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Saturday, June 8, 2013

कब बन्द होगी यह मारकाट ? लेखक : राजीव लोचन साह

कब बन्द होगी यह मारकाट ?

chhattisgarh_attack_siteछत्तीसगढ़ की धरती एक बार फिर खून से रंगने के कारण पूरा देश सदमे में है। अभी सशस्त्र बलों द्वारा बीजापुर जिले में 3 बच्चों सहित आठ आदिवासियों को माओवादी बता कर हत्या करने की घटना को एक सप्ताह ही बीता था कि 25 मई की शाम एकाएक बस्तर जिले में माओवादियों द्वारा घात लगा कर 27 लोग मार डाले गये। इनमें पूर्व कांग्रेसी मंत्री महेन्द्र कर्मा और छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नन्दकुमार पटेल शामिल थे। वयोवृद्ध कांग्रेसी नेता विद्याचरण शुक्ल अभी भी जिन्दगी और मौत के बीच झूल रहे हैं। इस हमले में 36 लोग घायल हुए।

महेन्द्र कर्मा की मृत्यु अप्रत्याशित नहीं थी। माओवादी उनके खून के प्यासे थे। माओवाद को खत्म करने के नाम पर छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा 2005 से लेकर 2011 तक चलाये गये 'सलवा जुडूम' में हजारों आदिवासी या तो मारे गये या अपने घरों से भागने को मजबूर हुए। दर्जनों महिलाओं के साथ गैंगरेप हुए। अन्ततः नन्दिनी सुन्दर बनाम छत्तीसगढ़ सरकार के मुकदमे में फैसला सुनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने 'सलवा जुडूम' को बन्द करवाया। हालाँकि अदालत की आँखों में धूल झोंकते हुए किसी न किसी रूप में यह अब भी जारी है। महेन्द्र कर्मा को 'सलवा जुडूम' के सिद्धान्त का जनक माना जाता है। इस नरमेध को 'धर्मयुद्ध' बता कर अमली जामा पहनाने का श्रेय भी महेन्द्र कर्मा को है। कांग्रेसी होते हुए भी भाजपा सरकार में उनका जलवा बना रहा। माओवादी तो जिंदा ही हिंसा पर रहते हैं। भारत के संविधान में उनकी कोई आस्था नहीं। मगर सरकार प्रायोजित हिंसा का समर्थन कैसे किया जा सकता है ? माओवादियों को अपराधी मानना गलत नहीं हैं, मगर महेन्द्र कर्मा जैसे लोग भी तो किसी सभ्य लोकतांत्रिक समाज में रहने लायक नहीं हैं।

अप्रेल 2010 में छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में माओवादियों द्वारा सी.आर.पी.एफ. के 76 जवानों को मार दिये जाने से व्यथित होकर 'आजादी बचाओ आन्दोलन' के संयोजक स्व. बनवारी लाल शर्मा द्वारा मई 2010 में एक 'शांति न्याय यात्रा' का आयोजन किया गया था। उनके आदेश पर मैं भी यात्रा में शामिल हुआ। उस यात्रा में महात्मा गांधी के निजी सचिव रहे महादेव भाई के सुपुत्र और गुजरात विद्यापीठ के कुलाधिपति नारायण देसाई, विश्वविख्यात वैज्ञानिक व यू.जी.सी. के पूर्व अध्यक्ष प्रो. यशपाल, वर्ल्ड फोरम ऑफ फिशर पीपुल्स के सलाहकार थामस कोचरी, बंधुआ मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष स्वामी अग्निवेश, सर्व सेवा संघ के पूर्व अध्यक्ष अमरनाथ भाई, गांधी शांति प्रतिष्ठान की अध्यक्ष राधा बहन, रायपुर के पूर्व सांसद केयूर भूषण, लाडनू जैन विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति व पूर्व सांसद प्रो. रामजी सिंह, आई.आई.एम. अहमदाबाद के प्रो. नवद्वीप माथुर आदि लोग हमारे साथ थे। उस यात्रा की विस्तृत रिपोर्ट 'नैनीताल समाचार' के 15 से 31 मई 2010 के अंक (वर्ष 33, अंक 19) में छपी है। रायपुर से दंतेवाड़ा तक की यात्रा में हमें माओवादी अथवा आदिवासियों के प्रतिनिधि तो नहीं मिल पाये, अलबत्ता अनेक स्थानों पर 'नक्सलियों के दलालों को, जूते मारों सालों को' के नारे लगाते और तरह-तरह के अश्लील फिकरे कसते उग्र प्रदर्शनकारियों से हमारा सामना हुआ। हमारी गाडि़यों के टायर पंक्चर कर दिये गये। विभिन्न राजनतिक दलों से जुड़े हुए ये वैसे ही गुण्डा तत्व थे, जैसे हमारे उत्तराखंड में जल विद्युत परियोजनाओं के बारे में अपनी राय प्रकट करने पर भरत झुनझुनवाला का मुँह काला करने वाले या जी.डी. अग्रवाल पर हमला करने वाले।

आदिवासी क्षेत्रों में माओवादियों को अलग-थलग कर माओवाद को आमूल खत्म करने का एक बहुत ही सीधा रास्ता है। वह है, उस क्षेत्र की विपुल खनिज सम्पदा को लूटने आई देशी-विदेशी कम्पनियों को वहाँ से खदेड़ बाहर करना, 'पेसा' जैसे कानूनों में आदिवासियों को दिये गये संविधानप्रदत्त अधिकारों के माध्यम से उन्हें अपना स्वशासन स्थापित करने की आजादी देना और तृणमूल स्तर पर प्रशासन का संवेदनशील, ईमानदार और पारदर्शी होना। लेकिन देश के जो हालात हैं, उनमें बहुत आसान लगने वाली ये तीनों ही बातें व्यावहारिकता के स्तर पर असंभव हैं। हमारी सरकारें देशी-विदेशी कम्पनियों की दलाल हैं। इसका हाल के कोयला घोटाले से बेहतर उदाहरण और क्या हो सकता है ? वे कम्पनियों को आदिवासी इलाकों में लूट की निरंकुश छूट देने की कसम खायी हुई हैं। और सरकार तथा राजनैतिक दलों के दिमाग चाहे दिल्ली में काम करते हों, उनके हाथ-पाँव तो ग्राम स्तर पर लूट-खसोट, ठेके और दलाली में मुब्तिला वे गुण्डा तत्व ही होते हैं, जो हम शान्तियात्रियों के साथ गाली-गलौज कर रहे थे या भरत झुनझुनवाला का मुँह काला कर रहे थे। उनकी मौजूदगी न हो तो कोई राजनीतिक दल किसी प्रदेश या केन्द्र में अपनी सरकार कैसे बनाये ? इसलिये सरकारें माओवाद को बंदूक के सहारे खत्म करने की कोशिश करती हैं, बार-बार पिटती हैं और खून की नदियाँ बहती हैं। मरने वाले होते हैं चन्द रुपयों के लिये सुऱक्षा बलों की नौकरी में आये गरीब घरों के जवान या अपनी पारम्परिक जीवन-पद्धति बचाने की जद्दोजहद में लगे मूक और सरल आदिवासी।

इस वक्त जब देश भर में सदमे और गुस्से की स्थिति है, टीवी चैनलों के एंकर और अखबारों के कॉलम लेखक 'मारो-मारो' के कोलाहल से सरकारों को ललकार रहे हैं, इस अवांछित हिंसा से देश को कैसे बचाया जाये, इस पर सोचना हर देशवासी का कर्तव्य है।

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