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Thursday, March 27, 2014

साधो, देखो जग बौराना अब मोदियाये मित्र समझ लें कि नमोपा के बहाने वे स्यापा समेत कौन कौन सा पा कर रहे हैं।इस पादापादी से तो भारत निर्माण नहीं भारत विनाश ही होना है।

साधो, देखो जग बौराना



अब मोदियाये मित्र समझ लें कि नमोपा के बहाने वे स्यापा समेत कौन कौन सा पा कर रहे हैं।इस पादापादी से तो भारत निर्माण नहीं भारत विनाश ही होना है।




पलाश विश्वास

BJP's Poll StrategyBJP puts off release of 'India Vision 2025' document

BJP puts off release of 'India Vision 2025' document

The document backs retrenchment of labour to be made liberal and supports privatisation or even shutdown of loss-making PSUs along with disinvestment.


कवि अशोक कुमार पांडेय का आभार।कबीर दास को याद दिलाने के लिए।यह याद बड़ी प्रासंगिक है।तो साथी हो जाये कुछ संवाद इसी पर।लिखें अपनी वाणी भी।


साधो, देखो जग बौराना ।


साँची कही तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना ।

हिन्दू कहत,राम हमारा, मुसलमान रहमाना ।

आपस में दौऊ लड़ै मरत हैं, मरम कोई नहिं जाना ।

बहुत मिले मोहि नेमी, धर्मी, प्रात करे असनाना ।

आतम-छाँड़ि पषानै पूजै, तिनका थोथा ज्ञाना ।

आसन मारि डिंभ धरि बैठे, मन में बहुत गुमाना ।

पीपर-पाथर पूजन लागे, तीरथ-बरत भुलाना ।

माला पहिरे, टोपी पहिरे छाप-तिलक अनुमाना ।

साखी सब्दै गावत भूले, आतम खबर न जाना ।

घर-घर मंत्र जो देन फिरत हैं, माया के अभिमाना ।

गुरुवा सहित सिष्य सब बूढ़े, अन्तकाल पछिताना ।

बहुतक देखे पीर-औलिया, पढ़ै किताब-कुराना ।

करै मुरीद, कबर बतलावैं, उनहूँ खुदा न जाना ।

हिन्दू की दया, मेहर तुरकन की, दोनों घर से भागी ।

वह करै जिबह, वो झटका मारे, आग दोऊ घर लागी ।

या विधि हँसत चलत है, हमको आप कहावै स्याना ।

कहै कबीर सुनो भाई साधो, इनमें कौन दिवाना ।

-----------

कबीर



बचपन के बिन पूर्वग्रह के दिनों के कोरे स्लेटी स्मृति पटल पर सबसे उजले आंखर कबीरवाणी है।विचारधाराओं के अनुप्रवेश से काफी पहले हिंदी पट्टी में कबीर से मुलाकात हो जाती है कच्ची पक्की पाठशालाओं में।

लेकिन वह स्वर्णिम स्मृति धूमिल होते देर भी नहीं लगती और बीच बाजार घर फूकने को तैयार कबीर से जिंदगीभर हम आंखें चुराते रहते हैं।


यह जो कबीरा खड़ा बाजार है,मुक्त बाजार के धर्मोन्मादी महाविनाशयुद्ध में अमित शक्तिधर शत्रु से निपटने का अचूक रामवाण है जो हमारे तूण में बिना इस्तेमाल जंग खाने लगा है।


हिंदी से अंग्रेजी माध्यम में दाखिल होने के बावजूद यह हमारे गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाय़ी थे और थे नैनीताल के तमाम रंगकर्मी जो फिर फिर कर कबीर के दोहे हांकते थे,जैसे कि आज फिर यह हांका लगाया कविवर अशोक ने,तब फिर हम चाहे अनचाहे कबीर के मुखातिब होते हैं।


लेकिन कबीरवाणी साधने का दम हो,कबीर को आत्मसात करने का जिगर हो तभी न बात बनें।


गौर करें कि धर्म विरुद्ध नहीं हैं कबीर।उस अंध सामंती युग के अपढ़ समाज को कबीर से बेहतर किसी ने संबोधित किया हो,ऐसा कम से कम हमने पढ़ा लिखा नहीं है।


मुद्दों को यथायथ रखकर चीड़फाड़ के साथ सठिक दिशा देने वाले संस्कृतिकर्मी बतौर देखें,तो इस सुधारवादी संत की अपरंपार महिमा से आप्लुत हुए बिना रहा नहीं जा सकता।


धर्मनामे जो पाखंड अंध सामंती समाज की नींव बनाते हैं,उसीपर तीव्रतम प्रहार के अचूक रामवाण है कबीरे के दोहे।


इसपर गौर करें कि जब वह लिख रहे थे ,तब पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली थी ही नहीं और इसके लिए सदियों इंतजार करना था।लेकिन सााजिक श्रम संबंध सामंती वर्चस्व के बावजूद अटूट थे।


कबीर का मोर्चा वही श्रमसंबोधों की अखंड जमीन पर तामीर हुआ और जो किला उन्होने गढ़ा वहां शत्रुपक्ष की पहुंच से बाहर था।


आज भी कबीर ठीक वहीं खड़े हैं,प्रखर समाजवास्तव और यथारत वैज्ञानिक दृष्टभंगिमा के साथ बिना किसी विचारधारा वैशाखी के।


उसवक्त तक तो किसी ने नहीं कहा था कि धर्म अफीम है।न उस वक्त चार्वाक की नास्तिकता की निरंतरता की कोई परंपरा ही जीवित थी।


सामंती युग के खिलाफ लड़ रहे थे तुलसीदास और रहीम दास भी भक्तियुग की तमाम मेधाें सामंती तानाबाना को तोड़ने के फिराक में नये सामंती तिलिस्म का रामचरित मानस ही रच रहे थे ईश्वर को हाड़ मांस रक्त का सामंती महाप्रभु बनाते हुए।


लेकिन कबीर थे,जिनका कोई कारोबार न था ईश्वरत्व को लेकर।


वे भारत के पहले वस्तुवादी दार्शनिक थे,जिनका जीवन दर्शन बेहद मौलिक था तो उनकी वाचनदृष्टि भी प्रक्षेपास्त्र सरीखी।


उनके कहे को उनका समकाल खारिज नहीं कर सका और न आज धर्मोन्मादी जो सखि संप्रदाय है,उनमे कूवत है कि मुखोमुखि कबीर से बीच बाजार शास्त्रार्थ की हिम्मत जुटा सकें।


वह कबीर कहीं न कहीं बीच बाजार अपने दोहे दोहरा रहा है,फर्क इतना है कि हम देखकर भी नहीं देखते।फर्क यह है कि हमारे कानों में मोबाइल ठुंसा हुआ है और हम पढ़ते लिखते यकीनन नहीं हैं खूब पढ़ा लिखा होने के बावजूद।


मालवा में अब भी कबीर गायकी लोकप्रियविधा है जैसे छत्तीसगढ़ की पांडवाणी। मजे की बात तो यह है कि जिस धर्मोन्मादी पाखंड के खिलाफ रोज महाभारत लड़ रहे थे संत कबीर,कबीरगायकी के भूगोल में उसी धर्मोन्मादी पाखंड की महासुनामी है।


धर्म इतना बुरा भी नहीं है।बरसों पहले,शायद एक दशक पहले हमारी विख्यात महाश्वेता दी से धर्म पर समयांतर के लिए लंबा इंटरव्यू किया था तब दीदी ने बताया था कि धर्म एकमात्र पूंजी है सर्वस्वहाराों के पास।


ब दीदी ने बताया था किसर्वस्व हारकर भी उसके वजूद की बहाली के लिए मृत संजीवनीसुधा है धर्म।


आम बहुसंख्यभारतीयों की इसी धार्मिक पूंजी का बहुआयामी इस्तेमाल हो रहा है कारपरेट साम्राज्यवादी मुक्तबाजार राष्ट्र में इन दिनों।


धर्म ही प्रजाजनों के विरुद्ध युद्धघोषणा की सर्वोत्तम पद्धति है।


ध्यान दें तो साफ जाहिर है कि जैसे राष्ट्र बदल गया है मुक्त बाजार में।जैसे समाज बदल गया है मुक्त अराजक बाजार में।


जैसे उत्पादन प्रणाली,उत्पादन संबंधों और श्रमसंबंधों का पटाक्षेप का सुमुखर पर्याय है आर्थिक विकास और सशक्तीकरण ,उसीतरह धर्म भी मुक्त बाजार है और जहां धर्म नहीं,अधर्म का ही कारोबार चलता है।


जिस अखंड नैतिकता, आदर्शवादी मूल्यबोध,उच्च विचार सादा जीवन, सहिष्णुता, समता,समभाव और समव्यथा,लोककल्याण और धर्मनिरपेक्षता की लोकतांत्रिक बुनियाद पर भारत में धार्मिक पहचान बनती रही है,वह नस्ली भेदभाव और घनघोर जाति अस्मिता के मध्य बाजार वर्चस्वी वर्णवर्चस्वी सत्ता वर्ग की कठपुतली में तब्दील है।


हमारे मोदियाये मित्रों को संघ परिवार के सिद्धांत से कुछ लेना देना नहीं है और न संघी विरासत से।


धर्म से तो वे उपभोक्तावादी क्रयशक्ति पेशी संयुक्त तो  हैं,बीजमंत्र का मबाइल जाप तो है और कर्मकांडी वैभव प्रदर्शन की कूट अश्लीलता तो है,लेकिन उनका धर्म से कोई लेना देना नहीं है।


मिथकों में भी झांके तो हिंदुत्व के ब्रह्मा विष्णु माहेश्वर में अद्भुत संयोजन है और संवाद का अटूट सिलसिला है।मोदीपा में जिसकी कोई गुंजाइश ही नहीं है।


पारदर्शिता के बजाय छद्म  और पाखंड का ही नवसुर आलाप है नवराग में।


पाखंड और छद्म का अखंड तिलिस्म है वह हिंदुत्व जो बाजार के लिए रचा गया है,जो नख सिख जायनवादी है और साम्राज्यवादी बहुआयामी एकाधिकारवादी आक्रामकता के अलावा जिसका मौलिरक तत्व अंध युग का वह सर्वात्मक सामंतवाद है,जिसके किलाफ लड़ रहे थे भक्ति युग के संत फकीर बाउल।


दरअसल वह भक्ति जमाना था ही नहीं,वह तो समामंतवाद विरोधी उत्पादक समाज का महाविद्रोह था,जिसके आगे उस वक्त का सामंतवादी राजमहल भी असहाय था।


शहीदेआजम भगत सिंह के दस्तावेजों को ध्यान से पढ़ लें और उसी संदर्भ और प्रसंग में संत कबीर का विवेटन करें तो वे राजगुरु,आजाद,सुखदेव के साथ कहीं न कहीं शहीदेआजम के साथ जेल के सींखचों में या फांसी के मंच पर या फर्जी मुठभेड़ परिदृश्य में नजर आ ही जायेंगे।


भारत के मौलिक क्रांति दर्शी थे संत कबीर और उनके दोहे मुकम्मल दस्तावेज हैं उस अपढ़ पूर्वज समाज के जो सामंती उत्पादनप्रणाली में जीवन जीविका निर्वाह कर रहे थे।


वे दरअसल सुधार आंदोलन के भक्ति विद्रोह के चारु मजुमदार थे,जो भूमि सुधार के दस्तावेज के बजाय दोहे कह रहे थे।और भारतीय यथार्थ का विश्लेषण सीधे जमनता के मध्य कर रहे थे.जो अंततः चारु मजुमादार और उनके दुस्साहसी साथी कभी नहीं कर सकें।


मोदियाये मित्रों से धर्म शास्त्रार्थ प्रयास व्यर्थ है क्योंकि धर्म ध्वजा उन्हींके हाथों में हैं।


धर्म की व्याख्या भी  उनकी मूर्ति कला है अद्भुत।


जैसे उन्होंने मार्क्स माओलेनिन की मूर्ति बना दी,जैसे अंबेडकर को मूर्ति सीमाबद्ध कर दिया उसी तरह उनका हिंदुत्व भी मूर्ति बद्ध है।


अब फर्क इतना है कि सबसे भव्य सर्वाधुनिक ब्रांडेड परमाणुसमृद्ध जो मूर्ति अब हिंदुत्व है,वह नमो है।इस तमी नमो के आर पार कुछ भी पारदर्शी नहीं है।न इतिहास न परंपरा न धर्म। न काशी और न अखंड भारतवर्ष।


कश्मीर मांगोगे तो चीर देंगे या मंदिर वहीं बनायेंगे,हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है,जैसे सूक्ति बचन घनघोर अस्मितावाद है जो सिरे से अखंडता का खंडन मंडन विखंडन है।


भारत की बात कर रहे हैं और भारतीय लोकंत्तर की बात कर रहे हैं आप और देश के भूगोल को गुजरात में समेटने या बाकी देश को गुजरात बना देने की देशभक्ति को कबीरवाणी में ही समझा जा सकता है।


अखंड भारत अगर आपका सामाजिक यथार्थ है तो पूर्वोत्तर या कश्मीर,या दंडकारण्य या दक्षिणात्य की अनिवार्यता मुख्यधारा की अहम प्रस्तावना है और इसके साथ ही इस खंडित विखंडित महादेश महामानवसागरतीरे धर्म की बहाली अधर्म के विरुद्ध करते हुए हमें पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका, तिब्बत, अफगानिस्तान, भूटान,म्यांमार से लेकर समूची एशिया भूमि के पंचशील में लौटना ही होगा और बौद्धमय भारत के उदार लोकतंत्र का आवाहन करना होगा जहां धर्म धम्म है।


ध्यान से देखें तो कबीरवाणी भी उसी धम्म का महाउद्घोष है। एक भारत चीन सीमांत संघर्ष से पंचशील अप्रासंगिक नहीं हो गया है।इसे समझने वाले पहले व्यक्ति का नाम लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी है।


माफ कीजियेगा मित्रों,मेरे हिसाब से अटल बिहारी का राजनीतिक कद और राजनयिक काठी पंडित जवाहरलाल नेहरु की भ्रांतिपूर्ण विदेशनीति और वर्चस्ववादी राजनीतिक धर्मनिरपेक्षता और यहां तक कि उनके समाजवादी माडल से ज्यादा उज्ज्वल है।


नाथुराम गोडसे गांधी हत्यारे बतौर कुख्यात है।लेकिन गांधी की हत्या तो दरअसल कांग्रेस के रथी महारथियों ने ही की है गांधी दर्शन को भारतीय संदर्भ में निष्प्रभावी बनाने में।गोडसे ने दरअसल संघ परिवार की नहीं,बाजारु कांग्रेसियों की ही अखंड मदद की है क्योकि गांधी की मौजूदगी में नेहरु को भी अपनी मनकी करने की छूट नहीं थी क्योंकि अंबेडकर को नाथने वाले गांधी से बड़ा जनसम्मोहक सर्वाधिनायक राजनेता भारत में कोई दूसरा हुआ ही नहीं है।


नेहरु का मूल्यांकन हर हाल में गांधी छत्र छाया में होना लाजिमी है।इसके विपरीटअटल अटल बने ही इसीलिए कि वे संघ परिवार के तिलिस्मबाहर प्राणी थे जैसे कि इंदिरागांधी ने सिंडिकेट तिलिस्म से बाहर राजकाज किया,उसी परंपरा का बिना तानाशाह हुए कुशलता पूर्वक निर्वाह किया संघी सिंडिकेट मुक्त अटल ने।


इस विरोधावासी नमोसमय की सबसे बड़ी राहत शायद यही है कि अटल बिहारी वाजपेयी संघ परिवार से सेवामुक्त हैं और नमो सुनामी में उनकी छवि का कोई इस्तेमाल नहीं है।


हम भाव निरपेक्ष होकर अब अटल जी का मूल्यांकन तथ्यों पर आधारित कर सकते हैं।चीन के साथ सन बासठ के नेहरुहठी सीमाविवाद की निरंतरता को खत्म करने का श्रेय अटल जी को है।


इसी कारण भारत आज कहीं ज्यादा सुरक्षित और अखंड है और इसी कराण अपनी जद में विस्पोटक गृहयुद्धी माहौल में भी पूर्वोत्तर या अन्यत्र अमेरिकापरस्त मीडिया के छायायुद्ध परकल्प के विपरीत चीनी हस्तक्षेप प्रयास के कोई प्रमाण हैं ही नहीं।


बांग्लादेश निर्माण प्रकल्पे विश्वजनमत साधकर अमेरिकी नौसैनिक बेडे़ को नपुंसक बनाने के अलावा राजनयिक अटल का भारच चीन संवाद उन्हें ऊभारतीयप्रधानमंत्रियों में सबसे परिपक्व राजनेता रुपेण मर्यादित करता है।


अपने मर्यादा पुरुषोत्तम की ऐसी तैसी करके किसा मर्यादा पुरुषोत्तम की अंधआराधना में लगे हैं हिंदुत्व सेनाएं,समय है अब भी समझें।


हम बार बार लिख रहे हैं कि अमरिका तिलमिलाया हुआ है रूसी पुनरुत्थान प्रयास से और अकध्रूवीय महाशक्ति हैसियत खोने  की आशंका से।


तीसरी दुनिया में नमोमय भारत जायनवादी कारपोरेट साम्राज्यवादी युद्धबाज गृहयुद्धखोर हथियारों और जहरीले रसायनों के कारोबारी अमेरिका का अब तक का सबसे बड़ा ब्रांडेड दांव है,जहां देशभक्त अटल बिहारी वाजपेयी,लाल कृष्णा आडवाणी,सुषमा स्वराज,जसवंत सिंह,मुरली मनोहर जोशी जैसे संघसेवकों की सेवामुक्ति हिंदू राष्ट्र का एजंडा नहीं, बल्कि अमेरिकी जनसंहारी आखेटगाह का राजसूय यज्ञ है।


इसीलिए रंगबिरंगे अस्मिता पथिक पुरोहितों को नमौसेना के सिपाहसालार बनाया गया है संघ सिद्धांतों को तिलांजलि देकर ताकि भारत को बार बार लहूलुहान किया जा सकें ताकि रक्त नदिया बहती रहे,ताकि टुकड़ा टुकड़ा बंटता रहे भारत।


कबीर वाणी दरअसल इस असहिष्णुता और इस विखंडन के खिलाफ मौलिक डायवर्सिटी उद्गोष है।


अमेरिका एजंडा क्या है,इसे भी समझना जरुरी है।


किस एजंडा के लिए नमोममय भारत का निर्माण है,उस विधि प्राविधि की भी चीरफाड़ जरुरी है।


अमेरिकी समर्थन भाजपा के खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के तीव्र विरोध के विसर्जन की तिलांजलि से हुई है।यह भाजपा के अंतर्कलह का विशुद्ध मामला तो है ही नहीं और न प्रवीण परिवर्ते नवीन अभिषेक है यह।


खुदरा बाजार दखल के अमेरिकी कार्यक्रम और भारत अमेरिकी परमाणु संधि,जिसका अभी कार्यान्वयन होना है,उसके बीच जो विंध्य पर्वत श्रेणी है,उसे मोदीत्व हिमालय के सामने नतमस्तक करने का अमेरिकी अगस्त्य का महाभिशाप है आडवाणी संप्रदाय विरुद्धे,जो अमेरिका विरोधकल्पे वामसहयात्री रहे हैं बार बार।


सर्जिकल प्रिसिजन के साथ नमो मिशन का पहला पड़ाव इसीलिए संघ प्रतिबद्ध दशकों प्राचीन सेनानियों का एकमुश्त वध अभियान है।


यह दरअसल भाजपाई या संघी अंतर्कलह है ही नहीं,यह सर्वग्रासी अमेरिकी कारपोरेट हितों की अभिव्यक्ति का आक्रामक एकाधिकारवादी चरमोत्कर्ष है।


नमोपा का एजंडा दरअसल भाजपा का विजन 2025 है जो दरअसल प्रथम राजग सरकार का कंलंकित विश्वबैंकीय विनिवेश मंत्रालय है। नमो सुनामी में इतिहास भूगोल और अर्थव्यवस्था संबंधी तथ्यविकृतियों के तिलिस्म और इसे केंद्रित मीडिया डायवर्सन के नमोपा का आर्थिक एजंडा का गुप्तमंत्र गुप्ततंत्र है।


इकानामिक टाइम्स में सिशन दो हजार पच्चीस के बारे में खुलकर लिका गया है,जो मूलतः मिशन 2020 है। और दरअसल इसे 2014 के जनादेश मार्फत ही निपटाना है।


2020 या 2025 तक न अमेरिका वैश्विक इशारों के मुताबिक इंतजार करने वाला है और न वह कारपोरेटि इंडिया जिसे बहुरंगी नमोपा के जनादेश  की अनिवार्यता पर चिंता है जो नीति विकंलांगता के महाभियोग से कांग्रेस को बर्खास्त कर चुका है और जो सरकार बनते ही भारतीय बहुसंख्य जनगण को फिनिश करके विशुद्ध कारपोरेट इंडिया के निर्माण के लिए बेताब है।


यह मीडिया समाचार भी दरअसल आम जनता को गलत टाइमिंग में फंसाने का और 2025 तक कयामत के लिए धीरज रखकर खा पी लेने के लिए तैयार करने का बंदोबस्त है जबकि सत्यानाश जारी है।


दरअसल विजन 2025 भाजपा कांग्रेस का साझा चूल्हा है।कांग्रेस की मनमोहिनी सरकार जो नहीं कर सकी तो उसके लिए बाजार में नये कसाई की तलाश में नमोपा कारपोरेट आविस्कार है।


सरकारी उपक्रमों और महकमों के विनिवेश का अरुण शौरी एजंडे को लागू करना विजन 2025 है।


सारे श्रम कानून खत्म करना विजन 2025 है।


सत्तावर्ग को अरबपतियों को एकमुश्त टैक्स छूट,मध्यवर्ग को थोक दरों पर गाजर और टैक्स का सारा बोझ बहुसंख्य भारतीयों पर लागू करने का टैक्स सुधार यानी जो पे कर सकते हैं,उनको छूट और जिनको खाने के लाले पड़े हैं और जिनकी कोई छत भी नहीं और रोजगार भी नहीं जिनके,उनका सफाया,विजन 2025 है।


विजन 2025 के तहत ही बहुउद्देश्यीय पहचान पत्र और नागरिकाता संसोधन कार्यक्रम राजग फसल है,जिसे बायोमेटच्रिक नागरिकता में तब्दील कर दिया कारपोरेट कांग्रेस ने,विजन 2025 बेनागरिक निराधार लोगो का सफाया कार्यक्रम है तो आधारित लोगों की निरंतर जासूसी का कार्यक्रम।


लेनदेन और उत्पादन प्रणाली और सेवाओं और बाजार में सरकारी भूमिका का खात्मा विजन 2025 है।


कृषि का पूरी तरह सफाया और देहात का शहरीकरण विजन 2025 है।


इस इंडियन विजन 2025 में न राममंदिर है और न हिंदू राष्ट्र।


अब मोदियाये मित्र समझ लें कि नमोपा के बहाने वे स्यापा समेत कौन कौन सा पा कर रहे हैं।इस पादापादी से तो भारत निर्माण नहीं भारत विनाश ही होना है।


इसे सहजभाव से समझने के लिए कबीरवाणी साधना सहायक होगा।धर्मपाखंड का बुनियादी प्रयोजन सामंती साम्राज्यवादी राष्ट्रचरित्र को अप्रतिद्वंद्वी बनाने का है।


धर्म पाखंड की प्रोयजनीयता अखंड कालाधन अखंड अबाध ग्लोबल पूंजी प्रवाह है।


इसी वजह से सांढ़भाषा में तब्दील है मीडियाभाषा और शेयरबाजर बल्ले बल्ले है।


नमोसुनामी का गुब्बारा आसमान में जो उड़ाया गया है,उसीमे कैद है बाजार का प्राणतोता।जिस दिन यह गुब्बारा फूटेगा,तोता गुब्बाराप्रिय हो अनंत में समाहित हो जायेगा।


दऱअसल उत्पादन और श्रमसंबंधों के रसायन से बने समतामूलक समाज की सभ्यता के विरुद्ध है यह धर्मपाखंड की आदिम संस्कृति जो कमाल की सेक्सी है और चरम उन्मुक्त भी।


यह संस्कृति भुगतान का प्रतिज्ञाबद्ध है लेकिन छिनाल इतनी कि ताश फेंटती रहे अनंतकाल और खोलकर देती नहीं ,ललचाती रहे।धर्मोन्मादी लोग मुक्तबाजार के सबसे लालची उपभोक्ता हैं जो जापानी तेल से लथपथ वियाग्रा खोर प्रजाति के आत्मध्वंसी मर्द हैं और उनकी दासियां संग संग।कबीर वाणी दरअसल लोभ के इस तंत्र के विरुद्ध है।


बाजार विरोधी कबीर वाणी इसीलिए बाजार अर्थव्यवस्था के विरुद्ध राम वाण है।


शुभम श्री की कुछ नई कविताएं. जाति प्रश्न, ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता को मौजूदा संदर्भों में देखने की कोशिश करते हुए लिखी गई इन कविताओं को शुभम ने अनुराधा गांधी को समर्पित किया है.


कुछ कैटेगरी कविताएं

(1)


आरक्षित/अनारक्षित

यही वर्ण

यही जाति

यही गोत्र

यही कुल

हमारे समय की रीत है

शास्त्र में नहीं

संविधान में लिखा है ।


(2)


डीजे बंद होने तक नाचेंगे

इरिटेट कर देने की हद तक चिढ़ाएंगे

कैंटीन का हिसाब रहेगा 50-50

बातें अनगिनत बहुत सी

होती रहेंगी

दिन रात

साथ साथ

क्लास, कॉरीडोर, कोर्स, एग्जाम

लेक्चर में काटा पीटी खेलेंगे

मैसेज करेंगे

टीचर का कार्टून बनाएंगे

हंसेगे अपनी दूधिया हंसी

लड़ेंगे बिना बात भी

फिर अलग हो जाएंगे एक दिन

हम यूनीवर्सिटी के सीलन भरे स्टोरों में

बक्सों में बंद कैटेगरी हो जाएंगे

एसटी/एचएच/2/2013 जेन/सीओपी/7/2011

पीएच/ईई/1/2012 एससी/आइआर/3/2012


कोटा

(आइ, टू, एम ऑक्स/ब्रिज के लिए)

हम आते हैं

आंखों में अफ्रीका के नीले सागर तट भरे

एशिया की सुनहरी मिट्टी का रंग लिए

सिर पे बांधे अरब के रेगिस्तान की हवाएं

सुरम्य जंगलों से, पूर्वजों के स्थान से

गांवों के दक्षिणी छोरों से

अपमानित उपनामों से

अंधेरी आंखों के साथ

असमर्थ अंगों के साथ

यूनीवर्सिटी के नोटिस बोर्ड पर

...

हम केवल नाम नहीं होते

...

सेमेस्टर के बीच कुछ याद नहीं रहता

क्लास में, लेक्चर में, लाइब्रेरी में

पढ़ते, लिखते, सोचते

भूल जाते हैं बहुत कुछ किसी और धुन में

लेकिन

हर परिचय सत्र में

हर परीक्षा के बाद

हर स्कॉलरशिप से पहले

हर एडमिशन में

यूनीवर्सिटी याद दिलाती है

हमारा कोटा

जैसे बिना कहे याद दिलाती हैं

कई नज़रें

हमारी पहचान

दलित

नाम चुक जाएंगे

हर मोड़ पर

हमसे पहले पहुंचेगी

हमारी पहचान

सदियों का सफर पार करती हुई

हम नए नाम की छांव में

रुकेंगे थोड़ी देर

चले जाएंगे


जनरल


मैं नहीं कर पाऊंगी दोस्त

काम बहुत हो जाता है

घर, ट्यूशन, रसोई

समय नहीं मिलता

तुम तो हॉस्टल में हो

अच्छे से पढ़ना

जनरल में क्लियर करना।


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