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Monday, June 25, 2012

कश्मीर में खिली उम्मीद की कली

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कश्मीर में खिली उम्मीद की कली

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कश्मीर में खिली उम्मीद की कली
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लगता है कि कश्मीर घाटी में सामान्य जनजीवन पटरी पर लौट रहा है। जम्मू कश्मीर में आतंकी गतिविधियों में बीते कुछ महीनों के दौरान खासी कमी आई है। वर्ष 2010 में अलगाववादियों के बहकावे में आकर पत्थरबाजी पर उतारू होने के बाद लहुलुहान हुई घाटी में यह बदलाव सबको महसूस हो रहा है। इस बार गर्मियों के मौसम में पर्यटकों की संख्या में हुआ इजाफा इस का मुंहबोलता प्रमाण है। ताजा खबर यह है कि बरसों से पर्यटकों से वंचित श्रीनगर का पुराना शहर, जिसे कि शहरे-खास भी कहा जाता है, भी अब सैलानियों के स्वागत कर रहा है। भारतीय सेना और केंद्र सरकार इस नई बयार पर सुकून महसूस कर रहे हैं तो अलगाव के अलाव पर रोटी सेंकने वालों के पांवों तले से जमीन खिसक रही है।

यूं भी कहा जा सकता है कि धरातल पर आए इस बदलाव को विभिन्न पक्षों के लोग अपने अपने नजरिए से देख  और नाप-तोल रहे हैं। ऐसा होना स्वाभाविक भी है। मसलन, मुख्यमंत्री उमर अब्दुला माहौल में आए बदलाव को आधार बनाकर राज्य के कुछ हिस्सों से सुरक्षा बल विशेष शक्तियां अधिनियम यानि अफस्पा हटाने की रट लगाए हुए हैं। उन्हें शायद यह भी लगता होगा कि उनका सुशासन हालात में सुधार के लिए उत्तरदायी है। जम्मू कश्मीर में 11 महीने तक यहां वहां-भटकने के बाद पूर्वनिर्धारित तर्ज पर देशघाती रिपोर्ट लिखने वाले वार्ताकार समूह का नजरिया कुछ और ही है। अलगाववादियों और भारतद्रोहियों की शब्दावली  में भारत के लिए घाटे का घाटी-राग अलाप कर जम्मू कश्मीर के सवाल को उलझाने की आरोपी यह तिकड़ी भी आत्मविमोह से ग्रस्त है। इन्हें लगता है कि राज्य के हालात में सुधार की जमीन तो इनकी यात्राओं और वार्ताओं ने ही तैयार की है। दिलीप पड़गांवकर और उनकी जुंडली ने जिस निर्लज्जता के साथ अपनी रपट में राज्य के शांति की ओर बढ़ते कदमों के लिए अपनी पीठ थपथपाई है,उस पर सिर्फ हंसा ही जा सकता है।

जम्मू कश्मीर के घटनाचक्र पर पैनी निगाह रखने वालों की राय इस तिकड़ी से मेल नहीं खाती। इसमें संदेह नहीं कि घाटी में हिंसक घटनाओं की संख्या उत्तरोत्तर घटी है। आंकडे़ और घाटी का माहौल दोनों इसकी गवाही देते हैं। मगर इस सुकूनदायी नजारे के एक से अधिक कारण हो सकते हैं। इनमें सबसे अहम कारण है सरहद पार से आयात होने वाले आंतक पर लगा अंकुश। इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि सौ साल तक भी कश्मीर के लिए हिंदुस्थान से जंग लड़ने की बात करने वाले हमारे नापाक पड़ौसी को एकाएक सदबुद्धि आ गई है। पाकिस्तानी फौज और आई.एस.आई. की नीति और नीयत में इस प्रकार की तब्दीली की अपेक्षा करना ख्याली पुलाव से अधिक कुछ नहीं हो सकता। मगर जमीनी स्थिति यह है कि जम्मू कश्मीर में घुसपैठ में खासी कमी आई है। इसका श्रेय भारतीय सेना व सुरक्षा बलों की चौकसी को जाता है। सीमा पर लगाई गई कांटेदार तार की बाड़ ने इसमें अहम भूमिका अदा की है। दूसरी ओर सेना ने स्थानीय लोगों का विश्वास जीतने के लिए जो बहुआयामी प्रयास किए हैं, उनके भी सकारात्मक परिणाम निकले हैं।

सरहद पार से कश्मीरी जेहादियों को मिल रही प्राणवायु का रास्ता सेना ने प्रभावी ढंग से रोका है। इससे आतंकी और जेहादी तत्व कितने बेचैन हैं, यह तो हिजबुल मुजाहिदीन के मुखिया सैयद सलाहुद्दीन बिना पूछे बता रहे हैं। चंद रोज पहले आंतक के इस सौदागर और मुत्ताहिदा जेहाद कौंसिल के प्रमुख ने अरब न्यूज को एक साक्षात्कार दिया। इसमें उसकी बौखलाहट साफ दिखी। उसने कहा कि जम्मू कश्मीर में हिजबुल मुजाहिदीन और दूसरे जेहादी तत्व वस्तुतः पाकिस्तान के हिस्से की जंग लड़ रहे हैं। उसका कहना है कि हम अर्थात जेहादी घाटी में पाकिस्तान के लिए लड़ रहे हैं और अगर पाकिस्तान ने हमारी मदद करना बंद किया तो हम यह लड़ाई पाकिस्तान की धरती पर और उसके खिलाफ लडेंगे। यह आतंकी सरगना आज भी बंदूक के दम पर घाटी से भारत को बेदखल करने के दावे करता नहीं थकता।

दरअसल,सलाहुद्दीन और उसके दोस्तों को कहीं यह अंदेशा होने लगा है कि उनका आका पाकिस्तान किसी वजह से उनको दिए जाने वाली मदद से हाथ खींच रहा है। हमारा मानना है कि जम्मू कश्मीर पर पाकिस्तानी रुख में कोई बदलाव नहीं आया है। बदली है तो जमीनी परिस्थितियां जिनके चलते पाकिस्तान के लिए अपने जेहादी गुर्गों को मदद पंहुचाना अब उतना सरल नहीं रह गया है। अलगाववादी हुर्रियत कांफ्रेंस के स्वनामधन्य उदार खेमे के नेता मीरवायज उमर फारूक ने सलाहुद्दीन के बयान के तुरंत बाद पाकिस्तान के आधिकारिक प्रवक्ता की तरह सार्वजनिक रूप से कहा कि कश्मीरियों की लड़ाई का समर्थन पाकिस्तान की कोई सरकार कम या बंद नहीं कर सकती चूंकि यह पाकिस्तान की घोषित राष्टीय नीति है। मीरवायज के इस बयान में दम है और दिल्ली को ऐसे किसी मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि इस्लामाबाद का रुख बदल रहा है।

पांच साल दिल्ली में पाकिस्तानी उच्चायुक्त रहे शाहिद मलिक इस माह दिल्ली से इस्लामाद के लिए रवाना होने से पहले इस बारे में पुरानी पाकिस्तानी तोतारटंत दोहराना नहीं भूले। भारत के उदार प्रजातांत्रिक शासन की भलमानसाहत का नाजायज फायदा उठाकर आए दिन हमारी सेना और सरकार को कोसने वाले मीरवायज को शाहिद मलिक ने चलते चलते फोन लगाया। मलिक ने मीरवायज को हौंसला देते हुए कहा कि जम्मू कश्मीर पर पाकिस्तान के परपंरागत स्टैंड में कहीं कोई बदलाव नहीं आया है।

इस बीच घाटी के अलगाववादी नेतृत्व में व्याप्त बेचैनी का प्रमाण हुर्रियत के दूसरे खेमे के मुखिया सैयद अली शाही गीलानी के बयानों में भी देखने को मिलता है। पाकिस्तानी खुराक में कमी का परिणाम गीलानी को परेशान किए हुए हैं। स्थानीय युवकों में जिस छोटे से तबके पर अपनी विषाक्त पकड़ के सहारे वह भारत विरोधी कारोबार चला रहा था, वह भी उसके हाथ से खिसकने लगा है। खबर है कि बीते दिनों गीलानी के बंद के आवाहन का उनके प्रभाव वाले मोहल्लों में ही निहायत सीमित असर हुआ। ऐसे में खंभा नौचती खिसियानी बिल्ली की तरह गीलानी को फिर गर्रियाते सुना गया कि भारत कश्मीरियों की मांगे माने वरना युवक हथियार उठाने की सोच रहे है। यह वस्तुतः गीलानी की दूकान में सिमटते सामान से उपजी झल्लाहट से अधिक कुछ नहीं।

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