सुपरपावर हिन्दू राष्ट्र के पंख खुलने लगे
पलाश विश्वास
बंगाल में जमीन और मुसलमान वोट बैंक हासिल करने के खातिर बंगाली कुलीन ब्राह्मण मार्क्सवादी और कांग्रेसी अमेरिकी गुलामों के सौजन्य से भारत अमेरिकी परमाणु समझौते के बहाने आपरेशन ब्लू स्टार के जरिये राष्ट्रव्यापी सिखनिधन, राम मंदिर आंदोलन और बाबरी विध्वंस के बाद फिर एक बार ब्राह्मणवादी हिन्दू पुनरुत्थान ने जोर मारा है और उत्तर आधुनिक आकाशगंगा मनुस्मृति व्यवस्था का ग्लोबल श्वेत यहूदी ब्राह्मण सत्तावर्ग बाग बाग है कि नेपाल में अंतिम हिंदू राष्ट्र का अवसान हुआ तो क्या भारत अब सुपर पावर हिन्दू राष्ट्र , बस, बनने ही वाला है।
मार्क्सवादी, कम्युनिस्ट और नक्सलवादी धड़ों के तमाम नेता चूंकि व्राह्मण ही हैं, सो हिन्दू राष्ट्र के इस इंद्रधनुषी सपने से उनकी नींद में खलल नहीं पड़ने वाली। आखिर वे अच्छी तरह जानते हैं कि कांग्रेस की सरकार गिरी तो भी आखिरकार राज करेंगे बामहण ही। अमेरिकी आका नाराज भी न होंगे, क्योंकि जो परमाणु समझौता रुका हुआ है साठ वामपंथी सांसदों की नौटंकी की वजह से, वह संघ परिवार के सत्ता में आते ही अमल में आ जाएगा।
भारत-अमेरिकी परमाणु समझौते पर कांग्रेस और वामपंथी दलों के बीच जारी गतिरोध आज और गहरा हो गया तथा मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने धमकी दी कि अगर संप्रग सरकार ने इस समझौते को आगे बढ़ाया तो वह उससे समर्थन वापस ले लेगी ।
आज नई दिल्ली में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की पोलित ब्यूरो की बैठक के बाद जारी बयान में कहा गया कि अगर सरकार ऐसे हानिकारक समझौते को आगे बढ़ाने का फैसला करेगी, जिसे संसद में समर्थन नहीं मिला है, तो माकपा अन्य वामपंथी दलों के साथ मिलकर संप्रग सरकार से समर्थन वापस ले लेगी ।
परंतु संप्रग की नेता कांग्रेस ने इस धमकी को ज्यादा महत्व न देते हुए कहा कि इस चेतावनी में कुछ भी नया नहीं है । गौरतलब है कि संप्रग सरकार वामपंथी दलों के 59 सांसदों के सहयोग पर टिकी हुई है, जो बाहर से समर्थन दे रहे हैं ।
संप्रग के महत्वपूर्ण सहयोगी दल, राष्ट्रीय जनता दल, जिसके 24 सांसद हैं, ने विश्वास जताया कि इस समझौते पर सरकार नहीं गिरेगी और यह समझौता भी सम्पन्न होगा ।
सरकार इस समझौते को आगे ले जाने की इच्छुक है, जिससे सरकार और वामपंथी दलों के बीच गतिरोध गहराता जा रहा है । माकपा के महासचिव प्रकाश करात ने आज एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में समर्थन वापस लेने की पहली सार्वजनिक घोषणा की ।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी जैसे अन्य वामपंथी दल पहले ही घोषणा कर चुके हैं कि अगर सरकार इस समझौते पर अड़ी रही तो वे समर्थन वापस ले लेंगे, लेकिन माकपा अभी तक केवल समर्थन वापस लेने के संकेत दे रही थी ।
बताया जाता है कि अब संप्रग सरकार समाजवादी पार्टी, जिसके 39 सांसद हैं और कुछ अन्य छोटे दलों का समर्थन लेने का प्रयास कर रही है ताकि वामपंथी दलों द्वारा समर्थन वापस लिये जाने पर लोकसभा में उसे पर्याप्त सांसदों का समर्थन मिल जाए और सरकार बची रहे ।
अब सबकी नजरें समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव पर टिकी हुई हैं, जिन्होंने अपनी पार्टी के रवैये के बारे में कुछ खुलासा नहीं किया है और कहा है कि वह 3 जुलाई को फैसला करेंगे, जब यूएनपीए की बैठक होगी । परंतु समझा जाता है कि उनके प्रमुख सहयोगी अमर सिंह के अमेरिका से लौटने के बाद कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच समझौते की कवायद शुरू हो जाएगी ।
भारतीय विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी ने सोमवार को कम्युनिस्ट नेता प्रकाश करात से मिलकर अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के साथ समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए उनकी मंजूरी लेने की कोशिश की थी ।
परंतु कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं ने कहा है कि अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के साथ यह समझौता स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि इससे अमेरिकी सौदे को आगे बढ़ाया जा सकेगा ।
प्रस्तावित परमाणु सौदे से भारत को परमाणु ईंधन और तकनीक में व्यापार करने की अनुमति मिल जाएगी । भारत अपने कुछ नागरिक परमाणु रियेक्टरों को राष्ट्र संघ की निगरानी में भी रखेगा ।
भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पिछले हफ्ते कहा था कि इस समझौते से भारत अन्य देशों के साथ नागरिक परमाणु सहयोग कर सकेगा, जो भारत की ऊर्जा सुरक्षा के लिए बहुत आवश्यक है ।
अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा के अतिरिक्त, इस समझौते के लिए न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप और अमेरिकी कांग्रेस से मंजूरी लेना भी आवश्यक है ।
सभी शुभ नक्षत्रों के योग का अवसर बांचकर संघ परिवार ने सत्ता हस्तांतरण का समां भी बांध दिया है। संख्या ज्योतिष के हिसाब से भावी प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी समेत छह उम्मीदवारों कके नामों की घोषणा करते हुए। इन्ही आडवाणी के जनतादल शासनकाल में सूचना व प्रसारण मंत्रित्व काल में मीडिया में घुसपैठ करने वाले संघी बालवृंद अब विदेशी पूंजी निवेश और उपभोक्ता संस्कृति के मक्खन मलाई से बालिग हो गए हैं। संघ परिवार और इंदिरा गांधी के आपातकाल का विरोध करने वाले, सत्ता और व्यवस्था परिवर्तन की गुहार लगाने वाले, विचारधारा का परचम लहराने वाले लोग अब चांद सूरज हाथ में लेकर ढंढने से भी कही नहीं मिलेंगे। सब सार्वभौम बाजार और रियेलिटी शो, उपहार, पुरस्कार और अनुदान की संताने हैं या कारपोरेट मालिकों के अंग्रेजीपरस्त अधपढ़ अनपढ़ दलाल और भड़ुवे। जिन्हें शौच और सोच की तमीज नहीं हैं, समाचार ,सूचना , विचार और इतिहास का ज्ञान नहीं हैं, वे मालिक के कारिन्दे प्रबंधक हुक्मवरदार संपादक सत्तानशीं है। इनमें से भी ज्यादातर ब्राह्मण या सवर्ण। सूबों और केंद्र में शासक दलों के जूठन पर पलने वाले तमाम सुविधाओं, सहूलियतों, संबंधों और रियायतों से लैस। संघ परिवार की हवा बनाने वालों में इन महाशयों का भारी योगदान है।
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वामदलों की ओर से लगातार मिल रही धमकियों के बीच लगभग सभी राजनीतिक दलों ने चुनावी तैयारियाँ शुरू कर दी हैं।
भारत-अमेरिका परमाणु करार को आगे बढ़ाने पर सरकार से समर्थन वापस लेने की वाम दलों की धमकी को खास अहमियत नहीं देते हुए प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह ने सोमवार को कहा कि वे समझौते के क्रियान्वयन से पहले इस मुद्दे पर संसद का सामना करने को तैयार हैं।
प्रधानमंत्री ने परमाणु करार मुद्दे पर कहा कि सरकार समझौते के कार्यान्वयन से पूर्व संसद का सामना करने को तैयार है लेकिन उससे पहले अंतरराष्ट्रीय परमाणु उर्जा एजेंसी और परमाणु आपूर्ति समूह के साथ प्रक्रिया पूरी करना चाहेगी।
कांग्रेस को हालांकि वाम दलों के समर्थन वापस लेने पर सरकार बच जाने के सपा से कुछ सकारात्मक संकेत मिले हैं जिसके 39 सांसद लोकसभा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
इस मुद्दे पर संप्रग और वाम दलों के बीच बने गतिरोध के एक पखवाड़े बाद अपनी चुप्पी तोड़ते हुए प्रधानमंत्री ने वरिष्ठ संवाददाताओं से कहा अगर संसद महसूस करती है कि सरकार ने कुछ गलत किया है तो इसे 'तय' करने दिया जाना चाहिए।
करार पर चिंताओं के बारे में उन्होंने कहा, 'करार को क्रियान्वित किए जाने से पहले मैं इसे संसद में लाने के लिए राजी हूं। इससे अधिक तार्किक क्या हो सकता है।' सिंह ने कहा, 'मैंने पहले भी कहा है। मैं इसे फिर दोहराऊंगा कि मैंने वाम दलों को बताया है कि आप प्रक्रिया को पूरी होने दीजिए। जब प्रक्रिया पूरी हो जाएगी, मैं इसे संसद के सामने लाऊंगा और सदन के मुताबिक चलूंगा।'
परमाणु करार पर वाम दलों से बढ़े गतिरोध के एक पखवाड़े बाद सिंह ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कहा कि वे चाहते हैं कि सरकार को आईएईए और एनएसजी से वार्ता प्रक्रिया को पूरा करने की अनुमति दी जाए।
उन्होंने विश्वास जताया कि अमेरिका के साथ परमाणु सहयोग के संबंध में उनकी सरकार वाम दलों सहित सभी पक्षों की चिंताओं का निराकरण करने में सफल होगी।
समझौते पर एक कदम भी आगे बढ़ने की स्थिति में सरकार से समर्थन वापस लेने की माकपा महासचिव प्रकाश करात की धमकी के बारे में प्रधानमंत्री ने कहा ऐसी स्थिति आने पर हम उसका सामना करेंगे।
उन्होंने कहा कि मुझे उम्मीद है कि हम रास्ता निकाल सकते हैं। हम अभी भी ऐसे निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं, जो सभी दलों को संतुष्ट कर सके।
मूलनिवासी सर्वहारा समुदाय असहाय है तो भारतीय वामपंथियों, समाजवादियों और दलितनेताओं के विश्वासघात से। जो ईमानदार है वे मूलनिवासियों का साम्राज्यवाद विरोधी सामंतवाद विरोधी मनुस्मृतिविरोधी विरासत से अनजान हैं। जो बैईमान हैं वे खुल्लमखुल्ला आम जनता को बेवकूफ बना रहे हैं। वामपंथी इतिहास नहीं जानते, ऐसा हो नहीं सकता। अप
ढ़ या अधपढ़ भी नहीं है कारत वाहिनी। सत्तावर्ग तो आदिमकाल से शस्त्र और शस्त्र के विशेषज्ञ हैं। विचारधारा और इतिहासबोध के हिसाब से तो वामपंथियों को ग्लोबल यहूदी श्वेत हिंदू साम्राज्यवादी फासीवादी, नाजीवादी सामंती मनुस्मृतिपरस्त रंगभेदी सत्तावर्ग के खिलाफ मूलनिवासियों और सर्वहारा का साझा विश्वव्यापी मोर्चा का नेतृत्व करना चाहिए था। समाजवादी अगर भारतीय वर्ण व्यवस्था के खिलाफ लड़ रहे होते तो संघ परिवार को कोई मौका देने की नौबत ही कहां आती? दलित नेता मूलनिवासी साम्राज्यवाद विरोधी विरासत से कोई सरोकार रखते तो ग्लोबीकरण, अंग्रेजी, शहरीकरण और औद्योगीकरण के जरिए मूलनिवासियों के सफाये हेतु जारी नरमेधयरज्ञ के खिलाफ मोर्चाबंदी करते। रंगभेद विरोधी मनुस्मृति विरोधी साम्राज्यवाद विरोधी अंतरराष्ट्रीय मोर्चाबंदी की अगुवाई करते।
ऐसा कुछ नहीं हो रहा है।
१९७७ और १९८९ में संघियों के साथ केंद्र में सरकार चलाने के अनुभव से धनी वामपंथी केरल, बंगाल और त्रिपुरा के गढ़ सुरक्षित कककरने में लगे हैं। बाकी देश पर संघ परिवार का राज हो तो क्या?
नवउदारवाद, ग्लोबीकरण, निजीकरण, विनिवेश और विदेशी पूंजी का विरोध करना तो दूर, वामपंथियों के सौजन्य से अब जार्ज बुश और बुद्धदेव भट्टाचार्य का गठबंधन है। हेनरी कीसिंजर विदेशी पूंजी के आयात के लिए वामपंथियों के सबसे बड़े मददगार हैं। सेज और कैमिकल सेज के लिए वाम शासित बंगाल में नंदीग्राम और सिंगुर में जनविद्रोह कुचलने के लिए मार्क्सवादी कांग्रेसी ब्राह्मणों ने जो साझा दमन कार्यक्रम चलाया, उसकी सानी है? गुजरात नरसंहार के खिलाफ खूब चिल्लाने वाले वामपंथियों के राज में मानवाधिकार और नागरिक अधिकारों के क्या हाल है?
आडवाणी के गृहमंत्रित्व में लोकसभा में पेश दलित बंगाली शरणार्थियों के देश निकाला नागरिकता संशोधन विधायक पास कराने में संघ परिवार, कांग्रेस और वामपंथियों की सहमति के बाद भी इनमें भद करने की कोशिश आत्मघाती है।
अपना अपना वोटबैंक सुरक्षित करने के लिए भोली भाली हिंदुस्तानी मूलनिवासी जनता को बेवकूफ बनाने के लिए चुनावों में अलग अलग पार्टियों के झंडेवरदार ब्राह्मण वर्चस्व बनाये रखने के लिए और ग्लोबल सत्तावर्ग के हित साधने के लिए संसद और विधान सभायों में एकजुट है। संवैधानिक आरक्षण बेमतलब है, क्योंकि इस ग्लोबीकरण के कारपोरेट अमेरिकी उपनिवेश बने शाइनिंग इंडिया और सेनसेक्स इंडिया ने अप्रासिंक हो गया है। आरक्षण युद्ध अब वोट बैंक हासिल करने का सबसे बढिया जरिया है, मीना गुर्जर विवाद के अवसान के बाद सबरंग आररक्षण के महारानी वसुंधरा के फार्मूले से यह साबित हो चुका है। आरक्षण से कारपोरेट राज में नौकरियां नहीं मिल सकती। सरकारी राजकाज में बड़ा पद चाहे आरक्षण से मिल जाये, पर नीति निर्धारण अल्पसंख्यक तीन प्रतिशत ब्राह्मण ही करेंगे। प्रधानमंत्री चाहे सिख अर्थशास्त्री अमेरिकी गुलाम मनमोहन सिंह बन जायें, पर तमाम फैसले करेंगे उनसे बड़े गुलाम बंगाली कुलीन ब्राह्मण प्रणव मुखर्जी। जो एक नहीं, दो नहीं, उनचालीस संसदीय समितियों के चेयरमैन हैं और सबसे मजे की बात बंगाल में कांग्रेस वाममोर्चा तलमेल से परिवर्तन की हर संभावन की हवा निकालने में माहिर सोवियत माडल से अमेरिकी नैनो में तब्दील प्रणव मुखर्जी ही भारत अमेरिकी सैन्य संबंधों और परमाणु समझौते का मुख्य सूत्रधार है। वामपंथी बंदरघुड़किय से निपटने में उनकी दक्षता देखते ही बनती है।
सिर पर मैला ढोने की प्रथा के उन्मूलन के लाख दावों के बावजूद हालत यह है कि देश के कई राज्यों में यह प्रथा मौजूद है।
राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग ने अपने अध्ययन में पश्चिम बंगाल के सफाई कर्मचारियों की हालत को देश में सबसे बदतर बताते हुए कहा है कि वहाँ स्थायी सफाई कर्मचारी मैला ढोने को मजबूर हैं और उन्हें न्यूनतम वेतन तक नहीं दिया जाता। आयोग की अध्यक्ष सुश्री संतोष चौधरी ने बताया कि इस संबंध में केंद्र द्वारा राज्यों को अरबों रुपए दिए जा चुके हैं, लेकिन समस्या समाप्त नहीं हो पाई है।
बंगाल बेहाल : पश्चिम बंगाल का जिक्र करते हुए सुश्री चौधरी ने कहा कि लाखों लोगों का मैला साफ करने वाले राज्य के सफाई कर्मचारियों के साथ पूरा न्याय नहीं किया जा रहा है। वहाँ अस्थायी नहीं बल्कि स्थायी सफाई कर्मचारी तक मैला ढो रहे हैं और उन्हें न्यूनतम वेतन तक नहीं दिया जाता।
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आयोग के अनुसार प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह ने अब 31 मार्च 2009 तक देश से इस प्रथा को पूरी तरह समाप्त करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। पहले इसके लिए 31 दिसंबर 2007 तक का समय निर्धारित था।
भारत-अमेरिका परमाणु करार पर ताजा संकट के लिए मार्क्सवादी नेता प्रकाश करात द्वारा सीधे प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह पर निशाना साधे जाने के बाद प्रमुख वाम दलों ने उन्हें या तो करार को आगे बढ़ाने का बालहठ या प्रधानमंत्री पद छोड़ देने की सलाह दी।
करार पर सत्तारूढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की मुखिया कांग्रेस तथा वाम दलों की आर-पार की मुद्रा के बीच राजनीतिक परिदृश्य पर चर्चा तथा अगले कदम पर विचार के लिए माकपा की प्रस्तावित पोलित ब्यूरो की बैठक से पहले माकपा नेताओं ने डॉ. सिंह पर गलत प्राथमिकताएँ तय करने का भी आरोप लगाया और कहा कि उन्हें करार पर अमल की जिद छोड़कर बेतहाशा मूल्य वृद्धि तथा रिकॉर्ड मुद्रास्फीति से निबटने पर ध्यान देना चाहिए।
लोकसभा में माकपा के उपनेता मोहम्मद सलीम तथा भाकपा के राष्ट्रीय सचिव शमीम फैजी ने यह भी कहा कि प्रधानमंत्री को अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश से किए गए अपने वादे पर अमल को 'राष्ट्रहित' नहीं बताना चाहिए।
फैजी ने तो यहाँ तक कहा कि अगर उन्हें जापान में विकसित देशों के समूह जी-8 की शिखर बैठक मे इस बारे में बुश को अंतिम फैसला बताने की इतनी परवाह है तो उन्हें प्रधानमंत्री पद छोड़ देना चाहिए। उन्होंने कहा कि भारत का प्रधानमंत्री अमेरिका का सेवक नहीं हो सकता।
रेलमंत्री और राजद के प्रमुख लालू प्रसाद ने रविवार को कहा कि संप्रग सरकार नहीं गिरेगी और अमेरिका के साथ किया गया परमाणु करार अंतिम परिणति तक पहुँचेगा।
लालू प्रसाद का यह बयान ऐसे समय आया है, जब वामपंथी दल भारत के सुरक्षा मानक समझौते के लिए आईएईए के पास जाने की स्थिति में मनमोहनसिंह सरकार से समर्थन वापसी की धमकी दे रहे हैं। उन्होंने एक समाचार चैनल से कहा कि चुनाव समय पर होंगे। सरकार नहीं गिरेगी और परमाणु करार भी पारित होगा। समय से पहले चुनाव की संभावना से जुड़े एक सवाल के जवाब में प्रसाद ने कहा कि मैं फिर दोहराता हूँ कि चुनाव तय समय पर होंगे।
भारत-अमेरिकी परमाणु करार पर राजनीतिक संकट के लिए प्रधानमंत्री के जिम्मेदार होने के माकपा के आरोप को खारिज करते हुए विदेशमंत्री प्रणब मुखर्जी ने शनिवार को कहा कि प्रधानमंत्री जो कुछ भी कर रहे हैं, वह देश के व्यापक हित में है।
डेरा बाबा नानक की यात्रा के दौरान मुखर्जी ने कहा प्रधानमंत्री के लिए राष्ट्रीय हित सर्वोच्च है और वे संकट के कारण नहीं हैं, जो कुछ भी वे कर रहे हैं वह देश के व्यापक हित में है।
माकपा महासचिव प्रकाश करात ने इस सप्ताह के शुरू में आरोप लगाया था कि परमाणु करार और मूल्य वृद्धि जैसे अन्य मुद्दों पर संप्रग सरकार और वाम के बीच गतिरोध के लिए सिर्फ प्रधानमंत्री जिम्मेदार हैं।
मुखर्जी ने कहा कि परमाणु करार गतिरोध को लेकर संप्रग सरकार को कोई खतरा नहीं है और यह अपना कार्यकाल पूरा करेगी। उन्होंने कहा सरकार परमाणु करार पर हस्ताक्षर करने की जल्दी में नहीं है।
यह पूछे जाने पर कि सरकार से वाम दलों के समर्थन वापस लेने की स्थिति में क्या सपा गठबंधन में शामिल होगी, उन्होंने कहा हम निगाह रख रहे हैं क्योंकि वे अपनी पार्टी की तीन जुलाई को बैठक कर रहे हैं। उनके रुख को पहले देखते है।
परमाणु करार की पैरवी करते हुए मुखर्जी ने कहा कि बिजली आपूर्ति में चार गुना बढ़ोतरी जो 2030 तक लगभग आठ लाख मेगावाट होगी। बिजली उत्पादन का सर्वश्रेष्ठ और पर्यावरण मित्र तरीका परमाणु स्रोतों से है।
इसपर भी आप शक करेंगे कि संघ पिरवार के पुनरूत्थान में प्रणव बुद्धदेव की निर्णायक भूमिका है। जब भी समर्थन वापसी की नौबत आयी है, इस जोड़ी ने रस्सी पर चलने का करतब कर दिखाया है। संसदीय नौटंकी के सूत्रधार बंगा के एक और कुलीन ब्राहमण सोमनाथ चटर्जी हैं तो साहित्य अकादमी का अध्यक्ष ब्राह्णण देवता सुनील गंगोपाध्याय हैं।
एक नजीर पेश है। आडवाणी और बुद्ध बाबू की घनिष्ठता की। आडवाणी के गृहमंत्रित्व के दौरान दोनों की मुलाकातों के विवरणों पर मुलाहिजा फरमाया जाये। सदरसों में आतंकवादी त्तवों का जमावड़ा और बांग्लादेश मेसे घुसपैठ के मुद्दों पर दोनों की जुगलबंदी पर गौर किया जाये। फिलहाल गोरखालैंड आंदोलन पर दोनों का रवैया देखें। मालूम हो कि संसद में वामपंथियों के समर्थन का भरोसा पाने के बाद बुद्धबाबू की सिफारिश पर ही आडवाणी ने नागरिकता संशोधन विधेयक पास कराया और इस कानूनी अंजाम दिया जा रहा है प्रणव मुखर्जी की अगुवाई में।
राजनैतिक आरक्षण से कोई फायदा नहीं है। जगजीवन राम के उत्थान से मूलनिवासियों का क्या भला हुआ, इतिहास गवाह है। राम विलास पासवान और शरद यादव १९७७ के बाद हर रंग की सत्ता में सिपाहसलार हैं तो लालू और नीतीश का निराला खेल छुपा नहीं है। मायावती ब्राह्मणों के साथ सत्ता शेयर कर रहे हैं। इन दलित नेताओं को ब्राह्मणों के साथ मेलबंधन स्वीकार है , पर राष्ष्ट्रीयताओं के मुद्दे पर कोई जानकारी नहीं है। आदिवासियों के साथ संवाद तक नहीं है। मनुवाद का विरध करते हैं पर द्रविड़ आंदोलन और द्रविड़ सभ्यता से नाता नहीं है। मूलनिवासी हितों की बात करते हैं पर सेज का विरोध नहीं करते। अमेरिकी साम्राज्यवाद या फासीवादी संघपरिवार के खिलाफ इनकी कोई मोर्चाबंदी नहीं है। साम्राज्.ावाद विरोधी फासीवाद विरोधी मूलनिवासी आंदोलन से विश्वास घात करने वाले ब्राह्मण मार्क्सवादी आगे हैं तो दलित नेता कतई पीछे नहीं है।
नतीजतन धूमधड़ाके से भारत की ब्राह्मणवादी संसदीय सत्ता में संघ परिवार की वापसी क तैयारी हो रही है।
मीडिया यह भल गया कि अखबारों और मीडिया में विदेशी पूंजी के जरिए उनकी मेधा और स्वतंत्रता का अपररण करके चंपुओं और दलालों भड़ुवों को मीडिया कर्णधार बनाने की रस्म अदायगी भावी प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने ही की थी। अंग्रेजी पत्रकारिता, भाषा और साहित्य के आगे मातृभाषाओं की हत्या भी संघ परिवार ने नरसिम्हा राव मनमोहन जोड़ी आयातित नवउदारवाद के जरिए किया । जिसके तहत प्राकृतिक आजीविका, भारतीय कृषि, उत्पादन प्रणाली, मूलनिवासी संस्कृति, बोली , राट्रीयताओं का संहार हुआ। अंग्रेजी के बिना, कंप्यूटर ज्ञान के बिना नौकरियों अब असंभव है। भविष्यनिधि और पेंशन को मजाक बना दिया गया। स्थाई नौकरियां अब सपने में भी नहीं मिलती। वीआरएस शुरू हुआ।
इन्हीं संघियों के शासन काल में मणिसाना आयोग के जरिए हर संसकरण के लिए अलग कंपनियां और वेतनमान का निर्माण हुआ। एक ही अखबारसमूह के अंग्रेजी पत्रकारों को न्यूनतम वेतन १५ हजार ौर अधिकतम कुछ भी, तो हिंदीवालों को दशकों से प्रोमोशन नहीं, अधिकतम वेतन १५- १६ हजार। वरिष्ठता और योग्याता ताक पर रखकर अंधेर नगरी चौपट राजा टके सेर भाजी टके सेर खाजा का सिद्धंत लागू हुआ देसी भाषाई अखबारों में। जो मलाईदार हैं, वे बखूब समर्थन करें संघी पुनरूत्थान का , पर जो आम मीडियाकर्मी ह , उन्हें थोड़ा लाज शर्म है या नहीं या फिर कूकूर योनि मुबारक?
सिख विरोधी दंगा, बाबरी विध्वंस, गुजरात नरसंहार की नींव पर खड़े संघ परिवार की आत्मा तीव्र दलित मुसलमान घृणा में ही बसती है।
अमेरिकी राष्ट्रपति पद के चुनाव में डेमोक्रेटिक दल की ओर से उम्मीदवार बनने जा रहे बराक ओबामा को मिल रहे भारतीय अमेरिकियों के समर्थन में इजाफा हो रहा है। अमेरिका के एक शीर्ष दैनिक ने इसके लिए भगवान हनुमान की भाग्यशाली मूर्ति के प्रति धन्यवाद प्रकट किया है।
यह समर्थन उस तस्वीर के प्रकाशित होने के बाद से बढ़ गया है जिसमें खुलासा हुआ था कि 46 वर्षीय सीनेटर ओबामा अपने साथ तांबे से निर्मित हनुमान की छोटी मूर्ति रखते हैं।
वाशिंगटन पोस्ट में प्रकाशित एक लेख के अनुसार जब बात अमेरिकी राजनेताओं की आती है तो बिल क्लिंटन भारतीयों के सबसे चहेते हैं। अखबार ने लिखा कि डेमोक्रेटिक दल के प्राथमिक चुनावों के दौरान यह प्रेम हिलेरी क्लिंटन के प्रति प्रकट किया गया। यह प्रेम विशेषकर भारतीय अमेरिकियों के बीच व्हाइट हाउस की अपनी दौड़ के लिए कोष जुटाने के दौरान देखा गया। अखबार के अनुसार अब भारतीयों ने ओबामा का समर्थन किया है। इसके लिए धन्यवाद भगवान हनुमान को दिया जाना चाहिए।
भारत-अमेरिका परमाणु करार को लेकर वामपंथी दलों के साथ जारी राजनीतिक गतिरोध के मद्देनजर समाजवादी पार्टी को रिझाने की कांग्रेस की कोशिश के सोमवार से गति पकड़ने की संभावना है। अमरसिंह कल अमेरिका से लौट रहे हैं और इसके साथ इस दिशा में प्रयास तेजे होने की संभावना जताई जा रही है।
प्रमुख वामपंथी पार्टियों ने प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह के इस तर्क को खारिज कर दिया है कि अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी आईएईए तथा परमाणु ईंधन आपूर्तिकर्ता देशों के समूह एनएसजी से वार्ताएँ पूरी करने के बाद भी अमेरिका के साथ परमाणु करार पर अमल के लिए देश बाध्य नहीं होगा।
माकपा तथा भाकपा के शीर्ष नेताओं ने दोनों अंतरराष्ट्रीय संगठनों से वार्ता पूरी करने के बाद संसद में उसे रखने के डॉ. सिंह के वक्तव्य को पुराना राग बताते हुए पूछा कि संसद के दोनों सदनों में दो बार बहस हो चुकी है और संसद का बहुमत इस करार के खिलाफ अपनी भावना व्यक्त कर चुका है फिर वे करार पर अमल के बारे में संसद की राय का पालन करने की बात कहकर देश को गुमराह क्यों कर रहे हैं।
भाकपा के महासचिव एबी बर्धन तथा राष्ट्रीय सचिव शमीम फैजी ने कहा कि आईएईए से भारत केन्द्रित परमाणु सुरक्षा उपायों के मसौदे को बोर्ड ऑफ गवर्नर की अंतिम मंजूरी के बाद एनएसजी तथा अमेरिकी कांग्रेस में करार पर अनुमोदन हासिल करने में भारत की कोई भूमिका नहीं बचेगी। इसलिए आईएईए तथा एनएसजी में प्रक्रिया पूरी करने के बाद संसद की राय लेने की बात देश को गुमराह करने की कोशिश के अलावा कुछ नहीं है।
माकपा पोलित ब्यूरो के सदस्य सीताराम येचुरी ने भी बोर्ड ऑफ गवर्नर में अगले कदम के बाद करार के ऑटो पायलट भारत की भूमिका के बिना लागू होने के भाकपा नेताओं की बात दोहराते हुए कहा कि इसके बाद सरकार के लिए कदम वापस खींचना असंभव होगा।
इसलिए वामपंथी पार्टियाँ आईएईए में सुरक्षा उपायों को अंतिम मंजूरी के लिए नहीं जाने देने के अपने रुख पर कायम हैं। पार्टी महासचिव प्रकाश करात ने भी प्रधानमंत्री के ताजा बयान के बारे में सवाल पर पूछा कि इसमें नया क्या है।
उन्होंने पार्टी पोलित ब्यूरो की बैठक के बाद जारी वक्तव्य दुहराते हुए कहा कि सरकार ने आईएईए के बोर्ड ऑफ गवर्नर के समक्ष अगला कदम उठाया तो चारों वामपंथी पार्टियाँ उससे समर्थन वापस ले लेंगी।
अमरसिंह के कल दोपहर बाद अमेरिका से यहाँ पहुँचने के पश्चात कांग्रेस की ओर से सपा नेता मुलायमसिंह यादव के साथ संपर्क के लिए रास्ते खोले जाने की संभावना है।
परमाणु करार को अमल में लाने के लिए संप्रग सरकार की पहल के बाद अगर वामपंथी दल अपना समर्थन वापस ले लेते हैं तो ऐसे में लोकसभा में 39 सदस्यों वाली सपा सरकार बचाने में अहम भूमिका अदा कर सकती है।
बहरहाल मुलायम इसको लेकर संदेह बनाए हुए हैं। उन्होंने कहा कि यूएनपीए की तीन जुलाई की होने वाली बैठक के बाद पार्टी का रुख तय होगा।
एक सवाल के जवाब में मुलायम ने कहा कि हमने जब भी किसी चीज का विरोध किया तो इसका कारण होगा कि वह हमारे सिद्धांत के खिलाफ होगा या लोगों के हित में नहीं होगा। हमने हमेशा उन दलों का साथ दिया है, जो लोगों के लिए काम करते हैं।
भारत-अमेरिका असैनिक परमाणु करार को लेकर संप्रग और माकपा के बीच पैदा हुआ गतिरोध रविवार को उस समय और गहरा गया, जब माकपा ने चेतावनी दी कि अगर केन्द्र की कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार इस नुकसानदेह समझौते के अमल पर आगे बढ़ती है तो वह अन्य वाम दलों के साथ सरकार से अपना समर्थन वापस ले लेगी।
पार्टी पोलित ब्यूरो की रविवार को हुई एक महत्वपूर्ण बैठक के बाद पार्टी महासचिव प्रकाश करात ने कहा कि प्रधानमंत्री तथा कांग्रेस नेतृत्व द्वारा भारत-अमेरिका परमाणु करार पर आगे बढ़ने की जिद के संदर्भ में पोलित ब्यूरो ने संप्रग में कांग्रेस के सहयोगी दलों से अपील की कि वे यह सुनिश्चित करें कि ऐसा कोई कदम नहीं उठाया जाए, जिससे सांप्रदायिक शक्तियों को मदद मिले।
उन्होंने कहा कि पोलित ब्यूरो का मानना है कि सुरक्षा उपाय संबंधी समझौते को आईएईए के संचालक मंडल की मंजूरी के लिए ले जाना परमाणु करार पर वाम-संप्रग समिति की पिछले साल 16 नवंबर को हुई बैठक में बनी समझ का खुला उल्लंघन है।
करात ने पोलित ब्यूरो द्वारा जारी एक बयान पढ़ते हुए कहा कि यदि सरकार ऐसे नुकसानदेह समझौते के अमल पर आगे बढ़ती है, जिसे संसद में बहुमत का समर्थन हासिल नहीं है तो माकपा वामदलों के साथ संप्रग सरकार से समर्थन वापस ले लेगी।
महँगाई के मोर्चे पर सरकार नाकाम : पोलित ब्यूरो ने बढ़ती महँगाई पर भी सरकार को कटघरे में खड़ा करते हुए कहा यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि जब सरकार को महँगाई से निपटने के लिए हरसंभव कदम उठाने चाहिए प्रधानमंत्री तथा कांग्रेस नेतृत्व परमाणु करार को अमल में लाने संबंधी अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश से किए अपने वादे के प्रति ज्यादा चिंतित है।
महँगाई से निपटने में मनमोहन सरकार को बुरी तरह विफल करार देते हुए माकपा ने घोषणा की कि कांग्रेस नेतृत्व की सरकार के परमाणु करार पर राष्ट्रीय हितों की बलि चढ़ाने और महँगाई कम करने में उसकी विफलता का पर्दाफाश करने के लिए वह अन्य वाम दलों के साथ मिलकर पूरे देश में सघन संयुक्त अभियान चलाएगी।
करात ने बताया कि पोलित ब्यूरो ने तेजी से बढ़ रही मुद्रास्फीति पर जो बीते सप्ताह बढ़कर 11.42 तक पहुँच गई भारी चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि सरकार मुद्रास्फीति से निपटने में बुरी तरह विफल रही है। रोजमर्रा की की चीजों के दाम बढ़ने से जनता की कमर टूट रही है और खाद्य वस्तुओं की आसमान छूती कीमतों के कारण गरीबों का जीना मुहाल हो गया है।
पोलित ब्यूरो यह रेखांकित करना चाहता है कि कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार तत्काल ऐसे कदम उठाने से इनकार कर रही है, जिससे महँगाई कम हो और लोगों को राहत मिले।
परमाणु करार पर आगे बढ़ने के प्रधानमंत्री और कांग्रेस नेतृत्व की जिद के कारण पैदा हुए गतिरोध के बीच हुई इस बैठक में पोलित ब्यूरो ने 123 करार का पुन: दृढ़तापूर्वक विरोध किया और कहा कि अमेरिका से सामरिक गठबंधन को मजबूत बनाने वाला यह करार हमारी ऊर्जा सुरक्षा की जरूरतों को पूरा नहीं करता बल्कि देश की स्वतंत्र विदेश नीति तथा सामरिक स्वायत्तता को कमजोर करता है।
पिछले कुछ चुनावों में भाजपा की बढ़ती ताकत के बीच पार्टी ने कहा पोलित ब्यूरो यह याद दिलाना चाहता है कि संप्रग का गठन सांप्रदायिक ताकतों को दूर रखने के लिए किया गया था। अब इस तरह का कदम उठाने और उसके फलस्वरूप सामने आने वाले नतीजों से यह मकसद कमजोर हो जाएगा।
सबसे बड़ा वामपंथी दल माकपा प्रारंभ से ही 123 करार का विरोध कर रहा है, लेकिन इस मसले पर उसके शीर्ष नेताओं की यह पहली बैठक थी और इसमें परमाणु समझौते पर आगे बढ़ने के खिलाफ आगाह करते हुए संप्रग सरकार को खुली चेतावनी दी गई। माकपा ने प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह और कांग्रेस नेतृत्व पर तीखे प्रहार किए।
उधर इस पूरी स्थिति को भाँपते हुए कांग्रेस ने वाम दलों के समर्थन वापस ले लेने की सूरत में सरकार बचाने के लिए कवायद शुरू कर दी है और इस प्रयास के तहत उसने समाजवादी पार्टी से भी संपर्क साधा है।
समाजवादी पार्टी ने कहा कि कांग्रेस के साथ उसकी कटुता पुरानी बात हो चुकी है और राजनीति में कोई स्थायी मित्र या शत्रु नहीं होता।
समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह यादव एक निजी टीवी चैनल को समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच कटु संबंधों के बारे में पूछे गए प्रश्न का जवाब दे रहे थे।
यादव ने कहा कि राजनीति में कोई शत्रु नहीं होता है। विचारधारा के आधार पर मतभेद हो सकते हैं, लेकिन अब यह अध्याय समाप्त हो गया है।
उन्होंने यह भी कहा कि भारत-अमेरिका असैनिक परमाणु करार पर सपा का यूएनपीए के साथ कोई मतभेद नहीं है, जिसके घटकों में अन्नाद्रमुक, आईएनएलडी, तेदेपा, एमडीएमके और एजीपी शामिल हैं।
उत्तरप्रदेश में लोकसभा चुनाव अभियान की शुरुआत में भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनाए जाने के अपने वायदे को नहीं भूले, लेकिन पार्टी की इस रैली में भाजपा अध्यक्ष राजनाथसिंह और पूर्व मुख्यमंत्री कल्याणसिंह की गैर हाजिरी चर्चा का विषय रही।
शहर में शुक्रवार दोपहर से हो रही बारिश के कारण फूलबाग मैदान में काफी कम भीड़ एकत्र हो पाई। उत्तरप्रदेश में होने वाली इस विजय संकल्प रैली में आडवाणी राम मंदिर की बात कर पार्टी कार्यकर्ताओं में जोश भरना नहीं भूले।
उन्होंने कहा कि हिन्दुस्तान की जनता चाहती है कि अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनें। जनता की यह इच्छा अवश्य पूरी होगी, लेकिन साथ ही पार्टी यह भी चाहती है कि देश एक ऐसे मंदिर के रूप में सामने आए जिसमें कोई भूखा न रहे, आम जनता को शुद्ध पानी मिले, सबको शिक्षा मिले तथा प्रत्येक गाँव का पूर्ण विकास हो।
आडवाणी के मंदिर का नाम लेते ही फूलबाग मैदान जय श्रीराम के नारों से गूँज उठा। रैली में मंदिर आंदोलन के मुखिया और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याणसिंह तथा भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथसिंह की कमी लोगों को महसूस हुई। यह दोनों नेता उत्तरप्रदेश के ही हैं तथा राज्य में आयोजित इस पहली रैली में क्यों नहीं आए, इसका जवाब पार्टी के किसी नेता के पास नहीं था।
अमेरिका के कई सांसद और विशेषज्ञ भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु समझौते के जबर्दस्त पैरोकार हैं, पर उनका मानना है कि दोनों मुल्कों के रिश्ते को इस करार को लेकर पैदा हुए गतिरोध से मुक्त रखने की जरूरत है।
इन जन प्रतिनिधियों और विशेषज्ञों का मानना है कि करार के अंजाम तक नहीं पहुंचने के बावजूद दोनों देशों के रिश्तों में खटास नहीं आएगी। अमेरिकी संसद की एक प्रभावशाली समिति के अध्यक्ष और भारतीय हितों के संरक्षक रहे मुखर सांसद गैरी एकरमैन कहते हैं, "भारत-अमेरिकी संबंधों के लिए एटमी करार ही सब कुछ नहीं है। मैं 123 समझौते का जोरदार समर्थन करता हूं, क्योंकि यह ऐतिहासिक समझौता है। इसके बावजूद मेरा मानना है कि करार टूट जाने से रिश्ते के दायरे को बढ़ाने के प्रयास बंद नहीं होंगे।"
उन्होंने याद दिलाया कि जुलाई, 2005 के जिस संयुक्त घोषणा पत्र में एटमी करार की चर्चा थी, उसमें रिश्ते को सुधारने की दिशा में कई और कदम उठाए जाने की भी बात कही गई थी। उसमें कई नए उपायों की चर्चा थी। एकरमैन ने '123 समझौते से आगे भारत-अमेरिका संबंधों का भविष्य' विषय पर आयोजित एक परिचर्चा में यह कहा।
वरिष्ठ रिपब्लिकन सांसद जो विल्सन ने उनकी राय से सहमति जताई। उन्होंने कहा,"जरूरत इसकी है कि दोनों देश इस गतिरोध के दायरे से बाहर निकले और ऊर्जा सुरक्षा, राष्ट्रीय सुरक्षा आदि जैसे मसले पर एक-दूसरे के ईमानदार भागीदार बनें।"
ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूट में दक्षिण एशिया मामलों के विशेषज्ञ स्टीफन पीक़ कोहेन का मानना है कि भारत के वामदलों के अड़ियल रवैये के कारण एटमी करार के अंजाम तक पहुंचने की गुंजाइश क्षीण है। वह मानते हैं कि दूसरे कई क्षेत्रों में सहयोग का दायरा बढ़ाने के प्रयास जारी रहने चाहिए।
प्रधानमंत्री के विशेष दूत श्री श्याम सरन का 10 जनवरी, 2007 को इंडिया हैबिटैट सेंटर में संपर्क कार्यक्रम था जिसमें उन्होंने ‘असैनिक परमाणु सहयोग पर भारत-अमेरिका समझ-बूझ - आगे’ पर अपने विचार व्यक्त किए ।
विशेष दूत ने ऐसे अनेक मुद्दे स्पष्ट किए जिन पर, दोनों देशों में असैनिक परमाणु ऊर्जा सहयोग के लिए अमेरिकी कांग्रेस द्वारा हाल में हाइड एक्ट पारित करने पर चिंता जतायी गई है ।
उन्होंने बताया कि अगले चरणों में निम्नलिखित शामिल होंगे :-
।) असैनिक परमाणु ऊर्जा सहयोग संबंधी द्विपक्षीय भारत-अमेरिका सहयोग समझौता जिसे ‘123 समझौते’ के रूप में जाना जाता है, पर वार्ता करना और उसे संपन्न करना;
।।) भारत द्वारा परमाणु अप्रसार संधि स्वीकार न किए जाने और अपनी सभी परमाणु सुविधाओं पर पूर्ण रक्षोपाय न होने के बावजूद, भारत के साथ असैनिक परमाणु ऊर्जा सहयोग के लिए परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एन एस जी) राष्ट्रों को अनुमति देने के लिए एन एस जी के दिशानिर्देशों में संशोधन; और
।।।) भारत की घोषित असैनिक परमाणु ऊर्जा सुविधाओं को शामिल करते हुए अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के साथ भारत विशिष्ट रक्षोपाय समझौते पर वार्ता ।
विशेष दूत ने बताया कि हाइड एक्ट का महत्व इस तथ्य में है कि यह, अमेरिकी प्रशासन को भारत के साथ असैनिक परमाणु सहयोग करने में अमेरिकी परमाणु ऊर्जा अधिनियम, 1954 के निम्नलिखित मुख्य प्रावधानों के अनुप्रयोग से स्थायी छूट प्रदान करता है :-
।) यह अपेक्षा कि भागीदार देश ने परमाणु विस्फोट न किया हो;
।।) यह अपेक्षा कि उस देश की अपनी सभी परमाणु सुविधाएं रक्षोपायों अर्थात् पूर्ण रक्षोपायों के अंतर्गत हों; और
।।।) यह अपेक्षा कि उस देश का सक्रिय परमाणु हथियार कार्यक्रम न हो जिसमें परमाणु हथियारों का विकास और उत्पादन शामिल है ।
उन्होंने कहा कि ये छूट, स्पष्ट रूप से यह स्वीकार करती हैं कि भारत का सामरिक कार्यक्रम है और उसका वर्तमान परमाणु हथियार कार्यक्रम किसी प्रतिबंध के अधीन नहीं होगा । इसलिए ये छूट, परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्र की सभी महत्वपूर्ण विशेषताएं स्वीकार करती हैं ।
विशेष दूत ने स्पष्ट किया कि भारत-अमेरिका परमाणु समझौता तथा बाद में परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह के दिशानिर्देशों में समायोजन, भारत को अपनी बढ़ती ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा करने में सहायता करेगा तथा प्रौद्योगिकी प्रतिबंध व्यवस्था समाप्त होगी जो पिछले तीन दशकों से भारत पर लागू है ।
बाद में प्रश्नोत्तर काल में विशेष दूत से पूछा गया क्या कुछ ऐसी अपेक्षाएं हैं जिनसे भारत के राष्ट्रीय हितों को आघात पहुंचे, और क्या भारत फिर भी इस समझौते पर आगे बढ़ेगा विशेष दूत ने बताया कि यदि किसी चीज से भारत के राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा होती है, हम ऐसे समझौते पर आगे नहीं बढ़ेंगे । तथापि, पिछले अनेक महीनों में भारत और अमेरिका एक बहुत जटिल और मुश्किल विषय पर वार्ता करते रहे हैं और वे समस्याओं का समाधान कर पाए हैं । उन्होंने रचनात्मक और समस्याओं के समाधान की भावना प्रदर्शित की है । इस भावना को देखते हुए विशेष दूत ने कहा कि ऐसा कोई कारण नहीं है कि शेष मसलों का समाधान न किया जा सके और सफलतापूर्वक समझौता न किया जा सके । उन्होंने कहा कि इस विषय में वह आशावादी हैं । इस संबंध में कि कौन से विशिष्ट मसलों का समाधान किया जाना है, उन्होंने कहा कि भारत, अमेरिकी मूल के प्रयुक्त ईंधन को पुन: उपयोगी बनाने का अधिकार चाहता है ताकि हम तारापुर जैसी स्थिति में फिर न फंस जाएं जब हमारे पास प्रयुक्त ईंधन का भारी भंडार जमा हो गया था । उन्होंने कहा कि अमेरिका ने स्विटजरलैंड, जापान और यूरोटोम को ऐसा अधिकार प्रदान किया है और भारत भी ऐसा ही चाहता है ।
भविष्य में भारत के परमाणु परीक्षण करने के परिणाम का मुद्दा भी उठाया गया । विशेष दूत ने बताया कि अमेरिकी कांग्रेस द्वारा दी गई छूट, भारत द्वारा अतीत में किए गए परीक्षणों से संबंधित है किंतु भविष्य में ऐसे परीक्षण शामिल नहीं हैं । यह शुरू से ही स्पष्ट रहा है कि अमेरिका अथवा परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह के देशों से ऐसी छूट की उम्मीद नहीं है क्योंकि इसके अनेक सदस्यों ने व्यापक परीक्षण प्रतिबंध संधि पर हस्ताक्षर कर दिए हैं और उसका अनुसमर्थन भी कर दिया है ।
इस संदर्भ में उन्होंने बताया कि भारत ने परमाणु परीक्षण पर स्वयं एकतरफा रोक लगाई है किंतु वह इसे कानूनी आश्वासन में परिवर्तित करने के लिए तैयार नहीं है । यदि भविष्य में किसी भी समय भारत, राष्ट्रीय हितों के वशीभूत परीक्षण करने का निर्णय लेता है तो यह किसी कानूनी आश्वासन का उल्लंघन नहीं होगा किंतु हमें इस तथ्य की जानकारी होनी चाहिए कि इसके परिणाम, सहयोग की समाप्ति अथवा अन्य संभावित प्रतिबंधों के संदर्भ में होंगे ।
ईंधन आपूर्ति आश्वासन से संबंधित एक अन्य प्रश्न के उत्तर में विशेष दूत ने कहा कि अमेरिकी प्रशासन ने पुष्टि की है कि इस कानून का कोई भी प्रावधान, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका को ईंधन आपूर्ति आश्वासन सहित 18 जुलाई के संयुक्त वक्तव्य और 2 मार्च की पृथक्करण योजना में भारत को दिए गए वादे को पूरा करने से नहीं रोकेगा ।
उन्होंने कहा कि हमें यह आश्वासन स्वीकार कर लेना चाहिए ।
नई दिल्ली
11 जनवरी, 2007
23 देशों के 130 से भी अधिक विशेषज्ञों और गैरसरकारी संगठनों ने भारत-अमेरिका परमाणु करार की आलोचना करते हुए कहा है कि इससे भारत को मौजूदा वैश्विक परमाणु व्यापार मानकों में छूट मिलेगी और परमाणु अप्रसार व्यवस्था तथा परमाणु निरस्त्रीकरण के प्रयासों को धक्का लगेगा।
इन विशेषज्ञों और गैरसरकारी संगठनों ने लगभग 50 देशों की सरकारों को इस सप्ताह भेजे एक पत्र में भारत-अमेरिका परमाणु करार को अस्तित्व में आने से रोकने के लिए सक्रिय भूमिका निभाने का आह्वान किया गया है। उनकी दलील है कि इस करार के क्रियान्वयन से परमाणु सुरक्षा व्यवस्था और कमजोर होगी तथा परमाणु शस्त्र बनाने में काम आने वाली तकनीकी के प्रसार को रोकने की कोशिशों को धक्का लगेगा। साथ ही इससे भारत के परमाणु हथियारों के भंडार में इजाफा होगा।
इस पत्र को एक अंतरराष्ट्रीय अपील बताते हुए सरकारों से भारत के साथ परमाणु व्यापार पर अतिरिक्त शर्तें और पाबंदियाँ थोपने का आग्रह किया गया है। इसमें भारत को मौजूदा परमाणु सुरक्षा उपायों के अलावा कोई विशेष छूट देने का पुरजोर विरोध करने की अपेक्षा सरकारों से की गई है।
पत्र पर संयुक्त राष्ट्र के निरस्त्रीकरण मामलों के पूर्व अवर सचिव और वर्ष 1995 में हुए परमाणु निरस्त्रीकरण संधि समीक्षा और विस्तार सम्मेलन के अध्यक्ष जयंत धनपाल,हिरोशिमा और नागासाकी के मेयरों, टोक्यो आधारित सिटीजंस न्यूक्लियर इनर्फोमेशन सेंटर और वाशिंगटन आधारित आर्म्स कंट्रोल एसोसिएशन सहित कई गैरसरकारी संगठनों और विशेषज्ञों के हस्ताक्षर हैं।
अपील में कहा गया है कि परमाणु आपूर्तिकर्ता देशों के समूह के सदस्यों को किसी भी हालत में भारत को प्लूटोनियम प्रसंस्करण, यूरेनियम संवर्द्धन और भारी जल उत्पादन तकनीक हस्तांतरित नहीं करनी चाहिए जिसका इस्तेमाल परमाणु शस्त्र बनाने में हो सकता है।
उल्लेखनीय है कि अगले कुछ दिनों में 35 सदस्यीय अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी आईएईए और 45 सदस्यीय एनएसजी भारत-अमेरिका परमाणु करार के मुद्दे पर चर्चा करने वाले हैं।
पिछले साल भारत की अर्थव्यवस्था 9 प्रतिशत की दर से बढ़ी, जिसने इसे चीन के बाद विश्व में सबस तेजी से बढ़ने वाली महत्वपूर्ण अर्थव्यवस्था बना दिया । परन्तु इस समाचार का दूसरा पहलू भी है । इस बात की चिंता सता रही है कि कच्चे तेल की अधिक कीमत और तेजी से बढ़ती मुद्रास्फीति विकास की रफ्तार को धीमी कर देगी । नई दिल्ली से अंजना पसरीचा की रिपोर्ट-
गत् वित्तीय वर्ष में भारत ने आर्थिक विकास का लक्ष्य अपेक्षित 9 प्रतिशत से अधिक रखा है । यह लगातार तीसरा वर्ष है, जब भारत की अर्थव्यवस्था में इस गति से वृद्धि हुई है ।
इस आंकड़े से सरकार का उत्साह से बढ़ना चाहिए था, लेकिन इन दो चुनौतियों का सामना करते हुए भारतीय अधिकारी वृद्धि दर का जश्न नहीं मना रहे । ये दो चुनौतियां हैं- कच्चे तेल की वैश्विक कीमतों में वृद्धि और बढ़ती हुई मुद्रास्फीति ।
कच्चे तेल की कीमतों में रिकॉर्ड वृद्धि भारत को गंभीर तरीके से नुकसान पहुंचा रही है, क्योंकि यह अपनी जरूरत का 70 प्रतिशत कच्चा तेल आयात करता है ।
सरकार पेट्रोलियम उत्पादों पर भारी सब्सिडी देती है । लेकिन सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियां अब घाटे की वजह से खस्ताहाल हो रही हैं और उन्होंने चेतावनी दी है कि अगर तेल की कीमतों में इजाफा नहीं किया गया तो उन्हें मुद्रा संकट का सामना करना पड़ सकता है ।
सरकार ईंधन तेलों की कीमतों में जल्द ही वृद्धि करने वाली है । लेकिन इस बात की चिंता है कि इस कदम से मुद्रास्फिति बढ़ेगी, जो पहले से ही बहुच ऊंची है ।
पिछले साल भारत की मुद्रास्फिति 8 प्रतिशत को पार कर गई, जो पिछले चार सालों में सबसे उच्चतम स्तर है ।
वित्तमंत्री पी. चिदंबरम ने कहा कि सरकार कीमतों को स्थिर करने की कोशिश कर रही है । लेकिन उन्होंने कहा कि इसका कोई आसान हल या अविलंब समाधान नहीं है ।
उन्होंने कहा- 8.1 प्रतिशत मुद्रास्फिति की दर से कोई भी खुश नहीं है । 8.1 प्रतिशत मुद्रास्फीति की दर चिंताजनक है । लेकिन हमें भरोसा है कि इस स्थिति पर हम काबू पाएंगे और कुछ समय में मुद्रास्फीति पर नियंत्रण कर लिया जाएगा । निश्चय ही यह कच्चे तेल की कीमतों और उपभोक्ता वस्तुओं के मूल्यों पर निर्भर है ।
इसके बावजूद वित्तमंत्री ने सकारात्मक रुख अपनाते हुए कहा कि मौजूदा वित्त वर्ष में अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 8.5 प्रतिशत बरकरार रहेगी ।
अर्थशास्त्रियों का कहना है कि यह काम इतना आसान नहीं होने वाला है । पहले से ही इस बात के संकेत मिल रहे हैं कि अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर कुछ धीमी हो रही है । उत्पादन क्षेत्रों का विकास आंशिक रूप से इस वर्ष के शुरू में ही धीमा हो गया है, इसका एक कारण यह भी बताया जा रहा है कि उच्च कीमतों से आहत उपभोक्ता मांगों में कमी आई है ।
वास्तव में आने वाला वर्ष भारत के लिए चुनौतीपूर्ण हो सकता है । अर्थशास्त्रियों का कहना है कि सरकार अर्थव्यवस्था के विकास दर ऊंचा रखने और मुद्रास्फिति को नियंत्रण में रखने की हतोत्साह करने वाली चुनौती का सामना कर रही है, जिससे देश में लाखों गरीब लोग आहत हो रहे हैं ।
आतंक के खिलाफ बाउचर पहुँचे पाक
आउटसोर्सिंग पर ओबामा का कड़ा रुख
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शुक्रवार, 14 दिसंबर, 2007 को 12:32 GMT तक के समाचार
राजेश जोशी
बीबीसी संवाददाता, लंदन
नंदीग्राम पर सीपीएम काडर की कशमकश
पश्चिम बंगाल में तीस साल की सत्ता के दौरान मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी को शायद ही कभी इतने बड़े पैमाने पर चौतरफ़ा आलोचना का सामना करना पड़ा हो.
ज़मीन बचाने के लिए आंदोलन कर रहे नंदीग्राम के किसानों पर 14 मार्च 2007 को पुलिस ने गोलियाँ चलाईं जिसमें कम से कम 14 लोग मारे गए.
हालाँकि मार्क्सवादी पार्टी और सरकार ने इस गोलीकांड को दुर्भाग्यपूर्ण बताया लेकिन आलोचना थमी नहीं. पार्टी विरोधी तो अलग, ख़ुद वामपंथी-उदारवादी विचारधारा के लोग भी नंदीग्राम की घटनाओं के ख़िलाफ़ उठ खड़े हुए. मेधा पाटकर ने मुख्यमंत्री बुद्धदेब भट्टाचार्य के इस्तीफ़े की माँग की.
राज्य सरकार से पुरस्कार पाने वाले सुमित सरकार और तनिका सरकार जैसे प्रतिष्ठित वामपंथी इतिहासकार भी नंदीग्राम की घटनाओं के विरोध में मार्क्सवादी पार्टी के ख़िलाफ़ हो गए. उन्होंने अपना विरोध सिर्फ़ शब्दों तक ही सीमित नहीं रखा बल्कि राज्य सरकार का पुरस्कार लौटा कर विरोध दर्ज करवाया. कोलकाता की सड़कों पर वामपंथी बुद्धिजीवियों ने ही मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के ख़िलाफ़ बड़े-बड़े जुलूस निकाले.
विरोधी विचारधारा के हमले को तो शायद मार्क्सवादी पार्टी झेल जाती लेकिन वामपंथी ख़ेमे के भीतर से ही आ रही विरोध की आवाज़ों का सामना करना उसके लिए मुश्किल हो रहा था. प्रतिष्ठा बचाने के लिए पार्टी समर्थकों का ध्यान नोम चोम्स्की, तारिक़ अली और हॉवर्ड ज़िन जैसे अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त वामपंथी बुद्धिजीवियों की ओर गया. कुछ ही दिनों बाद इन बुद्धिजीवियों की ओर से एक बयान जारी किया गया. इस बयान में आपसी मतभेद दूर करने की अपील की गई थी और कहा गया कि “ये समय मतभेद पैदा करने का नहीं है क्योंकि मतभेदों का आधार अब बचा ही नहीं है.”
लेकिन ये पासा उलटा पड़ गया. नोम चोम्स्की और तारिक़ अली का अंततराष्ट्रीय स्तर पर ईमानदार और जुझारू बुद्धिजीवियों के तौर पर नाम भले ही हो, लेकिन उन्हें शायद ये अंदाज़ा नहीं रहा होगा कि मार्क्सवादी पार्टी का बचाव करने के लिए उन्हें लेने के देने पड़ जाएँगे. उन्हीं की विचारधारा के लोग उनके ख़िलाफ़ हो गए, मसलन अरुंधति रॉय, महाश्वेता देवी, सुमित सरकार और तनिका सरकार जैसे बुद्धिजीवियों ने नोम चोम्स्की और तारिक़ अली के बयान की आलोचना की.
बयानबाज़ी
एक जवाबी बयान में लेखिका अरुंधति रॉय, महाश्वेता देवी आदि ने नोम चोम्स्की और तारिक़ अली के प्रति अपनी नाराज़गी खुले शब्दों में ज़ाहिर की. इसके बाद चोम्स्की आदि को अपनी सफ़ाई में एक और बयान जारी करना पड़ा. तारिक़ अली और चोम्स्की की आलोचना करने वालों में कोलकाता के पास जादबपुर विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफ़ेसर कुणाल चट्टोपाध्याय भी शामिल हैं. वो नंदीग्राम में मार्क्सवादी पार्टी की भूमिका के कट्टर आलोचकों में से हैं.
लेकिन जहाँ देश भर में मार्क्सवादी पार्टी की आलोचना हो रही है, नोम चोम्स्की जैसे बुद्धिजीवी उनके बचाव में क्यों आए? प्रोफ़ेसर कुणाल चट्टोपाध्याय कहते हैं कि मार्क्सवादी पार्टी इतने बरसों से सत्ता में है इसलिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसका उदाहरण दिया जाता है. उनका कहना था कि चोम्स्की आदि के बयान पढ़कर हमें ऐसा लगा कि जैसे कहा जा रहा हो कि ठीक है कुछ समस्याएँ ज़रूर हैं नंदीग्राम में लेकिन चूँकि अमरीकी साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई सबसे बड़ा मुद्दा है, इसलिए आपको इन चीज़ों को भूल जाना चाहिए.
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन के महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य मानते हैं कि बयान देने से पहले नोम चोम्स्की को सोचना चाहिए था. उन्होंने बीबीसी से एक बातचीत में कहा कि चोम्स्की की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विश्वसनीयता है. अगर किसी दूसरे देश के बारे में उन्होंने बयान दिया होता तो हम उस पर पूरी तरह विश्वास कर लेते.
लेकिन मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता और सांसद नीलोत्पल बसु का नज़रिया अलग है. वो कहते हैं कि जो बात अरुंधति रॉय और महाश्वेता देवी नहीं समझ पाईं, नोम चोम्स्की उसे समझ गए. उन्होंने महाश्वेता देवी पर दक्षिणपंथियों के साथ मिलकर वाममोर्चा सरकार का विरोध करने का आरोप लगाया.
नीलोप्तल बसु को अरुंधति रॉय की भूमिका पर भी ऐतराज़ है. उन्होंने इस बात पर ताज्जुब ज़ाहिर किया कि एक छोर पर आनंदमार्गी तो दूसरे छोर पर अतिवामपंथी माओवादी – सभी मार्क्सवादी पार्टी के ख़िलाफ़ कैसे एकजुट हो गए?
उन्होंने वामपंथी इतिहासकार सुमित सरकार की आलोचना से भी परहेज़ नहीं किया है. नीलोत्पल बसु ने सुमित सरकार पर नंदीग्राम में हिंसा भड़काने का आरोप लगाया.
अगर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के समर्थक नोम चोम्स्की और तारीक़ अली से बयान दिलवाकर छवि सुधारने की मंशा रखते हों तो ये उन्हें दाँव उलटा पड़ गया है. और शायद ये बयान उन पर भी उलटा पड़ गया जो अमरीकी साम्राज्यवाद के ख़तरे के प्रति आगाह करते हुए नंदीग्राम जैसे आंदोलनों को भूल जाने की सलाह दे रहे थे.
नंदीग्राम से खुलती मार्क्सवादी भूमिसुधारों की पोल
http://www.tehelkahindi.com/SthaayeeStambh/KhulaaManch/268.html
नंदीग्राम की डरावनी कहानियों का रंग उतरना शुरू हो गया हैं. ऐसे में इस तूफान के पीछे के कारणों को जानना महत्वपूर्ण है.
पहेली जैसा प्रश्न ये है कि सीपीएम ने नंदीग्राम मामले में जो हुआ वो क्यों होने किया? शायद वे उस चीनी नेतृत्व के पदचिन्हों पर चलने का प्रयास कर रहे रहे थे, जिसने खुलेआम थिआनानमेन चौक पर छात्रों के प्रदर्शन का दमन किया था और उसके बाद इतना कड़ा रुख अपनाया गया कि बीजिंग के महाशक्ति के रूप में तेज़ी से उभरने की वजह से अब इस बारे में कोई बात भी नहीं करना चाहता.
हालांकि, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी विशेष आर्थिक क्षेत्रों की जरूरत के सवाल पर एक मत नहीं हैं. पार्टी के ज्यादातर सदस्य इण्डोनेशियाई भागीदारी को लेकर सशंकित हैं. पार्टी का एक दूसरा बड़ा खेमा किसानों की जमीनें अधिग्रहित करने के मुद्दे पर खुश नहीं है. फिर ऐसा क्या है कि पार्टी नेता भूमि अधिग्रहण के खिलाफ किसानों के आंदोलन को दबाने की कोशिशें कर रहे थे? इसका जवाब साफ है. दरअसल नंदीग्राम में पश्चिम बंगाल के भूमिसुधार की कई कड़वी सच्चाईयां दफन हैं.
भूमि वितरण के मामले में पार्टी ने अल्पसंख्यकों के साथ, जिसमें बांग्लादेश से आए मुसलमान भी शामिल थे, बड़ा पक्षपात किया. लाभार्थियों को जमीनों पर कब्जा तो दे दिया गया, लेकिन उनके मालिकाना हक देने वाले कागजात उन्हें नहीं दिए गए. ये कागजात आज तक सीपीएम के दफ्तरों में हैं. |
इससे अलग दूसरा कारण ये कि पार्टी के बहुत से कैडरों की निगाहें उस सूत्र पर भी गड़ी हुई हैं, जिसके तहत वे करोड़ों की सेज परियोजना में अपने लाभ का गणित हल कर सकते हैं.
पूरा मिदनापुर जिला और खासतौर से नंदीग्राम क्षेत्र मार्क्सवादियों का गढ़ माना जाता रहा है. वहां भूमि सुधारों की प्रक्रिया के दौरान बड़ा उत्साह देखा गया क्योंकि ज़मींदारों से अपनी खुन्नस निकालना, उन्हें चिढ़ाना उस समय पार्टी समर्थकों का एक पसंदीदा सिद्धांत बन गया था. दूसरी ओर भूमि वितरण के मामले में पार्टी ने अल्पसंख्यकों के साथ, जिसमें बांग्लादेश से आए मुसलमान भी शामिल थे, बड़ा पक्षपात किया. लाभार्थियों को जमीनों पर कब्जा तो दे दिया गया, लेकिन उनके मालिकाना हक देने वाले कागजात उन्हें नहीं दिए गए. ये कागजात आज तक सीपीएम के दफ्तरों में हैं. यानी जमीनों पर कागजी कब्जा एक तरह से सीपीएम के पास है. कागजातों का सीपीएम के पास होना ही वो राज़ है, जिसके कारण सीपीएम अचानक उस क्षेत्र के 80 प्रतिशत तक वोट झटकने की स्थिति में पहुंच गई. लोग अपनी ज़मीन छिन जाने के डर से सीपीएम का हर हाल में साथ देने के लिए मजबूर थे. जब सेज का प्रस्ताव आया तो इस क्षेत्र को चुना भी इसीलिए गया. सीपीएम नेता इस अतिविश्वास में थे कि यहां के लोग इस मुद्दे पर ज़्यादा विरोध करने की स्थिति में नहीं हैं क्योंकि जमीनों के कागजात तो पार्टी के कब्जे में थे.
लेकिन, जिस बिंदु पर सीपीएम गौर नहीं कर पाई, वो ये कि बिना कागजातों के भी भूमि नंदीग्राम के लोगों के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन चुकी थी. बस पहले से ही पक्षपात के शिकार किसानों ने छाछ भी फूंक-फूंक कर पीने का निर्णय लिया. उन्होंने भूमि उच्छेद प्रतिरोध समिति(बीयूपीसी) के बैनर तले अपने को संगठित किया और राज्य पुलिस, प्रशासन और सीपीएम के अनधिकृत बाहुबलियों से जमकर लोहा लिया. 14 मार्च, 2007 को हुए संघर्ष में 140 से ज्यादा किसान मारे गए, सैकड़ों घायल हो गए. नतीजा ये निकला कि सीपीएम समर्थकों का उस क्षेत्र के गांवों में रह पाना मुश्किल हो गया. भाग कर सभी ने खेजुरी के शरणार्थी शिविर में शरण ली.
नवम्बर से पहले अधिग्रहण का विरोध कर रहे बिना कागजातों की ज़मीन वाले लोगों को सबक सिखाना ज़रूरी हो गया. सीपीएम की योजना के मुताबिक अब तक इन किसानों द्वारा जोती जा रही भूमि पर पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा कब्जा किया जाना था. केवल कागजी कब्जे से तो कोई मकसद हासिल होने वाला था नहीं जब जमीन पर असल कब्जा अधिग्रहण का विरोध कर रहे किसानों का था. और ज्यादा दिन अगर ये सब चलता तो ये बात भी दुनिया के सामने आ जाती कि भूमि सुधारों में दी गयी ज़मीनों के कागजात सीपीएम के ऑफिसों में रखे हुए हैं.
दुख इस बात का है कि कई राज्यों में कांग्रेस भी कुछ ऐसी ही कार्य-प्रणाली अपना रही है. आपात भूमि सुधार के दौरान जिन लोगों ने जमीनें पाईं थीं, उनमें से बहुत-से लोग अब खेती में रुचि नहीं रखते. बहुत सारे जो पिछड़ी जातियों से संबंधित हैं, आरक्षण के तहत नौकरी पा गए और शहरों में चले गए गए. लिहाजा वे बस नाम के ही भूस्वामी रह गए. स्थानीय दबंग नेता अनपढ़ गरीब किसानों को इन नाममात्र के भूस्वामियों के रूप में दिखा कर पावर ऑफ़ अटॉर्नी अपने किसी आदमी के नाम करवा देते हैं. बाद में इन जमीनों को किसी अनजान अप्रवासी भारतीय को बेच दिया जाता है. ये लोग जमीनों को एक लाभकारी निवेश के रूप में देखते हैं. यानी कि जो काम महाराष्ट्र में कांग्रेस कर रही है वही काम नंदीग्राम में वामपंथी कर रहे हैं.
शरद जोशी
(लेखक राज्य सभा सदस्य और किसानों के मुद्दों से जुड़ी संस्था शेतकरी संगठना के संस्थापक हैं)