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Saturday, May 5, 2012

मायावती के सर्वजन शासन को दलितों ने क्यों नकार दिया? Publish date (Tuesday, March 06, 2012)

मायावती के सर्वजन शासन को दलितों ने क्यों नकार दिया?
Publish date (Tuesday, March 06, 2012)

मायावती के सर्वजन शासन को दलितों ने क्यों नकार दिया?
Publish date (Tuesday, March 06, 2012)

एस. आर. दारापुरी
हाल ही में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2012 के नतीजों के बाद मायावती ने यह दावा किया कि चाहे उनकी बहुजन समाज पार्टी (बसपा) चुनाव हार गई, उनका दलित वोट बैंक बरकरार है। लेकिन यदि हम चुनाव नतीजों का विश्लेषण करें तो उनका दावा झूठा और भ्रामक नज़र आता है।
सबसे पहले यूपी में दलितों की कुल जनसंख्या और मायावती को मिले वोटों पर गौर करें। यूपी में दलित कुल जनसंख्या का 21 प्रतिशत हैं और वे 66 उपजातियों में बँटे हुए हैं (देखें तालिका)

उपरोक्त ज़िलों में दलितों के जनसंख्या आँकड़ों के आधार पर बसपा द्वारा जीती गई आरक्षित सीटों की संख्या का विश्लेषण किया जाना चाहिए। साल 2007 के विधानसभा चुनावों में बसपा को 89 में से 62 आरक्षित सीटें पर जीत हासिल हुई, जबकि समाजवादी पार्टी (सपा) ने 13, कांग्रेस ने 5 और भाजपा ने 7 सीटें हासिल कीं। उस चुनाव में, बसपा को 30 प्रतिशत वोट पड़े। साल 2009 के लोकसभा चुनाव में 17 आरक्षित सीटों में से बसपा को 2 सीटें मिलीं, सपा को 10 और कांग्रेस को 2। 2009 में बसपा को 27 प्रतिशत वोट मिले, 2007 के मुकाबले 3 प्रतिशत कम। इस गिरावट का मुख्य कारण था मायावती के सर्वजन फ़ॉर्मूले के प्रति दलितों की नाराज़गी। यह मायावती के लिए चेतावनी का संकेत था लेकिन उन्होंने इस पर कोई गौर नहीं किया।

इस साल, 2012 में, मायावती के पतन का मुख्य कारण यही लगता है कि मुसलमानों, अति पिछड़ा वर्ग और सामान्य श्रेणी वोटों के अलावा उनके दलित वोटों में भी कमी आई है। इस बार 85 आरक्षित सीटों में से बसपा को केवल 16 सीटें ही मिलीं जबकी सपा ने 54 सीटें हथिया लीं। इन 85 विजेताओं में से 35 चमार/जाटव और 25 पासी हैं। इनमें से भी, 21 पासी सपा से हैं और केवल 2 बसपा से। मायावती ने जिन 16 आरक्षित सीटों पर जीत हासिल की उनमें से 13 चमार/जाटव हैं और केवल दो पासी। इस प्रकार मायावती की हार का एक कारण था कि आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों से दलित वोट कम आए। सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों में भी मायावती की हार कारण यही था कि वहाँ भी उन्हें दलित वोट कम ही मिले। इस बार मायावती 26 प्रतिशत वोट ही प्राप्त कर पाई, जो 2007 के वोट शेयर से 4 प्रतिशत कम था।
मायावती की अधिकांश आरक्षित सीटें पश्चिमी यूपी से आईं जहाँ उनकी अपनी उपजाति जाटव बहुसंख्या में हैं। पूर्वी, केंद्रीय और दक्षिणी (बुंदेलखंड) यूपी में जहाँ चमार उपजाति अधिक संख्या में हैं, मायावती को बहुत सीमित संख्या में सीटें प्राप्त हुईं। एक तरफ़ तो मायावती का पासी, कोरी, धोबी, खटिक और बाल्मिकी वोट खिसका है, और दूसरी तरफ़, चमार/जाटव वोट बैंक में से (70 प्रतिशत चमार, 30 प्रतिशत जाटव), चमार वोटर भी उन्हें छोड़ चुके हैं।
मायावती के दलित वोट बैंक में गिरावट आने का अन्य प्रमुख कारण है उनका भ्रष्टाचार, कुप्रशासन, विकास की कमी, दलित उत्पीड़न की अनदेखी और निरंकुश रवैया। मायावती ने दलित मुद्दों को नज़रअंदाज़ करते हुए जो अपने आप को बुतों इत्यादि के द्वारा इतना अधिक प्रचारित किया, उसे भी अधिकांश दलितों ने पसंद नहीं किया। अपने सर्वजन वोटरों को खुश रखने के लिए दलित उत्पीड़न की घटनाओं को नज़रअंदाज़ करने के द्वारा मायावती ने दलितों को दुहरी मार मारी। दलित उत्पीड़न के आपराधिक मामलों को कम दिखाने के लिए, इस बहाने से कि एससी/एसटी एक्ट का दुरुपयोग होता है, उन्होंने 2001 में इसे लिखित में कमज़ोर किया और फिर उसके बाद से मौखिक संकेत दे दे कर। इसका परिणाम यह हुआ कि अपराधियों को मामले दर्ज न होने के कारण कोई सज़ा नहीं मिलती थी और इस एक्ट के नियमों के तहत दलितों को जो रुपये-पैसे का मुआवज़ा मिलना चाहिए था वह भी नहीं मिलता था।
दलितों में एक धारणा पैदा होने लगी कि मायावती सरकार के सारे लाभ चमार और जाटव बिरादरियाँ ही हथिया रही हैं, हालाँकि यह पूरा सच नहीं है। इस धारणा के चलते भी गैर-चमार/जाटव उपजातियाँ बसपा से दूर हुईं। अब अगर हम इस धारणा की सच्चाई को देखें तो पाएँगे कि बसपा के शासन में केवल उन्हीं दलितों को फ़ायदा मिला जो मायावती के निजी भ्रष्टाचार में खुद शामिल थे। यह भी देखा गया कि उनके शासनकाल में जिन दलितों को उत्पीड़ित किया गया उन्होंने बसपा को वोट नहीं दिया। पुलिस थानों में उनके उत्पीड़न के मामले तक दर्ज नहीं हुए। एक आम आरोप यह भी है कि मायावती ने भ्रष्ट, उद्दंड और शोषणकारी कैडर का निर्माण किया जिसने दलितों तक को नहीं बख्शा। दलित आंदोलन को सबसे अधिक नुकसान मायावती के इसी दलित कैडर के भ्रष्टाचार पहुँचाया है। 
मायावती की हार का एक कारण बार-बार घमंड से भर कर यह कहना भी था कि उनका वोट बैंक स्थानांतरित किया जा सकता है। इस आत्मविश्वास के साथ वे विधानसभा और लोकसभा की चुनावी टिकटें सबसे ऊँची बोली लगाने वाले को बेच रही थीं। इससे कई दलित उत्पीड़क, माफ़िया, अपराधी और पैसे वाले लोग बसपा टिकटें पा गए और मायावती ने दलितों को उन्हें ही वोट देने का आदेश दे दिया। लेकिन इस समय दलितों ने मायावती के इस आदेश को मानने से इनकार कर दिया और बसपा उम्मीदवारों के लिए वोट नहीं दिया। दूसरे, मायावती के इन विधायकों और मंत्रियों ने दलितों के लिए कुछ नहीं किया बल्कि वे भ्रष्टाचार और दलित विरोधी गतिविधियों में संलिप्त रहे। तीसरे, मायावती ने हर चीज़ को अपने हाथों में केंद्रित कर लिया था और उनके विधायक असहाय प्राणी बन कर रह गए जो खुद कुछ करने की स्थिति में नहीं थे।
मायावती की अवसरवादी और भ्रष्ट राजनीति के कारण दलित दृष्टि (विज़न) धुंधली हुई जिसके कारण वे अपने दोस्तों और दुश्मनों में फ़र्क नहीं कर पा रहे। इस तथाकथित मनुवाद (ब्राह्मणवाद) और जातिवाद के खिलाफ़ चल रही लड़ाई इसलिए कमज़ोर हुई है क्योंकि बसपा परिघटना ने एक भ्रष्ट और उद्दंड वर्ग को जन्म दिया है जो अपनी जाति के लेबल को अपनी व्यक्तिगत लाभ के लिए ही इस्तेमाल करना चाहती है। उन्हें दलित मुद्दों से कुछ लेना-देना नहीं। एक विश्लेषण के अनुसार, यूपी के दलित विकास के मानदंडों पर बाकी सभी राज्यों के दलितों से पीछे हैं। केवल बिहार, ओडीशा और मध्यप्रदेश के दलित यूपी के दलितों से कुछ पीछे हैं। यूपी के 60 प्रतिशत दलित गरीबी रेखा के नीचे हैं और 60 प्रतिशत दलित महिलाएँ कुपोषण का शिकार हैं। क्राई द्वारा करवाए गए एक हालिया सर्वेक्षण के अनुसार, 70 प्रतिशत दलित बच्चे कुपोषित हैं। यूपी के अधिकांश दलित खेत मज़दूर हैं और अकसर बेरोज़गारी और उत्पादन के साधनों की कमी के शिकार होते हैं। अपने सर्वजन साथियों को खुश रखने के लिए मायावती ने भूमि सुधारों पर कोई कार्यवाही नहीं की जो दलित सशक्तिकरण का सर्वोत्तम माध्यम हो सकते थे। व्यापक भ्रष्टाचार के कारण, सभी कल्याणकारी योजनाएँ जैसे की मनरेगा, आंगनवाड़ी योजना, इंदिरा आवास योजना, विधवाओं, बुज़ुर्गों और विकलांगों के लिए विभिन्न पेंशन योजनाएँ भ्रष्टाचार का शिकार हुईं और दूसरों के साथ-साथ दलित भी उनके लाभ से वंचित रहे।
मायावती ने अपने आपको जनता से दूर कर लिया और लोगों के पास मायावती को अपनी तकलीफ़ें बताने का रास्ता बंद हो गया। इन कारणों से दलितों ने मायावती को खारिज कर दिया जैसा कि चुनाव नतीजों में नज़र भी आता है।
कुछ लोग, मायावती को दलित राजनीति और दलित आंदोलन की एकमात्र प्रतीक मान कर उनपर सवाल उठा रहे हैं। यह स्पष्ट कर देना होगा कि मायावती पूरी दलित राजनीति और दलित आंदोलन की प्रतिनिधित्व नहीं करतीं। मायावती एक दलित राजनेता मात्र हैं जिनका प्रभाव यूपी तक ही सीमित है। देश के अन्य हिस्सों में उनका कोई खास प्रभाव नहीं रहा। अलग-अलग दलित संगठन अपने ढंग से राजनैतिक गतिविधियाँ चला रहे हैं। पंजाब में अनुपात की दृष्टि से दलितों की संख्या सबसे अधिक है लेकिन बसपा के लिए वहाँ कोई जगह नहीं है।
जहाँ तक दलित आंदोलन का सवाल है तो उसके सामाजिक और धार्मिक पहलू हैं। मायावती की उसमें कोई भूमिका नहीं है। बौद्ध धर्म में धर्मांतरण की जो शुरुआत डॉ. अंबेडकर ने की थी उसे दलित खुद ही आगे बढ़ा रहे हैं। दलित और कुछ बौद्ध संगठन इस गतिविधि को खुद चला रहे हैं। मायावती स्वयं बौद्ध नहीं हैं। उनके गुरु कांशीराम भी दलित उत्थान के लिए धर्मांतरण की प्रभावशीलता में विश्वास नहीं करते थे। मायावती ने दलितों को लुभाने के लिए लखनऊ में एक बौद्ध विहार बनवाया है लेकिन उस बौद्ध धार्मिक प्रतीक का निर्माण केवल राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ती के लिए किया गया है। मायावती और कांशीराम जातीय पहचान का इस्तेमाल राजनैतिक लामबंदी के लिए करने में विश्वास करते थे। उनकी आस्था जाति तोड़ने में नहीं थी। डॉ. अंबेडकर ने कहा है कि जातिविहीन और वर्गविहीन समाज हमारा राष्ट्रीय उद्देश्य होना चाहिए। लेकिन कांशीराम और मायावती राजनीति में जाति के खिलाफ़ जाति का इस्तेमाल करते हुए जाति को ही बढ़ावा देने में विश्वास करते हैं।
यह साफ़ है कि मायावती का दावा कि उनका दलित वोट बैंक बरकरार है झूठा और भ्रामक है। लगता है मायावती अपने वोट बैंक को बरकरार रखने में कांग्रेस की नीति का अनुसरण कर रही हैं। कांग्रेस ने मुसलमानों को यह कहकर ब्लैकमेल किया था कि केवल वह ही उन्हें हिंदू बहुसंख्यकों के आतंक से बचा सकती है और उन्हें कांग्रेस से दूर जाने का सोचना भी नहीं चाहिए। इसी तरह मायावती भी दलितों को ब्लैकमेल कर रही हैं ताकि वे बसपा को छोड़ कर न जाएँ। उन्होंने दलितों को बड़ी ही चतुराई से मुख्यधारा के राजनैतिक दलों से दूर कर दिया है और यह घोषणा कर दी कि वे पूरी तरह से उनके प्रति वचनबद्ध हैं। लेकिन अब दलितों ने अपने आप को मायावती के तिलिस्म से आज़ाद कर लिया है। अब आशा की जा सकती है कि दलित यूपी में हुए इस बसपा प्रयोग से सबक लेंगे और एक क्रांतिकारी, अंबेडकरवादी, मुद्दों पर आधारित राजनैतिक विकल्प को चुनेंगे तथा जातिवादी, अवसरवादी तथा सिद्धांतविहीन राजनीति से दूर होंगे। केवल यही एकमात्र रास्ता है जो उन्हें राजनैतिक, सामाजिक और धार्मिक उत्थान और सशक्तिकरण की ओर ले जाएगा।

एस. आर. दारापुरी भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) के सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। यह लेख मूलतः www.countercurrent.org पर प्रकाशित हुआ था    


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