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Sunday, February 5, 2012

जारवा का दूसरा विडियो, अब पुलिस ने नचाया

जारवा का दूसरा विडियो, अब पुलिस ने नचाया 

ब्रिटिश अखबार 'ऑब्ज़र्वर' ने भारत के अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में जारवा जनजाति की
महिलाओं के अर्धनग्न रूप में नाचने का नया विडियो जारी किया है। इस विडियो में साफ दिखता है कि जारवा महिलाओं को सुरक्षाकर्मियों की मौजूदगी में डांस करने के लिए कहा जा रहा है। 


विडियो देखने के लिए यहां क्लिक करें 
जारवा लोगों को पर्यटकों के सामने खाने के बदले में नाचते दिखाए जाने को लेकर 'ऑब्ज़र्वर' की ओर से जारी किए गए पहले विडियो के बाद भारत सरकार ने मामले की जांच के आदेश दिए थे। विडियो फुटेज की जांच में खुलासा हुआ है कि पहले के फुटेज करीब साढ़े तीन साल पुराने हैं। 

अंडमान-निकाबोर द्वीप समूह प्रशासन ने विडियो फुटेज को लेकर तैयार जांच रिपोर्ट में इस बात को खारिज किया कि यह विडियो हाल ही में बनाया गया है। आयोग के अध्यक्ष रामेश्वर उरांव ने बताया, 'अंडमान में आदिवासी कल्याण विभाग के सहायक निदेशक ने हमें बताया है कि जांच पूरी हो चुकी है। इसमें यह बात सामने आई है कि यह विडियो साढ़े तीन साल पुराना है और इस तरह का कोई भी नया विडियो नहीं बनाया गया है।' 

अंडमान निकोबार के डीजीपी एस. बी. देओल ने एक बयान जारी करके कहा था कि दिखाई गई फुटेज में जिस वर्दीधारी शख्स को पुलिसकर्मी बताया गया है वह कोई प्राइवेट सिक्युरिटी गार्ड है। उसने जो वर्दी पहन रखी है वैसी वर्दी अंडमान पुलिसकर्मी नहीं पहनते। 

पिछले महीने इस विडियो फुटेज के सामने आने के बाद राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग ने अंडमान प्रशासन को इस मामले की जांच करने और जल्द से जल्द रिपोर्ट भेजने का आदेश दिया था। अंडमान प्रशासन ने पूरी जांच के बाद यह रिपोर्ट तैयार कर ली है और अब यह रिपोर्ट जल्द ही आयोग के पास आने वाली है। 

उरांव ने कहा, 'सहायक निदेशक (आदिवासी कल्याण विभाग) ने फिलहाल हमें मौखिक जानकारी दी है और अब वे जल्द ही यह रिपोर्ट आयोग को भेजेंगे। आयोग रिपोर्ट मिलने के बाद इस पर चर्चा करेगा और आगे कदम उठाएगा।' 

उरांव ने कहा कि अंडमान के अधिकारियों ने उन्हें बताया है कि अब पर्यटकों के अंडमान ट्रंक रोड पर बीच में उतरने और वहां विडियो बनाने या फोटो लेने पर रोक का कड़ाई से पालन किया जा रहा है। पर्यटक पहले इसी रास्ते के जरिए जारवा समुदाय के सदस्यों तक पहुंचते थे। उन्होंने कहा कि इस रास्ते पर जाने के लिए देशी और विदेशी पर्यटकों के लिए स्थानीय प्रशासन के अधिकारियों को ले जाना अनिवार्य कर दिया गया है। 

अंडमान द्वीप में बिस्किट और चंद सिक्कों के लिए जिन जारवा आदिवासियों को विदेशियों के सामने नचाने की खबरें आई हैं, उनकी तादाद 1 अरब से ज्यादा आबादी वाले इस देश में महज 250-350 के बीच है। जारवा अंडमान द्वीप पर बसी दुर्लभ आदिवासी जनजातियों में से एक है। ये लोग कई हजार साल से अंडमान इलाके में रह रहे हैं। इस आदिवासी जनजाति से जुड़े कुछ अहम तथ्यों पर एक नजर : 


दुश्मन लोग : जारवा जनजाति और बाहरी लोगों के बीच आमतौर पर संपर्क नहीं रहा है। यही वजह है कि उनके समाज, संस्कृति और परंपराओं के बारे में ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है। ग्रेटर अंडमान में बोली जाने वाली भाषा अका बिया में उनके नाम का मतलब होता है - विदेशी या दुश्मन लोग। किसी भी तरह का संपर्क, खासकर पर्यटकों से, इनके लिए बेहद खतरनाक साबित हो सकता है, क्योंकि जारवा जनजाति में बीमारी फैलने का खतरा होता है। इस जनजाति की प्रतिरोध क्षमता काफी कम है। 

ग्रैंड ट्रंक रोड बनी खतरा : हाल के बरसों में जारवा जनजाति के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में सामने आई है ग्रेट अंडमान ट्रंक रोड। यह सड़क पश्चिमी वनक्षेत्र से होकर गुजरती है। यह वही जगह जहां जारवा लोग बसे हुए हैं। 1997 के अंत में पहली बार जारवा जनजाति के कुछ लोग जंगल से बाहर आकर आसपास मौजूद बस्तियों में जाने लगे। महीने भर के भीतर उनमें खसरा फैल गया। 2006 में भी वे खसरे का शिकार हुए। हालांकि, किसी मौत की खबर नहीं मिली। हाइवे बन जाने का असर यह हुआ कि जारवा जनजाति के रिहाइशी इलाके में अतिक्रमण बढ़ा, अवैध शिकार शुरू हो गए और उनकी जमीन कमर्शल जरूरतों के लिए इस्तेमाल की जाने लगी। मामला कलकत्ता हाई कोर्ट गया और फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में है। 

टूरिजम का असर : एक अहम समस्या टूरिस्टों की बढ़ती तादाद है। वे जारवा लोगों को देखने, उनकी तस्वीरें लेने या फिर उनसे बातचीत की कोशिश करते हैं। जारवा अक्सर हाइवे पर भीख मांगते देखे जा सकते हैं। ये सब भारतीय कानून के तहत अवैध है। मार्च 2008 में अंडमान एवं निकोबार प्रशासन के टूरिजम डिपार्टमेंट ने चेतावनी जारी की थी, जिसके मुताबिक, जारवा लोगों से संपर्क करने, उनकी तस्वीरें लेने, उनके रिहाइशी इलाके से गुजरने के दौरान गाड़ी रोकने और उन्हें सवारी की पेशकश करने जैसी चीजों पर आदिवासी जनजाति संरक्षण अधिनियम, 1956 के तहत रोक लगी हुई है। इसका उल्लंघन करने वालों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही की जाएगी। 

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जारवा लड़कियों के और न्यूड वीडियो

नई दिल्ली. 5 फरवरी 2012

जारवा लड़कियां


अंडमान की लुप्तप्राय जारवा समुदाय की लड़कियों को अधनंगा करके नचाने के मामले में जांच करने वाली टीम ने दावा किया है कि मीडिया में आई वीडियो फुटेज तीन साल पुरानी थी. इस बीच आब्जर्बर अखबार ने कुछ और वीडियो भी जारी किये हैं. इन वीडियो फुटेज से साबित होता है कि जारवा आदिवासी लड़कियों को पैसे और खाने का सामान देने का लालच देकर अधनंगी हालत में नचाने के मामले में पुलिस वालों की प्रमुख भूमिका थी.

गौरतलब है कि ब्रिटिश मीडिया में यह सनसनीखेज रहस्योद्घाटन किया गया था कि अंडमान की लुप्तप्राय जारवा आदिवासियों को थोड़े से पैसे और बिस्किट का लालच दे कर उन्हें लगभग अधनंगी हालत में नचाया जाता है. द ऑब्जार्वर और गार्जियन ने दावा किया था कि जिन पुलिस वालों को इन जारवा आदिवासियों को पर्यटकों से दूर रखने का जिम्मा दिया गया था, उन्हीं पुलिस वालों ने 15 हजार रुपये की रिश्वत लेकर विदेशी पर्यटकों को जारवा आदिवासियों से मिलवाया. इसके बाद पुलिस वाले ने पैसे और बिस्किट का लालच देकर जारवा लड़कियों को नाचने पर मजबूर किया. 

पत्रकारों ने इस पूरे मामले की वीडियो की भी शूटिंग की. गार्जियन अखबार ने तो अपनी वेबसाइट पर एक ऐसी वीडियो जारी भी की थी, जिसमें पुलिसवाला जारवा लड़कियों को नंगे बदन नाचने के लिये प्रलोभन दे रहा था. इधर मीडिया में खबर आने के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय ने अंडमान निकोबार प्रशासन से रिपोर्ट मांगी और पूरे मामले की जांच के लिये एक कमेटी का भी गठन किया गया.

राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष रामेश्वर उरांव के अनुसार अंडमान में आदिवासी कल्याण विभाग के सहायक निदेशक ने उन्हें जानकारी दी है कि जांच पूरी हो चुकी है. इस जांच से यह बात सामने आई है कि यह वीडियो साढ़े तीन साल पुराना था और इस तरह का कोई भी नया वीडियो नहीं बनाया गया है.

लेकिन उरांव के इन्हीं दावों के बीच द आब्जर्बर अखबार ने जारवा आदिवासी लड़कियों को अधनंगी हालत में नचाने से जुड़े दो और वीडियो जारी किये हैं, जिनमें पुलिस वालों की संदिग्ध भूमिका साफ समझ में आती है. अखबार ने फिर दावा किया है कि ये सभी वीडियो हाल ही के हैं.

http://raviwar.com/dailynews/d1651_jarwa-nude-video-again-20120205.shtml

जारवा जनजाति की महिलाओं के दो और वीडियो सामने आए

 रविवार, 5 फ़रवरी, 2012 को 13:46 IST तक के समाचार
जारवा जनजाति (फ़ाइल फ़ोटो)

इस नए वीडियो ने एक बार फिर विवाद खड़ा कर दिया है.

ब्रितानी अख़बार 'ऑब्ज़र्वर' ने अंडमान निकोबार द्वीप समूह में जारवा जनजाति की महिलाओं के अर्धनग्न रूप में नाचते दो नए वीडियो जारी किए हैं.

माना जा रहा है कि ये वीडियो इस मामले में कथित तौर पर सुरक्षाकर्मियों के लिप्त होने के ताज़ा सबूत हैं.

'ऑब्ज़र्वर' के एक पत्रकार को हासिल हुआ पहला वीडियो तीन मिनट 19 सेकेंड का है और एक मोबाइल फ़ोन के ज़रिए लिया गया है.

इस वीडियो में जारवा युवतियों को कथित तौर पर पुलिस अधिकारियों के सामने नाचते हुए दिखाया गया है. साथ ही सुरक्षाकर्मियों की कुछ टिप्पणियां भी इस वीडियो का हिस्सा हैं.

अख़बार के मुताबिक़ वीडियो में लगातार युवतियों के निर्वस्त्र अंगों को दिखाया गया है.

पहला वीडियो

जारवा लोगों को पर्यटकों के सामने खाने के बदले में नाचते दिखाए जाने को लेकर 'ऑब्ज़र्वर' की ओर से जनवरी में जारी किए गए पहले वीडियो के बाद काफ़ी हंगामा मचा था जिसके बाद राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग ने अंडमान प्रशासन को इस मामले की जांच करने और जल्द से जल्द रिपोर्ट भेजने का आदेश दिया था.

आयोग के अध्यक्ष रामेश्वर उराव ने बताया कि अंडमान में आदिवासी कल्याण विभाग के सहायक निदेशक ने उन्हें बताया है कि जांच पूरी हो चुकी है और 
अंडमान प्रशासन अब यह रिपोर्ट शीघ्र ही आयोग के पास भेजेगा.

लेकिन पहले वीडियो का मामला अभी पूरी तरह ठंडा भी नहीं पड़ा था कि ऐसे दो और वीडियो सामने आ गए हैं.

इन वीडियो में आदिवासियों को विदेशी सैलानियों के सामने नचाने में कथित तौर पर स्‍थानीय पुलिसवालों की मिलीभगत भी सामने आ गई है.

वीडियो को देखकर कहा जा सकता है कि कथित तौर पुलिस ने उन विदेशी सैलानियों की मदद की जो कुछ पैसों और खाना का लालच देकर आदिवासियों को अर्धनग्‍न अवस्‍था में नाचने पर मजबूर करते हैं.

वीडियो में एक पुलिसवाला दिखाई देता है जो नाच रही आदिवासी महिलाओं के सामने आराम से बैठा है.

हालाकि पहली बार वीडियो जारी होने के समय अंडमान निकोबार प्रशासन ने दावा किया था वीडियो में जिस व्यक्ति ने जरवा महिलाओं को डांस करने के लिए कहा है, वह पुलिस वाला नहीं है.

जारवा जनजाति

सरकारी आंकड़ों में जारवा जनजाति के लोगों की संख्या क़रीब 403 है. ये जंगलों में रहने वाली आदिवासी प्रजाति है.

ये अंडमान द्वीप के हिंद महासागर से लगते उत्तरी छोर पर रहते हैं.

1990 में ये पहली बार बाहरी दुनिया के संपर्क में आए.

जारवा जनजाति के पुरुष व महिलाएं अपने शरीर के सिर्फ़ निचले धड़ पर पत्ते या कपड़े के छोटे टुकड़े पहनते हैं.

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आदिवासियों की लाचारी को भुनाने का गुनाह

प्रमोद भार्गव

जब किसी भी समाज की दशा और दिशा अर्थतंत्र तय करने लगते हैं तो मापदण्ड तय करने के तरीके बदलने लग जाते हैं। यही कारण है हम जिन्हें सभ्य और आधुनिक समाज का हिस्सा मानते हैं, वे लोग प्राकृतिक अवस्था में रह रहे लोगों को इंसान मानने की बजाय जंगली जानवर ही मानते हैं। आधुनिक कहे जाने वाले समाज की यह एक ऐसी विडंबना है, जो सभ्यता के दायरे में कतर्इ नहीं आती। अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में रह रहे लुप्तप्राय जारवा प्रजाति की महिलाओं को स्वादिष्ट भोजन का लालच देकर सैलानियों के सामने नचाने के जो विडियो-दृश्य ब्रिटिश अखबार के हवाले से सामने आए हैं, उन्हें शासन-प्रशासन के स्तर पर झुठलाने कवायद कितनी भी की जाए, लेकिन हकीकत यह है कि अभयरण्यों में दुर्लभ वन्य जीवों को देखने की मंशा की तरह दुर्लभ मानव प्रजातियों को भी देखने की इच्छा नव-धनाढयों और रसूखदारों में पनप रही है। इसी कुत्सित मानसिकता के चलते जारवां लोगों को हम इंसान न मानते हुए, मनोरंजक खिलौना मानकर चल रहे हैं। यहां यह भी एक विचित्र विडंबना है कि एक ओर तो हम दया और करूणा जताते हुए सर्कसों और मदारियों द्वारा वन्य जीवों के करतब दिखाए जाने पर अंकुश लगाने की वकालात करते हैं, वहीं दूसरी ओर अपने में मगन निर्वस्त्र जन-जातियों को नचाने के लिए मजबूर करते हैं।

आधुनिक विकास और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए वन कानूनों में लगातार हो रहे बदलावों के चलते अंडमान में ही नहीं देश भर की जनजातियों की संख्या लगातार घट रही हैं। आहार और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतों की कमी होती जा रही है। इन्हीं वजहों के चलते अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में अलग-अलग दुर्गम टापुओं पर जंगलों में समूह बनाकर रहने वाली जनजातियों का अन्य समुदायों और प्रशासन से बहुत सीमित संपर्क है। यही वजह है कि इनकी संख्या घटकर महज 381 रह गर्इ है। एक अन्य टापू पर रहने वाले ग्रेट अंडमानी जनजाति के लोगों की आबादी केवल 97 के करीब है। इन लोगों में प्रतिरोधात्मक क्षमता इतनी कम होती है कि ये एक बार बीमार हुए तो इनका बचना नमुमकिन ही होता है। एक तय परिवेश में रहने के कारण इन आदिवासियों की त्वचा बेहद संवेदनशील हो गर्इ है। लिहाजा यदि ये बाहरी लोगों के संपर्क में लंबे समय तक रहते हैं तो ये रोगी हो जाते हैं और उपचार के अभाव में दम तोड़ देते हैं।

करीब एक दशक पहले तक ये लोग पूरी तरह निर्वस्त्र रहते थे, लेकिन सरकारी कोशिशों और इनकी बोली के जानकार दुभाषियों के माध्यम से समझाइश देने पर इन थोड़े-बहुत कपडे़ पहनने अथवा पत्ते लपेटने शुरू कर दिए हैं। इसीलिए बि्रटिश अखबार के जरिए जिन वीडियो दृश्यों की जानकारी सामने आर्इ है, उनमें जारवा महिलओं को कपड़े पहने नृत्य करते दिखाया गया है। इससे तय हुआ है कि यह वीडियो नया है। अब ताजा पुलिसिया पूछताछ से खुलासा हुआ है कि ब्रिटिश के 'द आब्जर्वर के पत्रकार को पोर्टब्लेयर के राजेश व्यास और टैक्सी चालक इनके निवास स्थल तक ले गए थे। वहां इन्होंने स्वादिष्ट भोजन के चंद निवाले डालकर इनसे नृत्य कराया और फिल्मांकन किया। जबकि यह क्षेत्र सर्वोच्च न्यायालय और स्थानीय प्रशासन के दिशा-निर्देशों के अनुसार पर्यटन के लिए पूरी तरह प्रतिबंधित है। इन्हें संपूर्ण संरक्षण देने की दृषिट से अंडमान ट्रंक रोड को बंद करके समुद्र से ऐसा मार्ग बनाए जाने की संभावनाएं तलाशी जा रही हैं, जो जारवा संरक्षित क्षेत्र से हाकर न गुजरें।

भारत की सांस्कृतिक विविधता एक अनूठी खूबसूरती है। यहां विभिन्न आदिवासी समुदायों को अपने पुरातन व सनातन परिवेश में रहने की स्वतंत्रता हासिल है। जबकि मानवाधिकारों की वकालात करने वाले अमेरिका जैसे देश में आदिम जनजातियों को सुनियोजित ढंग से समाप्त किया जा रहा है। अमेरिकी देशों में कोलंबस के मूल्यांकन को लेकर दो तरह के दृषिटकोण सामने आए हैं। एक दृष्टिकोण उन लोगों का है, जो अमेरिकी मूल के हैं और जिनका विस्तार व वर्चस्व उत्तरी व दक्षिणी अमेरिका के अनेक देशों में है। दूसरा दृष्टिकोण या लोलंबस के प्रति धारणा उन लोगों की है, जो दावा करते हैं कि अमेरिका का असितत्व ही हम लोगों ने खड़ा किया। इनका दावा है कि कोलंबस इन लोगों के लिए मौत का कहर लेकर आया। क्योंकि कोलंबस के आने तक अमेरिका में इन आदिम समूहों की आबादी 20 करोड़ के करीब थी, जो अब घटकर 10 करोड़ के करीब रह गर्इ है। इतने बड़े नरसंहार के बावजूद अमेरिका में अश्वेतों का जनसंहार लगातार जारी है। बि्रटेन के भी हालात बहुत अच्छे नहीं हैं। हाल ही में नस्लीय आधार पर भारत के अनुज बिडवे की हत्या की गर्इ है।

शोषण व सुनियोजित संहार के ऐसे ही पैरोकारों का एक दल हमारे यहां भी पैदा हो गया है। जिसमें योजनाकर और अर्थशास्त्री शामिल हैं। ये भूमि, जंगल और खनिजों को आर्थिक संपत्ति मानते हैं। इनका कहना है कि इस प्राकृतिक संपदा पर दुर्भाग्य से ऐसी छोटी व मझोली जोत के किसानों और वनवासियों का वर्चस्व है, जो अयोग्य व अक्षम है। सकल घरेलू उत्पाद दर में लगातार वृद्धि के लिए जरूरी है, ऐसे लोगों से खेती योग्य भूमियां छीनी जाएं और उन्हें विशेष व्यावसायिक हितों, शापिंग मालों और शहरीकरण के लिए अधिग्रहण कर लिया जाए। इसी तर्ज पर जिन जंगलों और खनिज ठिकानों पर जन-जातियां आदिकाल से रहती चली आ रही हैं, उन्हें विस्थापित कर संपदा के ये अनमोल क्षेत्र औधोगिक घरानों को उत्खनन के लिए सौंप दिए जाएं। इस मकसद पूर्ति के लिए 'क्षतिपूर्ति वन्यरोपण विधेयक 2008 बिना किसी बहस-मुवाहिशे के पारित करा दिया गया था। जबकि इसके मसौदे को जनजातियों, वनों और खनिज संरक्षण की दृषिट से गैर-जरूरी मानते हुए संसद की स्थायी समिति ने खारिज कर दिया था। लेकिन कंपनियों को सौगात देने की कड़ी में प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने समिति की सिफारिश को दरकिनार कर यह विधेयक पारित करा दिया। यही कारण है देश में जितने भी आदिवासी बहुल इलाके हैं, उन सभी में इनकी संख्या तेजी से घट रही है।

जारवा जनजातियों को भोजन के लालच में नचाने का यह शर्मनाक पहलू शोषण और अमानवीयता का चरम है। चंद निवालों के लालच में यदि परदेशियों के सामने अर्धनग्न जारवा महिलाएं नाच रही हैं तो विकास का ढिंढोरा पीट रहे देश के लिए लज्जा से डूब मरने की बात है। क्योंकि ये भोले और मासूम जारवा नहीं जानते कि कथित रूप से सभ्य मानी जाने वाले दुनिया में नग्नता बिकती है। किंतु इसके ठीक विपरीत जो लोग धन का लालच देकर इनकी नग्नता के दृश्य कैमरे में कैद कर रहे थे, वे जरूर अच्छी तरह जानते थे कि यह नग्नता उनके व्यापारिक प्रतिष्ठान की टीआरपी बढ़ाने की सस्ती और जुगुप्सा जगाने वाली अचरज भरी विडियो क्लीपिंग है। इस लिहाज से जन्मजात अवस्था में रह रहे जारवाओं की मासूमियत को बेचने का यह हद दर्जे का गुनाह है।

हालांकि हमारे देश के सांस्कृतिक परिवेश में नग्नता कभी फूहड़ अश्लीलता का पर्याय नहीं रही। पाश्चात्य मूल्यों और भौतिकवादी आधुनिकता ने ही प्राकृतिक व स्वाभाविक नग्नता को दमित काम-वासना की पृष्ठभूमि में रेखांकित किया है। वरना हमारे यहां तो खजुराहों, कोणार्क और कामसूत्र जैसे नितांत व मौलिक रचनाधर्मिता से स्पष्ट होता है कि एक राष्ट्र के सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य में हम कितनी व्यापक मानसिक दृषिट से परिपक्व लोग थे। लेकिन कालांतर में विदेशी आक्रांताओं के शासन और उनकी संकीर्ण कार्य-प्रणाली ने हमारी सोच को बदला और नैसर्गिक नग्नता फूहड़ सेक्स का उत्तेजक हिस्सा बन गर्इ। इसीलिए कहना पड़ता है कि कथित रूप से हम आधुनिक भले ही हो गए हों, लेकिन सभ्यता की परिधि में आना अभी बांकी है। बरना हम जो आदिम जातियां प्रकृति से संस्कार व आहार ग्रहण कर अपना जीवन-यापन कर रही हैं, उन्हें 'मानव मानने की बाजए चिंपाजियों जैसे रसरंजक वन्य प्राणी मानकर नहीं चलते और न ही भोजन के चंद टुकडे़ डालकर उन्हें बंदर या भालूओं की तरह नाचने को बाध्य करते किसी इंसान की लाचार मासूमियत को भुनाने का यह गुनाह भी राष्ट्रीय शर्म से कम नहीं है।

http://www.pravakta.com/andaman-nicobar-jarwa-tribal-dance

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Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/

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