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Saturday, June 8, 2013

गैर-मार्क्सवादियों से संवाद -17 ब्रितानी साम्राज्यवाद के पीछे भी:हिन्दू आरक्षण एच एल दुसाध

गैर-मार्क्सवादियों से संवाद -17

           ब्रितानी साम्राज्यवाद के पीछे भी:हिन्दू आरक्षण  

                                                        एच एल दुसाध

जैसा कि मार्क्सवादियों से संवाद श्रृंखला में लगातार कहा जा रहा है कि भारत का इतिहास आरक्षण पर केन्द्रित संघर्ष का इतिहास है,यह तथ्य ब्रिटिश साम्राज्यवाद की स्थापना में भी दृष्टिगोचर होता है.जिस प्रकार बौद्ध  भारत में सम्पदा ,संसाधनों और उच्चमान के पेशों में मूलनिवासियों का वर्चस्व तोड़ने के लिए पुष्यमित्र ने तख्ता पलटकर इतिहास को एक नया मोड़ दे दिया,उसी तरह हिन्दू आरक्षण से निजात पाने के नाम पर आधुनिक भारत में एक और तख्ता पलट का इतिहास रचित हुआ जिसके पीछे सक्रिय रहीं वर्ण-व्यवस्था की सर्वाधिक वंचित जातियां.

मानव सभ्यता के इतिहास का यह शाश्वत यथार्थ है कि व्यवस्था से सर्वाधिक पीड़ित समूह ही उसके ध्वंस के प्रति सबसे पहले अग्रसर होता है.भारत में भी  इसका अपवाद नहीं हुआ.यूँ तो इस्लामिक साम्राज्य में भी समानांतर रूप से क्रियाशील हिन्दू साम्राज्यवाद में बहुसंख्यक आबादी हजारों  साल पूर्व की भांति सर्वहारा की  स्थिति में थी.किन्तु इनमें  असल सर्वहारा दलित ही थे,जो निःशुल्क दासत्व के लिए तो बाध्य किये ही गए थे ऊपर से अस्पृश्यता का शिकार बनाकर नर-पशु में तब्दील भी कर दिए गए थे.सैकड़ो समूहों में विभक्त सर्वस्वहारा अस्पृश्यों के कुछेक समूह हिन्दू साम्राज्यवाद को उखाड़ फेंकने के लिए लम्बे समय से मौके की तलाश में थे .इन्हें मित्र के रूप में मिल गए अंग्रेज.अंग्रेजों को भी ब्राह्मण-मुस्लिम युक्तवाहिनी को हराने के लिए किसी ऐसे सहयोगी की जरुरत थी जिनमें  मौजूदा शासकों के प्रति गहरा रोष हो.उधर  1756 में कई युद्धों में व्यस्त रहने के कारण राजा चार्ल्स द्वितीय ने भारत में कार्यरत ईस्ट इंडिया कम्पनी को इंग्लैण्ड से फौजी टुकड़ी भेजने की मनाही कर दिया था.ऐसे में स्वदेशी दुश्मनों के दो दुश्मन मित्र बनकर एक दूसरे के निकट आये .उनके युग्म प्रयास से जून 1757 में प्लासी के समरक्षेत्र में भारतीय फौजों की पराजय के साथ ब्रिटिश साम्राज्य की नीव ही नहीं पड़ी;हजारों साल के जन्मजात सर्वस्वहाराओं का भाग्योदय भी हुआ.

आधुनिक भारत के शिलान्यासी प्लासी युद्ध के अस्पृश्य समरवीरों ने अंग्रेजों के लिए नहीं बल्कि अपनी मातृभूमि और सदियों के सर्वस्वहारा समुदाय की मुक्ति के लिए वह युद्ध लड़ा था.प्लासी युद्ध में ग्रहण की गई उनकी भूमिका का प्रभाव इतना सुदूर प्रसारी  रहा कि प्रसिद्ध इतिहासकार एस के बिस्वास को यह लिपिबद्ध करने में कोई द्विधा ही नहीं हुई-

'14 अप्रैल 1891 को महू छावनी में मिलिट्री बैण्ड की धुन के बीच जन्मे जिस बच्चे का विकास आंबेडकर के रूप में हुआ था कलकत्ता के फोर्ट विलियम में लिए गए उस संकल्प को पूरा करने के लिए ,जिसकी शुरुवात बन्दूक की नाल पर प्लासी  के बैटल फिल्ड में उनके पुरुखों ने की थी.यह इतिहास है कि सूबेदार रामजी सकपाल के पुत्र भीमराव आंबेडकर प्लासी युद्ध की संतान थे.वे उस प्रक्रिया के वाहक थे जिसकी शुरुवात 1757 के बंगाल के प्लासी युद्ध से हुई थी.वास्तव में डॉ आंबेडकर ही नहीं कांशीराम,कुमारी मायावती,रामविलास पासवान इत्यादि जो अनगिनत लोग सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई में व्यस्त हैं ,वे सभी प्लासी युद्ध की संतान हैं.प्लासी की युद्ध भूमि में सामाजिक परिवर्तन के जिस पौधे को लगाया गया,वह आंबेडकर के वीर पुरखों के रक्त से सींचा गया था.'

अंग्रेजों के सौजन्य से अस्पृश्य सैनिकों ने हथियार के सहारे सामाजिक परिवर्तन की जिस लड़ाई का प्लासी युद्ध से आगाज़ किया,उसे 1818 में कोरेगांव युद्ध में अंजाम तक पहुचाया गया जहाँ से ब्रिटिश  साम्राज्य को पूर्णता मिली.अस्पृश्यों के हथियार उठाने के ऐतिहासिक प्रभाव का मूल्यायन करने में भले ही बन्दूक के बल पर सत्ता परिवर्तन का ख्वाब देखनेवाले भारतीय वामपंथियों ने कोई रूचि न ली हो,पर खुद कार्ल मार्क्स ने कोई कमी नहीं की .उन्होंने लिखा है-'the native army,organised and trained by the british drill sergeants ,was the sine quanon of india ceasing to be the pray of its first intruders'

वास्तव में मार्क्स ने भारत के first intruders (प्रथम घुसपैठिये )का उल्लेख कर यह स्पष्ट संकेत कर दिया है कि प्लासी की लड़ाई हिन्दू साम्राज्यवादियों के खिलाफ  थी .भारत के प्रथम घुसपैठिये कौन?आर्य ही तो!self emanicipation (आत्म-मुक्ति) के इरादे से अस्पृश्यों की भूमिका को चिन्हित करने में मार्क्स  ने जिस दूरदृष्टि  परिचय दिया है,उसके हम उस समय और कायल हो जाते हैं जब देखते हैं कि उनकी भूमिका को आधार बनाकर ही डॉ आंबेडकर अंग्रेजो से दलित अधिकारों की मांग करते रहे.उन्होंने गोलमेज़ बैठको से लेकर सत्ता हस्तांतरण के लिए आये कैबिनेट मिशन के समक्ष अस्पृश्य युद्धवीरों की भूमिका को बार –बार स्मरण कराते हुए कहा-'सत्ता संचालन में अस्पृश्य ब्रिटिश सरकार की दया नहीं चाहते .उन लोगों को गवर्नेंस में शेयर  का दावा ठोकने का अधिकार है क्योंकि ब्राह्मण-मुस्लिमों के हाथ से देश को जीतने में वे साझीदार रहे हैं.'लेकिन अंग्रेज भारत विजय के अपने पार्टनर को अपना साम्राज्य स्थापित करने के बाद उनका प्राप्य न दे सके.दूसरे शब्दों में कहा जाय तो ब्राह्मण चालाकी से मध्ययुगीन विजेताओं (मुसलमानों)से पाला बदल और साज़िशपूर्वक अस्पृश्यों को दूर धकेल  कर खुद अंग्रेजों के खेमे में शामिल हो गए.ब्रिटिश शासकों के साथ अंग्रेजों का तालमेल कई बातों  से बना .उनसे सहयोग के कारण ब्रिटिश सरकार ने भारतीय प्रजा को जाति  के बंधनों से मुक्त नहीं किया,बल्कि इन बंधनों की पकड़ को और अधिक मजबूत किया.जाति  अदालतों को मान्यता देकर उन्होंने ब्राह्मण शास्त्रों की पकड़ और मजबूत किया और इस प्रकार ब्राह्मणवाद को और सुदृढ़ किया.

किन्तु वैदिक भारत में कायम और व बौद्ध काल में पुष्यमित्र शुंग व उनके  पूर्ववर्तियों के सहारे जो हिन्दू साम्राज्यवाद मुसलमान काल में भी पतनशील अवस्था में भी बचा रहा,उसे शेष करने के प्लासी युद्ध  नायकों के मंसूबों पर भले ही चालाक ब्राह्मणों ने पानी फेर दिया ,पर अस्पृश्यों का बलिदान पूरी तरह व्यर्थ नहीं गया.जन्मजात सर्वहाराओं का भाग्योदय हुआ ,पर काफी बिलम्ब से.फादर विलियम केरी और चार्ल्स ग्रांट के भारत सुधारवादी मन्त्रों से लैस लार्ड मैकाले का भारत में एक फ़रिश्ते के रूप में आविर्भाव  हुआ.इंग्लैण्ड छोड़ने के पूर्व मैकाले ने ब्रिटिश पार्लियामेंट को संबोधित करते हुए बड़े क्षोभ के साथ कहा था,'भारत में काजियों और पंडितों का  कानून चलता है जो वृहत्तर हित में घातक है.'मतलब मैकाले भारत के वृहत्तर हित में एक कानून की रूप रेखा तैयार कर अपने वतन से कूच किये थे.6अक्तूबर 1860 को पारित आईपीसी मैकाले की कल्पना का वह मूर्तरूप थी.सच पूछा जाय तो मैकाले की मानस कन्या आईपीसी(भारतीय दंड संहिता) का जन्म हिन्दू साम्राज्यवाद के खिलाफ सबसे बड़ी क्रन्तिकारी घटना थी.       

अंग्रेजों ने भारत में अपना प्रभुत्व स्थापित करने के बाद आईपीसी लागू  कर भारतीय समाज में जलजला मचा दिया.उन्होंने इसके द्वारा कानून की नज़रों में सबको एक बराबर करके अर्थोपार्जन के सभी स्रोत ,सभी के लिए मुक्त तो कर ही दिया ,साथ ही एक ही अपराध के लिए दंड की मात्रा  की भिन्नता के प्रावधान को भी पूरी तरह ख़त्म दिया .इसने वर्ण-व्यवस्था के अर्थशास्त्र पर ऐसा हमला किया कि शुद्रातिशूद्रों के लिए शिक्षक,व्यवसायी,शासक-प्रशासक,डाक्टर,इंजीनियर,लेखक इत्यादि बनने के सदियों से बंद दरवाजे खुल गए.

मित्रो मेरा उपरोक्त लेख आज,8जून के देशबन्धु में छपा है.इस लेख में निहित तथ्यों के आईने में निम्न आशंकाएं आपके समक्ष रख रहा हूँ-

1-अंग्रेजों के आने के बाद से भारत में आधुनिक ज्ञान-विज्ञानं,मानवता और राष्ट्रबोध इत्यादि का उदय हुआ.अगर अंग्रेज प्लासी युद्ध हार गए होते तब यह देश आज भी बर्बर अवस्था में पड़ा होता तथा शुद्रातिशूद्रों का जीवन वर्ण-व्यवस्था के कानूनों द्वरा पशु से भी अधम होता.ऐसे में प्लासी युद्ध में अंग्रेजों के पार्टनर बने अस्पृश्यों को क्या आधुनिक भारत का शिलान्यासी नहीं कहा जा सकता?

2-कार्ल मार्क्स के अनुसार देशीय सिपाहियों (अस्पृश्यों) ने  भारत के 'प्रथम घुसपैठियों'से निजात पाने के लिए अंग्रेजो का साथ दिया था.भारत के प्रथम घुसपैठिये तो विदेशागत आर्य रहे,ऐसे में क्या मार्क्सवादीय नज़रिए से दावे के साथ नहीं कहा जा सकता कि अछूतों ने हिन्दू साम्राज्यवाद से मुक्ति के लिए ही अंग्रेजों  का साथ दिया था?

3-कुछ लोगों ने प्लासी से कोरेगांव तक अंग्रेजों के पक्ष में दलितों की लड़ाई को देशद्रोहिता के रूप में देखने का प्रयास किया है.ऐसे लोगों को योग्य जवाब देते हुए डॉ.आंबेडकर ने कई मौको पर कहा है  कि इतिहास  ऐसी भूरि-भूरि घटनाओं से भरा पड़ा है जब देखा गया है कि शोषित –वंचितों ने देशीय शोषकों से मुक्ति के लिए विदेशी हमलावरों का साथ दिया है.'इस आधार पर आप बतायें क्या आपको भी अंग्रजों का साथ देनेवाले अछूतों की भूमिका देशद्रोही जैसी लगती है?

4-अंग्रेजों ने चुडांत स्तर के दासत्व के अभ्यस्त एवं पदलेही भारतीय दलालों को 'रॉय बहादुर' ,'सर','राय चौधरी' ,'सी.आई.ई'.(compinion of indian empire) इत्यादि विशेष अलंकारों से भूषित किया था.ऐसे भूषण अर्जित करनेवालों में किसी दलित का नाम ढूंढना मुश्किल होगा.विपरीत इसके यदि इन अलंकारों से जुड़े भारतीयों के नामों पर गौर फ़रमाया जाय तो नज़र आएगा कि प्रायः सारे के सारे अलंकार उनके हिस्से में गए जिनका आज शक्ति के सभी स्रोतों पर 80-85 %कब्ज़ा है.क्या इन अलंकारों से जुड़े नामों को देखकर ऐसा नहीं लगता कि जिन्होंने ब्रिटिश राज में देशद्रोहिता किया,मुल्क के साथ गद्दारी किया वे दलित नहीं,आज के साम्राज्यवाद विरोधियों के पुरुखे थे?

5-अगर हिन्दू आरक्षण के तहत शुद्रातिशूद्रों को शक्ति के स्रोतों से पूरी तरह वंचित नहीं किया गया होता तो वे अंग्रेजो का साथ नहीं दिए होते .और अंग्रजो का साथ नहीं देते तो भारत में ब्रितानी साम्राज्यवाद कायम नहीं होता .ऐसे में क्या यह नहीं कहा जा सकता कि आरक्षण पर संघर्ष ही ब्रितानी साम्राज्य की स्थापना का कारण बना?     

6-मैकाले की आईपीसी के कारण बौद्धोत्तर काल में पहली बार भारतभूमि पर कानून की नज़रों में सबको एक मानने की शुरुवात हुई.कानून की नज़रों में सबके एक बराबर होने के फलस्वरूप वर्णवादी कानूनों के जरिये शक्ति के जो स्रोत मात्र क्षुद्र संख्यक लोगों  के लिए आरक्षित किये गए थे ,वो बहुजनों के लिए भी मुक्त हो गए,अंततः कागज़ पर.ऐसे में क्या आपको नहीं लगता कि भारत की धरती पर रचित सबसे पहला क्रन्तिकारी ग्रन्थ मैकाले की आईपीसी थी?

7-अगर ब्राह्मणों ने विभिन्न तरीके से अंग्रेजो के युद्ध-पार्टनर दलितों को साजिश करके उनको अंग्रेजो से दूर तथा खुद को दलितों की जगह उनके पार्टनर के रूप में स्थापित नहीं किया होता तो आज भारत का इतिहास बहुत भिन्न होता तथा अंग्रजों के जाने बाद शुद्रातिशूद्रों के हाथ में सत्ता होती.इससे आप कितना सहमत हैं?

8-क्या आपको भी लगता है कि दलितों को यदि साजिशन अंग्रेजो से दूर नहीं किया गया होता आज हिन्दू साम्राज्यवाद दम तोड़ चुका होता?

9-डॉ.आंबेडकर ही नहीं कांशीराम,मायावती,रामविलास पासवान ,लालू-मुलायम जैसे बड़े नेता सहित समाज परिवर्तन की लड़ाई जुटे शुद्रातिशूद्र समुदाय के तमाम लेखक-साहित्यकार,एक्टिविस्ट -नेता इत्यादि ही प्लासी युद्ध की संतान हैं,आप इतिहासकारों की इस बात से कितना सहमत है?     

10--आज के साम्राज्यवाद विरोधियों के पुरुखों ने मध्ययुग की भांति  आधुनिक भारत के साम्राज्यवादियों के साथ तालमेल बिठाकर उनके द्वारा छोड़ा गया सारा जूठन अपने सजातियों को मुहैया करा दिया.उनके अतीत की भूमिका को देखते  हुए क्या ऐसा नहीं लगता कि 21 वीं सदी के साम्राज्यवाद विरोधी भी उसी इतिहास की पुनरावृति कर सकते हैं?

11-आधुनिक भारत के इतिहास की सर्वाधिक युगांतरकारी घटना 1757 का प्लासी युद्ध है.किन्तु अंग्रेजों से इतिहास लिखने की तमीज़ सीखनेवाले  भारत के  पंडितों ने 1857 के कथित सिपाही –विद्रोह पर असंख्य पन्ने रंगे है.विपरीत इसके 1757 के प्लासी युद्ध का  नहीं के बराबर उल्लेख किया है.भारत के इतिहास का पुनर्लेखन कर रहे बहुजन इतिहासकार भी उसके अपवाद नहीं हैं.उन्हने भी 1857 के मुकाबले 1757 पर नहीं के बराबर लेखन किया है.ऐसे क्या यह नहीं कहा जा सकता कि बहुजनितिहस्कर भी प्लासी युद्ध के इतिहास के साथ न्याय नहीं कर पाये?
तो मित्रों आज इतना ही.मिलते हैं कुछ दिनों बाद कुछ और नई शंकाओं के साथ.

दिनांक:8.6.2013  


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