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Sunday, May 13, 2012

मायूसी के इस माहौल में

मायूसी के इस माहौल में


Sunday, 13 May 2012 14:37

तवलीन सिंह 
जनसत्ता 13 मई, 2012: महाराष्ट्र में सूखे के कारण लोग अपने गांव छोड़ कर मुंबई भागे आ रहे हैं।


फुटपाथों पर डेरा डाले हुए हैं, फ्लाइओवरों के नीचे पूरे परिवार बस गए हैं। भूखे तो शायद इस महानगर में भी रहेंगे, पर पानी की किल्लत इतनी नहीं है कि चौबीस घंटे इंतजार के बाद मिलता है दो पतीले पानी। पंजाब में फिर से इस साल अनाज सड़े जा रहा है। अजीब बात है कि मिसाइल तो बना लेते हैं हम, लेकिन गोदाम नहीं बना पाते। रुपया इतना कमजोर हो गया है कि रिजर्व बैंक का पिछले सप्ताह से निर्यातकों को हुक्म है कि वे डॉलर बेचें और रुपए खरीदें। विदेशी निवेशक भारत से भाग रहे हैं और भारतीय निवेशक मायूस हैं। अगर आप अभी तक समझ नहीं पाए हैं कि मैं कहना क्या चाहती हूं तो स्पष्ट शब्दों में समझाती हूं: हमारी सबसे बड़ी राजनीतिक समस्या आज अर्थव्यवस्था है। 
भारत की अर्थव्यवस्था इतनी बेहाल है कि वे सुनहरी यादें धुंधलाती जा रही हैं जब विदेशी निवेशकों को भारत से इतनी आशाएं थीं कि 2009 में दुनिया के तमाम बड़े राजनेता यहां आए थे। बराक ओबामा, निकोलस सरकोजी, डेविड कैमरून, दमित्री मेदवेदेव सब आए थे दिल्ली, इस उम्मीद से कि भारत का भविष्य इतना रोशन है कि विश्व की महान आर्थिक शक्तियों में उसकी जगह तय है। रही हम जैसे राजनीतिक विश्लेषकों की बात, तो मैं उनमें से थी जो खुशहाली के सपने देखने लग गई थी। लेकिन तब भी मेरे कई साथी कहा करते थे कि हम एक कदम आगे चलेंगे और पांच कदम पीछे, क्योंकि 1947 के बाद हमारा यही दस्तूर रहा है।
ठीक कहते थे वे, गलत थी मैं। अब तो ऐसा लगने लगा है कि 2009 के चुनाव के बाद हमारे सारे आर्थिक कदम पीछे की तरफ जा रहे हैं। कुछ इसलिए कि सोनिया गांधी और उनकी सलाहकार समिति के वामपंथी सलाहकार समझ नहीं पाए हैं कि खैरात बांटने से पहले धन पैदा करना जरूरी है। कुछ इसलिए कि वित्तमंत्री की नीतियां और कर ऐसे थे कि निवेशक डर गए, लेकिन कुछ कसूर उनका भी है, जिनके नाम अभी तक बहुत कम लिए गए हैं।
मेरी राय में इस सूची में सबसे ऊपर नाम होना चाहिए सीएजी का, जो 2 जी घोटाले का पर्दाफाश करने के बाद अपने आप को इतना महारथी समझने लग गए हैं कि सरकार के कामकाज में दखल देने लग गए हैं। हर सप्ताह सीएजी की तरफ से कोई 

न कोई नया सुझाव आता है। लेकिन चूंकि नीतियां बनाना सीएजी का काम नहीं है, यह दखलअंदाजी अजीब साबित होती जा रही है। एअर इंडिया को लेकर कभी सीएजी ने विमानों की खरीद में विलंब पर सरकार को फटकार लगाई तो अगले वर्ष कह दिया कि विमान ज्यादा खरीदे गए, इसलिए कंगाल हो गया एअर इंडिया। पिछले सप्ताह की एक नई रिपोर्ट में सीएजी के सुझाव हैं सरकारी कारखानों को बचाने के। परंपरा यह है कि अगर सीएजी के पास सुझाव हैं भी सरकार के लिए तो उसे वे सुझाव सरकार को देना चाहिए, न कि आम आदमी को टीवी के जरिए। 
लेकिन क्या किया जाए, जब सोनिया-मनमोहन की यह सरकार इतनी फिसड््डी निकली है कि आजकल सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों से लेकर योग गुरुओं और अर्द्धशिक्षित समाज सेवकों की तरफ से भी सुझाव आते हैं। पिछले वर्ष इन समाज सेवकों और गुरुओं ने भ्रष्टाचार को मुद्दा बना कर इतना हंगामा किया कि ऐसा लगने लगा कि भ्रष्टाचार सिर्फ भारत देश में देखने को मिलता है। उनके समर्थकों ने शहरों में इतना हल्ला-गुल्ला किया, इतने धरने दिए कि सुस्त, अकर्मण्य सरकारी अफसर डर के मारे और भी सुस्त और अकर्मण्य बन गए। जिनका भारत सरकार के दफ्तरों-महकमों से वास्ता है, आजकल सब कहते हैं कि 'कुछ नहीं हो रहा है'। निर्णय, फाइलें, नीतियां, योजनाएं सब रुकी पड़ी हैं। 
सवाल यह है कि क्या 2014 के आम चुनावों से पहले हम कुछ होने की उम्मीद कर सकते हैं कि नहीं? यह सवाल जब मैंने अर्थशास्त्रियों, उद्योगपतियों और आर्थिक मुद्दों पर लिखने वालों से किया तो उन्होंने निराशा जताई। सबने कहा कि उनकी राय में इस सरकार ने अर्थव्यवस्था का इतना बुरा हाल कर रखा है कि मुमकिन है कि अगले कुछ महीनों में रुपया और कमजोर हो जाएगा और अर्थव्यवस्था की वार्षिक वृद्धि गिर जाएगी, पांच फीसद से भी कम।
खबर बुरी है दोस्तों, बहुत बुरी, लेकिन अभी तक दिल्ली के राजनीतिक गलियारों तक लगता है पहुंची नहीं है, वरना इस बजट अधिवेशन में कम से कम एक बार तो देश की बिगड़ी अर्थव्यवस्था पर बहस सुनने को मिलती? जितना हंगामा इस सप्ताह हुआ बाबा साहब आंबेडकर के कार्टूनों को लेकर, कम से कम उतना तो होना चाहिए था देश की बिगड़ी अर्थव्यवस्था को लेकर। अगर कुछ पहले हुआ होता, तो मुमकिन है कि इस मायूस स्थिति तक न पहुंचते हम। अब अगर उम्मीद है कोई तो सिर्फ यह कि 2014 के चुनाव के बाद तूफानी परिवर्तन आएगा, लेकिन तब तक मुमकिन है बहुत देर हो चुकी होगी।

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