Follow palashbiswaskl on Twitter

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity Number2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

What Mujib Said

Jyoti Basu is dead

Dr.BR Ambedkar

Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti Devi were living

Wednesday, May 2, 2012

सुर न हो, तो सिर्फ शब्‍द से काम नहीं चलता लाल बाश्‍शाओ!

http://mohallalive.com/2012/05/02/flop-performance-by-pakistani-laal-band-at-jnu/

आमुखविश्‍वविद्यालयशब्‍द संगत

सुर न हो, तो सिर्फ शब्‍द से काम नहीं चलता लाल बाश्‍शाओ!

2 MAY 2012 2 COMMENTS

लाल बैंड @ जेएनयू : नाम बड़े और दर्शन थोड़े

♦ शुभम श्री

पीएसआर के ओपन एयर थिएटर में गूंजता लाल सलाम और मजदूर दिवस। सिगरेट का धुआं और नीम के फूल। आसमान में चांद का टेढ़ा मुंह और लाल का इंतजार। जेएनयू में अमूमन बैंड परफॉर्मेंसेज नहीं होते, रवायत भी नहीं है। न पुराने लोगों का वैसा रुझान। लेकिन अब जेएनयू बदल रहा है। यह और बात है कि अद्वैता या यूफोरिया की जगह यहां लाल बैंड आया है। कल्चर इंडस्ट्री में कई तरह का माल बिकता है। इसका अंदाजा उन साथियों को हो गया होगा, जो लाल की परफारमेंस शुरू होने के पहले चंदा देने की अपील कर रहे थे। जहां स्टूडेंट्स यूनियन को भी साल भर के खर्चे के लिए लाख रुपये न मिलते हों, वहां एक बैंड पर लाख से ज्यादा खर्च करने का क्या उद्देश्य है – पता नहीं। वो भी मजदूर दिवस पर।

लाल बैंड के जबर्दस्त प्रचार की वजह से आज परीक्षा के बावजूद कैंपस की खोह-कंदराओं से लोग निकल कर आये लेकिन अफसोस कि अंत में निराशा ही हाथ लगी। अगर गायक अच्छे न हों तो फिर वो फैज की नज्म गाएं या इकबाल की, अच्छी नहीं लगेगी। कला के मूल्य इस मायने में जरा दूसरे रास्ते चलते हैं। भला हो हिरावल का, जिसने लाल के मंच पर आने से पहले कुछ कविताएं गाकर हमें थोड़ी राहत दी वरना हमें ऐन इम्तहान के पहले पछतावे के सिवा कुछ हासिल न होता। फैज, मुक्तिबोध, वीरेन डंगवाल और गोरख पर लिखी दिनेश कुमार शुक्ल की कविताएं सुनते हुए लगा कि आज की रात हम अपनी परीक्षाओं के दरम्यान लाल के साथ भी थोड़ी सी आग, थोड़ी सी ऊर्जा यहां से बटोर कर ले जा सकेंगे। लेकिन अफसोस कि हिरावल की टीम ने एक हारमोनियम में जो काम कर दिखाया, वो लाल बैंड नहीं कर सका।

जेएनयू में अरसे से हॉस्टल नाइट के दौरान बाकी जगहों की तर्ज पर रॉक बैंड बुलाने की मांग की जाती रही है, लेकिन हर बार पैसों की कमी और बैंड्स की मोटी फीस आड़े आ जाती है। इन सब बाधाओं का जहां इतिहास रहा है, वहां लाल बैंड का आना पब्लिक मीटिंग या प्रोटेस्ट मार्च जैसी जानी-पहचानी बात नहीं थी। लाल को लेकर कैंपस में जोश तो बहुत था, पर कॉमरेड परेशान भी दिख रहे थे। वजह वही, बैंड की फीस का पूरा न पड़ना। साथियों से मदद की अपील।

लाल इंटरनेशनल बैंड है। पाकिस्तान में उन्होंने काफी नाम कमाया है लेकिन उनमें टैलेंट नहीं है। कम से कम गाने का। कलाकारों का अच्छा दिखना भी तभी जंचता है, जब परफॉर्मेंस अच्छी हो। ऐसे में मुझे समझ नहीं आता कि लाल जैसे बैंड को बुलाने की क्या जरूरत थी? इससे बेहतर तो ये होता कि हिरावल गोरख की कविताओं का संकलन या और भी कवियों की कविताएं गाता। जेएनयू शायद अब उन आखिरी जगहों में है, जहां हिरावल जैसी संस्था को मंच मिलता है। यह हक छीना नहीं जाना चाहिए, न ही उसमें कटौती की जानी चाहिए। सिर्फ गाने की भी बात हो तो भी हिरावल साधनहीन होने के बावजूद लाल से कई गुना बेहतर था। लेकिन सवाल सिर्फ लाल और हिरावल का नहीं। उस रवायत की तब्दीली का है, जो कोई बेहतर तब्दीली नहीं जान पड़ती।

हैचेट और पेंगविन अगर हॉब्सबाम और मार्क्स को बेच रहे हैं तो उनका चरित्र नहीं बदल जाता। लाल एक मशहूर बैंड है पर वो उसी तरह प्रोफेशनल है जैसे बाकी के बैंड्स। बस उसका कंटेट अलग है। सिर्फ इसलिए कि लाल फैज को गा रहा था, हम उनके खराब गाने की तारीफ तो नहीं कर सकते। फैब इंडिया के ब्रांड एंबैसेडर्स के इस कैंपस में जहां आज भी लोग अंग्रेजी की भारी-भरकम रीडिंग्स को समझने में संघर्ष करते हैं, मुक्तिबोध और गोरख को गाया जाना बहुत बड़ा सुकून है। लेकिन उस सुकून देने वालों का क्या आदर हुआ, सबने देखा। हिरावल को ढंग से इंट्रोड्यूस करना तो दूर, एक बुके तक नहीं दिया गया। क्या जसम की इकाई होने के कारण वह घर की मुर्गी दाल बराबर है? जेएनयू की रेड रिपब्लिक में लाल और हिरावल के साथ दो तरह के व्यवहार से मन दुखी हो गया। हिरावल के साथियो, आपके एक हारमोनियम का सुर, आपकी आवाज हमें किसी भी बैंड से प्यारी लगी। आपको संकोच करने की जरूरत नहीं कि आपके पास साधन नहीं है, आपके पास दिल की आवाज है। मैं बस एक ही सवाल का जवाब पाना चाहती हूं – क्या फैशन के साथ चलने के लिए अपना स्टाइल छोड़ना इतना जरूरी है?

(शुभमश्री। रेडिकल फेमिनिस्ट। लेडी श्रीराम कॉलेज से ग्रेजुएशन। फिलहाल जेएनयू में एमए की छात्रा। कविताएं लिखती हैं। मुक्तिबोध पर कॉलेज लेवल रिसर्च। ब्लॉगिंग, फिल्म और मीडिया पर कई वर्कशॉप और विमर्श संयोजित किया। उनसे shubhamshree91@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

No comments: