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Friday, July 26, 2013

राजनीति नहीं असली मुद्दे हैं आर्थिक

राजनीति कोई मुद्दा है ही नहीं, असली मुद्दे हैं आर्थिक और

इस एकाधिकारवादी कॉरपोरेट आक्रमण का प्रतिरोध हर कदम पर अनिवार्य है

कॉरपोरेट इण्डिया और वैश्विक पूँजी की आकाँक्षाओं को पूरा करने में

चूँकि मनमोहन सिंह सफल नहीं हुये, तो स्वाभाविक तौर पर उनका एकमात्र विकल्प मोदी है

पलाश विश्वास

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के पॉपुलर ब्लॉगर हैं।

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के पॉपुलर ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना ।

कल रात लंदन से हमारे वयोवृद्ध परम् आदरणीय गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी ने तीन- तीन बार कॉल करके आखिर हमें पकड़ लिया और सीधे पूछ लिया कि भारत में प्रधानमंत्री कौन बनेगाक्या इसके अलावा कोई मुद्दा नहीं है? उन्होंने कहा कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को हम लोग भारत का पर्याय क्यों बना रहे हैं ? मोदी प्रधानमंत्री हो या नहीं, इससे क्या फर्क पड़ता है जबकि जनसंहार की नीतियाँ हर हाल में जारी रहनी है?  उनके साथ हिमालयी आपदा और मौजूदा परिप्रेक्ष्य पर लम्बी बातचीत हुयी।

आज अरसे बाद कोलकाता महानगर के किसी कार्यक्रम में शामिल हुआ सिर्फ इसलिये कि वक्ता थे पी साईनाथ और वंदना शिवा। साईनाथ ने कोलकाता रवानगी से पहले इस कार्यक्रम की सूचना दी थी। कोलकाता पहुँचने के बाद कल और आज कई- कई दफा उनके फोन आये। कार्यक्रम शुरु होने से करी चालीस मिनट पहले वे पहुँचे और बातचीत के लिये आयोजकों से अलग कमरा माँग लिया इस हिदायत के साथ कि कोई डिस्टर्ब न करें। उनसे कार्यक्रम शुरु हो जाने के बाद भी बातचीत जारी रही। आयोजकों के तकाजे के बाद ही उन्होंने बातचीत खत्म की और कहा कि आगे भी बातचीत चली। हिंदी के महामहिमों के विपरीत ग्रामीण भारत की धड़कनों को तीन दशक से आवाज देने वाले पी साईनाथ सोशल मीडिया को नियमित फॉलो करते हैं और जनप्रतिरोधके लिये इसे बेहद कारगर मानते हैं। हमें सुखद अचरज हुआ कि वे लगातार हमें पढ़ रहे हैं जबकि हम प्रिंट मीडिया में छपते ही नहीं और वे प्रिंट मीडिया के आइकॅन हैं। उन्होंने पिताजी पर लिखे मेरे आलेखों का बाकायदा हवाला दिया औरमरीचझांपी ले लेकर ढिमरी ब्लाक पर बातचीत की।

साईनाथ का भी मानना है कि राजनीति कोई मुद्दा नहीं है। भारत को कृषि से बेदखल करने वाली अर्थव्यवस्था ही असली मुद्दा है। उन्होंने साफ-साफ कहा कि राहुल गांधी और मोदी के बीच कोई लड़ाई है ही नहीं। लड़ाई मोदी और मोदी के बीच है। जनसंहार का एजंडा लागू करमे में पूरी तरह कॉरपोरेट इण्डिया और वैश्विक पूँजीकी आकाँक्षाओं को पूरा करने में चूँकि मनमोहन सिंह सफल नहीं हुये, तो स्वाभाविक तौर पर उनका एकमात्र विकल्प मोदी है। मोदी पर यह बहस भी कॉरपरेट प्रायोजित है और इससे हमें बचना चाहिए। हमें ग्रामीम भारत के असली मुद्दों को फोकस में लाना चाहिए आम जनता की भाषा और उनके मुहावरों में। हमने जब कहा कि हमें अर्थशास्त्र के तिलिस्म को तोड़कर आम जनता को असलियत के सामने खड़ा करना चाहिए और यही सबसे बड़ी चुनौती है, सहमति देने में वे कतई नहीं हिचके। वे भी मानते हैं कि आर्थिक मुद्दों और सूचनाओं पर जनसंवाद और तेज होना चाहिए तभी कोई प्रतिरोध सम्भव है। राजनीति पर चर्चा इसलिये भी बैमानी है क्योंकि  इस राजनीति का चरित्र कॉरपोरेट है और जनसंहार संस्कृति का पोषण करती है यह राजनीति। इस मुद्दे पर हम दोनों की सहमति रही। दरअसल राजनीति पर चर्चा केंद्रित करके हम राजनीति की आड़ में जारी एकाधिकारवादी कॉरपोरेट आक्रमण की ही मोर्चाबंदी में शामिल हो रहे हैं। राजनीति चाहती ही है कि अर्थ व्यवस्था सम्बंधी कोई चर्चा आम आदमी तक न पहुँचे। अपनी तबाही के मंजर से बेखबर रखे निनानब्वे फीसद लोगतिलिस्म का कारोबार यही है। अब इस तिलिस्म को तोड़ना ही होगा।

मजेदार बात तो यह है कि हमारे गुरुजी की जो सीख है और साईनाथ का जो सबक है, उसमें कोई बुनियादी अन्तर है नहीं। दोनों इस बात पर कायम है कि राजनीति नहीं, इस देश की कॉरपोरेट अर्थव्यवस्था ही अस्पृश्यताबहिष्कार और जनसंहार की असली वजह है। सत्ता में भागेदारी, जातीय धार्मिक क्षेत्रीय अस्मिता और पहचान, सत्ता समीकरण में उलझने पर हम इस निर्मम एकाधिकारवादी आक्रमण का कोई प्रतिरोध कर ही नहीं सकते। पिछले दो दशकों से यही हो रहा है।

हमें इस पर संतोष है कि हिंदुत्व के पुनरुत्थान और उदारवादी खुले बाजार की अर्थव्यवस्था के चोली दामन के जिस रिश्ते को हम बार बार रेखांकित करते हैं, साईनाथ भी उसी समीकरण पर जोर देते हैं।

हम लोगों ने बंगाल के वर्चस्ववाद के सिलसिले में मरीचझांपी से लेकर पंचायती राज तक पर चर्चा की। औपनिवेशिक जमाने से बंगाल के किसान आन्दोलन की विरासत पर चर्चा की और बंगाल के सामाजिक ढाँचा और इसके अनार्य इतिहास पर भी चर्चा की।

लेकिन चर्चा चर्चा ही रह जायेगी अगर लड़ाई के मोर्चे पर हम राजनीति के बदले आर्थिक मुद्दों को फोकस में लाने की चुनौती मंजूर नहीं करते। इसके लिये आप सबकी मदद अनिवार्य है और इसी लिये निजी संवाद के इन दुर्लभ क्षणों को हम आपके साथ साझा कर रहे हैं। क्योंकि यह बदलाव अकेले साईनाथ ला नहीं सकते और न हम।

इसी वार्तालाप में साईनाथ ने खुलासा किया कि कैसे एक लोकप्रिय टीवी चैनल ने डा. अमर्त्य सेन की ओर से उठाये जाने वाले आर्थिक मुद्दों को मोदी विवाद में डीरेल कर दिया। मोदी के प्रधानमंत्रित्व पर पूछे गये एक सवाल पर उनकी टिप्पणी को ही राजनीतिक बवंडर बना दिया गया, जबकि उनके उठाये आर्थिक मुद्दों पर जनसुनवाई के मौके बनाने में मीडिया हमेशा चुकता रहा।

यही वह परिप्रेक्ष्य है जहाँ हमें विधाओं और सन्दर्भ के व्याकरण और सौंदर्यशास्त्र दोनों बदलने हैं। गिरदा हमेशा लोक में बड़ी बड़ी बातें कर डालने का दुस्साहस कर जातेत थे। यह उनकी कला थी और दक्षता भी और उससे भी बड़ी थी उनकी जनप्रतिबद्धता।

अभी कहाँ हैं हम, कहना बहुत मुश्किल है। लेकिन शिविरबद्ध होकर हम जनता के साथ यकीनन खड़े नहीं हो सकते।

कोलकाता विश्वविद्यालय के सेंटिनरी हाल में फेमा यानी एकाधिकारवादी आक्रमण विरोधी मंच के आयोजन पर मुख्य वक्ता वंदना शिवा और साईनाथ थे। करीब एक हजार सीटों वाला प्रेक्षागृह खचाखच भरा हुआ था।

फोरम की ओर से प्राध्यापक तुषार चक्रवर्ती और अभीदत्त मजुमदार ने अत्यंत संक्षेप मेंभूमण्डलीकरण के शिकंजे में फँसी भारतीय कृषि की समस्याओं को रेखांकित किया। जिन पर विस्तार से बोले वंदना और साईनाथ। बंगाल में फोरम 2008 से सक्रिय है और कारवां जुड़ता जा रहा है।


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