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Wednesday, July 31, 2013

किसानों की आत्महत्याः एक 12 साल लंबी दारूण कथा

किसानों की आत्महत्याः एक 12 साल लंबी दारूण कथा

Posted by Reyaz-ul-haque on 2/11/2010 04:50:00 AM


कुछ लोगों के लिए किसानी मुनाफे का धंधा हो सकती है, लेकिन देश की बहुसंख्यक आबादी के लिए यह घाटे का सौदा बना दी गई है. न सिर्फ घाटे का सौदा, बल्कि मौत का सौदा भी. और यह सिर्फ इसलिए किया जा रहा है, क्योंकि खेती से महज कुछ लोगों का मुनाफा सुनिश्चित रहे. यही वजह है कि खेतिहरों के कर्जे की माफी का फायदा भी आम खेतिहरों को नहीं मिला बल्कि बड़े किसानों को मिला. हाशिया पर तभी इसकी आशंका जतायी गयी थी. किसानों की हालिया आत्महत्याओं और इस पूरे सिलसिले पर पी साइनाथ की रिपोर्ट. इसका अनुवाद किया है हमारे साथी मनीष शांडिल्य ने. मूल लेख यहां पढ़ें.

2006-08 के बीच महाराष्ट्र में 12,493 किसानों ने आत्महत्या की. किसानों की आत्महत्या का यह आंकड़ा 1997-1999 के दौरान दर्ज किये गये आंकड़ों से 85 प्रतिशत अधिक है. 1997-1999 के दौरान 6,745 किसानों ने आत्महत्या की थी. किसी भी राज्य में तीन वर्षों के किसी भी अंतराल में इतनी बड़े पैमाने पर आत्महत्याएं नहीं की गयी थीं. 
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार 2008 के ऋण माफी वाला साल देश में 16,196 किसानों की आत्महत्याओं का गवाह बना. 2007 की तुलना में ऋण माफी वाले साल आत्महत्याओं के आंकड़े में सिर्फ 436 की ही गिरावट दर्ज हुई. किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों पर गहराई से काम करने वाले अर्थशास्त्री प्रोफेसर के. नागराज कहते हैं, ''इन आंकड़ों को लेकर कहीं से भी आश्वस्त होने की कोई गुंजाइश नहीं है और न ही इन आंकड़ों पर खुद अपनी पीठ ही थपथपाई जा सकती है.'' 1990 के दशक के उत्तरार्ध में जो सिलसिला शुरू हुआ था और 2002 के बाद जो और बदतर हो गया, उसमें कोई बड़ा बदलाव नहीं आया था. निराशाजनक सच्चाई यह है कि तेजी से घटती कृषक आबादी के भीतर किसान काफी बड़ी संखया में अब भी आत्महत्याएं कर रहे हैं.
अभी हाल के 1991 और 2001 की जनगणना के बीच लगभग 80 लाख किसानों ने खेती छोड़ दी. लगभग एक साल बाद 2011 की जनगणना हमें यह बतायेगी कि बीते दशक में और कितने किसानों ने खेती छोड़ी. इस आंकड़े के 80 लाख से कम रहने की संभावना नहीं है. आने वाले जनगणना के आंकड़े पिछले आंकड़ों को भी शायद बौना साबित कर सकते हैं क्योंकि 2001 के बाद खेती से पलायन संभवतः तेज ही हुआ है. राज्यवार कृषि आत्महत्या अनुपात - प्रति 10 लाख किसानों पर आत्महत्या करने वाले किसानों की संखया - अब भी 2001 के पुराने आंकड़े पर ही आंकी जाती हैं. इस कारण 2011 की जनगणना किसानों की अधिक प्रामाणिक गिनती के साथ संभवतः वर्तमान परिस्थितियों की और भयावह तस्वीर ही प्रस्तुत करे.
भारत में कुल आत्महत्या के एक हिस्से के रूप में किसानों की आत्महत्याओं पर ध्यान केंद्रित करना गुमराह करता है. कुछ इस तरह, ''अहा! यह प्रतिशत तो नीचे आ रहा है.'' यह बकवास है. पहली बात तो यह कि एक बढ़ती हुई आबादी में आत्महत्या की कुल संख्या (सभी समूहों में, सिर्फ किसानों में ही नहीं) बढ़ रही है. लेकिन किसानों की घटती आबादी के बावजूद उनकी आत्महत्याएं बढ़ रही है. दूसरा यह कि, एक अखिल भारतीय तस्वीर इस संकट की भयावहता को छुपा लेता है. तबाही 5 बड़े राज्यों (महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़) में केंद्रित है. 2003-08 के दौरान जितने किसानों ने आत्महत्या की थी, उनमें से दो तिहाई किसान इन्हीं 05 बड़े राज्यों से थे. इन 05 बड़े राज्यों में किसानों की आत्महत्याओं का प्रतिशत बढ़ गया है. इससे भी बदतर स्थिति यह है कि इन राज्यों में कुल अखिल भारतीय आत्महत्या (सभी श्रेणियों) का प्रतिशत भी बढ़ा है. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे गरीब राज्य बीते कुछ वर्षों में इस संकट से बहुत बुरी तरह से प्रभावित रहे हैं.
1997-2002 के बीच देश के 5 बड़े राज्यों में होने वाली 12 आत्महत्याओं में से लगभग 1 आत्महत्या किसानों की होती थी. यह अनुपात 2003-08 की अवधि के बीच बढ़ा और इन राज्यों में होने वाली 10 आत्महत्याओं में से लगभग एक हिस्सा किसानों की आबादी का हो गया. 
एनसीआरबी के पास अब 12 साल के दौरान किये गये किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा है. वास्तव में, किसानों से संबंधित आंकड़े 1995 के बाद से एक स्वतंत्र आंकड़े के रूप में दर्ज किये जाने लगे, लेकिन कुछ राज्य पहले दो वर्षों में यह आंकड़ा जुटाने में विफल रहे. इसलिए 1997 एक अधिक विश्वसनीय आधार वर्ष है क्योंकि इसी साल से सभी राज्य किसानों की आत्महत्या से संबंधित आंकड़े उपलब्ध करा रहे हैं. एनसीआरबी ने पिछले सभी वर्षों के ''भारत में आकस्मिक मृत्यु और आत्महत्याएं'' के रपटों को अपनी वेबसाइट पर रखकर ऐसे आंकड़ों का आसानी से उपयोग सुनिश्चित कर दिया है.
1997 से 2008 के बीच की 12 साल की अवधि हमें किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों की तुलना करने का मौका देती है. हम यह पता लगा सकते हैं कि 1997-2002 के पहले 6 वर्षों के मुकाबले अगले 6 वर्षों 2003-2008 की अवधि में किस तेजी से किसानों की आत्महत्या दर में वृद्धि हुई. 12 साल का यह पूरा समय ही किसानों के लिए काफी बुरा गुजरा, लेकिन बाद के छह साल निश्चित ही ज्यादा बुरे थे. 
किसी एक साल की आत्महत्या में गिरावट या वृद्धि के अध्ययन की 'प्रवृत्ति' भ्रामक है. वर्ष 1997-2008 के बीच के 3 या 6 साल के अंतराल का अध्ययन करना ज्यादा बेहतर है. उदाहरण के लिए, 2005में महाराष्ट्र के किसानों की आत्महत्या की संख्या में गिरावट देखी गयी थी, लेकिन अगला ही साल इस मामले में सबसे भयावह साबित हुई. 2006 के बाद से राज्य में कई पहल हुए हैं. मनमोहन सिंह की विदर्भ यात्रा उस साल क्षेत्र के छह संकट ग्रस्त जिलों के लिए 3,750 करोड़ रुपए का ''प्रधानमंत्री राहत पैकेज'' भी अपने साथ लायी थी. यह पैकेज तत्कालीन मुखयमंत्री विलासराव देशमुख के 1,075 करोड़ रुपए के ''मुखयमंत्री राहत पैकेज'' की घोषणा के बाद मिला था. इसके बाद महाराष्ट्र को किसानों को दिये गये 70,000 करोड़ रुपये के केन्द्रीय कर्ज माफी में अपने हिस्से के करीब 9,000 करोड़ मिले. इस कर्ज माफी का लाभ जिन किसानों को नहीं मिल सकता था, उनको राहत देने के लिए राज्य सरकार ने इस केन्द्रीय कर्ज माफी में 6,200 करोड़ रुपए जोड़े. पांच एकड़ से अधिक जमीन पर मालिकाना होने के कारण जिन गरीब किसानों को कर्ज माफी की परिधि से बाहर रखा गया था, उनके साथ एकमुश्त बंदोबस्ती (ओटीएस) करने के लिए राज्य सरकार ने कर्ज माफी की राशि में अतिरिक्त 500 करोड़ रुपए जोड़े.
कुल मिलाकर, 2006, 2007 और 2008 में महाराष्ट्र में इस कृषि संकट का सामना करने के लिए 20,000 करोड़ रुपये से अधिक की राशि उपलब्ध कराई गयी. (और इसमें चीनी मिल मालकों द्वारा उदारतापूर्वक किये गये विशाल दान को शामिल नहीं किया गया है.) फिर भी, खेती संबंधी आंकड़ों की गणना शुरू होने के बाद से ये तीन साल किसी भी समय में किसी भी राज्य के लिए सबसे ज्यादा बुरे साबित हुए. 2006-08 में, महाराष्ट्र में 12, 493 किसानों ने आत्महत्या की. यह पिछले 2002-2005 के सबसे खराब वर्षां से लगभग 600 अधिक था और 1997-1999 की तीन वर्ष की अवधि के दौरान दर्ज किये गये 6,745 आत्महत्याओं से 85 प्रतिशत ज्यादा था. संयोग से, सबसे ज्यादा बुरे इन छह वर्षां में एक ही सरकार सत्ता में थी. इसके अलावा, आत्महत्याओं की संखया एक सिकुड़ते कृषि आबादी में बढ़ रही है. 2001 तक महाराष्ट्र की 42 प्रतिशत जनसंख्या पहले से ही शहरी आबादी में तब्दील हो चुकी थी. इसका कृषक आधार निश्चित रूप से नहीं बढ़ा है. 
तो क्या कर्ज माफी बेकार था? कर्ज माफी का विचार एक बुरी सोच नहीं थी. और यह एक सही हस्तक्षेप था. लेकिन इस संबंध में उठाये गये विशेष कदम गलत दिशा में और गुमराह करने वाले थे. लेकिन तर्क यह भी दिया जा सकता है कि कर्ज माफी कम से कम कुछ किसानों के लिए तो राहत लाया, नहीं तो 2008 में आत्महत्या करने वाले किसानों की संखया भयावह रूप से बढ़ सकती थी. कर्ज माफी किसानों के लिए एक स्वागत योग्य कदम था, लेकिन इसकी संरचना त्रुटिपूर्ण थी. इस एक बिंदु को प्रमुखता से इस पत्रिका में उठाया गया (ओह, क्या एक प्यारी छूट, 10 मार्च, 2008). यह कर्ज माफी सिर्फ बैंक ऋण से ही संबंधित थी और इसमें साहूकार से लिये गये कर्जों की अनदेखी की गयी थी. इस कारण केवल उन्हीं किसानों को ही लाभ हुआ जिनकी संस्थागत ऋण तक पहुंच थी. आंध्र प्रदेश में बंटाई पर खेती करने वाले और विदर्भ एवं दूसरी जगहों में गरीब किसानों को मुखय रूप से साहूकारों से ही कर्ज मिलता है. ऐसे में वास्तव में, केरल के किसानों, जहां हर किसान का अपना एक बैंक खाता है, को अधिक लाभ होने की संभावना थी. (केरल एक राज्य था जहां साहूकारों से मिलने वाले कर्ज के मुद्दे को संबोधित किया जाना था.) 
2008 की कर्ज माफी की परिधि से पांच एकड़ से अधिक जमीन रखने वाले किसानों को बाहर रखा गया, इसमें सिंचित और असिंचित भूमि के बीच कोई फर्क नहीं किया गया था. इस फैसले ने आठ या 10 एकड़ की जोतवाली कम उपजाऊ और सूखी जमीन पर संघर्ष कर रहे किसानों को बर्बाद कर दिया. दूसरी ओर, पश्चिम बंगाल के किसानों, जिनमें बड़ी संख्या 5 एकड़ की सीमा के नीचे आने वाले छोटे किसानों थी, को इस कर्ज माफी का कहीं ज्यादा लाभ मिला. 
हरेक आत्महत्या के एक नहीं कई कारण हैं. लेकिन जब आपके सामने ऐसे करीब 2,00,000 कारण मौजूद हों, तो उनमें से कुछ अहम लेकिन समान कारणों को सूचीबद्ध करना बुद्धिमानी होगी. जैसा कि डा. नागराज बार-बार बताते हैं कि आत्महत्याएं ऐसे क्षेत्रों में केंद्रित दिखाई देती हैं, जहां कृषि का बड़े पैमाने पर व्यावसायीकरण हुआ है और जहां किसान कर्ज के बोझ तले बहुत अधिक दबे हैं. नकदी फसल उगाने वाले किसान खाद्य फसल उगाने वाले किसानों की तुलना में कहीं अधिक संख्या में आत्महत्या कर रहे हैं. फिर भी संकट के मूल बुनियादी कारण अब तक अछूते ही हैं. जिनमें प्रमुख हैं : खेती को लूटने वाला कृषि के व्यावसायीकरण की प्रक्रिया, कृषि क्षेत्र में निवेश में भारी गिरावट, खेती में काम आने वाले सामानों के आसमान छूती कीमतों के समय में बैंक ऋण की वापसी, खेती की लागत में विस्फोटक वृद्धि और इसके साथ ही खेती से होने वाली आय में भारी कमी, इससे जुड़े सभी जोखिमों को जानते हुए भी खाद्य फसल से नकदी फसल की खेती की ओर लाखों किसानों का स्थानांतरण, कृषि के हर बड़े क्षेत्र, विशेष रूप से बीज, पर बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा, बढ़ता जल संकट और संसाधनों के निजीकरण की ओर उठाये गये कदम. इस संकट के सभी मूल कारणों को दूर किये बगैर सरकार सिर्फ एक कर्ज माफी के सहारे ही संकट को समाप्त करने की कोशिश कर रही थी. 
2007 के अंतिम महीनों में द हिंदू (12-15 नवम्बर) ने डा. नागराज द्वारा किये गये एनसीआरबी के आंकड़ों के अध्ययन से उभरते नतीजों पर यह लेख प्रकाशित किया था कि 1997 और 2005 के बीच लगभग 1.5 लाख किसानों ने निराशा में अपना जीवन समाप्त कर लिया. इसके कुछ दिनों बाद ही केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार ने संसद में इन आत्महत्याओं (राज्य सभा-तारांकित प्रश्न संखया 238, 30 नवम्बर, 2007) की पुष्टि एनसीआरबी के आंकड़ों का ही हवाला देते हुए की थी. यह त्रासद है कि 27 महीने बाद, उसी अखबार की मुख्य खबर यह बनी कि यह संख्या लगभग 2 लाख पर पहुंच गयी है. यह संकट किसी भी मायने में दूर नहीं हुआ है. अपने शिकार का मजाक उड़ा रहा है, अपने आलोचकों पर ताने कस रहा है. और दिखावटी बदलावों से यह दूर भी नहीं होगा

आप कितने सही हैं, डॉ सिंह?

आप कितने सही हैं, डॉ सिंह?

Posted by Reyaz-ul-haque on 9/24/2010 06:31:00 PM

प्रिय प्रधानमंत्री जी,
मुझे यह जानकर खुशी हुई कि सुप्रीम कोर्ट को ''सम्मानपूर्वक'' फटकारते हुए आप ने कहा है कि अनाज, सड़ते हुए खाद्यान्न का निपटारा जैसे सभी सवाल नीतिगत मामले हैं. आप बिल्कुल सही कह रहे हैं और बहुत दिनों बाद ऐसा किसी ने कहा है. ऐसा कर आप संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सार्वजनिक बयानबाजी में ईमानदारी लाने की एक छोटी-सी कोशिश कर रहे हैं, जिसकी बहुत कमी महसूस की जा रही थी. बेशक यह आपकी सरकार को तय करना है कि वर्तमान में लाखों टन सड़ते अनाज का क्या करना है, कोर्ट को नहीं. अगर नीति यह कहती है कि भूखे लोगों का भोजन बनने से बेहतर है कि अनाज सड़ जाए, तो अदालत को इससे कोई मतलब नहीं रखना चाहिए. जैसा कि आप कहते भी हैं कि ''नीति निर्माण का अधिकार क्षेत्र'' आपका है. यह जानकर अच्छा लगता है कि देश का नेतृत्व एक सीमा तक ही सही, यह स्वीकार करता है कि बढ़ती भूख, गिरते पोषण-स्तर, सड़ते अनाज, अनाज भंडारण के लिए गोदामों की कमी, ये सभी समस्याएं नीतियों के कारण उत्पन्न होती हैं. (मुझे पता है कि ये निश्चित रूप से सुप्रीम कोर्ट के किसी भी फैसले की वजह से पैदा नहीं हुई हैं.)

एक आम आदमी शायद हालात को स्वीकार करते हुए इस सबके लिए विपक्ष, मौसम या रहस्यमय (लेकिन अंततः फायदे में ही रहने वाले) बाजार के उठा-पटक को दोषी ठहराता. लेकिन आप ऐसा नहीं करते. आप साफ तौर पर ऐसा होने की वजहों को नीतियों में खोजते हैं. और नीतियां बाजारों की तुलना में कहीं अधिक सुविचारित और बहुत कम गूढ़ हैं.
 
अनाज भंडारण का मामला
अंततः यह तो एक नीतिगत फैसला ही था कि पिछले कुछ वर्षों में अनाज के भंडारण के लिए नये गोदाम बनाने के लिए न के बराबर राशि खर्च की गयी. सरकारों के पास नए शहरों में बन रहे इमारतों, मॉल और देश भर में बन रहे मल्टीप्लेक्सों पर छूट देने के लिए पैसा है. ऐसा निजी बिल्डरों और डेवलपर्स को ''प्रोत्साहित'' करते हुए किया जा रहा है. लेकिन देश के अनाज भंडारण के लिए गोदाम बनाने के लिए पैसा नहीं है.
 
इसकी जगह 'नया' विचार यह है कि नये गोदाम बनाने की बजाय निजी भवनों को किराए पर लिया जाए. यह फैसला सवाल खड़े करता है क्योंकि आपकी सरकार ने 2004 और 2006 के बीच किराये के गोदामों को खाली करने का नीतिगत फैसला लिया था, इनमें दसियों लाख मीट्रिक टन अनाज भंडारण की क्षमता थी. यह सब किया गया एक महंगी बहुराष्ट्रीय परामर्शदात्री फर्म की सलाह पर और यह सलाह देने के लिए उसे एक बड़ी राशि का भुगतान भी किया गया. नये गोदामों को किराये पर लेने का एक मतलब निश्चित रूप से यह होगा कि बढ़े हुए दर पर किराये का भुगतान करना. ऐसा करना तो सिर्फ किरायाखोरों के चेहरे पर ख़ुशी ही लायेगा. (शायद आप ऐसी सलाह देने के लिए वापस फिर से उसी बहुराष्ट्रीय कंपनी को मोटी रकम का भुगतान करें जिसने पिछली बार ठीक इसके उलट फैसला करने की सलाह सरकार को दी थी.)
 
और हां, आपकी नवीनतम नीतियां किराए पर गोदाम देने वालों को ही ''प्रोत्साहित'' करती है। प्रणब दा के बजट भाषण (बिंदु 49) ने किराए के गोदामों की गारंटी अवधि को बढ़ाकर पांच से सात साल कर दिया. दरअसल, तब से इसे बढ़ा कर 10 साल कर दिया गया है. (एक शुभचिंतक की चेतावनी: मोटी फीस लेने वाली उस बहुराष्ट्रीय परामर्श फर्म की रिपोर्ट पर कार्रवाई करना किसी भी सरकार के लिए कितना आत्मघाती है यह आंध्र प्रदेश के श्री नायडू से पूछिए.) सरकारी जमीन पर अनाज भंडारण के लिए गोदाम बनाने का विकल्प हमेशा से मौजूद था. छत्तीसगढ़ में अब ऐसा किया जा रहा है. लंबे समय में इसकी लागत बहुत कम पड़ती है और ऐसा करना भूख से निपटने के लिए किये जा रहे उपायों से मुनाफाखोरी को कम करता है. ये होते हैं नीतिगत मामले, यह सिर्फ एक सुझाव है, आदेश नहीं.
 
जैसा कि आपका संदेश सुप्रीम कोर्ट को यह स्पष्ट कर देता है कि सड़ते अनाज का मामला उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता. मुझे यकीन है कि देश के सबसे महत्वपूर्ण अर्थशास्त्री के रूप में, आपके पास खुली जगहों और जर्जर गोदामों में पड़े अनाज, सड़ रहे या सड़ने वाले अनाज के बारे में सुविचारित नीतियां होंगी. मैं सिर्फ इतना भर चाहता हूं कि आप जैसा कोई विद्वान आक्रामक चूहों की तेजी से बढ़ती आबादी को इन नीतियों के बारे में समझाये, ये चूहे यह सोचते हैं कि वो अनाज के साथ मनमाफिक व्यवहार कर सकते हैं और ऐसा करते हुए अदालत की उपेक्षा भी कर सकते हैं. (शायद हमें चूहों को इसके लिए प्रोत्साहित करने की जरूरत पड़े कि वे अनाज बर्बाद न करें.)
 
इस बीच, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के एक प्रवक्ता ने यह स्वीकार किया है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार ने भी इस मुद्दे पर बहुत बड़ी कीमत चुकाई थी. उसे 2004 के आम चुनावों में जबरदस्त हार का मुंह देखना पड़ा. क्या कमाल की आम सहमति है इन सभी नीतिगत मामलों पर. यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट भी इस मामले में सहमत लगता है.
 
डॉ. सिंह, लगभग नौ साल पहले (20 अगस्त, 2001) इसी भोजन का अधिकार मामले में सुप्रीम कोर्ट का कहना था, ''न्यायालय की चिंता यह है कि गरीब और बेसहारा व कमजोर वर्गों को भूख और भुखमरी का सामना नहीं करना पड़े. ऐसे हालात की रोकथाम सरकार की प्रमुख जिम्मेदारियों में से एक है, चाहे वो केंद्र सरकार हो या राज्य सरकार. यह कैसे सुनिश्चित किया जाए, यह एक नीतिगत मामला है और सबसे बेहतर है कि इसे सरकार पर छोड़ दिया जाए. अदालत को बस इतना भर यकीन दिलाने की जरूरत है कि...खाद्यान्न... बर्बाद न हों...या चूहों का आहार न बनें... सबसे जरूरी यह है कि अनाज भूखी जनता तक पहुंचना चाहिए''.

लाखों की संख्या में आत्महत्या कर रहे किसान भी आप से पूरी तरह सहमत हैं, प्रधानमंत्री जी. वे जानते हैं कि यह नीतियां ही हैं, अदालतें नहीं, जो उन्हें अपनी जान देने के लिए मजबूर कर रही हैं. इसी कारण से उनमें से कई लोगों ने अपने सुसाइड नोट में आपको, वित्त मंत्री या अपने प्रिय महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को संबोधित किया. (जब मैं आपको यह पत्र लिख रहा हूं वो एक टीवी स्टूडियो में बाघों को बचाने में व्यस्त हैं). कभी भी आपने इन पत्रों में से किसी को भी पढ़ा है, डॉ. सिंह? क्या आपकी अपनी पार्टी की महाराष्ट्र सरकार ने कभी भी आपको उनमें से एक भी दिया है? उनमें ऋण, कर्ज, बढ़ती लागत और गिरते कीमतों का जिक्र होता है. ये ऐसी सरकारों के बारे में है जो उनकी आंसुओं को देख नहीं पा रही है. ये उनके परिवारों को भी संबोधित नहीं हैं, लेकिन आपको और आपके साथियों को हैं डा. सिंह. हां, उन्होंने अपनी दयनीय स्थिति में नीतियों की भूमिका को समझा- और इसलिए अपने सुसाइड नोट में उन नीतियों को बनाने वालों को संबोधित किया.

किसानों का असंतोष 
2006 में आपके ऐतिहासिक विदर्भ यात्रा के बाद वर्धा के रामकृष्ण लोंकार ने अपने सुसाइड नोट में अपनी पीड़ा को बहुत ही सरल शब्दों में व्यक्त किया था. उसने लिखा ''प्रधानमंत्री की यात्रा और फसल ऋण संबंधी हालिया घोषणाओं के बाद मुझे लगा मैं फिर से जिंदगी जी सकता हूं. लेकिन मेरे प्रति बैंक ने कोई सम्मान नहीं दिखाया, वहां कुछ भी नहीं बदला था.' वासिम का रामचंद्र राउत चाहता था कि उसकी बात पर पूरी गंभीरता से विचार किया जाए. इस कारण उसने अपने सुसाउड नोट में न केवल आपको बल्कि राष्ट्रपति और आपके सहयोगियों को भी संबोधित किया और साथ ही उसने अपने सुसाइड नोट को 100 रुपये के ननजुडिसियल स्टांप पेपर पर दर्ज भी करवाया. वह अपनी समझदारी के अनुसार अपने विरोध को ''कानूनी वैधता'' देने की कोशिश कर रहा था. यवतमाल में रामेश्वर कुचानकर के सुसाइड नोट ने किसानों के संकट के लिए कपास के खरीद मूल्य को दोषी ठहराया. यहां तक जो पत्र आपको संबोधित नहीं भी थे, उनमें भी नीतियों पर ही सवाल खड़ा किया गया है. जैसे कि साहेबराव अधाओ का सुसाइड नोट, जो अकोला-अमरावती क्षेत्र में सूदखोरी का दयनीय चित्रण करता है.

सभी नीतियों की ओर ही इशारा करती हैं. और वो कहां तक सटीक थीं! हाल ही में यह खुलासा हुआ है कि 2008 में महाराष्ट्र में वितरित कुल ''कृषि ऋण'' में लगभग आधे का वितरण ग्रामीण बैंकों द्वारा नहीं, लेकिन शहरी और महानगरीय बैंक शाखाओं द्वारा किया गया था. (इस संबंध में एक रपट 13 अगस्त, 2010 को द हिंदु में प्रकाशित भी हुई थी). इसका 42 प्रतिशत से अधिक हिस्सा सिर्फ वितीय  राजधानी मुंबई में बांटा गया. (बेशक, शहर में बड़े पैमाने पर खेती होती है, लेकिन एक अलग तरह की - यहां ठेकों की खेती होती है). ऐसा लगता है कि बड़े निगमों की एक मुट्ठी भर जमात इस ''कृषि ऋण'' के एक बहुत बड़े हिस्से को कुतर जाते हैं. ऐसे में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्यों लोंकार राउत और उनके जैसे दूसरे सभी लोगों के लिए ''कृषि ऋण'' पाना इतना मुश्किल हो गया. अगर आपके पसंदीदा मुहावरों में से एक के शब्दों में कहूं तो अरबपतियों के होते हुए सबके लिए नियम एक जैसे नहीं हो सकते.

जबकि ये समस्याएं इन नीतियों के कारण ही उमड़ रही हैं, जो पूरी तरह से आपकी सरकार के अधिकार क्षेत्र में आती हैं. मैं यह कबूल करता हूं कि ऐसा कहते हुए मैं थोड़ा असमंजस में हूं. कई वर्षों की ''अद्भुत'' मूल्य वृद्धि निश्चित रूप से सरकार की अच्छी और दूरदर्शी नीतियों का ही नतीजा हैं ? इस वर्ष जैसे ही आपने टोरंटो में समावेशी विकास पर विश्व के नेताओं को संबोधित किया, आपकी सरकार ने पेट्रोल की कीमतों को पूरी तरह और डीजल को आंशिक रूप से नियंत्रित मुक्त कर दिया. इतना ही नहीं मिट्टी के तेल की कीमतें भी बढ़ा दी गयीं.

जब नीतियां करोड़ों लोगों को भोजन, जो पहले भी भरपेट नहीं मिलता था, में कटौती करने के लिए मजबूर करती हैं, ऐसे में क्या उन पर चर्चा हो सकती है? जब नीतियां लोगों के अधिकारों को रौंदती हैं, और लोग अपने अधिकारों की बहाली के लिए अदालतों की शरण में जाते हैं, तब अदालतें क्या करें, प्रधानमंत्री? आप सही हैं कि सुप्रीम कोर्ट को नीति नहीं बनानी चाहिए. लेकिन सुप्रीम कोर्ट क्या करे जब उसका सामना आपकी नीतियों के दुश्परिणामों से होता है? नीतियां जनता बनाती है, यह आप मुझसे बेहतर जानते हैं. आपके मामले में ऐसा कई प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों द्वारा किया जाता है, इनमें वो भी शामिल हैं जिन्होंने बाल श्रम प्रतिबंधित करने के लिए किये जा रहे संघर्षों का विरोध किया था. इन्हीं में से एक ने न्यूयॉर्क टाइम्स में 29 नवंबर, 1994 को ''बाल श्रम-गरीबों की जरूरत'' शीर्षक से एक लेख लिखा था. जिसमें उन्होंने कबूल किया था कि उनके घर में एक 13 साल का बच्चा काम करता था. (इतना ही नहीं इसी अर्थशास्त्री ने मूल्य वृद्धि से निपटने के लिए ईंधन की कीमतों को नियंत्रणमुक्त करने का समर्थन किया था. और शायद बाल श्रम का भी?)

इतना ही नहीं, उच्चतम न्यायालय क्या करता जब सरकार का वह वादा पूरा ही नहीं हुआ जिसमें उसने 2006 में ग्यारहवीं योजना के शुरू होने से पहले एक नया बीपीएल सर्वेक्षण पूरा करने की बात कही थी? उच्चतम न्यायालय या कोई और भी क्या करता जब केंद्र सरकार 1991 की जनगणना के आधारित वर्ष 2000 के गरीबी अनुमानों के आधार पर राज्यों को अनाज आवंटित करती है. ऐसे में तो मामला यह होना चाहिए है कि बीस वर्ष पुराने आंकड़ों के कारण लगभग 7 करोड़ लोग क्यों बीपीएल/अन्त्योदय अन्न योजना के तहत मिलने वाले अनाज से भी वंचित हैं.

मेरा विनम्र सुझाव है कि जब तक सुप्रीम कोर्ट उपरोक्त दुविधाओं के साथ तालमेल बिठाता है, हम अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करें. साथ ही मैं आपका बहुत आभारी रहूंगा यदि आप इस पत्र की एक प्रति अपने खाद्य और कृषि मंत्री को भी भेज दें. हां, अगर आपको याद हो कि वे कौन हैं और कहां है.

आपका
पी साइनाथ

द हिन्दू में प्रकाशित अनुवाद - मनीष शांडिल्य  

भ्रष्टाचार की गंगा का मुहाना बंद करना होगा

भ्रष्टाचार की गंगा का मुहाना बंद करना होगा

Posted by Reyaz-ul-haque on 10/03/2011 11:31:00 AM

पी. साईनाथ
अनुवाद: मनीष शांडिल्य

मनमोहनॉमिक्स के करीब 20 साल पूरे हो रहे हैं, अतः उस कोरस को याद करना बहुत वाजिब होगा, जिसका राग मुखर वर्ग पहले तो खूब गर्व से और फिर खुद को दिलासा देने के लिए अलापता रहा हैः 'आप चाहे जो भी कहें, हमारे पास डॉ मनमोहन सिंह के रूप में सबसे ईमानदार आदमी हैं. उनके खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोला जा सकता'. लेकिन ऐसा अब कम सुनने को मिलता है - ऐसे उद्गार अब ईमानदारी का झंडा बुलंद करनेवाले दूसरे चालबाजों की स्तुति में ज्यादा व्यक्त होते हैं. लेकिन बड़ी तादाद में लोग अब रोज यह कहते फिर रहे हैं : 'ईमानदार प्रधानमंत्री निर्विवाद रूप से हमारे इतिहास में अब तक के सबसे भ्रष्ट सरकार की मुखियागिरी कर रहे हैं.' और निश्चय ही इस कथन में कई सबक छुपे हुए हैं.

डॉ सिंह द्वारा संपादकों के साथ साप्ताहिक मुलाकात का फैसला हमें बताता है कि उन्होंने इन घोटालों से क्या सबक सीखा है. अब उन्हें यह लगने लगा है कि सरकार के लिए भ्रष्टाचार जन संपर्क से जुड़ा एक मामला है. हालांकि कुछ ऐसा ही मीडिया के साथ भी है, जो 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में राजनेताओं पर लगातार भौंकता रहा लेकिन इस घोटाले के आरोपी प्रमुख कॉरपोरेट्‌स को बरी कर दिया. डॉ सिंह अक्सर मीडिया को 'अभियोक्ता, अभियोजक और न्यायाधीश' तीनों ही रूपों में एक साथ देखते हैं. (हो सकता है वो इस मामले में सही हों). इसके बावजूद वो प्रमुख संपादकों के साथ बैठकी लगाना चाहते हैं. तो क्या यह जन संपर्क से जुड़ा मामला भर है? या वह यह मानते हैं कि भारत के संपादकों के पास ही ऐसा कोई नुस्खा है, जो सभी क्षेत्रों में व्याप्त भ्रष्टाचार (मीडिया के भ्रष्टाचार को छोड़कर) समाप्त कर देगा? मुझे पहले की उम्मीद है.

उनकी सरकार के घोटालों का हिसाब-किताब रखना जनगणना करने की कवायद जैसा है. एक बड़ी और जटिल गणना की तरह. कुछ ऐसे घोटाले हुए जिन्हें दफन कर दिया गया और लेकिन कुछ अभी भी ठंडे नही हुए हैं. आने वाले दिनों में और घोटालों का खुलासा होने वाला है. कुछ का पता चल चुका है, बस भंडाफोड़ बाकी है. साथ ही कई ऐसे हैं जिनपर मीडिया जान-बूझकर चुप्पी बरत रहा है. बहुतेरे के बारे में तथ्य जुटाये जा रहे हैं. हमारा वर्तमान केंद्रीय कैबिनेट संभवतः अब तक का सबसे धनवान मंत्रिमंडल है, जिनके सदस्यों के पास 500 करोड़ रुपयों से अधिक की संपत्ति है. पहले के सभी पूर्ववर्ती मंत्रिमंडल सदस्यों की कुल संपत्ति को जोड़ दें तो  भी यह ज्यादा ही होगा.

जाहिर है भ्रष्टाचार के कई कारण हैं और हर किसी के पास इससे जुड़ी अपनी-अपनी पसंदीदा कहानी है. लेकिन तीन ऐसे मूल कारण हैं जिन्हें नजरअंदाज करने से कोई भी विश्लेषण निरर्थक रहेगा. पहला कारण है : भारतीय समाज की संरचनात्मक असमानताएं, जिसमें संपत्ति और सत्ता का बड़े पैमाने पर संकेंद्रण, वर्ग और जाति, लिंग और इनसे जुड़े दूसरे भेदभाव शामिल हैं.

दूसरा पहलू आर्थिक नीतियों का पूरा ढांचा है जिसने इन असमानताओं की खाई पैदा की एवं उसे और ज्यादा गहरा किया है, साथ ही इन्हें एक किस्म की वैधता भी प्रदान की है. पिछले 20 वर्षों में ऐसा तेजी से घटित हुआ है. उदाहरण के तौर पर हम देख सकते हैं कि संविधान का मजाक उड़ाते हुए कॉरपोरेटों को नागरिकों से अधिक महत्वपूर्ण बना दिया गया है.

और तीसरा पहलू है न्यूनतम जवाबदेही के साथ हरेक तरह का अपराध कर बचने और स्वेच्छाचारिता की संस्कृति का पैर जमाना. ऐसा होना रसूखवालों को अपराध कर बच निकलने का कोई-न-कोई रास्ता निकाल ही देता है. हद तो यह है कि एक राज्य का कोई जज सिर्फ इस कारण कार्यदिवसों पर सभी तरह की विरोध रैलियों पर रोक लगा देता है क्योंकि उसकी कार कोर्ट जाते वक्त एक रैली में फंस गयी थी. ऐसे निजाम में भांति-भांति के बाबा उस समय तक हरेक कर कानून को तोड़ सकते हैं जब तक कि वे सत्तारूढ़ शासन को चुनौती नहीं देते.

भ्रष्टाचार की गंगोत्री का मुहाना बंद किये बगैर, उससे निपटने की कोशिशें कुछ वैसी ही होंगी कि हम नल खुला छोड़ दें, उससे पानी भी बहता रहे और फर्श को सूखा रखने की कोशिशों में भी लगे रहें. ये स्रोत बहुत पुराने हैं. आज इन स्रोतों का दायरा, आकार और नुकसान नई-नई हदें तय कर रहे हैं.

बीते 20 वर्ष धन के अभूतपूर्व संकेंद्रण के साक्षी रहे हैं, इस धन को अक्सर गलत तरीके से आर्थिक नीति की आड़ में इकट्‌ठा किया गया है. राज्य की भूमिका कॉरपोरेट समृद्धि लाने वाले एक उपकरण मात्र की रह गयी है. वह निजी निवेश के लिए उचित माहौल उपलब्ध कराने भर के लिए रह गया है. प्रत्येक बजट कॉरपोरेट जगत के लिए (और आंशिक रूप से उसके द्वारा भी) तैयार किया जाता है. पिछले छह बजट में सिर्फ प्रत्यक्ष कॉरपोरेट आय कर, सीमा और उत्पाद शुल्क में छूट के रूप में कॉरपोरेट जगत को 21 लाख करोड़ रुपयों का उपहार दिया गया है. और इसी अवधि में खाद्य सब्सिडी और कृषि क्षेत्र को कटौती का सामना करना पड़ा है.
नव-उदारवादी आर्थिक ढांचे के अंतर्गत राज्य आम लोगों की कीमत पर कॉरपोरेट क्षेत्र के लिए खाद-पानी मुहैया करता है. यही कारण है कि हम उस दौर में जी रहे हैं जहां सब कुछ का निजीकरण किया जा रहा है. कॉरपोरेट मुनाफे को और बढ़ाने के लिए जमीन, पानी, स्पेक्ट्रम जैसे सभी दुर्लभ राष्ट्रीय संसाधनों को निजी हाथों में सौंप देना अब राज्य का मिशन बन गया है. यह प्रक्रिया और कुछ नहीं निजी क्षेत्र को उन्हीं को तरजीह देने वाले शर्तों के आधार पर राष्ट्र के संसाधनों को सौंपना है जो कि हमारे समय में भ्रष्टाचार का मुख्य स्रोत है. घोटाले तो लक्षण मात्र हैं, रोग यह है कि भारतीय राज्य, नागरिकों की जगह कॉरपोरेट निगमों के हित साधता है.

चुनाव खर्च के बारे में चिंता करनेवालों को दूसरी चीजों पर भी ध्यान देना चाहिए. आज एक ऐसा वर्ग पैदा ले चुका है जिसके पास खर्च करने के लिए बहुत अधिक पैसा है, काली कमाई है. वो इतना पैसा उड़ाते हैं, जिसकी कल्पना तक 1947 में संभव नहीं थी. कई राज्यों में, आप करोड़पति हुए बिना चुनाव लड़ने के बारे में सोच भी नहीं सकते.

इस साल मई में चार राज्यों, एक केंद्र शासित प्रदेश (और कडप्पा उपचुनाव) में निर्वाचित 825 विधायकों का उदाहरण लें. उनकी घोषित संपत्तियां देखें. हमें इन चुनावों से संबंधित आंकड़े उपलब्ध कराने के लिए नेशनल इलेक्शन वाच (एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म -एडीआर) का शुक्रगुजार होना चाहिए. इन आंकड़ों का विश्लेषण करना एक मज़ेदार काम है.

एडीआर के आंकड़े बताते हैं कि इन 825 विधायकों की घोषित संपत्ति का कुल मूल्य 2,128 करोड़ रुपयों के आसपास है. इनमें से 231 दूसरी बार विधायक बने हैं. 2006 से 2011 के बीच इन्होंने अपनी संपत्ति में 169 प्रतिशत की औसत वृद्धि की है. इसका मतलब यह है कि विधायक बनने के पहले इन्होंने जितनी संपत्ति अर्जित की थी, उससे भी अधिक 'वैध' संपत्ति इन्होंने बतौर विधायक अपने पहले पांच साल के दौरान इकट्‌ठी कर ली.

अब 825 भूमिहीन श्रमिक परिवारों के बारे में सोचें. हम उनकी 'संपत्ति' की तुलना विधायकों की संपत्ति से नहीं कर सकते क्योंकि इन भूमिहीन श्रमिक परिवारों के पास कुछ नहीं है और वो लगातार कर्ज में डूब रहे हैं. इसका हिसाब लगाना बहुत ही दिलचस्प होगा कि मनरेगा जैसी योजना के सहारे कमाते हुए उन्हें 825 विधायकों के बराबर संपत्ति बनाने में कितना वक्त लगेगा?

मनरेगा में मिलने वाले 100 दिन के काम के जरिये वो राष्ट्रीय औसत पर 12 हजार 6 सौ रुपये के आस-पास कमा सकते हैं. इस तरह 825 भूमिहीन परिवारों को 2128 करोड़ रुपये अर्जित करने में 2,000 साल से अधिक लगेंगे. और साथ ही इसके लिए उन्हें भोजन जैसी तुच्छ आदतें छोड़नी पड़ेंगी. अगर श्रमिक परिवारों की संख्या 10 हजार कर दी जाये तो इस जैकपॉट को पाने में 170 साल के करीब का समय लगेगा. यहां तक कि दस लाख घरों को भी ऐसा करने में एक साल से अधिक का ही समय लग जाएगा. (याद रखें कि उन 231 विधायकों ने 60 महीने में अपनी संपत्ति दोगुनी से भी अधिक कर ली.)

इन गहरी असमानताओं के बीच ऐसी कोई संभावना ही नहीं दिखाई देती कि मजदूर परिवारों के पास भी कभी किसी भी तरह की संपत्ति होगी, 2,128 करोड़ रुपयों का तो जिक्र करना ही बेकार है. वे कर्ज के बोझ तले दबे रहेंगे. और वे इन कर्जों के एवज में जो सूद भेरेंगे वो शायद उन विधायकों की तिजोरी में भी जमा होगा जो साहूकार भी हैं. इसके बावजूद उन विधायकों की संपत्ति कॉरपोरेट जगत की उस विशाल संपत्ति की तुलना में मामूली है जो राज्य के सहयोग से जमा की गयी है. एक ओर मनरेगा की कमाई के सहारे दस लाख मजदूर परिवारों को 3.5 लाख करोड़ जमा करने में 275 साल के आसपास लगेंगे और दूसरी ओर पिछले छह साल से लगातार सरकार हर साल इतनी ही राशि कॉरपोरेट सेक्टर को बतौर छूट बांट रही है.

और फिर यहां बस अपराध करने की छूट है, दण्ड का कोई प्रावधान नहीं. डॉ सिंह अपने मंत्रिमंडल में उलटफेर कर सकते हैं, लेकिन क्या इससे बहुत कुछ बदल जाएगा? एक कृषि मंत्री हैं, जो क्रिकेट पर अधिक समय बिताते हैं और राष्ट्रीय जुनून को फूहड़ता के भद्दे, कारोबारी दलदल में बदलने में मददगार रहे हैं. कपड़ा मंत्री इस शासन की लड़खड़ाती दूसरी पारी में मैदान छोड़ने को मजबूर होने वाले सबसे हालिया 'बल्लेबाज' है. एक दूसरे भारी उद्योग मंत्री हैं जो साहूकारों को मदद करने के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा शर्मिंदा किये जाने के तुरंत बाद ग्रामीण विकास मंत्री के रूप में पदोन्नत कर दिये गये. अगर उन्हें कैबिनेट से बाहर का रास्ता दिखा भी दिया जाता है तो उनका विकल्प युवा होने के बावजूद हालात बदल नहीं पायेगा. ऐसे में क्या यह सिर्फ सुस्त प्रशासन या लचर नियमों से जुड़ा मामला भर है? नहीं, यह भ्रष्ट नीतियों से जुड़ा मामला है.

क्या आप आज के समय में भ्रष्टाचार से लड़ना चाहते हैं? तो आप संरचनात्मक असमानता को ढाहने के लिए कदम बढ़ायें, जो नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों से उपजा रोग और जवाबदेही के बिना स्वेच्छाचारिता की संस्कृति है. क्या हमें एक लोकपाल की जरूरत है? हां. क्या यह सरकार से भी शक्तिशाली हो सकती है? संवैधानिक ढांचे से ऊपर और जवाबदेही के बिना? अगर हम ऐसा ही लोकपाल चाहते हैं तो हम मुसीबत मोल ले रहे हैं. क्या यह असमानता, आर्थिक नीति और स्वेच्छाचारिता पर काबू पा सकता है? नहीं, लोकपाल का वर्तमान स्वरूप ऐसा करने में सक्षम नहीं. यह समग्र रूप से आम लोगों और उनके संस्थानों के लिए एक बड़ी लड़ाई है. जैसा कि एक पुरानी कहावत है, आपके अधिकार उस प्रक्रिया जितने ही सुरक्षित होते हैं, जिसके द्वारा आप अपने अधिकारों को सुरक्षित रखते हैं.

इस समय देश भर में विस्थापन, जबरन भूमि अधिग्रहण, संसाधनों की लूट के खिलाफ और वन व अन्य अधिकारों की बहाली के लिए लड़ाई तेज हो रही है. ये 'स्थानीय' संघर्ष हो सकते हैं, लेकिन वे बड़े पैमाने पर, यहां तक कि वैश्विक फलक पर भ्रष्टाचार को चुनौती देते हैं. वे असमानता और भेदभाव से लड़ रहे हैं. वे खुली छूट, लालच और मुनाफाखोरी का विरोध करते हैं. वे अपने शासकों को जवाबदेह बनाने की कोशिश करते हैं. इरोम शर्मिला जैसे कुछ लोग काले कानूनों की वापसी के लिए संघर्ष कर रहे हैं. दूसरे कई केवल वन अधिकार कानून जैसे मौजूदा कानूनों को जमीन पर उतारने के लिए सड़क पर उतर चुके हैं. लेकिन इनमें से कोई भी खुद को राष्ट्र से ऊपर नहीं मानता. ये लोग यह घोषित नहीं करते कि वे कानून बनायेंगे जिसका दूसरों को पालन करना ही होगा. न ही इस पर जोर देते हैं कि वे किसी के प्रति जवाबदेह नहीं हैं. फिर भी, वे अपने और हमारे अधिकारों के लिए लड़ते हैं और दमनकारी संरचनाओं को और अधिक जवाबदेह बनाने में मदद करते हैं.
इस मामले में अतीत को थोड़ा भुला दिया जा रहा है. मगर एक भ्रष्ट व कमजोर सरकार और बेशक कांग्रेस पार्टी को सब कुछ अच्छी तरह से पता है. बमुश्किल 36 साल पहले, एक व्यक्ति ने खुद को सभी संवैधानिक संस्थाओं से ऊपर रख लिया था- बिलकुल बेलगाम. यह याद करना वाकई दुखद है कि कितने संगठनों, मध्यमवर्गीय लोगों और यहां तक कि कुछ बुद्धिजीवियों ने उस व्यक्ति और उसके युग के पक्ष में बढ़-चढ़ कर जयकार लगाया था. उस व्यक्ति का नाम था संजय गांधी और उस युग को आपातकाल कहा जाता था.

बाकी सब इतिहास है.

दि हिंदू, 8 जुलाई, 2011 से साभार.

साल 2011 में 14 हजार से अधिक किसानों ने की आत्महत्या

साल 2011 में 14 हजार से अधिक किसानों ने की आत्महत्या

Posted by Reyaz-ul-haque on 7/21/2012 02:29:00 PM



द हिंदू के ग्रामीण मामलों के संपादक पी. साईनाथ विदर्भ और दूसरे राज्यों में किसानों की आत्महत्याओं पर लगातार लिखते रहे हैं. 3 जुलाई के द हिंदू में उनका यह नया लेख प्रकाशित हुआ, जिसमें उन्होंने महाराष्ट्र में लगातार बढ़ती आत्महत्याओं पर चिंता जताई है. मनीष शांडिल्य का अनुवाद.

राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार 2011 में कम से कम 14,027 किसानों ने आत्महत्या की है. इस तरह 1995 के बाद से आत्महत्या करने वाले किसानों की कुल संख्या 2,70,940 हो चुकी है. महाराष्ट्र में एक बार फिर आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या में बढ़ोतरी दर्ज की गयी है. महाराष्ट्र में 2010 के मुकाबले 2011 में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या 3141 से बढ़कर 3337 हो गई. (2009 में यह संख्या 2872 थी). बीते एक साल से राज्य स्तर पर आंकड़ों के साथ की जा रही भारी छेड़छाड़ के बावजूद यह भयावह आंकड़ा सामने आया है. आंकड़ों को कम कर बताने के लिए 'किसान' शब्द को फिर से परिभाषित भी किया गया. साथ ही सरकारों और प्रमुख बीज कंपनियों द्वारा मीडिया और अन्य मंचों पर महंगे अभियान भी चलाये गये थे जिसमें यह प्रचार किया गया कि उनके प्रयासों से हालात बहुत बेहतर हुए हैं. महाराष्ट्र एक दशक से भी अधिक समय से एक ऐसा राज्य बना हुआ है जहां सबसे ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है.

महाराष्ट्र में 1995 के बाद आत्महत्या करने वाले किसानों की कुल संख्या 54,000 का आंकड़ा छूने को है. इनमें से 33,752 किसानों ने 2003 के बाद आत्महत्या की है यानी इन नौ सालों में हर साल 3,750 किसानों ने आत्महत्या की. साथ ही महाराष्ट्र में 1995-2002 के बीच 20,066 किसानों ने आत्महत्या की थी यानी इन आठ सालों के दौरान हर साल 2,508 किसानों ने आत्महत्या की. उल्लेखनीय तथ्य यह है कि किसानों की आत्महत्या में भी वृद्धि हो रही है और देश भर में उनकी संख्या भी घट रही है. महाराष्ट्र में यह समस्या शहरीकरण के कारण और भी भयावह हो जाती है. गौरतलब है कि महाराष्ट्र देश का वह राज्य है जहां सबसे तेज गति से शहरीकरण हो रहा है. 'बढ़ती आत्महत्या-सिकुड़ती जनसंख्या' का समीकरण यह बताता है कि कृषक समुदाय पर दबाव बहुत बढ़ गया है. कुछ ही महीने बाद 2011 की जनगणना के आधार पर किसानों के जो आंकड़े प्राप्त होंगे उससे एक ज्यादा स्पष्ट तस्वीर सामने आयेगी. प्रति एक लाख किसानों में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या के आधार पर आत्महत्या करने वाले किसानों का अनुपात निकाला जाता है. वर्तमान में राष्ट्रीय और राज्यवार, दोनों स्तरों पर यह अनुपात 2001 की पुरानी जनगणना पर ही आधारित है.

सबसे बुरी तरह प्रभावित पांच राज्यों का हाल

2011 के आत्महत्याओं का आंकड़ा बताता है कि छत्तीसगढ़ में किसी किसान ने आत्महत्या नहीं की है. इस कारण यह आंकड़ा संदिग्ध हो जाता है. किसी राज्य में किसान का आत्महत्या नहीं करना एक अच्छी खबर होनी चाहिए थी. लेकिन छत्तीसगढ़ में पिछले पांच वर्षों में 7,777 किसानों ने आत्महत्या की थी जिनमें 2010 में आत्महत्या करने वाले 1,126 किसान शामिल है. यह राज्य कई वर्षों से इन त्रासद मौतों से बहुत बुरी तरह प्रभावित राज्यों में से एक रहा है. किसानों की आत्महत्या की समस्या से सबसे बुरी तरह प्रभावित पांच राज्यों (महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश) के आंकड़े 2011 में हुई कुल किसान आत्महत्याओं के 64 प्रतिशत के आसपास है. छत्तीसगढ़ के 'शून्य' के बावजूद 2010 के मुकाबले स्थिति में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है. 2010 में इन पांच राज्यों की प्रतिशत हिस्सेदारी 66 प्रतिशत के करीब थी.

ऐसा हो सकता है कि छत्तीसगढ़ के आंकड़े सही समय पर एनसीआरबी को प्राप्त नहीं हुए हों. या इसका एक मतलब यह हो सकता है कि राज्य में किसानों की आत्महत्या संबंधी आंकड़ों में देर से छेड़छाड़ शुरू हुई हो. दूसरे राज्यों में यह खेल कई सालों से चल रहा है. महाराष्ट्र में प्रधानमंत्री की विदर्भ यात्रा के बाद 2007 से ऐसा किया जा रहा है. केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार 2008 के बाद से संसद में किसानों से संबंधित एनसीआरबी के खौफनाक आंकड़ों को सामने रखने से परहेज कर रहे हैं. (लेकिन केंद्र सरकार अन्य सभी श्रेणियों के लिए एनसीआरबी को उद्धृत करती है). अब तो राज्य सरकारें भी एनसीआरबी को भेजे जाने वाले आंकड़ों में बड़े पैमाने पर हेरा-फेरी करने लगी हैं.

ऐसे में जबकि उपरोक्त पांच राज्यों पर सुखाड़ के काले बादल मंडरा रहे हैं, अगले साल सामने आने वाले आंकड़ों की भयावहता चिंता की लकीरों को और गहरा कर देती हैं. महाराष्ट्र में विदर्भ और मराठवाड़ा क्षेत्रों में हालात तो पहले से ही काफी बुरे हैं. (यह स्थिति अधिकारियों को आंकड़ों में ज्यादा हेरा-फेरी करने के लिए उकसाती है). यदि पिछले पांच वर्षों के छत्तीसगढ़ के वार्षिक औसत के आधार पर आकलन किया जाए तो राष्ट्रीय स्तर पर 2011 में आत्महत्या करने वाले किसानों की कुल संख्या 15,582 और उपरोक्त पांच राज्यों की कुल प्रतिशत हिस्सेदारी 68 प्रतिशत (10,524) के करीब हो जायेगी, जो अब तक की सबसे ऊंची प्रतिशत भागीदारी होगी. जब 1995 में पहली बार एनसीआरबी ने किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों को अलग से सारणीबद्ध किया था, तब आत्महत्या करने वाले 56.04 फीसदी किसान उपरोक्त पांच राज्यों के थे.

2011 में पांच राज्यों में 2010 की तुलना में किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों में 50 से अधिक की वृद्धि दर्ज हुई है. इन राज्यों में शामिल हैं: गुजरात (55), हरियाणा (87), मध्य प्रदेश (89), तमिलनाडु (82). अकेले महाराष्ट्र में 2010 की तुलना में 2011 में 196 की वृद्धि देखी गई है. साथ ही नौ राज्यों में किसानों की आत्महत्या की संख्या में 50 से अधिक की कमी भी दर्ज की गई है. 2011 में 2010 के मुकाबले कर्नाटक में 485, आंध्र प्रदेश में 319 और पश्चिम बंगाल में 186 की गिरावट दर्ज की गई है. लेकिन ये सभी राज्य छत्तीसगढ़ से 'पीछे' हैं जहां राज्य सरकार के दावे के अनुसार 2011 में किसी भी किसान ने आत्महत्या नहीं की है. गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ में 2010 में 1126 किसानों ने आत्महत्या की थी.


प्रमुख तथ्य
  • 1995 से अब तक कुल 2,70,940 किसानों ने आत्महत्या की है.
  • महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा किसान आत्महत्या करते है.
  • आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या लगातार बढ़ रही है और कृषक आबादी घट रही है.
  • इस समस्या से सबसे बुरी तरह प्रभावित पांच राज्य महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश हैं.
  • उपरोक्त पांच राज्यों में सुखाड़ की आशंका के कारण अगले साल सामने आने वाले आंकड़े और भयावह हो सकते हैं.
  • छत्तीसगढ़ सरकार के दावे के अनुसार राज्य में किसी भी किसान ने 2011 में आत्महत्या नहीं की है. जबकि 2010 में राज्य में 1126 किसानों ने आत्महत्या की थी.

प्रेमचंद की परम्परा और हंस : वरवर राव का खुला खत

प्रेमचंद की परम्परा और हंस : वरवर राव का खुला खत

Posted by Reyaz-ul-haque on 7/31/2013 10:54:00 PM


वरवर राव

मुक्तिबोध की हजारों बार दुहराई गई पंक्ति को एक बार फिर दुहरा रहा हूं : उठाने ही होंगे अभिव्यक्ति के खतरे/ तोड़ने ही होंगे/ गढ़ और मठ/ सब।'

कुछ साल पहले की बात है जब मेरे साथ अखिल भारतीय क्रांतिकारी सांस्कृतिक समिति और अखिल भारतीय जनप्रतिरोध मंच में काम करने वाले क्रांतिकारी उपन्यासकार और लेखक विजय कुमार ने आगरा से लेकर गोरखपुर तक हिंदी क्षेत्र में प्रेमचंद की जयंती पर एक सांस्कृतिक यात्रा आयोजित करने का प्रस्ताव दिया था। यह हिंदुत्व फासीवाद के उभार का समय था। जो आज और भी भयावह चुनौती की तरह सामने खड़ा है। उस योजना का उद्देश्य उभर रही फासीवाद की चुनौती से निपटने के लिए प्रेमचंद को याद करना और लेखकीय परम्परा को आगे बढ़ाकर इसके लिखाफ एक संगठित सांस्कृतिक आंदोलन को बनाना था।

जब 'हंस' की ओर से प्रेमचंद जयंती पर 31 जुलाई 2013 को 'अभिव्यक्ति और प्रतिबंध' विषय पर बात रखने के लिए आमंत्रित किया गया तो मुझे लगा की अपनी बात रखने का यह अच्छा मौका है। प्रेमचंद और उनके संपादन में निकली पत्रिका 'हंस' के नाम के आकर्षण ने मुझे दिल्ली आने के लिए प्रेरित किया। इस आयोजन के लिए चुना गया विषय 'अभिव्यक्ति और प्रतिबंध' ने भी मुझे आकर्षित किया। जब से मैंने नक्सलबाड़ी और श्रीकाकुलम के प्रभाव में लेखन और सांस्कृतिक सक्रियता में हिस्सेदारी करना शुरू किया तब से मेरी अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध लगता ही रहा है। यह स्वाभाविक था कि इस पर विस्तार से अपने अनुभवों को आपसे साझा करूं।

मुझे 'हंस' की ओर से 11 जुलाई 2013 को लिखा हुआ निमंत्रण लगभग 10 दिन बाद मिला। इस पत्र में मेरी सहमति लिए बिना ही राजेंद्र यादव ने 'छूट' लेकर मेरा नाम निमत्रंण कार्ड में डाल देने की घोषणा कर रखी थी। बहरहाल, मैंने इस बात की तवज्जो नहीं दिया कि हमें कौन, क्यों और किस मंशा से बुला रहा है? मेरे साथ मंच पर इस विषय पर बोलने वाले कौन हैं?

आज दोपहर में दिल्ली में आने पर 'हंस' की ओर भेजे गए व्यक्ति के पास छपे हुए निमत्रंण कार्ड को देखा तब पता चला कि मेरे अलावा बोलने वालों में अरूंधती राय के साथ-साथ अशोक वाजपेयी व गोविंदाचार्य का भी नाम है। प्रेमचंद जयंती पर होने वाले इस आयोजन में अशोक वाजपेयी और गोविंदाचार्य का नाम वक्ता के तौर पर देखकर हैरानी हुई। अशोक वाजपेयी प्रेमचंद की सामंतवाद-फासीवाद विरोधी धारा में कभी खड़े  होते नहीं दिखे। वे प्रेमचंद को औसत लेखक मानने वालों में से है। अशोक वाजपेयी का सत्ता प्रतिष्ठान और कारपोरेट सेक्टर के साथ जुड़ाव आज किसी परिचय का मोहताज नहीं है। इसी तरह क्या गोविंदाचार्य के बारे में जांच पड़ताल आप सभी को करने की जरूरत बनती है? हिंदुत्व की फासीवादी राजनीति और साम्राज्यवाद की जी हूजूरी में गले तक डूबी हुई पार्टी, संगठन के सक्रिय सदस्य की तरह सालों साल काम करने वाले गोविंदाचार्य को प्रेमचंद जयंती पर 'अभिव्यक्ति और प्रतिबंध' विषय पर बोलने के लिए किस आधार पर बुलाया गया!

मैं इस आयोजन में हिस्सेदारी कर यह बताना चाहता था कि अभिव्यक्ति पर सिर्फ प्रतिबंध ही नहीं बल्कि अभिव्यक्ति का खतरा उठा रहे लोगों की हत्या तक की जा रही है। आंध्र प्रदेश में खुद मेरे ऊपर, गदर पर जानलेवा हमला हो चुका है। कितने ही सांस्कृतिक, मानवाधिकार संगठन कार्यकर्ता और जनसंगठन के सदस्यों को मौत के घाट उतार दिया गया। हजारों लोगों को जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया गया। अभी चंद दिनों पहले हमारे सहकर्मी गंटि प्रसादम की क्रूर हत्या कर दी गई। गंटी प्रसादम जनवादी क्रांतिकारी मोर्चा-आरडीएफ के उपाध्यक्ष, शहीद बंधु मित्र में सक्रिय सहयोगी और विप्लव रचियतल संघम के अभिन्न सहयोगी व सलाहकार और खुद लेखक थे। विरसम ने उनकी स्मृति में जब एक पुस्तक लाने की योजना बनाया और इस संदर्भ में एक वक्तव्य जारी किया तब हैदराबाद से कथित 'छत्तीसगढ चीता' के नाम से विरसम सचिव वरलक्ष्मी को जान से मारने की धमकी दिया गया। इस धमकी भरे पत्र में वरवर राव, प्रो. हरगोपाल, प्रो. शेषैया, कल्याण राव, चेलसानी प्रसाद सहित 12 लोगों को जान से मारने की चेतावनी दी गई है। लेखक, मानवाधिकार संगठन, जाति उन्मूलन संगठनों के सक्रिय सदस्यों को इस हमले में निशाना बनाकर जान से मारने की धमकी दी गई। इस खतरे के खिलाफ हम एकजुट होकर खड़े हुए और हमने गंटी प्रसादम पर पुस्तक और उन्हें लेकर सभा का आयोजन किया। इस सभा के आयोजन के बाद एक बार फिर आयोजक को जान से मार डालने की धमकी दी गई। अभिव्यक्ति का यह भीषण खतरा साम्राज्यवादी-कारपोरेट लूट के खिलाफ अभियान, राजकीय दमन की खिलाफत और हिंदुत्व फासीवाद के खिलाफ गोलबंदी के चलते आ रहा है। यह जन आंदोलन की पक्षधरता और क्रांतिकारी आंदोलन की विचारधारा को आगे ले जाने के चलते हो रहा है।

हैदराबाद में अफजल गुरू की फांसी के खिलाफ एक सभा को संबोधित करने के समय हिंदुत्व फासीवादी संगठनों ने हम पर हमला किया और इसी बहाने पुलिस ने हमें गिरफ्तार किया। इसी दिल्ली में जंतर-मंतर पर क्या हुआ, आप इससे परिचित होंगे। अफजल गुरू के षरीर को ले जाने की मांग करते हुए कश्मीर से आई महिलाओं और अन्य लोगों को न तो जंतर मंतर पर एकजुट होने दिया गया और न ही मुझे और राजनीतिक जेल बंदी रिहाई समिति के सदस्यों को प्रेस क्लब, दिल्ली में बोलने दिया गया। प्रेस क्लब में जगह बुक हो जाने के बाद भी प्रेस क्लब के आधिकारिक कार्यवाहक, संघ परिवार व आम आदमी पार्टी के लोग और पुलिस के साथ साथ खुद मीडिया के भी कुछ लोगों ने हमें प्रेस काफ्रेंस नहीं करने दिया और वहां धक्कामुक्की किया।

मैं जिस जनवादी क्रांतिकारी मोर्चा का अध्यक्ष हूं वह संगठन भी आंध्र प्रदेश, उडीसा में प्रतिबंधित है। इसके उपाध्यक्ष गंटी प्रसादम को जान से मार डाला गया। इस संगठन के उड़ीसा प्रभारी दंडपाणी मोहंती को यूएपीए सहित दर्जनों केस लगाकर जेल में डाल दिया गया है। इस संगठन का घोषणापत्र सबके सामने है। पिछले सात सालों से जिस काम को किया है वह भी सामने है। न केवल यूएपीए बल्कि गृहमंत्रालय के दिए गये बयानों व निर्देषों में बार बार जनआंदोलन की पक्षधरता करने वाले जनसंगठनों, बुद्धिजीवियों, सहयोगियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने, प्रतिबंधित करने, नजर रखने का सीधा अर्थ हमारी अभिव्यक्ति को कुचलना ही है। हम 'लोकतंत्र' की उसी हकीकत की आलोचना कर रहे हैं जिससे सारा देश वाकिफ है। जल, जंगल, जमीन, खदान, श्रम, … और विषाल मध्यवर्ग की कष्टपूर्ण बचत को लूट रहे साम्राजयवादी-कारपोरेट सेक्टर और उनकी तानाषाही का हम विरोध करते हैं। हम वैकल्पिक जनवादी मॉडल की बात करते हैं। हम इस लूट और तबाही और मुसलमान, दलित, स्त्री, आदिवासी, मेहनतकष, …पर हमला करने वाली और साम्राज्यवादी विध्वंस व सामूहिक नरसंहार करने वाली हिंदुत्व फासीवादी राजनीति का विरोध करते हैं।

हम ऐसे सभी लोगों के साथ हैं जो जनवाद में भरोसा करते हैं। हम उन सभी लोगों के साथ हैं जो अभिव्यक्ति का खतरा उठाते हुए आज के फासीवादी खतरे के खिलाफ खड़े हैं। हम प्रेमचंद की परम्परा का अर्थ जनवाद की पक्षधरता और फासीवाद के खिलाफ गोलबंदी के तौर पर देखते है। प्रेमचंद की यही परम्परा है जिसके बूते 1930 के दषक में उपनिवेशवाद विरोधी, सामंतवाद विरोधी, फासीवाद विरोधी लहर की धार इस सदी में हमारे इस चुनौतीपूर्ण समय में उतना ही प्रासंगिक और उतना ही प्रेरक बना हुआ है।

अशोक वाजपेयी और गोविंदाचार्य इस परम्परा के मद्देनजर किसके पक्ष में हैं? राजेन्द्र यादव खुद को प्रेमचंद की परम्परा में खड़ा करते हैं। ऐसे में सवाल बनता है कि वे अशोक वाजपेयी और गोविंदाचार्य को किस नजर से देखते हैं? और, इस आयोजन का अभीष्ट क्या है? बहरहाल, कारपोरेट सेक्टर की संस्कृति और हिंदुत्व की राजनीति करने वाले लोगों के साथ मंच पर एक साथ खड़ा होने को मंजूर करना न तो उचित है और न ही उनके साथ 'अभिव्यक्ति और प्रतिबंध' जैसे विषय पर बोलना मौजूं है।

प्रेमचंद जयंती पर 'हंस' की ओर से आयोजित इस कार्यक्रम में जो भी लोग मुझे सुनने आए उनसे अपनी अनुपस्थिति की माफी दरख्वास्त कर रहा हूं। उम्मीद है आप मेरे पक्ष पर गौर करेंगे और अभिव्यक्ति के रास्ते आ रही चुनौतियों का सामना करते हुए हमसफर बने रहेंगे।

क्रांतिकारी अभिवादन के साथ,

वरवर राव

31 जुलाई 2913, दिल्ली

Aamir khan's 'satyameba jayate' team visit kamduni

Aamir khan's 'satyameba jayate' team visit kamduni



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राजनीति ने हाल बेहाल किया पोर्ट ट्रस्ट का!

राजनीति ने हाल बेहाल किया पोर्ट ट्रस्ट का!


एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास​  


अब जाकर कहीं कोलकाता पोर्टट्रस्ट के चेयरमैन एरपी कहलों ने माना है कि एबीजी के हल्दिया बंदरगाह छोड़ने पर पर ट्रस्ट घाटे में है। वे राजनीतिक  वजह का खुलासा नहीं कर रहे हैं जो सर्वविदित है।जंगी मजदूर आंदोलन के कारण ही हल्दिया से एबीजी की विदाई हो गयी।मजदूर यूनियनें मशीनों के जरिये जहाजों से माल उतारने के लिए ठोका कंपनी के खिलाफ लामबंद हो गयी थीं। अब फिर एबीजी के छोड़े हुए दो नंबर और आठ नंबर बर्थ के लिए नये सिरे से निविदा जारी करने की जानकारी दी कहलों ने।नई कंपनी फिर मशीनों का इस्तेमाल करेगी,तो इसका यूनियनें विरोध नहीं करेंगी ,ऐसी गारंटी हालांकि किसीने नहीं दी है।


वैसे भी हुगली नदी की तलहटी में गाद भरते जाने से कोलकाता और हल्दिया,दोनों बंदरगाह विपन्न है। इस दीर्घकालीन समस्या का एकमात्र हल है कु हुगली में अबाध जलप्रवाह हो पर्याप्त,जो फिलहाल फरक्का से छोड़े गये जल की मात्र पर निर्भर है। उद्योगों का जो मलबा हुगली में भर रहा है,उसके समाधान के उपाय भी तुरंत नहीं हो सकते। लेकिन रोजमर्रे के कामकाज में सुधार के जरिये बचाव के जो रास्ते बन सकते हैं, वे राजनीतिक वर्चस्व वाले जंगी आंदोलन की वजह से खुलने असंभव है।चालू बंदरगाहों का यह हाल और दीदी ने सागरद्वीप में बंदर बनाने का ऐलान कर दिया।बंदरगाह प्रबंधन सुधारे बिना सागरद्वीप बंदरगाह दस बीस साल में बन भी जाये, तो बंगाल के औद्योगिक परिदृश्य कितने सुधरेंगे ,इस पर सिर्फ कयास लगाये जा सकते हैं।


बहरहाल ताजा खबर तो यही है कि सत्ता समर्थित युनियनों की रंगबाजी से एबीजी को बाहर का रास्त दिखा दि्ये जाने के कारण हल्दिया बंदरगाह को हर महीने पंद्रह करोड़ का घाटा हो रहा है।बंदरगाह घाटे में हों ,अब निरुपाय पोर्ट ट्रस्ट चेयरमैन भी मानने लगे हैं। उनकी आधिकारिक स्वाकारोक्ति है कि जहाजों से माल उतारने वाली एबीजी संसस्था के हल्दिया बंदरगाह से निकलने के बाद बंदरगाह की आय में कमी हो गयी है।

मालूम हो कि हल्दिया बंदरगाह के दो और आठ नंबर बर्थ पर 2010 में एबीजी ने काम शुरु किया था। अत्याधुनिक सचल क्रेन के जरिये रोज यह संस्था दोनों बर्थ पर चालीस हजार मीटरी टन माल जहाजों से उतार रही थी।किंतु श्रमिक आंदोलन और अधिकारियों के अपहरण की वजह से एबीजी को हल्दिया छोड़कर जाना ही पड़ा।हल्दिया बंदरगाह पर अत्याधुनिक सचल क्रेन के जरिये माल उतारने का काम करने वाली हल्दिया बल्क टर्मिनल्स (एचबीटी) ने हल्दिया बंदरगाह पर असुरक्षित काम के माहौल की वजह से तत्काल हटने का एलान किया। दूसरी ओर राज्य की दो प्रमुख विरोधी राजनीतिक पार्टियों माकपा व कांग्रेस ने हल्दिया बंदरगाह पर जारी संकट को गंभीर व जटिल करार दिया।


कोलकाता पोर्ट ट्रस्ट की हल्दिया गोदी परिसर में उस समय संकट खड़ा हो गया जब एचबीटी ने इसी महीने अपने 275 कर्मचारियों को 'फालतू' बताते हुए बर्खास्त कर दिया। एचबीटी के मुख्य कार्यपालक अधिकारी गुरदीप माल्ही ने एक बयान में कहा-गहरी निराशा के बीच हमें आपको बताना पड़ रहा है कि हमारे पास हल्दिया बंदरगाह को छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। हल्दिया में खराब होती स्थिति के बीच हम धोखा खाया महसूस कर रहे हैं। हमें उम्मीद है कि जो लोग इसके लिए जिम्मेदार हैं उनके खिलाफ कार्रवाई होगी।


एचबीटी पर सितंबर से काम ठप हो गया। एचबीटी के बर्खास्त कर्मचारी और ट्रेड यूनियनों के श्रमिक परिसर के भीतर और बाहर आंदोलन करते रहों। इससे पहले एचबीटी ने आरोप लगाया था कि उसके प्रबंधन के तीन अधिकारियों और उनके परिवार के दो सदस्यों का अपहरण कर लिया गया । पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने महालांकि वायदा किया था कि हल्दिया में पूरी पुलिस सुरक्षा मुहैया कराई जाएगी।


उसके बाद से माल उतारने के लिए निविदा जारी करने पर दावा करने वाली कंपनियां बोली इतनी ऊंची लगा रही है कि पोर्ट ट्रस्ट के लिए छेका देना असंभव हो रहा है। नयी संस्थाएं यूनियनों और नेताओं की पूजा पाठ काख्रच लगाकर ही बोली लगा रही हैं।उधर पोर्ट ट्रस्ट का कामकाज बाधित रहने से घाटा में लगातार इजाफा हो रहा है।


तृणमूल कांग्रेस नेता व सांसद शुभेंदु अधिकारी का कहना है कि हल्दिया बंदरगाह देश का एक बड़ा बंदरगाह है। इसे स्वायत्त बनाने की आवश्यकता है। हल्दिया बंदरगाह में गहराई को लेकर आज जो समस्या हो रही है, उसके लिए पूरी तरह से पूर्व प्रधानमंत्री देवगौड़ा और पूर्व मुख्यमंत्री स्व. ज्योति बसु जिम्मेवार हैं। उन्होंने बांग्लादेश के साथ जल समझौता किया, जिसके चलते यह स्थिति उत्पन्न हुई। इस वजह से नदी में पानी का दबाव काफी कम हो गया है। जिसके चलते कई बड़े जहाज बंदरगाह में नहीं रुक पाते। कई जहाजों को वापस लौट जाना पड़ता है।


उनका यह वक्तव्य सही भी है क्योंकि हल्दिया और कोलकाता बंदरगाहों को पर्याप्त मात्रा में पानी फरक्का से नहीं मिल रहा है। वैसे दीदी ने सागरद्वीप में नये बंदरगाह का ऐलान किया हुआ है। इसके लिए सागरद्वीप को सड़कपथ पर जोड़ना जरुरी है और बूढ़ी गंगा पर पुल बने बिना इस बंदरगाह पर काम शुरु हो ही नहीं सकता। दीदी के इस हवाई किले के लिए केंद्र से अभी कोई बजट मंजूर नहीं हुआ है। बिना केंद्रीय मदद के नया बंदरगाह कैसे बानायेंगी दीदी, यह तो दीदी ही जानें। पर फिलवक्त तो कोलकाता और हल्दिया बंदरगाहों को बचाने के लिए केंद्र की मदद चाहिए!समुद्र में बढ़ रहे गाद के जमाव के कारण संकरे होते समुद्री मार्ग ने देश के पूर्वी और पूर्वोत्तर हिस्से के प्रमुख व्यापारिक जलमार्ग वाले हल्दिया बंदरगाह के भविष्य पर प्रश्नचिह्न् लगा दिया है।बंदरगाह में परिवहन मार्ग लगातार सिकुड़ता जा रहा है और बड़े जलयानों को यहां से गुजरने से पहले आधा से अधिक माल नजदीकी बंदरगाहों जैसे पारादीप अथवा विशाखापतनम में उतारना पड़ता है ताकि जहाज का भार कम किया जा सके।





Govind Raju updated his status: "आप भले ही दिन भर सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक से चिपके रहते होंगे, ल...




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Govind Raju
Govind Raju updated his status: "आप भले ही दिन भर सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक से चिपके रहते होंगे, लेकिन एक ऐसा छिपा हुआ मेसेज फोल्‍डर है, जो अब तक आपको नजर नहीं आया होगा.
दरअसल, फेसबुक में 'Other' नाम से एक छिपा हुआ फोल्‍डर है और ज्‍यादातर यूजर्स इसके बारे में नहीं जानते हैं. इसमें कई जरूरी मैसेज हो सकते हैं, जिन्‍हें यूजर्स कभी देख ही नहीं पाए.

टेक एक्‍सपर्ट डेविड पोज ने 'द न्‍यूयॉर्क टाइम्‍स' में एक ब्‍लॉग लिखा है कि उन्‍हें फेसबुक में एक ऐसा फोल्‍डर मिला है जिसमें कई सारे मैसेजेस हैं, जिन्‍हें उन्‍होंने कभी नहीं देखा.

वे कहते हैं कि इस 'Other' फोल्‍डर को एक्‍सेस करने के लिए यूजर को अपने फेसबुक पेज पर जाना होगा. इसके बाद दाहिने तरफ मैसेजे वाले ऑप्‍शन को क्लिक करना होगा. यहां आपको बोल्‍ड में 'Inbox' लिखा हुआ दिखाई और इसके ठीक बगल में हल्‍के ग्रे रंग का 'Other' फोल्‍डर है. यूजर्स को अपने छिपे हुए मैसेज देखने के लिए इसे क्लिक करना होगा. यूजर्स यह जानकर हैरान रह जाएंगे कि यहां पर कितने जरूरी मैसेज उनका इंतजार कर रहे हैं.

पोज के मुताबिक ऐसा लगता हे कि यह 'Other' फोल्‍डर फेसबुक के USD 1-a-मैसेज प्रोग्राम का हिस्‍सा. इसका मतलब यह है कि जब यूजर किसी ऐसे शख्‍स को मैसेज भेजने की कोशिश करता है, जो उसके फ्रेंड लिस्‍ट में नहीं है तो एक डॉयलॉग बॉक्‍स खुल जाता है. यह डायलॉग बॉक्‍स आपको दो विकल्‍प देता है- या तो आप 1 डॉलर दें या फिर इस मैसेज को 'Other' फोल्‍डर में भेज दें.

फेसबुक के इस प्रोग्राम का मकसद स्‍पैम मैसेजेस को यूजर्स के प्रोफाइल से दूर रखना है."
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[Marxistindia] On Telangana State



marxistindia
news from the cpi(m)


July 31, 2013





Press Statement



The Polit Bureau of the Communist Party of India (Marxist) has issued the following statement:





On Telangana State





After long procrastination and more than two years after the report submitted by the Srikrishna Committee, the Congress leadership and the UPA government have decided on the division of Andhra Pradesh and the formation of Telangana state. This decision seems to have been impelled by the forthcoming Lok Sabha elections. It will give a fillip to demands for separate states in other places.



The CP(M) has always stood for the integrity of the states based on the democratic principle of linguistic states.



The issue of the formation of Telangana will now have to be decided by parliament.



The Polit Bureau appeals to the people of all regions of the state to maintain peace and harmony while the matter is ultimately decided by parliament.




_______________________________________________
Marxistindia mailing list
Marxistindia@cpim.org
http://cpim.org/mailman/listinfo/marxistindia_cpim.org
http://www.cpim.org

Fwd: NEW GOVERNMENT LOGO!





The guy who thought of this is brilliant -

a picture paints a thousand words ?

 

The New Government Symbol

 

 

THE GOVERNMENT'S NEW SYMBOL IS THAT OF A CONDOM,

because it more accurately reflects

the government's political stance....


A condom allows for inflation,

halts production,

destroys the next generation,

protects a bunch of dicks,

and gives you a sense of security

while you're actually being screwed !



Damn, it just doesn't get

more accurate than that !

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

Fwd: [pmarc] Dalits Media Watch - News Updates 31.07.13



 

Dalits Media Watch

News Updates 31.07.13

 

 'Harassed' Dalit woman sarpanch to face no-confidence motion on Aug 1- The Indian Express

http://www.indianexpress.com/news/-harassed--dalit-woman-sarpanch-to-face-noconfidence-motion-on-aug-1/1149060/

Family ostracized for inter-caste marriage in TN- The Times Of India

http://timesofindia.indiatimes.com/city/chennai/Family-ostracized-for-inter-caste-marriage-in-TN/articleshow/21499196.cms

Protect Dalit woman, Dharmapuri SP told- The New Indian Express

http://newindianexpress.com/cities/chennai/Protect-Dalit-woman-Dharmapuri-SP-told/2013/07/31/article1710391.ece

Ilavarasan's dad moves HC for SIT probe into death- The New Indian Express

http://newindianexpress.com/states/tamil_nadu/Ilavarasans-dad-moves-HC-for-SIT-probe-into-death/2013/07/31/article1710392.ece

Allot burial grounds for dalits: Subhash Bharani- Deccan Chronicle

http://www.deccanchronicle.com/130731/news-current-affairs/article/allot-burial-grounds-dalits-subhash-bharani

 

 

The Indian Express

 

'Harassed' Dalit woman sarpanch to face no-confidence motion on Aug 1

http://www.indianexpress.com/news/-harassed--dalit-woman-sarpanch-to-face-noconfidence-motion-on-aug-1/1149060/

 

A dalit woman sarpanch from Chadasana village of Becharaji taluka in Mehsana district, who had earlier this month written to various authorities complaining about alleged caste-based harassment by other "upper caste" members of the panchayat, is now facing a no-confidence motion from the other members of the panchayat on August 1. She has also alleged that the no-confidence motion is nothing but a ploy to remove her as sarpanch.

 

The dalit woman sarpanch has been identified as Santok Solanki. According to the details, Solanki was selected as the sarpanch of the village in December 2011 under the Samras Yojna of the Gujarat Government where instead of electing, villagers select the sarpanch and other members of the Gram Panchayat. And in turn, the panchayat gets special benefits from the state government. The seat of sarpanch was reserved for the Scheduled Caste as per the roster of the state Government then.

 

Earlier, in April this year, another dalit woman sarpanch in Lakhvad village of Mehsana district had alleged harassment by her predecessors belonging to "upper castes". In fact, the woman was arrested by police in connection with a criminal case of breach of trust and criminal intimidation lodged by one of the persons against whom she had lodged multiple complaints of harassment.

 

Like Chadasana, Lakhvad is also a Samras village. The all-women panchayat of Chadasana consists of six members apart from the sarpanch. Apart from Solanki and one other dalit woman, rest of the members are belonging to "upper castes".

 

According to Solanki, she started a lot of developmental works in the village. "However, a majority of these upper caste members did not like it when I started some works in the dalit dominated areas. And then they started scuttling all my proposals of developmental works and started approaching authorities against me," Solanki said.

 

Following this, on July 5, Solnaki had written to different authorities complaining about the caste-based harassment she was being subjected to.

 

"However, now one of my opposites has brought a no-confidence motion against me on the grounds of mismanagement and irregularities voting on which is on August 1. This is a ploy to remove me as sarpanch," Solanki said.

 

According to Solanki, the opposition against her is led by the Deputy Sarpanch Kaliben Desai and her husband Vasibhai. When contacted, Kaliben asked to talk to her husband and Vasibhai, in turn, denied the allegations saying, "They have committed irregularities and therefore the no-confidence motion has been moved. We are not discriminating against her on her caste. As, there is one another dalit member who is with us against her (Solanki)."

 

When contacted, District Development Officer H N Thakkar said, "I have inquired into this issue. I have got an impression that the woman sarpanch is not being discriminated against." And so far as the no-confidence motion is concerned, it's an internal matter of the panchayat being governed under the provisions of the Panchayat Act."

 

The Times Of India

Family ostracized for inter-caste marriage in TN

http://timesofindia.indiatimes.com/city/chennai/Family-ostracized-for-inter-caste-marriage-in-TN/articleshow/21499196.cms

 

CHENNAI: A couple in has been ostracized for marrying outside their caste in Tamil Nadu, three years after the marriage following controversy and violence after a similar inter-caste marriage in the state. 
S Sudha, a dalit, married a vanniyar man in April 2010 at Kadaiyampatti village in Dharmapuri district. She has now approached the Madras high court saying that the family, including her in-laws have been excommunicated and sought protection from 'community leaders'. 


Justice K K Sasidharan directed the Dharmapuri district administration to provide police protection to Sudha and her family members, and ensure that they lived peacefully without any threat or attack. 
Justice Sasidharan said, "This petition projects a sorry state of affairs in Tamil Nadu, and Dharmapuri district in particular. The petitioner (Sudha) had a love affair with a man of another community resulting in their marriage. She now wants to live in the village along with her in-laws. In a matter of this nature, the court has to strike a balance between the right of the petitioner to live in the village and the need to preserve peace and tranquility in the area." 


Sudha said that after the Divya-Elavarasan episode, violence broke out in Dharmapuri district. She claimed that members of the vanniyar community in the village boycotted her family. Life became so miserable that she was forced to leave the village, she said, adding that 21 local leaders conducted a katta panchayat (kangaroo court) and excommunicated her and the family. She wanted police protection to live in the village.
The government lawyer told the court that police have been providing protection to her and that two sub-inspectors and eight constables have been posted for their protection. 


Justice Sasidharan asked the Dharmapuri superintendent of police to ensure that Sudha's family was able to live peacefully in the village, and was allowed to use the village well and other common amenities without any problem.

 

The New Indian Express

Protect Dalit woman, Dharmapuri SP told

http://newindianexpress.com/cities/chennai/Protect-Dalit-woman-Dharmapuri-SP-told/2013/07/31/article1710391.ece

 

The Madras High Court has directed the Dharmapuri district Superintendent of Police to provide protection to Dalit woman S Sudha, who married an upper-caste man and thereby earned the wrath of the villagers and was ex-communicated.

 

This writ petition projected a sorry state-of-affairs prevailing in the State in general and more  particularly in Dharmapuri, Justice KK Sasidharan observed on July 26. In a matter of this nature, the court had to strike a balance between the right of the petitioner to live in the village and the need to preserve the peace and tranquility in the area, the judge added.

 

It was open to Sudha to enter her village and live along with her in-laws. The police should ensure that she lived peacefully without any threat or attack by 21 persons named in her affidavit, or their men.

 

The police protection must be meaningful and they should ensure that the petitioner was permitted to take water and use other common amenities without any problem, the judge said while passing interim orders on a writ petition from Sudha. The judge also issued notices to the 21 persons, returnable by August 19.

 

The New Indian Express

Ilavarasan's dad moves HC for SIT probe into death

http://newindianexpress.com/states/tamil_nadu/Ilavarasans-dad-moves-HC-for-SIT-probe-into-death/2013/07/31/article1710392.ece

 

Not convinced by official reports that his son Ilavarasan committed suicide, T Elango of Natham Colony of Dharmapuri, has moved the Madras High Court, seeking a direction to the Secretaries of the State and Central governments to transfer the case to a special investigation team (SIT) that included a forensic expert.

 

Ilavarasan, a Dalit youth, whose marriage to Divya, a Vanniyar girl, led to attacks on properties of the SCs in Dharmapuri last November, was found dead on a railway track on July 4. He was found dead a day after Divya disowned him, allegedly under duress.

 

In his writ petition filed on Tuesday, Elango claimed that his son's death was a case of murder. From the beginning, the local police and experts, who conducted the postmortems, were issuing "statements and reports to appease communal forces," he said.

 

"They were attempting to bury the case by stating that Ilavarasan committed suicide. The investigation was partisan, intended to promote the wishes of communal forces," the petitioner claimed.

 

Elango also claimed that he was arbitrarily denied the right to choose an expert of his preference to conduct his son's postmortem.

 

This itself was sufficient ground to raise the suspicion that the investigation was not fair. It was one-sided and motivated, claimed the petition.

 

Hence, it was just and necessary to appoint a SIT of "bright officers of sterling character, men of integrity committed to social justice, along with senior-most forensic expert to probe the case," he prayed.

 

He also prayed for stay on all further investigation and other proceedings by the Railway Police, Dharmapuri, now being handled by the DSP-Harur, the special investigating officer.

 

Deccan Chronicle

Allot burial grounds for dalits: Subhash Bharani

http://www.deccanchronicle.com/130731/news-current-affairs/article/allot-burial-grounds-dalits-subhash-bharani

 

Bengaluru: Retired IPS officer and Janata Dal (Secular) leader Subhash Bharani has asked the government of Karnataka to provide burial grounds to dalits in all the districts of the state. He further warned that a statewide protest would be launched against the government if it failed to meet the demand in three months.

 

Bharani, who was the Additional Director General  of Police (ADGP) said on Tuesday that the body of a Dalit woman was not given a place for burial even 24 hours after her death at Santhekelloor village in Lingasugur taluk in Raichur.

 

"I was deeply hurt. None of the officials have taken the incident seriously. Also, the 51 dalit legislators did not bother to raise the matter in the legislature," he said.

 

"All other communities are given space for burial grounds, but not dalits. It is a violation of human rights. The Raichur Deputy Commissioner said that he would allot a piece of land for the burial ground," he said.

 

News Monitor by Girish Pant



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.Arun Khote
On behalf of
Dalits Media Watch Team
(An initiative of "Peoples Media Advocacy & Resource Centre-PMARC")
...................................................................
Peoples Media Advocacy & Resource Centre- PMARC has been initiated with the support from group of senior journalists, social activists, academics and  intellectuals from Dalit and civil society to advocate and facilitate Dalits issues in the mainstream media. To create proper & adequate space with the Dalit perspective in the mainstream media national/ International on Dalit issues is primary objective of the PMARC.