ी आबादी कितनी है। इसके अलग अलग अनुमान हैं। लेकिन किसी भी अनुमान में इन समुदायों की कुल संख्या 65 परसेंट से कम नही है। अगर इसमें उन मुस्लिम जातियों को जोड़ दें जिन्हें सरकार ने ओबीसी लिस्ट में शामिल किया है तो ये संख्या 70 परसेंट से हर हाल में ऊपर होगी।
इस आबादी के लिए देश के कुल सराकारी खर्च का कितना हिस्सा खर्च होना चाहिए? न्याय तो यही कहता है कि इनके लिए सरकारी खर्च का कम से कम 65 फीसदी खर्च होना चाहिए क्योंकि इन मूलनिवाली समुदायों को विकास की ज्यादा जरूरत है। इन पर ज्यादा खर्च होना चाहिए क्योंकि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार मूलनिवासियों का है और उन्हें इस अधिकार से कई सौ साल से वंचित रखा गया है। अगर भारत में सही मायने में लोकतंत्र है तो संसाधनों में संख्या के हिसाब से हिस्सा होना ही चाहिए।
क्या आपको अंदाजा है कि सरकार अपने कुल खर्च का कितना हिस्सा दलितों, आदिवासियों और ओबीसी के विकास पर खर्च करती है। राष्ट्रीय बजट के हिस्से के तौर पर संसद में पेश आर्थिक सर्वेक्षण 2009-2010 में सरकार ने बड़ी बेशर्मी से बताया कि इन समुदायों के लिए केंद्र सरकार के कुल खर्च का 0.42 परसेंट खर्च किया जाता है। देखें
कोई भी आदमी केंद्र सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण के पेज -272 पर इसे पढ सकता है। जो लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं, वे http://indiabudget.nic.in/es2009-10/chapt2010/chapter11.pdf लिंक के सहारे भारत सरकार की साइट पर जाकर भी इस बात को पढ़ और जान सकते हैं। सरकार के लिए इससे भी शर्मनाक और हमारे लिए इससे भी ज्यादा गुस्से की बात ये है कि 2003 में ये रकम सिर्फ 0.24 परसेंट थी। इसके बाद हर साल का हिसाब देखें तो ये क्रमश: 2004 में 0.27%, 2005 में 0.33%, 2006 में 0.34%, 2007 में 0.38% और 208 में 0.35% हुआ और 2009-2010 में इस खर्च के 0.42 परसेंट होने का अनुमान है।
इस आंकड़े का दो मतलब है:
1. सरकार दलितों, आदिवासियों और ओबीसी तथा माइनोरिटी के लिए नाम मात्र का खर्च कर रही है। ये सालों से चला आ रहा है। आम आदमी का साथ का जब नारा लगाया जाता है तो उस आम आदमी में मूलनिवासी नहीं हैं, इस बात को समझना बहुत मुश्किल नहीं है।
2. सरकार को इस बात की परवाह भी नहीं है कि लोग इस बारे में जान जाएंगे तो क्या होगा। इस वजह से आर्थिक सर्वेक्षण जैसे दस्तावेज में, जो बजट का हिस्सा हिसा है, इसे छापा जाता है। सरकारी कागजों में ये लिखा होता है और इंटरनेट पर इसे देश दुनिया का हर आदमी पढ़ सकता है। ये मूलनिवासियों के लिए शर्म की बात है कि ये आंकड़ा भी हमें गुस्सा नहीं दिलाएगा।
मूलनिवासियों के संहार के प्रोजेक्ट पर साल में 1900 करोड़ रु
शहरी गरीबों, दलितों, आदिवासियों और खास तौर पर बांग्लादेश से आए दलितों को नागरिता के हक से वंचित करने के लिए बनाए गए प्रोजेक्ट यूनिक आइडेंटिफिकेशन अथॉरिटी के लिए 2010-2011 के बजट में 1,900 करोड़ रुपए रखे गए हैं। इतने रुपए इस प्रोजेक्ट के लिए देते हुए प्रणव मुखर्जी ने अपने भाषण में कहा कि ये अथॉरिटी इसी साल पहला यूनिक आइडेंटी नंबर जारी कर देगी। इसे ज्यादा पैसे इसलिए दिए जा रहे हैं, ताकि इसके काम में तेजी लाई जा सके। बजट भाषण को आप यहा पढ़ सकते हैं
http://indiabudget.nic.in/ub2010-11/bs/hspeech.pdf (हिंदी में, आइडेंटी नंबर की बात पेज 16 पर)
http://indiabudget.nic.in/ub2010-11/bs/speecha.htm (अंग्रजी में, प्वाइंट 103 देखें)
जो सरकार मूलनिवासियों के संहार के प्रोजेक्ट यूनिक आइडेंटिफिकेशन के लिए एक साल में 1900 करोड़ खर्च कर रही है उस सरकार ने 2009-2010 में दलितों की योजनाओं के लिए कितने रुपए रखे। देखिए:
- दलितों के लिए प्री-मैट्रिक स्कॉलरशिप- 80 करोड़ रु
- बाबू जगजीवन राम छात्रावास योजना- 90 करोड़( दिसंबर 2009 तक छह करोड़ भी रिलीज नहीं किए गए थे)
- राजीव गांधी नेशनल फेलोशिप -105 करोड़
- आईआईटी,आईआईएम जैसे संस्थानों में पढ रहे दलित बच्चों के लिए स्कॉलरशिप – 10 करोड़ ( दिसंबर तक दिया गया 2.83 करोड़) सभी आंकड़े भारत सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण पेज 289 से)
- शिड्यूल कास्ट सब प्लान- 480 करोड़ रु
- नेशनल शिड्यूल कास्ट फाइनांस एंड डेवलपमेंट कॉरपोरेशन- 44 करोड़ रु
- नेशनल सफाई कर्मचारी फाइनांस एंड डेपलपमेंट कॉरपोरेशन -30 करोड़ रुपए
सरकार ने सोशल सेक्टर यानी सामाजिक क्षेत्र के लिए 1,37,674 करोड़ रुपए खर्च करने की बात बजट में की है। लेकिन इस खर्च के तहत कोई भी योजना दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों या माइनॉरिटी को लक्ष्य करके नहीं चलाई जाती।
रिजर्वेशन को खत्म करने की साजिश
मनमोहन सिंह प्रणव मुखर्जी और पी चिदंबरम की सरकार सरकारी कंपनियों में एक एक करके अपनी हिस्सेदारी घटा रही है। इस साल एनएचपीसी,एनटीपीसी, ऑयल इंडिया लिमिटेड और रूरल इलेक्ट्रिफिकेशन कॉरपोरेशन में सरकारी हिस्सा बेचा गया। इस समय नेशनल मिनिरल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन यानी एनएमडीसी और सतलज जल विद्युत निगम में सरकारी हिस्सा बेचने का काम चल रहा है। इस तरह हिस्सेदारी बेचकर सरकार 25,000 करोड़ रुपए कमाएगी। और फिर इस रकम का सबसे बड़ा हिस्सा निजी कंपनियों के हित में ही लगा दिया जाएगा। सरकारी हिस्सेदारी 50 फीसदी कम होते ही कंपनियां आरक्षण देना बंद कर देती है और मूलनिवासियों को धीरे धीरे और कभी तेजी से नौकरियों से बाहर कर देती है। मारुति और वीएसएनएल में ये हो चुका है। बाकी सरकारी कंपनियों में यही होगा, ऐसा इस बार के बजट में सरकार ने संदेश दे दिया है। आर्थिक सर्वेक्षण में भी सरकार न कहा है कि 1994 से 2007 के बीच के 13 साल में देश में सरकारी नौकरियां बढ़ने की जगह 0.57% गई।
वर्ष 2010-11 के बजट की वजह से कुछ लोग प्रोडक्शन और सरकारी खर्च के बड़े हिस्से पर कबाजा जमा लेंगे और बहुसंख्य लोग, जिनमें मूलनिवासियों की संख्या ज्यादा है, उनके हिस्से बचा खुचा ही आएगा। मिसाल के लिए, सत्तर करोड़ से ज्यादा गांववालों को रोजगार गारंटी (मनरेगा) के लिए सिर्फ एक हजार करोड़ रुपये की बढ़ोतरी और कंपनी क्षेत्र को पांच लाख करोड़ रुपयों का 'प्रोत्साहन' पैकेज साफ दिखाता है कि किस आम आदमी के लिए यह बजट बनाया गया है!
कंपनियों को छूट, जनता पर बोझ
भारत में आठ लाख कंपनियों को देश के विकास का जिम्मा सरकार ने सौंप दिया है। सारी सुविधाएं उनके लिए हैं। इन कंपनियों को चलाने वाले परिवार 25 लाख से ज्यादा नहीं होंगे। लेकिन नेशनल इनकम के 20 परसेंट पर इनका कब्जा है। अर्थशास्त्री कमल नयन काबका का कहना है कि वह कर-राजस्व (टैक्स रेवेन्यू), जो एकत्रित करने से पहले ही करदाता के हाथ में छोड़ दिया गया, पिछले साल चार लाख करोड़ रुपये था। इस साल लगभग एक लाख करोड़ रुपये से बढ़ाकर इस राशि को पांच लाख करोड़ रुपये कर दिया गया है। ग्यारह लाख करोड़ रुपये के करीब के कुल बजट की यह सबसे बड़ी राशि है। किंतु इसका बजट भाषण में ये बात कही ही नहीं गई। सरकार ने इस बार के बजट में कंपनियों के लिए टैक्स सरचार्ज 10 परसेंट से घटाकर 7.5 परसेंट कर दिया है। सरकार इस साल डायरेक्ट टैक्स में जो छूट दे रही है इससे सरकारी खजाने को 26,000 करोड़ रुपए का नुकसान होगा। ये सारी छूट उनके लिए है जो टैक्स देते हैं। (स्रोत http://indiabudget.nic.in/ub2010-11/bh/bh1.pdf देखें पेज 10)। वहीं आम आदमी पर इनडायरेक्ट टैक्स का बोझ पड़ता है और उसे बढ़ाकर सरकार इस साल 46,500 करोड़ रुपए जुटाएगी (स्रोत http://indiabudget.nic.in/ub2010-11/bh/bh1.pdf देखें पेज 14)।
आपकी सेहत की किसे परवाह है? सरकार को तो नहीं है
योजना आयोग के एक अध्ययन के अनुसार सिर्फ दवा और इलाज के खर्च ने एक साल में लगभग 4 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से नीचे पहुंचा दिया। आजकल सरकारी अस्पतालों में इलाज का कितना बुरा हाल है ये किसी से छिपा नहीं है और इन अस्पतालों में सबसे ज्यादा मूलनिवासी लोग ही इलाज के लिए पहुंचते हैं। केंद्र सरकार ने इस साल इलाज के लिए जो पैसा बजट में रखा है वो जीडीपी का सिर्फ 1.45% है। समझ सकते हैं कि सरकार हेल्थ पर खर्च नहीं करके किस तरह प्राइवेट हॉस्पिटल को फायदा पहुंचा रही है और हमारे लोगों को इसका कैसा नुकसान उठाना पड़ रहा है।
जितना मालदार, उतनी बड़ी टैक्स छूट
इनकम टैक्स में छूट का फायदा किसे मिला इसे आप नीचे के टेबल से देख सकते हैं। जितनी ज्यादा आमदनी उतनी अधिक छूट। 10 लाख से ज्यादा आमदनी पर 50,000 रु की छूट और 2 लाख रुपए तक की आमदनी पर एक रुपए की भी छूट नहीं। हर ऑफिस में एकाउंट वाले या कोई भी चार्ट्रर्ड एकाउंटेंट ये बता देगा कि टैक्स छूट का फायदा किसे ज्यादा मिलेगा।
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Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/
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