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Thursday, July 25, 2013

खतरनाक परिणाम होंगे इस फैसले के

अमलेन्दु उपाध्याय

 

अमलेन्दु उपाध्याय: लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं। http://hastakshep.com के संपादक हैं. संपर्क-amalendu.upadhyay@gmail.com

अमलेन्दु उपाध्याय: लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं। http://hastakshep.com के संपादक हैं. संपर्क-amalendu.upadhyay@gmail.com

सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। इसके मुताबिक अगर सांसदों और विधायकों को किसी भी मामले में दो साल से ज्यादा की सजा हुई है तो ऐसे में उनकी सदस्यता (संसद और विधानसभा से) रद्द हो जाएगी। सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला सभी निर्वाचित जनप्रतिनिधियों पर तत्काल प्रभाव से लागू होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने इसके लिए जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (4) को निरस्त कर दिया है। हालांकि, अदालत ने इन दागी प्रत्याशियों को एक राहत जरूर दी है। सर्वोच्च न्यायालय का कोई भी फैसला इनके पक्ष में आएगा तो इनकी सदस्यता स्वत: ही बहाल हो जाएगी।

सर्वोच्च न्यायालय ने दोषी निर्वाचित प्रतिनिधि की अपील लंबित होने तक उसे पद पर बने रहने की अनुमति देने वाले जनप्रतिनिधित्व कानून के प्रावधान को गैरकानूनी करार दिया।

न्यायालय के इस फैसले को लेकर मंगलगान गाए जा रहे हैं कि बस अब राजनीति से अपराधीकरण समाप्त हो जाएगा। लेकिन इसके बीच ही कुछ गंभीर लोगों को इस फैसले से लोकतंत्र पर संकट मंडराता भी नज़र आ रहा है। इस फैसले से राजनीति का अपराधीकरण रुके या न रुके लेकिन यह फैसला अंततः संविधानविरोधी है और सर्वोच्च न्यायालय ने इसमें अपनी सीमा का अतिक्रमण भी किया है। संविधान में कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका तीनों अलग-अलग अंग हैं, और तीनों के अधिकार संविधान में अलग-अलग व्याख्यायित भी हैं और किसी को भी एक दूसरे के काम में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय का काम कानून बनाना नहीं कानून का पालन सुनिश्चित करना है।

देखने में आ रहा है कि अदालतों में देश का भाग्यविधाता बनने की खतरनाक प्रवृत्ति घर करती जा रही है। हालिया फैसला भी ठीक उसी तरह बहस की माँग करता है जैसे कि सीबीआई पर टिप्पणी कि वह सरकार का तोता है। प्रश्न यह है कि अदालत संविधान की किस धारा के तहत सरकार को हुक्म दे सकती है कि अमुक तिथि तक अमुक कानून बनाओ। कानून बनाना सरकार का काम नहीं है। कानून संसद् बनाती है। सरकार सिर्फ संसद् में विधेयक पेश करती है और अक्सर ऐसा होता है कि सरकार को विपक्ष के दबाव में बहुत से संशोधन अपनी इच्छा के विरुद्ध भी स्वीकार करने होते हैं। यह भी हो सकता है कि किसी सदस्य का निजी विधेयक भी संसद् में सरकार की इच्छा के विरुद्ध पारित हो जाए।

सीबीआई को तोता बताते समय अदालत को यह भी बताना चाहिए था कि कौन सा विभाग सरकार का तोता नहीं है। और अगर अदालत की इच्छा यह है कि सारे विभाग सरकार से मुक्त हो जाएं तब सरकार की जरूरत ही क्या है। कहीं ऐसा तो नहीं कि कमजोर सरकारों के दौर में न्यायपालिका के मन में संवैधानिक संस्थाओं पर हावी होने की इच्छा जोर मार रही हो।

उच्चतम न्यायालय द्वारा जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (4) को निरस्त करने के मुद्दे पर प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष मार्कण्डेय काटजू ने भी कहा है कि इस पर पुनर्विचार किया जाना चाहिये क्योंकि न्यायपालिका का काम कानून का अमल सुनिश्चित करवाना है न कि कानून बनाना। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक जयपुर में ऑल इंडिया स्मॉल एंड मीडियम न्यूज पेपर्स फेडरेशन की नेशनल काउंसिल के दो दिवसीय सम्मेलन के उद्घाटन सत्र को सम्बोधित करने के बाद संवाददाताओं से बातचीत में उन्होंने कहा कि न्यायपालिका कानून नहीं बना सकती, कानून बनाना और कानून में संशोधन करने का काम विधायिका का है। न्यायपालिका का काम कानून का पालन सुनिश्चित करवाना है।

जाहिर है सुप्रीम कोर्ट द्वारा जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 (4) को संविधान विरोधी करार देते हुए निरस्त करना स्वयं संविधानविरोधी है और अदालत के इस फैसले पर राष्ट्रव्यापी बहस की आवश्यकता है।

मान लेना चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय की यह फैसला देते वक्त भावना अच्छी ही रही होगी और यह समझा गया होगा कि इससे राजनीति का अपराधीकरण रुकेगा। फिर भी इस फैसले के खतरनाक परिणाम होंगे।

1989 में जोड़ी गई इस धारा 8 (4) के तहत जनप्रतिनिधि निचली अदालत में दोष सिद्ध हो जाने के बाद भी ऊँची अदालत में अपील करके संसद, विधानसभा अथवा अन्य निर्वाचित निकायों के सदस्य बने रह सकते थे। लेकिन अब ऐसा नहीं होगा। अधिकाँशतः मुकदमों में लोग निचली अदालतों से सजा पाकर उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय से बाइज्जत बरी हो जाते हैं। असल तथ्य यह है कि सरकारें हर आंदोलनकारी पर फर्जी मुकदमे न सिर्फ लादती हैं बल्कि जब चाह लेती हैं तो सजाएं भी करा देती हैं। पुलिस आए दिन वंचित-शोषित तबके के हित में संघर्ष करने वाले लोगों को छोटी-छोटी बातों पर गिरफ्तार करती ही रहती है। भूअधिग्रहण, कॉरपोरेट घरानों का जल जंगल जमीन पर कब्जे के खिलाफ संघर्ष करने वालों पर मुकदमे लादे ही जाते हैं। अगर ऐसे लोग चुनाव लड़कर राजनीतिक प्रक्रिया में हिस्सेदारी करना चाहें तो उन्हें इस फैसले के चलते रोक दिया जाएगा। मसलन मुल्ताई पुलिस फायरिंग में डॉ. सुनीलम को निचली अदालत सजा सुना चुकी है जबकि असल हत्यारे अभी भी छुट्टा घूम रहे हैं। इस फैसले के बाद अगर डॉ. सुनीलम को इस फैसले को बाद सजा होती तो वह चुनाव नहीं लड़ सकते थे लेकिन मुल्ताई पुलिस फायरिंग के असली दोषी चुनाव लड़ सकते हैं क्योंकि अदालत ने उन्हें सजा नहीं सुनाई है।

राजनीतिक दलों में अपने विरोधियों को सत्ता का दुरुपयोग करके गिरफ्तार कराने के मामले भी अक्सर देखने को मिलते हैं। उत्तर प्रदेश में ही जब बहुजन समाजवादी पार्टी की सरकार बनी तो उसने अपने विरोधी समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं पर लगभग डेढ़ लाख फर्जी मुकदमे एक महीने का अभियान चलाकर दर्ज किये।

इसके अलावा, अन्याय, न्यायिक प्रणाली की अक्षमता और पूर्वाग्रहपूर्ण कानूनी प्रक्रिया के चलते बुनियादी अधिकारों से वंचित किए जा चुके लाखों विचाराधीन कैदी जेल में सड़ रहे हैं, अदालत को कुछ ध्यान उस ओर भी देना चाहिए था।

अब इस फैसले के बाद राजनीति का अपराधीकरण कितना रुकेगा यह तो आने वाला समय ही तय करेगा लेकिन इतना तय है कि सरकारों और प्रशासनिक मशीनरी का दमन चक्र जोर से चलेगा। जल, जंगल जमीन की लड़ाई लड़ने वाले लोग फर्जी मुकदमों में सजाएं भी पाएंगे और चुनाव लड़ने से भी रोक दिए जाएंगे। क्योंकि इनको सजाएं देने के लिए प्रशासनिक मशीनरी से लेकर सरकार और न्यायपालिका तक एकजुट है, तभी तो मारुति मजदूरों की जमानत खारिज करते समय जज साहब तर्क देते हैं कि इससे विदेशी पूँजी निवेश पर बुरा प्रभाव पड़ेगा।

इतना ही नहीं पहले से ही ताकतवर लालफीताशाही, ब्यूरोक्रेसी और अधिक बेलगाम होकर विधायिका पर हावी हो जाएगी।

ध्यान देने की बात यह है कि यह याचिका जिन्होंने दायर की थी वह एस. एन. शुक्ल न तो आम नागरिक हैं, न राजनीति के अपराधीकरण से त्रस्त कोई भुक्तभोगी हैं। शुक्ल जी अवकाशप्राप्त आईएएस हैं। राजनीति में कथित अपराधियों के प्रवेश से सर्वाधिक परेशानी इन्हीं शफेदपोश अपराधियों- प्रशासनिक अधिकारियों को होती है। इस फैसले की आड़ में ब्यूरोक्रेसी और कॉरपोरेट घरानों ने पिछले दरवाजे से सत्ता पर कब्जा जमाने का प्रयास किया है।

सरकार को चाहिए कि इस फैसले के विरुद्ध पुनर्विचार याचिका दाखिल करे क्योंकि यह सिर्फ एक मुकदमे या राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ कदम का प्रश्न नहीं है बल्कि यह फैसला लोकतंत्र पर मंडरा रहे खतरे की ओर इशारा कर रहा है। यह बात साफ है और कोई भी संवैधानिक सस्था इसका उल्लंघन नहीं कर सकती कि देश का संविधान सर्वोच्च है और संविधान ने संसद् को सर्वोच्च संवैधानिक संस्था घोषित किया है व कानून बनाने का अधिकार संसद् को ही है।


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