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Monday, February 6, 2012

भाषाओं का लोक सर्वेक्षण

भाषाओं का लोक सर्वेक्षण


Monday, 06 February 2012 09:47

उमा भट्ट 
जनसत्ता 6 जनवरी, 2012: मार्च 2010 में वडोदरा में भाषा संशोधन एवं प्रकाशन केंद्र की ओर से भाषा संगम नाम से एक आयोजन हुआ था। भाषा संगम यानी भारत की तमाम भाषाओं का संगम। छोटी-बड़ी सब भाषाओं का। प्रसिद्ध भाषाशास्त्री देवीप्रसन्न पटनायक ने इसे भाषाओं का महामिलन कहा। कई तरह की बातें इस भाषा संगम में सामने आर्इं। मसलन, हमारी शिक्षा व्यवस्था ने हमारी भाषाओं के लिए संकट पैदा किया है। अगर हिंदी शिक्षा का माध्यम है तो कुमाऊंनी या गढ़वाली या बघाटी या मुंडारी के लिए संकट पैदा हो जाता है। अगर अंग्रेजी शिक्षा का माध्यम है तो हिंदी संकटग्रस्त हो जाती है। कुछ भाषाओं का वर्चस्व बहुत-सी भाषाओं को महत्त्वहीन बना देता है।
भाषाएं भी अपना वर्चस्व कायम करती हैं या कहा जाए कि वर्चस्व कायम करने के लिए भाषा को भी औजार की तरह इस्तेमाल किया जाता है। यह प्रवृत्ति खत्म होनी चाहिए। कई बार भाषागत हीनता विषयगत हीनता भी बन जाती है। अगर आदिवासियों की भाषा को हीनता की दृष्टि से देखा जा रहा है तो इसका अभिप्राय यह भी है कि उनके समाज के विविध पक्षों को भी हीनता की दृष्टि से देखा जा रहा है। उनके समाज की बातें पाठ्यक्रमों में स्थान नहीं पा रही हैं, पर आदिवासी छात्रों को गैर-आदिवासी समाज के जीवन के बारे में बहुत कुछ पढ़ना पढ़ता है।
अपने समाज से घृणा न करनी हो तो मातृभाषा में शिक्षा जरूरी है, बहुत-से लोग अब ऐसा मानने लगे हैं। भले ही तीन या चार वर्ष तक मातृभाषा में शिक्षा देने के बाद फिर दूसरी भाषा सिखाई जाए। फिर दो वर्ष बाद तीसरी भाषा सिखाई जाए। इस प्रकार हमें एक बहुभाषी समाज में रहने की आदत और चातुर्य सीखना होगा। अपनी भाषा को बोलते हुए दूसरी भाषाओं को सम्मान देना जरूरी है। यह बहुत अच्छा नहीं हुआ कि सिंधी भाषी लोगों ने अपनी मातृभाषा को छोड़ कर अंग्रेजी को अपना लिया। पाकिस्तान के पंजाबियों ने उर्दू अपना ली या कश्मीरियों ने उर्दू को स्वीकार कर लिया।
आज हम भाषा को सरकार और बाजार से जोड़ कर पहले देखते हैं कि भाषा के लिए अगर कुछ करेगी तो सरकार ही करेगी। या अमुक सरकार की अमुक भाषा के संदर्भ में क्या नीति है। या बाजार में अमुक भाषा को अपनाने से क्या फायदा या नुकसान होगा। जबकि सीधी-सी बात यह है कि भाषा का संबंध जीवन और समाज से है। जीवन से जोड़ कर भाषाओं को देखा जाना जरूरी है। भाषा हमारी पहचान है। अपनी पहचान छिपाना चाहें तो हम अपनी भाषा को छिपाने की कोशिश करते हैं। महाराष्ट्र में पारधी समुदाय क्रिमिनल एक्ट 1876 के अंतर्गत दर्ज है। पारधी भाषा बोलने से उन्हें अपराधी समझा जाता है। इसलिए मराठी या गुजराती में बोल कर वे अपनी पहचान छिपाते हैं।
भाषाओं के लुप्त होने के प्रति बार-बार चिंता जताने का प्रचलन आजकल बढ़-सा गया है। यूनेस्को ने जीवित, मृत और संकटग्रस्त भाषाओं की सूची जारी की तो इस बात को और बल मिला। कहा जाता है कि एक भाषा के साथ एक पूरी संस्कृति लुप्त हो जाती है, उस भाषा में बोलने वालों के रीति-रिवाज, खान-पान, विद्याएं, सब लुप्त हो जाती हैं। एक बड़ा सवाल सबके सामने है कि लुप्त होती भाषाओं को कैसे जीवित रखा जाए? यह समस्या पूरे विश्व की है। सांस्कृतिक और आर्थिक साम्राज्यवाद से लड़ाई लड़े बगैर भाषाओं और संस्कृतियों को बचाना संभव नहीं है।
हमारे देश में अपनी-अपनी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराने की प्रतिस्पर्धा है। जब सब ओर से यह मांग उठती है तो क्यों नहीं देश की सब भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर दिया जाता? इस भाव से कि ये सभी भाषाएं इस देश के निवासियों की भाषाएं हैं। आठवीं अनुसूची में शामिल होने से भाषाओं को सरकारी मान्यता मिलती है। कुछ बजट उनके नाम पर भी आबंटित हो जाता है। प्रचार-प्रसार, किताबों का प्रकाशन, पुरस्कारों का वितरण आदि सुविधाएं भाषा के नाम पर कुछ लोग ले पाते हैं। उस भाषा को बोलने वाली आम जनता को इससे क्या हानि या लाभ है, इसका कोई आकलन नहीं है।
झारखंड में लगभग तीस आदिवासी समुदाय हैं। प्रत्येक की अपनी भाषा है। हो भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल कराने के लिए हो भाषा-भाषी प्रयासरत हैं, लेकिन बाकी भाषाएं? उनका क्या होगा? वे क्यों न आठवीं अनुसूची में शामिल हों? हो भाषा-भाषी चाहते हैं कि हो शिक्षा का माध्यम बने, लेकिन पाठ्यक्रम में संस्कृत को महत्त्व दिया गया है, हो को नहीं। जबकि आदिवासियों के जीवन में हो का महत्त्व है, संस्कृत का नहीं। झारखंड में संस्कृत अध्यापकों की नियुक्ति हो जाती है।
अपनी भाषा में न पढ़ पाने के कारण बच्चे शिक्षा में रुचि नहीं लेते और गैर-आदिवासी शिक्षक न केवल उनकी भाषा नहीं समझते, वे उनके समाज को भी हेय दृष्टि से देखते हैं। क्षेत्र के


कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कक्षा पांच तक की पाठ््यपुस्तकें हो भाषा में लिखी हैं और सरकार ने वे छापी भी हैं। पर हो भाषा के शिक्षा का माध्यम न होने से किताबें गोदामों में बंद पड़ी हैं। जिस क्षेत्र में जो भी कर्मचारी-शिक्षक-अधिकारी नियुक्त हों, उनके लिए उस क्षेत्र की स्थानीय भाषाओं को जानना अनिवार्य होना चाहिए। निश्चय ही एकाधिक भाषाओं को जानने से व्यक्तित्व की समृद्धि बढ़ेगी।
जनगणना में भाषाओं की गणना की जिस प्रकार जाती रही है, उससे मातृभाषाओं का महत्त्व कम होता जा रहा है। सरकार अलग से भाषाओं का   सर्वेक्षण कराने की आवश्यकता नहीं समझती। दो वर्ष पूर्व वडोदरा में भाषा संगम में भाषा वैज्ञानिकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों, बुद्धिजीवियों और आम नागरिकों की उपस्थिति में निर्णय लिया गया कि भारत की समस्त भाषाओं का सर्वेक्षण कराया जाए। इस भाषा संगम में महाश्वेता देवी शामिल थीं तो प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक नारायण भाई देसाई भी थे। देश के अनेक विश्वविद्यालयों के कुलपति और केंद्रीय भाषा संस्थान, मैसूर के कई पूर्व और वर्तमान निदेशक भी उपस्थित थे। इस निर्णय में वे लोग भी शामिल थे जो आदिवासी, हिमालयी या घुमंतू समाजों से आए थे। इसका दायित्व भाषा संशोधन एवं प्रकाशन केंद्र, वडोदरा ने लिया। 
इस महाप्रयास को भारत की भाषाओं का लोक सर्वेक्षण कहा गया, यानी पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे आॅफ इंडिया। यह निश्चित हुआ कि भारत की भाषाओं का यह सर्वेक्षण लोगों द्वारा तैयार किया जाएगा। इसमें एक-एक भाषाई क्षेत्र को लेते हुए उस क्षेत्र की भाषाओं का विवरण दिया जाएगा। एक क्षेत्र की भाषाओं में परस्पर आदान-प्रदान होता रहता है, भले ही भिन्न-भिन्न परिवारों की भाषाएं हों। दूसरे क्षेत्रों की भाषाओं से भी उनका संबंध होता है। एक क्षेत्र की भाषाओं का दूसरे क्षेत्र की भाषाओं से भी घनिष्ठ संबंध हो सकता है।
इस सर्वेक्षण में बोली और भाषा के विवाद को कोई स्थान नहीं दिया गया है। सभी की उपस्थिति भाषा के रूप में दर्ज होगी। भाषा एक जनसमूह की अभिव्यक्ति का माध्यम है, इसमें छोटे या बड़े का प्रश्न नहीं है। एक समुदाय अगर उसे भाषा के रूप में प्रयुक्त करता है तो भारतीय लोक भाषा सर्वेक्षण में भाषा के रूप में ही उसकी जगह है। भाषाओं को देखने का हमारा दृष्टिकोण क्या हो, यह अधिक महत्त्वपूर्ण है। भाषाएं लोक की थाती हैं, पंडितों की नहीं। जब देश की सब भाषाएं आगे बढ़ेंगी तब उन भाषाओं को बोलने वाले लोग भी आगे बढ़ेंगे।
सात और आठ जनवरी 2012 को फिर वडोदरा में भाषा संशोधन एवं प्रकाशन केंद्र ने भाषा वसुधा यानी भाषाओं का विश्व सम्मेलन नाम से एक वृहत आयोजन किया, जिसमें विश्व की लगभग नौ सौ भाषाओं के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। हिंदुस्तान के अतिरिक्त अफ्रीका, न्यूजीलैंड, अर्जेंटीना, ब्राजील, कांगो, नाइजीरिया, फ्रांस, पापुआ न्यूगिनी के साथ-साथ भारत के पड़ोसी देश बांग्लादेश, श्रीलंका, पाकिस्तान, भूटान, नेपाल आदि से भी अपनी-अपनी भाषाओं के प्रतिनिधि इसमें शामिल हुए। दो वर्ष पूर्व लिए गए संकल्प का परिणाम इस सम्मेलन में देखा गया। भारत की भाषाओं के लोक सर्वेक्षण के तहत परिकल्पित बीस खंडों में से पंद्रह राज्यों- छत्तीसगढ़, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर, केरल, महाराष्ट्र, पंजाब, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मध्यप्रदेश, ओड़िशा, राजस्थान और उत्तराखंड- के सर्वेक्षणों की प्रकाशन-पूर्व प्रस्तुति विभा पुरी दास (मानव संसाधन विकास मंत्रालय में सचिव) की अध्यक्षता में की गई। इनमें से कुछ हिंदी में और कुछ अंग्रेजी में प्रकाशित होंगे।
भाषा संशोधन एवं प्रकाशन केंद्र के संस्थापक-सदस्य प्रो. गणेश देवी के अनुसार इस कार्य के लिए देश भर में क्षेत्रवार अलग-अलग कार्यशालाएं आयोजित की गर्इं, जिनमें सर्वे की रूपरेखा निश्चित की गई। हालांकि आम जन की भी भागीदारी इसमें है, मगर प्रबुद्ध भाषाशास्त्रियों की देखरेख में यह कार्य संपन्न हो रहा है। इन संस्करणों का सामूहिक रूप से संपादन किया जा रहा है। ग्रियर्सन के लगभग सौ साल बाद यह अपनी तरह का अकेला अद््भुत प्रयास होगा जो बगैर किसी सरकारी सहायता के इतने कम समय में संपन्न किया जा रहा है।
भाषाओं के इस विश्व सम्मेलन में भाषा नीति, आदिवासियों की भाषाएं, हिंदी क्षेत्र की भाषाएं, मातृभाषा में शिक्षण, भाषा विविधता का मानचित्रीकरण, भाषाओं का विस्थापन, राजभाषाएं और घुमंतू भाषाएं, भाषाओं का वर्चस्ववाद, लुप्त होती भाषाएं, संस्थाएं और भाषाओं का संरक्षण आदि विविध विषयों पर अलग-अलग समूहों में चर्चा हुई।
इस तरह इतने सारे लोगों द्वारा देश भर की और कुछ दूसरे देशों की भाषाओं पर चर्चा करने का यह दुर्लभ अवसर था, जो एक प्रकार से अपनी भाषाओं को बचाने का आंदोलन ही कहा जाएगा। भाषा संशोधन एवं प्रकाशन केंद्र द्वारा जारी फोल्डर में लगभग आठ सौ भाषाओं के नाम दिए गए हैं। हमारे देश में वर्तमान में सोलह सौ के लगभग भाषाएं बोली जा रही हैं। यह भाषा-वैविध्य न केवल हमारे सांस्कृतिक वैविध्य का सूचक है, वरन हमारे समाज के पास मौजूद ज्ञान के वैविध्य का भी प्रतीक है। इसके संरक्षण का महत्त्वपूर्ण काम भी लोक ही कर सकता है, इसमें संदेह नहीं।

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