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Wednesday, May 2, 2012

मित्र चाहे नरेंद्र मोदी ही क्‍यों न हो, उसको सात खून माफ है!

http://mohallalive.com/2012/05/02/anand-swaroop-verma-s-dirty-letter-to-manglesh-dabral/

आमुखनज़रियामीडिया मंडीशब्‍द संगत

मित्र चाहे नरेंद्र मोदी ही क्‍यों न हो, उसको सात खून माफ है!

2 MAY 2012 4 COMMENTS
आखिर आनंद स्‍वरूप वर्मा ने वही किया, जो मित्रता के नाम पर (पूर्व प्रधानमंत्री) चंद्रशेखर जैसे लोग खनन माफिया सूरजदेव सिंह और नामी गुंडा डीपी यादव जैसों के पक्ष में जीवन भर करते रहे। उन्‍होंने उदय प्रकाश के सम्‍मान-संदर्भ से जोड़ कर आरएसएस के विचारों की पोषक एक संस्‍था के मंच पर मंगलेश डबराल की उपस्थिति पर कुछ बातें की हैं। लेकिन मुझे लगता है कि दोनों ही घटनाओं में एक बुनियादी फर्क है। उदय अपने रिश्‍तेदार की बरसी में शामिल होने गये थे और उन्‍हें नहीं पता था कि योगी के हाथों सम्‍मान जैसा कुछ घटित होने वाला है। [वैसे जब यह घटित हुआ, तो उनके मन में सिर्फ शोक उपस्थित था और वे प्रतिवाद करने की मानसिक हालत में नहीं थे - जैसा कि उन्‍होंने लिखा, बताया है...] लेकिन मंगलेश डबराल को पता था कि वे कहां जा रहे हैं, क्‍यों जा रहे हैं। हालांकि अपने स्‍पष्‍टीकरण में वे इस बात से अनभिज्ञता प्रकट कर रहे हैं। राकेश सिन्‍हा की विचारधारा के बारे में ऐसी ही अ‍नभिज्ञता आनंद स्‍वरूप वर्मा भी जता रहे हैं, जबकि राकेश सिन्‍हा लंबे समय तक हिंदी इंडिया टुडे के कॉलमिस्‍ट रहे हैं – प्रभु चावला के जमाने में। बहरहाल, आनंद स्‍वरूप वर्मा ने मंगलेश को लिखे इस पत्र में जिस उस्तरापकड़ू बंदरों वाले ब्लॉग का जिक्र किया है, उनका तात्‍पर्य लगभग स्‍पष्‍ट है। इसी उस्तरापकड़ू बंदरों वाले ब्लॉग से उन्‍हें तब तक कोई गुरेज नहीं था, जब तक वे समकालीन तीसरी दुनिया का प्रचार यहां से करवाते रहे। बस एक बार उनके आग्रह पर छापे गये संपादकीय में मॉडरेटर ने अपना शीर्षक लगा दिया, वे उखड़ गये। मॉडरेटर नोट लगाते हुए सम्‍मान के साथ हमने उसे बदल भी दिया था। कृपया लिंक देखें और पोस्‍ट पर आयी टिप्‍पणियां देखें : अयोध्या पर विचारणीय फैसला। आनंद स्‍वरूप वर्मा जी खुद जितने पाक-साफ बनने, मित्र को विचारहीनता के अंधेरे का लाभ देने और दूसरों को बंदर बताने की मुस्‍तैदी दिखा रहे हैं, वे उतने हैं नहीं। इस बात का प्रमाण पिछले कुछ सालों में प्रेस क्‍लब ऑफ इंडिया का चुनाव है, जिसमें वे एक ऐसे पैनल का प्रचार करते रहे, जिस पर भ्रष्‍टाचार के कई सारे संगीन आरोप थे और जिसका लीडर करोड़ों के गबन के आरोप में प्रेस क्‍लब से निकाला गया था। विचाराधारा के स्‍तर पर भी उनके द्वारा समर्थित पैनल के मुकाबले दूसरा पैनल ज्‍यादा डेमोक्रेटिक और वाम पृष्‍ठभूमि का था। लेकिन वर्मा जी ने सिर्फ इस वजह से भ्रष्‍ट पैनल का साथ दिया, क्‍योंकि उस पैनल से उनके परिवार का एक सदस्‍य खड़ा था। इस संदर्भ का जिक्र सिर्फ इसलिए, क्‍योंकि पर उपदेश कुशल बहुतेरे की मुद्रा में रहने वाले लोग खुद अपना दामन भी कभी-कभी देख लिया करें।

मॉडरेटर


प्रिय मंगलेश,

भारत नीति प्रतिष्ठान नामक संस्था में समांतर सिनेमा पर तुम्हारे भाग लेने के संदर्भ में कुछ ब्लॉग्स और साइट्स पर टिप्पणियां तथा जनसत्ता में ओम थानवी का लंबा लेख पढ़कर मुझे हैरानी नहीं हुई। हैरानी इस बात पर हुई कि तुम्हें मित्रों को स्पष्टीकरण भेजने की जरूरत क्यों महसूस हुई। जिन टिप्पणियों और लेख का ऊपर मैंने जिक्र किया है, उनमें से किसी को पढ़ने से यह नहीं पता चलता है कि उस गोष्ठी में तुमने कौन सी आपत्तिजनक बात कही थी – सारा मुद्दा इस पर केंद्रित है कि उस गोष्ठी में तुम गये क्यों जबकि वह एक दक्षिणपंथी संगठन द्वारा बुलायी गयी थी। तुमने इसके जवाब में कहा है कि 'यह एक चूक थी'।

मैं नहीं समझता कि यह कोई चूक थी। अगर किसी के दक्षिणपंथी अथवा वामपंथी/प्रगतिशील होने का मापदंड गोष्ठियों में जाने को ही बना लिया जाए न कि उसके जीवन और कृतित्व को तो यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण होगा। वैचारिक प्रतिबद्धता का निर्धारण इस तरह के सतही मापदंडों से नहीं होता कि कौन कहां जा रहा है अथवा किससे मिल रहा है। उदय प्रकाश का मामला इससे थोड़ा भिन्न था क्योंकि उन्होंने उस व्यक्ति के हाथों पुरस्कार लिया जो घोर कम्युनिस्ट विरोधी और प्रतिगामी विचारों का घोषित तौर पर पोषक है हालांकि इसे भी मुद्दा बनाने के पक्ष में मैं उस समय नहीं था। जिन दिनों हस्ताक्षर अभियान चल रहा था, मैंने यही कहा था कि एक बार उदय प्रकाश से पूछना चाहिए कि किन परिस्थितियों में ऐसा हुआ? कहीं अनजाने में तो उनसे यह चूक नहीं हो गयी? और इसी आधार पर मैंने उस प्रस्ताव पर हस्ताक्षर भी नहीं किया था हालांकि ओम थानवी ने हस्ताक्षरकर्ताओं में मेरा नाम भी अपने लेख में डाल रखा है। उदय प्रकाश की 'और अंत में प्रार्थना' शीर्षक कहानी ने मुझे बहुत प्रभावित किया था और उस कहानी का वैचारिक पक्ष इतना प्रबल था कि जब तक उदय प्रकाश किसी जघन्य अपराध में लिप्त नहीं पाये जाते, उनके और उनकी रचनाओं के प्रति मेरे आदर में कोई कमी नहीं आती। यही सोचकर मैंने हस्ताक्षर करने से मना किया था और आज भी मैं अपने उस निर्णय को सही मानता हूं।

तुम्हारे गोष्ठी प्रसंग पर जितनी टिप्पणियां देखने को मिली हैं, वे बहुत सतही और व्यक्तिगत विद्वेष की भावना से लिखी गयी हैं। तुम्हें याद होगा जब मैंने नेपाल पर आयोजित एक मीटिंग में विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं को आमंत्रित किया था तो हम लोगों के एक वामपंथी कवि मित्र ने मेरी इसलिए भर्त्सना की थी कि मेरे मंच पर डीपी त्रिपाठी कैसे मौजूद थे। उनकी निगाह में वह एक 'पतित राजनीतिज्ञ' हैं, इसलिए उनको आमंत्रित कर मैंने अपनी पतनशीलता का परिचय दिया। मैंने उन्हें समझाना चाहा कि वह एक राष्ट्रीय पार्टी के महासचिव के नाते वहां मौजूद थे लेकिन कवि मित्र इससे संतुष्ट नहीं हुए। बहरहाल मामला इतना ही नहीं है। हम वामपंथियों के अंदर जो संकीर्णता है, वह इस हद तक हावी है कि अगर मैं किसी मंच पर (दक्षिणपंथियों की तो बात ही छोड़ दें) सीताराम येचुरी के साथ बैठा देखा जाऊं, तो संशोधनवादी घोषित कर दिया जाऊंगा।

हमें सांस्कृतिक/सामाजिक संगठनों और राजनीतिक पार्टियों में फर्क करना चाहिए। दो वर्ष पूर्व गाजियाबाद में आयोजित भगत सिंह की यादगार से संबंधित एक गोष्ठी में मंच पर जैसे ही मेरे बगल में डीपी यादव आकर बैठे, मैंने वाकआउट कर दिया। लेकिन वह एक कुख्यात माफिया का मामला था। मैं राकेश सिन्हा को नहीं जानता लेकिन अगर वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के समर्थक हैं तो महज इस कारण हम उनके मंच से अपनी बात कहने में गुरेज करें – यह मुझे उचित नहीं लगता। क्या तुम्हें आमंत्रित करते समय राकेश सिन्हा को तुम्हारे विचारों की जानकारी नहीं थी? तुम्हें अच्छी तरह पता है कि वर्षों से रामबहादुर राय जी के साथ मेरे अच्छे संबंध हैं और मैं उनकी पत्रिका में वही लिखता रहा हूं, जो मैं चाहता हूं। रामबहादुर राय जब मुझसे मिलते हैं और राजनीतिक मुद्दों पर बातचीत होती है, तो मैं उन्हें आरएसएस समर्थक और वह मुझे कम्युनिस्ट समर्थक समझकर ही बात करते हैं और कई बार अत्यंत शालीनता के साथ हमारी बहसें भी हो जाती हैं। इसलिए हमें कहां जाना है, कब जाना है, किसके साथ बैठना है, किसके साथ नहीं बैठना है – ये सारी बातें विषय और उस समय की घटनाओं से निर्देशित होनी चाहिए। इसके लिए कोई बना बनाया फार्मूला नहीं हो सकता।

जहां तक ओम थानवी का सवाल है, संपादक होने के वावजूद उनके व्यक्तिगत आग्रह/दुराग्रह उनके संपादकीय दायित्व पर हमेशा भारी पड़े। तुम उनके साथ काम कर चुके हो और मैं उनके संपादन में नियमित तौर पर लिख चुका हूं। 1970 से दिल्ली के विभिन्न अखबारों में मैं फ्रीलांसिंग करता रहा हूं और रघुवीर सहाय से लेकर ओम थानवी तक अनेक संपादकों से मेरा साबका पड़ा। मेरा व्यक्तिगत अनुभव यही रहा कि संपादक के रूप में ओम थानवी अत्यंत अनैतिक और निकृष्ट हैं। नेपाल पर जब मैं लिखता था, उन्होंने बिना मुझसे पूछे हर जगह जनयुद्ध शब्द को इनवर्टेड कॉमा के अंदर कर दिया और जब मैंने एक बार जानना चाहा कि ऐसा वह क्यों करते हैं, तो उन्होंने कहा कि जनयुद्ध तो माओवादी मानते हैं, हम तो इसे तथाकथित जनयुद्ध ही कहेंगे। मैंने उन्हें समझाना चाहा कि यह लेख मेरा है, मेरे नाम से छप रहा है इसलिए मेरे ही विचारों को इसमें रहने दीजिए, लेकिन उन पर इसका कोई असर नहीं हुआ। मैंने इसे मुद्दा न बना कर जनयुद्ध की बजाय सशस्त्र संघर्ष लिखना शुरू किया, जो ओम थानवी के लिए ज्यादा आपत्तिजनक हो सकता था, लेकिन जिद पूरी होने की सनक से मस्त इस हठधर्मी संपादक का ध्यान इस पर नहीं गया और जनसत्ता से मेरा संबंध बना रहा। लेकिन जब प्रधानमंत्री प्रचंड द्वारा कटवाल को बर्खास्त किये जाने के बाद मेरे लेख में उन्होंने काटछांट करनी चाही क्योंकि वे कटवाल की बर्खास्तगी के पक्ष में नहीं थे, तब मेरा संबंध समाप्त हुआ क्योंकि मैं इसकी इजाजत नहीं दे सकता था। मैंने तय कर लिया कि अब ओम थानवी के संपादन में नहीं लिखूंगा। ऐसे बीसियों प्रसंग हैं, जिनके आधार पर मैं उन्हें निकृष्ट कोटि का संपादक मानता हूं। अभी के लेख में भी उनकी तिलमिलाहट इस बात से है कि वामपंथियों ने उनके आराध्य अज्ञेय पर लगातार प्रहार किये थे। इस लेख के जरिये उन्होंने अपने भरसक वामपंथ को नीचा दिखाकर अपना हिसाब-किताब चुकता करने की कोशिश की। इस समय कुछ ब्लॉग्स भी ऐसे हैं, जिन्हें देखकर लगता है कि बंदर के हाथ में उस्तरा पकड़ा दिया गया हो। बस, थानवी जैसे लेखक और उस्तरापकड़ू बंदरों वाले ब्लॉग्स में एक अच्छी दोस्ती कायम हो गयी है।

तुमने अपने स्पष्टीकरण में अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के प्रमाण के रूप में कुछ घटनाओं का जिक्र किया है, जो मुझे अनावश्यक लगा। आशा है तुम इस तरह की आलोचनाओं से आहत हुए बगैर वह करते रहोगे, जिसे ठीक समझोगे न कि वह जो दूसरों को खुश रख सके।

तुम्हारा,
आनंद स्वरूप वर्मा

Anand Swaroop Verma(आनंद स्‍वरूप वर्मा भारत में कॉरपोरेट पूंजी के बरक्‍स वैकल्पिक पत्रकारिता के लिए लंबे समय से संघर्षरत हैं। समकालीन तीसरी दुनिया पत्रिका के संपादक हैं और नेपाली क्रांति पर उन्‍होंने अभी अभी एक डाकुमेंट्री फिल्‍म बनायी है। उन्‍होंने कई किताबें लिखी हैं। उनसे vermada@hotmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

मंगलेश डबराल का व‍ह स्‍पष्‍टीकरण, जिसकी प्रतिक्रिया में उपर्युक्‍त पत्र भेजा गया है…


हां, मुझसे चूक हुई

♦ मंगलेश डबराल

पिछले कुछ दिनों से कुछ फेसबुक ठिकानों पर यह सवाल पूछा जा रहा है कि मैं भारत नीति संस्थान नामक एक ऐसी संस्था में समांतर सिनेमा पर वक्तव्य देने के लिए क्यों गया, जिनके मानद निदेशक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समर्थक राकेश सिन्हा हैं। मैं स्वीकार करता हूं कि यह एक चूक थी जो मुझसे असावधानी में हो गयी। समांतर सिनेमा की एक शोधार्थी सुश्री पूजा खिल्लन को मैंने कभी इस विषय में कुछ सुझाव दिये थे और एक दिन उन्होंने फोन पर मुझसे कहा कि एक कार्यक्रम में उनके पेपर पाठ के दौरान मैं कुछ बोलने के लिए आऊं। दफ्तर में काम की व्यस्तता के बीच मैंने इंटरनेट पर इस संस्था के बारे में कुछ सूचनाएं देखीं कि यह एक दक्षिणपंथी संस्था है लेकिन उसमें रामशरण जोशी, अभय कुमार दुबे, कमर आगा, ज्ञानेंद्र पांडेय, नीलाभ मिश्र, अरविंद केजरीवाल आदि वक्ता के रूप में शामिल हुए हैं। इससे यह भी भ्रम हुआ कि दक्षिणपंथी या हिंदुत्ववादी विचारधारा की ओर झुकाव के बावजूद यह पेशेवर संस्थान है। मुझे यह भी सूचित किया गया कि संस्थान की भूमिका सिर्फ जगह उपलब्ध कराने तक सीमित है। कुल मिलाकर मैं इस पर ज्यादा गंभीरता से विचार नहीं कर पाया।

सुश्री खिल्लन का पर्चा और मेरा वक्तव्य, दोनों सेकुलर और प्रगतिशील दृष्टिकोण के ही थे। मैंने अपने वक्तव्य में अन्य कई मुद्दों के साथ फिल्मों में हाशिये के लोगों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के चित्रण के सवाल पर भी बात की जिसमें गर्म हवा, 'नसीम', 'अलबर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है' और 'मैसी साहब' आदि की खास तौर पर चर्चा थी। सुश्री खिल्लन के पर्चे में मकबूल फ़िदा हुसैन की फिल्म 'गजगामिनी' के कलात्मक दृश्यों की भी बात की गयी थी। लेकिन गोष्ठी में क्या कहा गया, बहस इस पर नही, बल्कि वहां जाने के सवाल पर है जिसका अंतिम जवाब यही है कि यह एक चूक थी।

अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के स्तर पर मेरा रिकार्ड साफ रहा है। मैंने साहित्य अकादमी मिलने पर उत्तराखंड – तब उत्तरांचल – के मुख्यमंत्री के हाथों प्रेस क्लब देहरादून से सम्मानित होना अस्वीकार किया, फिर भाजपा शासन में आयोजित विश्व हिंदी सम्मलेन, न्यूयार्क का निमंत्रण अस्वीकार किया और तीन साल पहले बिहार सरकार का प्रतिष्ठित राजेंद्र माथुर पत्रकारिता पुरस्कार भी नहीं लिया क्योंकि सरकार में भाजपा थी। प्रायः कुछ न छोड़ने, कुछ न त्यागने के इस युग में ये मेरे कुछ विनम्र "अस्वीकार" थे।

यह भी सच है कि एक मनुष्य का इतिहास उसके व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाता है और उसके साथ चलता रहता है।

[ एनडीए के शासनकाल में साहित्‍य अकादमी पुरस्‍कार प्राप्‍त कवि मंगलेश डबराल का स्‍पष्‍टीकरण और वरिष्‍ठ वाम पत्रकार आनंद स्‍वरूप वर्मा का पत्र, दोनों ही जनपथ की प्रॉपर्टी है। एक म्‍युचुअल अंडरस्‍टैंडिंग के तहत इसे हम उठा-चिपका रहे हैं। ]

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