| Thursday, 14 February 2013 11:19 |
बनवारी गरीब आबादी के लिए रोजगार पैदा करने की चिंता सरकार ने पहले छोड़ दी थी। अब उसने उनकी निर्वाह लागत मर्यादा में रखने की चिंता भी छोड़ दी है। आजादी के बाद यह पहला अवसर है, जब सरकार बेझिझक सब वस्तुओं के दाम बढ़ाती जा रही है। सब जानते हैं कि मुद्रा के विस्तार के साथ-साथ लोगों की आमदनी बढ़ती है तो उनके उपयोग की वस्तुओं की कीमतें भी बढ़ती हैं। पर यह देखना सरकार की जिम्मेदारी होती है कि वस्तुओं के दाम इस मर्यादा में बढ़ें कि उनकी आय में हुई बढ़ोत्तरी निरर्थक न हो जाए। ऐसा लगता है कि इस दायित्व की अब सरकार को चिंता नहीं रह गई है। बढ़ती महंगाई से ध्यान बंटाने के लिए सरकार ने पूरी बहस को एक नया मोड़ दे दिया है। उसने सबसे पहले महंगाई की बहस को अनुदान से स्थिर रखी जाने वाली कीमतों में सीमित कर दिया। फिर ऐसी वस्तुओं की कीमत अनाप-शनाप बढ़ाते हुए यह घोषणा की कि गरीब परिवारों में अनुदान की राशि सीधे नकद दी जाएगी। यह तरीका सबसे पहले ब्राजील में अपनाया गया था। आर्थिक विकास के अंतरराष्ट्रीय लंबरदारों का मानना है कि इस योजना से ब्राजील के गरीबों को लाभ हुआ। इस प्रचार में कितनी सच्चाई है, इसे ब्राजीलवासी जानें। लेकिन भारत में इसके क्या परिणाम होंगे, इसकी अभी तक कोई गंभीर गवेषणा की नहीं गई है। सबसे पहली बात तो यह है कि महंगाई की मात्रा को देखते हुए नकद मिलने वाली अनुदान की राशि बहुत कम है। सीधी-सी बात यह हुई कि इस नकद सहायता से गरीब परिवारों की महंगाई से बढ़ी समस्याओं की भरपाई नहीं होगी। काम धंधों की कमी और महंगाई मिल कर देश की सबसे गरीब जनता के सामने जो समस्या पैदा कर रही हैं, उसका जब परिवार के मुखिया के पास कोई हल नहीं होगा तो वह नकद राशि का क्या करेगा? सबसे सरल उत्तर यह है कि वह अपना दुख भुलाने के लिए शराब पीएगा। यह सब जानते हैं कि कम आय वाले परिवारों के घर चलाने की जिम्मेदारी अधिकतर महिलाओं के सिर आती है। चाहे वे छोटे काम-धंधे करके परिवार का पेट पालें या परिवार के मुखिया की आमदनी से, अपना पेट काट कर बाकी सबको खिलाएं। यह अनुदान की राशि उनके खाते में नहीं जाएगी। जाएगी परिवार के मुखिया पुरुष के खाते में। वह उस पैसे का क्या करेगा, इसका नियंत्रण कम से कम गृहिणी के हाथ में नहीं होगा। इस योजना के पैरोकार उसके प्रगतिशील स्वरूप का बखान करने के लिए तर्क दे रहे हैं कि पैसे का सदुपयोग किस तरह किया जाए, इसकी आजादी परिवार को होनी चाहिए। सरकार क्यों तय करे कि उस पैसे का वे क्या करें। अगर परिवार उसका इस्तेमाल अनाज खरीदने के बजाय दवा खरीदने या बच्चों की पढ़ाई की फीस भरने के लिए करना चाहता है तो उसे इसकी स्वतंत्रता होनी चाहिए। ऐसा तर्क वही दे सकता है जो अघाए हुए परिवार में पैदा हुआ है और यह नहीं समझता कि भोजन जीवन की सबसे मूलभूत आवश्यकता है। दवा और पढ़ाई भी आवश्यक है, पर वे भोजन का विकल्प नहीं हो सकते। इस बात की बहुत आशंका है कि नकद पैसे का यह खेल गरीब परिवारों की मुसीबत बढ़ा देगा। बढ़ती हुई महंगाई जैसे-जैसे गरीब परिवारों की आर्थिक स्थिति और विकट करेगी, परिवार का मुखिया अपने आपको और असहाय अनुभव करेगा। यह असहायता उसे नशे और पलायन की ओर धकेलेगी। इससे सामाजिक संकट, कलह और अपराध बढ़ेंगे। इस सबका बोझ सबसे अधिक महिलाओं पर आएगा। यह नकद पैसा पूरे परिवार की जरूरतें पूरी करने के बजाय परिवार के मुखिया की अपनी इच्छाओं को पूरा करने में लगेगा। महत्त्व की बात यह है कि सरकार ने देश के साधारण लोगों को उनके हाल पर छोड़ने का निर्णय कर लिया है। उसे चिंता केवल विदेशी निवेश की है, जो मध्यवर्ग के परिवारों से निकल रहे बच्चों के लिए सुविधाजनक नौकरियां उपलब्ध करा सके। हम देख चुके हैं कि विदेशी निवेश ऐसे क्षेत्रों में ही हो रहा है जो अर्थशास्त्र की भाषा में सेवा क्षेत्र कहे जाते हैं। वह हमारी अर्थव्यवस्था की बुनियाद मजबूत करने में नहीं लग रहा। इस निवेश को आकर्षित करने के लिए मुक्त बाजार की शर्तें लागू की जा रही हैं। अगर महंगाई बढ़ रही है तो फिलहाल सरकार में उसकी चिंता करने वाला कोई नहीं है। एक अर्थशास्त्री के लिए आंकड़े लोगों से अधिक महत्त्व रखते हैं। अगर वह प्रधानमंत्री के पद पर बैठा दिया गया है तो उसका खमियाजा देश के लोगों को ही उठाना पड़ेगा। |
Thursday, February 14, 2013
नकद पैसे का खेल
नकद पैसे का खेल
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