अनिल चमड़िया जनसत्ता 24 फरवरी, 2012: बंगाल में प्रकाशित 'संवाद भास्कर' 20 सितंबर 1856 को एक नई तरह की सामाजिक समस्या की तरफ ध्यान दिलाता है। ''अंग्रेजी शिक्षा की वजह से नई तरह की यह सामाजिक समस्या बन रही है कि नीची जातियों में अंग्रेजी सीखने की ललक बढ़ रही है और बढ़ई, नाई, धोबी, भंगी जाति के परिवारों के लड़के अंग्रेजी सीख कर क्लर्क, बिल सरकार, एजेंट आदि पदों पर नौकरियां पा रहे हैं। वे अपना पारिवारिक काम छोड़ रहे हैं और इससे एक नई सामाजिक समस्या पैदा हो रही है।'' यह संदर्भ इस प्रश्न पर विचार करने के लिए है कि ब्रिटिश हुकूमत की गुलामी के खिलाफ संघर्ष के दौरान राष्ट्र-निर्माण के लिए अंग्रेजी के वर्चस्व को खत्म करने और हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में शिक्षा और कामकाज की जरूरत पर जोर देने के बावजूद अंग्रेजी का ही सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर वर्चस्व क्यों बढ़ता चला गया है। क्या भारतीय भाषाओं के विकास का नारा महज एक राजनीतिक मुखौटा था? क्या उपर्युक्त उदाहरण के आलोक में यह अध्ययन किया जाना चाहिए कि वर्ण-व्यवस्था में कथित नीचे की जातियों ने सदियों से चली आ रही अपनी गुलामी से उबरने के लिए अंग्रेजी को एक माध्यम समझा तो ऊपर की जातियों ने उसे अपना वर्चस्व टूटने के एक खतरे के रूप में देखा? इसके साथ दो स्तरों पर नई भाषाई रणनीति विकसित की गई। एक तरफ तो राजनीतिक स्तर पर नेतृत्वकारी जातियों ने हिंदी और दूसरी राष्ट्रीय भाषाओं के विकास को राष्ट्रवाद से रंगा और दूसरी तरफ अंदरखाने अंग्रेजी के वर्स्चव को बनाए रखने की कार्यनीति बनाई। इस कार्यनीति के साथ नेतृत्वकारी जातियों ने अंग्रेजी की अपनी पीढ़ी तैयार करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। हिंदी के विकास के लिए हम दो स्तरों पर किए जाने वाले प्रयासों को देखते हैं। एक उदाहरण केंद्रीय हिंदी निदेशालय है। हिंदी को अखिल भारतीय स्वरूप प्रदान करने, हिंदी भाषा के माध्यम से जन-जन को जोड़ने और हिंदी को वैश्विक स्तर पर प्रतिष्ठित करने के उद््देश्य से इस सरकारी संस्था की स्थापना की गई थी। भारत के संविधान भाग-17 के अध्याय चार के अनुच्छेद-351 में हिंदी भाषा के विकास के लिए दिया गया विशेष निर्देश इस प्रकार है: ''संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए, उसका विकास करे ताकि वह भारत की सामासिक संस्कृति के सभी तत्त्वों की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके तथा उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्तानी के और आठवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट भारत की अन्य भारतीय भाषाओं के प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए तथा जहां आवश्यक या वांछनीय हो वहां उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यत: संस्कृत से तथा गौणत: अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करे।'' संविधान की इसी भावना के अनुपालन की दिशा में 1 मार्च, 1960 को शिक्षा मंत्रालय (अब उच्चतर शिक्षा विभाग, मानव संसाधन विकास मंत्रालय) के अधीन केंद्रीय हिंदी निदेशालय की स्थापना हुई। किसी भाषा के विकास का पैमाना उसका शब्द-भंडार भर नहीं होता। शब्दों की प्रकृति और उसके साथ जनमानस के संबंध विकास के लिए महत्त्वपूर्ण होते हैं। सामान्य जन में शब्दों की सृजन-क्षमता का विकास भाषा के विकास की मुख्य विशेषता है। संविधान में भारत की अन्य भारतीय भाषाओं के प्रयुक्त रूप, शैली और पदों को आत्मसात करने के लिए तो कहा गया है लेकिन वहां उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यत: संस्कृत से हिंदी की समृद्धि पर जोर दिया गया है। संस्कृत के निरंतर लोप होते जाने का एक मुख्य कारण उसका अलोकतांत्रिक होना रहा है। समाज की गति को बनाए रखने वाली जातियों को संस्कृत पढ़ने से महरूम रखा गया। जाहिर-सी बात है कि इस संस्कृत से हिंदी का विकास समाज के उस हिस्से को स्वीकार्य नहीं हो सकता था। भारतीय भाषाओं खासतौर से हिंदी में सोचने-समझने वालों की दो तरह की समस्याएं सामने आती हैं। एक, हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में ज्ञान की बातों का बेहद अभाव है। कई सामाजिक विषयों में अध्ययन करने वालों के सामने यह बाध्यता होती है कि हिंदी और भारतीय भाषाओं में किताबों के अभाव में ज्ञानार्जन के लिए अंग्रेजी की किताबों पर उनकी निर्भरता होती है। जबकि उनका अंग्रेजी के साथ जीवंत रिश्ता नहीं होता, और वह भाषा उन्हें एक बोझ की तरह लगती है। भाषा की बोझिलता अपने मानस के अनुकूल उसकी प्रकृति न होने के कारण ही नहीं होती। किसी भाषा को लेकर जब यह अहसास घर कर जाता है कि वह गुलाम बनाने का माध्यम है तो वह सिर्फ बोझिल नहीं रहती, उसमें घुटन तक महसूस होने लगती है। भारत जैसे देशों में अनुवाद का अर्थ अंग्रेजी से ही भारतीय भाषाओं में अनुवाद हो गया है। क्योंकि यह मान लिया गया है कि दुनिया भर में अंग्रेजी में ही ज्ञान का भंडार है। लेकिन काफी सारी सामग्री अनूदित न हो पाने से एक मायने में अभाव भी है। दूसरी समस्या यह है कि अंग्रेजी से जो अनुवाद हुए भी हैं उनके बारे में यह आम शिकायत है कि वे इतने बोझिल या कहें कि संविधान के निर्देशानुसार इतने संस्कृतनिष्ठ हैं कि उन्हें पढ़ना और समझना बहुत मुश्किल है। समाज का प्रभावशाली वर्ग ऐसी ही हिंदी को उदाहरण के रूप में पेश कर उसका मजाक उड़ाता है। वे अनुवाद संस्कृत के पर्यायवाची के रूप में हिंदी भाषियों के सामने प्रस्तुत होते हैं। हमें इस पहलू पर विचार करना चाहिए कि अपने समाज में अंग्रेजी से अनुवाद का कार्यभार किनके जिम्मे था; जो अनुवाद हुए वे किनके द्वारा किए गए और किए जा रहे हैं? इसके साथ इस पहलू पर भी विचार किया जाना चाहिए कि भाषा के कारण ज्ञानार्जन से कौन वंचित हो रहा है? क्या उपर्युक्तबातों का कोई संबंध ऊपर दिए गए 1856 के प्रसंग से नहीं है? भारतीय भाषाओं में शिक्षा के विकास के कार्यक्रम पर जोर दिए जाने के बावजूद समाज पर दबदबा रखने वाली शक्तियां इस बात को लेकर कैसे आश्वस्त थीं कि सरकारें चाहें भारतीय भाषाओं में शिक्षा के विकास पर जोर दें लेकिन आखिरकार वर्चस्व अंग्रेजी का ही कायम होगा? संसदीय व्यवस्था में सरकारें चाहें जिन सामाजिक आधारों वाले मतों के बूते बनने का दावा करें, लेकिन व्यवस्था का नियंत्रण सामाजिक वर्चस्व रखने वाली शक्तियों के ही हाथों में होता है। इसीलिए सरकारें चाहें सरकारी स्कूलों के जरिए भारतीय भाषाओं में शिक्षा के विकास के कार्यक्रम बनाती रही हों, लेकिन प्रभावी सामाजिक शक्तियां अंग्रेजी की ओर मुखातिब शिक्षा का विशाल तंत्र खड़ा करने में निरंतर सक्रिय रहीं। आज उसका ढांचा इस रूप में हमारे सामने है कि सरकारी स्कूल आधुनिक शिक्षा के खंडहर-से दिखाई देते हैं। सरकारी स्कूलों का मतलब समाज के वंचित वर्गों को शिक्षा के नाम पर बहलाने-फुसलाने की इमारतें और भूखे बच्चों के मुस्कुराने के लिए उनमें कथित पोषाहार बांटने वाले ठिकानों के तौर पर होकर रह गया है। सरकारी स्कूल एक तरह से शैक्षणिक उपनिवेश की जगहें नजर आते हैं। जैसे अमीर देश या राज्य अपने लिए मजदूरों की जरूरत पूरी करने की खातिरकई इलाकों को पिछडेÞपन के गर्त में रखने की नीति मुस्तैदी से लागू करते हैं। यहां फिर से ऊपर के उदाहरण को अपने मूल सवाल के रूप में उठाना चाहता हंू। उस उदाहरण में भाषा का सवाल महत्त्वपूर्ण नहीं है। महत्त्वपूर्ण यह है कि समाज के वंचित हिस्से खुद को सक्षम बनाने के लिए एक भाषा की तरफ देखते हैं। वह भाषा उन्हें महत्त्वपूर्ण इसीलिए लगती है क्योंकि उन्हें संस्कृत, फारसी जैसी भाषाओं के जरिए ही वंचना की अवस्था में रहने की नियति तैयार की गई। उनका अंग्रेजी सीखना दूसरों को इसीलिए खल रहा था क्योंकि वे समाज को संचालित करने वाले सत्ता केंद्रों में हिस्सेदारी पा रहे थे। उनका अंग्रेजी पढ़ना एक सामाजिक समस्या के रूप में दिखाई दे रहा था। इस समस्या का आशय क्या हो सकता है? स्वातंत्र्योत्तर भारत में राष्ट्रवाद के नाम पर उन्हें अपनी कही जाने वाली भाषाओं की तरफ जाने के लिए तो प्रेरित किया गया, लेकिन उसमें मूल सवाल 'सत्ता में हिस्सेदारी के लायक' उन्हें बनाने का कतई नहीं था। यह बात सत्ता में उनकी हिस्सेदारी के जितने भी तरह के प्रयास हुए उनके तीखे विरोध से भी स्पष्ट होती है। हिस्सेदारी से वंचना जब राष्ट्रवाद या नवोदित राष्ट्र की नेतृत्वकारी शक्तियों के इरादे में ही शामिल हो तो वे शिक्षा के स्तर पर वे इसके लिए किस तरह की तैयारी कर रही थीं? यह कहना बेमानी होगा कि वंचितों को सरकारी स्कूलों में शिक्षा के अवसर मुहैया कराए गए। अवसर तब अवसर के रूप में व्यक्त होता है जब उसका उद्देश्य की पूर्ति में योगदान हो। कुल मिलाकर तो स्थिति यह बनी कि स्कूली शिक्षा, जो सत्ता में हिस्सेदारी और राष्ट्र-निर्माण में योगदान करने का विश्वास पैदा करती वह वंचना की स्थिति में रहने की ही नियति को विकसित कर सकी। भाषा का प्रश्न इस रूप में अगर अपनी जगह बनाए रखे कि वह वंचितों को वंचना की स्थिति में ही रखे तो हिंदी, फारसी और अंग्रेजी सब एक-से नाम लगने लगते हैं। अंग्रेजी का प्रश्न कभी भाषा के प्रश्न के रूप में नहीं आता है। वह राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक सत्ता को बनाए रखने के रूप में सामने आता है। आखिर यह कैसे संभव हो सकता है कि बहुमत से चुनी गई सरकारें तो भारतीय भाषाओं में शिक्षा का जाप करें और विशाल तंत्र, दूसरी- शासन करने वाली- भाषा का विकसित हो। इसका मतलब यह है कि कहने को भले लोकतंत्र हो, नीति-निर्धारण की निर्णायक जनता नहीं है, बल्कि व्यवस्था को चलाने वाली शक्तियां हैं। अब तो हिंदी भी नहीं रह गई है। अंग्रेजी से अनूदित भाषा को ही हम हिंदी के रूप में देख रहे हैं। क्या अनुवाद की भाषा से किसी समाज का वास्तविक और स्वाभाविक विकास हो सकता है? दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाने वाला भारत दुनिया का अकेला ऐसा देश है जिसके पास ज्ञान और चिंतन के लिए अपनी भाषा भी नहीं रही। |
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