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Tuesday, February 21, 2012

प्रधानमंत्री पद की आस में (09:41:19 PM) 22, Feb, 2012, Wednesday

प्रधानमंत्री पद की आस में
(09:41:19 PM) 22, Feb, 2012, Wednesday


प्रधानमंत्री पद की आस में
(09:41:19 PM) 22, Feb, 2012, Wednesday
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सुभाष गाताड़े
भारतीय जनता पार्टी, हिन्दोस्तां की तमाम पार्टियों में अव्वल समझी जा सकती है, जिसमें अपने आप को हुकूमते हिन्दोस्तां की बागडोर सम्हालने के लिए सबसे काबिल समझनेवाले और उसके लिए इन्तजार में लगेमुन्तज़िर प्रधानमंत्रियों की तादाद सबसे अधिक है। जानने योग्य है कि 2009 के चुनावों तक -जिसमें 2004 की तरह उन्हें दुबारा शिकस्त खानी पड़ी थी - आधिकारिक तौर पर लालकृष्ण आडवाणी का ही नाम आता था, मगर अब हालात बदल गए हैं। 
 ताजा गिनती के मुताबिक फिलवक्त इस फेहरिस्त में कमसे सात आठ नाम चल रहे हैं जबकि 2014 का चुनाव अभी कम से कम दो साल दूर है। आडवाणी के अलावा, सुषमा स्वराय, अरूण जेटली, जसवन्त सिंह, यशवन्त सिन्हा, राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी और नरेन्द्र मोदी जैसे लोग इस सूची में शामिल बताए जाते हैं। दिलचस्प है कि अकेले आडवाणी को छोड़ कर - जिनका इस पद के लिए इन्तज़ार नए रेकार्ड कायम करता दिख रहा है - कोई भी साफ तौर पर अपनी उम्मीदवारी जाहिर नहीं किया है, यहां तक कि पूछे जाने पर वह यही बयान देते हैं कि वह इस दौड़ में शामिल नहीं हैं। पिछले दिनों गजब हुआ जब पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने नरेन्द्र मोदी से मुलाकात के बाद पत्रकारों से खुल कर कहा कि मोदी में पार्टी अध्यक्ष एवं प्रधानमंत्री बनने के गुण हैं। जब पार्टी के अन्दर आडवाणी गुट की तरफ से इस बात का प्रतिवाद हुआ तब उन्होंने झट् से बयान दे दिया कि उनके बयान को तोड़ा मरोड़ा गया है। इसके चन्द रोज बाद फिर राजनाथ सिंह का वक्तव्य आया कि इस पद के लिए आडवाणी ही एकमात्र काबिल व्यक्ति हैं। खैर यह सिलसिला 2014 के चुनाव तक आते आते कहां तक पहुंचेगा इसका फिलवक्त अन्दाज़ा नहीं लगाया जा सकता। कई ऐसे लोग भी हैं जो मन ही मन इसकी आंस पाले हुए दिखते हैं, मगर इस पर मौन रहना उचित समझते हैं। समय समय पर एक दूसरे को निपटाने का खेल भी चलता रहता है। याद रहे बिहार चुनावों की तैयारियों से नरेन्द्र मोदी को दूर ही रखा गया था। उन दिनों सुषमा स्वराय द्वारा दिया गया बयान भी चर्चित हुआ था जिसमें उन्होंने कहा था कि च्मोदी का मैजिक हर जगह नहीं चलता है।मोदी के दूर रहने के बावजूद जनता दल यू एवं भाजपा के गठबन्धन को भारी सफलता मिली थी और भाजपा की सीटों में भी बढोत्तरी हुई थीं। 
  प्रधानमंत्रीपद की आस में मुन्तज़िर इतने सारे प्रत्याशियों का एक नकारात्मक असर यह हुआ है कि सत्ताधारी कांग्रेस को कहीं से वह तगड़ी चुनौती नहीं दे पा रहे हैं और सारी बागडोर पार्टी के बाहर के लोगों - फिर चाहे अण्णा हजारे जैसे सन्त हों या सुब्रहमण्यम स्वामी जैसे विवादास्पद व्यक्ति हों - के हाथों में ही दिखती है। सभी चूंकि 2014 की तैयारियों में लगे हैं इसलिए गोलबन्दी इसी हिसाब से चल रही है। उत्तर प्रदेश के ताजा चुनावों की तैयारियों को देखें या पंजाब, उत्तराखण्ड के चुनावों की तैयारियों को देखें, इन सभी नेताओं ने इसी हिसाब से प्रचार किया है कि पार्टी की दुर्गत हो (जिसकी सम्भावनाएं प्रबल बतायी जाती हैं) तो वह अपयश उनके माथे न लगे। जनाब मोदी इस प्रचार के लिए अभी तक निकले ही नहीं हैं। उन्हें शायद इस बात का अन्दाजा हो चुका है कि यू पी में पार्टी चौथे नम्बर पर तथा बाकी प्रान्तों में विपक्ष की भूमिका में पहुंचने जा रही है, इसलिए वह स्टार कम्पेनर की छवि को बरकरार रखना चाहते हैं।  आडवाणी की उम्र एवं संघ परिवार के साथ उनके ठण्डे गरम होते रिश्ते के मद्देनजर अगर हम इस पद के लिए सबसे तगड़े दावेदार कहे जा सकनेवाले नरेन्द्र मोदी को देखें तो कुछ अन्य दिलचस्प बातें देखने को मिलती हैं। मसलन भाजपा के यह एकमात्र ऐसे नेता हैं जिनकी विदेश यात्रा पर ही नहीं देश के अन्दर कुछ सूबों की यात्रा पर अनधिकृत पाबन्दी लगी है।  यह पाबन्दी दो कारणों से है एक तो मोदी की अल्पसंख्यकविरोधी छवि के चलते स्थानीय भाजपाइयों को डर लगता है कि वह प्रचार के लिए आएंगे तो अपने आप ध्रुवीकरण हो जाएगा, दूसरी पाबन्दी उनके प्रोजेक्शन को लेकर है। सूत न कपास और जुलाहे में आपस में लठ्ठम लठ्ठा की याद दिलानेवाले भाजपा के इस आन्तरिक सत्ता संघर्ष की छायाएं सूबों के स्तर पर भी देखी जा सकती हैं। यह अकारण नहीं कि उत्तर प्रदेश के चुनावों में पार्टी के चेहरे के तौर पर अटल बिहारी वाजपेयी की छवि को प्रोजेक्ट किया गया है। एक ऐसा शख्स जो शारीरिक स्वास्थ्य की जटिलताओं आदि के चलते विगत पांच साल से अघोषित रिटायरमेण्ट में है।  प्रश्न उठता है कि सर्वोच्च पद के लिए आपस में हो रही इस रस्साकशी को किस तरह समझा जाए ?  इसे दो स्तरों पर समझने की आवश्यकता है । एक यह संकट हिन्दु राष्ट्र के निर्माण के उस मध्ययुगीन एजेण्डा का संकट है, जिसे संघ भाजपा 21 वीं सदी में पूरा करना चाह रहे हैं। यह एक तरह से एक ऐसी यात्रा में निकलने की कोशिश है जब कि पांव पीछे की तरह मुड़े हों। 
 दूसरे यह संकट संघ एवं भाजपा के आपसी रिश्तों से भी उपजा है जिसमें संघ जैसा एक ऐसा निकाय जिसकी जनता के प्रति कोई जवाबदेही न हो,उसके द्वारा भाजपा जैसे एक दूसरे ऐसे निकाय जिसे जनता की अदालत में जाना पड़ता हो,उसकी सरगर्मियों को नियंत्रित करते रहने के तनावों से उपजा है। कई सारे प्रांतों में सरकार सम्हाल रही भाजपा जैसी पार्टी में ही यह मुमकिन है कि वहां फिलवक्त ऐसा शख्स सुप्रीमो बना दिया गया है, जिसने अभी तक निगम पार्षद का चुनाव भी अपने बलबूते न जीता हो और जिसकी सबसे बड़ी सलाहियत संघ के रिमोट कन्ट्रोल से अपने आप को संचालित होते रहने के प्रति सहमति देने की है।

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