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Memories of Another day

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While my Parents Pulin babu and Basanti Devi were living

Tuesday, June 10, 2014

गरीबी उन्मूलन दरअसल गरीबों के शपाये का कार्यक्रम है ,ठीक वैसा ही जैसे आर्थिक सुधार बहिस्कार और सफाये का जनसंहारी युद्ध। আমাদের বামপন্থীরা আত্মঘাতী, কিন্তু এ দেশে বামপন্থা ছাড়া গতি নেই পার্টির এ-রকম দুর্দশা হল, তার একটা বড় কারণ, পার্টির সঙ্গে, বিশেষ করে এই রাজ্যের পার্টি নেতৃত্বের সঙ্গে বাইরের যোগাযোগ একেবারে শূন্য হয়ে গিয়েছিল। বাইরের পৃথিবীতে কী হচ্ছে, দেশের ও রাজ্যের লোকেরা কী বলছে, কী চাইছে এবং নেতাদের সম্বন্ধে কী ভাবছে, সেটা তাঁদের জানা দরকার। তা জানতে হলে খোলাখুলি সকলের সঙ্গে কথা বলতে হবে। দ্বিতীয়ত, নেতারা কী ভাবছেন, কী করতে চাইছেন সেটাও বাইরের লোককে জানানো দরকার। অশোক মিত্রের সাক্ষাত্কার নিলেন অনির্বাণ চট্টোপাধ্যায়। क्या नवान्न में कल आप थे? क्या विमानबोस के साथ दीदी ने आपको भी फिशफ्राई खिलाया? ये क्यों हमें लड़ाते हैं,लहूलुहान करते हैं जबकि ये भीतर से सत्ता के लिए एक हैं? आपने आनंद बाजार में अशोक मित्र का लिखा आज का लेख पढ़ा है? ये वाम पंथी लोग कुर्सी क्यों नहीं छोड़ना चाहते? कारत गये तो येचुरी आयेंगे,फर्क क्या पड़ने वाला है?

गरीबी उन्मूलन दरअसल गरीबों के शपाये का कार्यक्रम है ,ठीक वैसा ही जैसे आर्थिक सुधार बहिस्कार और सफाये का जनसंहारी युद्ध।

আমাদের বামপন্থীরা আত্মঘাতী, কিন্তু এ দেশে বামপন্থা ছাড়া গতি নেই

পার্টির এ-রকম দুর্দশা হল, তার একটা বড় কারণ, পার্টির সঙ্গে, বিশেষ করে এই রাজ্যের পার্টি নেতৃত্বের সঙ্গে বাইরের যোগাযোগ একেবারে শূন্য হয়ে গিয়েছিল। বাইরের পৃথিবীতে কী হচ্ছে, দেশের ও রাজ্যের লোকেরা কী বলছে, কী চাইছে এবং নেতাদের সম্বন্ধে কী ভাবছে, সেটা তাঁদের জানা দরকার। তা জানতে হলে খোলাখুলি সকলের সঙ্গে কথা বলতে হবে। দ্বিতীয়ত, নেতারা কী ভাবছেন, কী করতে চাইছেন সেটাও বাইরের লোককে জানানো দরকার। অশোক মিত্রের সাক্ষাত্কার নিলেন অনির্বাণ চট্টোপাধ্যায়।

क्या नवान्न में कल आप थे?

क्या विमानबोस के साथ दीदी ने आपको भी फिशफ्राई खिलाया?

ये क्यों हमें लड़ाते हैं,लहूलुहान करते हैं जबकि ये भीतर से सत्ता के लिए एक हैं?

आपने आनंद बाजार में अशोक मित्र का लिखा आज का लेख पढ़ा है? ये वाम पंथी लोग कुर्सी क्यों नहीं छोड़ना चाहते?

कारत गये तो येचुरी आयेंगे,फर्क क्या पड़ने वाला है?
पलाश विश्वास

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আমাদের বামপন্থীরা আত্মঘাতী,

কিন্তু এ দেশে বামপন্থা ছাড়া গতি নেই

১০ জুন, ২০১৪




कल ही राष्ट्रपति के अभिभाषण और नई सरकार के आर्थिक सुधार कार्यक्रम पर लिखने का इरादा था।दंडकारण्य के मध्य महाराष्ट्र,मध्यप्रदेश,छत्तीसगढ़,ओड़ीशा और आंध्र प्रदेश के तमाम आदिवासी इलाकों को डूब में शामिल करने वाले पोलावरम बांध के बारे में तो कई दिनों से लिखने का मन था।लेकिन सुबह ही आनंद बाजार में आशा भोंसले का मुक्त बाजार में सांस्कृतिक अवक्षय पर बेहतरीन साक्षात्कार के मध्य सबकुछ गड़बड़ेै हो गया।चुनाव से  पहले लता मंगेशकर ने खुलेआम नमोमय भारत बानने का भाववेगी परिवेश सृजन में अपनी सुर सम्राज्ञी हैसियत खपा दी थी। तो हालत यह है कि हिंदुत्व के नाम नमोमय भारत बना देने वाले तमाम हिंदू जो  हिन्दू राष्ट्र के पक्ष में नहीं हैं बल्कि उसके कट्टर विरोधी हैं और हम फासीवाद के खिलाफ युद्ध में धर्मोन्मादी कहकर उन्हें हिसाब से बाहर रख रहे हैं जो कि संजोग से बहुसंख्य भी हैं,यह लिखना बेहद जरुरी हो गया।कल का दिन इसी में रीत गया।


हाल के राजनीतिक बदलावों के बाद अब बाजार की नजर सरकार के आम बजट पर है, जिसमें आर्थिक सुधार का एजेंडा सामने आएगा। मैक्वायरी रिसर्च के वैश्विक प्रमुख (अर्थशास्त्र) रिचर्ड गिब्स ने पुनीत वाधवा को दिए साक्षात्कार में बताया कि भारत अब निवेशकों को मिलने वाले संभावित निवेश के अवसरों की तरफ देख रहा है। उन्होंने कहा कि सुधार का एजेंडा लागू होने से कंपनियों की आमदनी में इजाफा होगा।

आज रोजनामचा फिर गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम से लिखना शुरु करना चाहता था।इंदिरा गांधी का समाजवाद का उद्घोष भी गरीबी हटाओ नारे के साथ हुआ था।जो बजरिये हरितक्रांति और आपरेशन ब्लू स्टार उनके अवसान के बाद नब्वे के दशक तक राजनीतिक अस्थिरताओं के मध्य अबाध पूंजी के कारपोरेट नरसंहार में बदल गया है।

नमोमय भारत की दिशा दशा दुर्गावतार संघ समर्थित इंदिरायुगीन निरंकुश तानाशाह  राजनीतिक स्थिरता के परिदृश्य की याद दिला रहा है।

हम एकमुश्त साठ के उथल पुथल और स्प्नभंग के दौर ,अस्सी के रक्तप्लावित धर्मोन्मादी ध्रूवीकरण और इक्कीसवीं सदी के निरकुंश लंपट अबाध पूंजी वर्चस्व के वैश्विक मनुस्मृति राज में हैं।

बीच में से सत्तर दशक का प्रतिरोध और पचास के मध्य के तेलंगाना और ढिमरी ब्लाक सिरे से गायब हैं।

आशा भोंसले के मुताबिक स्मृति लोप का समय है यह और भाई लोग तो न केवल इतिहास, सभ्यता, विधाओं और विचारधारा के अंत का ऐलान कर चुके हैं,बल्कि वे तमाम प्रतिबद्ध चेहरे अब जनसंहारी व्यवस्था में समाहित समायोजित हैं।मलाईदार महिमामंडित अरबपति तबके में शामिल होकर क्रांति अता फरमा रहे हैं।

ऐसे में इंदिरा के ही समाजवादी समय के वित्तमंत्री और मनमोहनी जनसंहारी आर्थिक नीतियों के वास्तुकार प्रणव मुखर्जी के श्रीमुख से गरीबी उन्मूलन के कार्यक्रम कसमन्वित आर्थिक सुधार एजंडा मार्फतसमाजवादी हिंदुत्व का  पुनरूत्थान दुश्चक्र के उस तिलिस्म को नये सिरे से तामीर करने का भयानक खेल है,जिसमें भारतीय जनगण और भारत लोकगणराज्य का वजूद आहिस्ते आहिस्ते खत्म होता रहा है वही साठ के दशक से लगातार लगातार।

शायद उससे पहले से धर्म के नाम पर भारत विभाजन के ब्रह्म मुहूर्त से अखंड सनातन हिंदुत्व के प्रचंड वैदिकी ताप से।जिसे हम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में सीमाबद्ध मानने की भूल बारंबार कर रहे हैं जबकि यह लाल नीले हरे पीले हर झंडे में समान रुप से संयोजित है।

मैं कोलकाता में हूं लेकिन हवाओं में बारुदी गंध,हड्डियों की चिटखने की आवाजें,क्षितिज में आग और धुआं और गगनभेदी धर्मोन्मादी रणहुंकार से उसी तरह घिरा हुआ हूं जैसे अस्सी के दशक में मेरठ के मलियाना हाशिमपुरा समय में था।

गरीबी उन्मूलन दरअसल गरीबों के सफाये का कार्यक्रम है ,ठीक वैसा ही जैसे आर्थिक सुधार बहिस्कार और जनसंख्या नियंत्रण  का जनसंहारी युद्ध।

हम कांशीराम के फेल होने की वास्तविकता को नजरअंदाज नहीं कर रहे हैं और बहुजन समाज का निर्माण होने से पहले ही उसके बिखराव को रेखांकित करते हुए अंबेडकरी आंदोलन की प्रासंगिकता बता रहे हैं।

यह मामला आनंद तेलतुंबड़े के शब्दों में उतना सहज सपाट भी नहीं है।

अंबेडकर को मूर्तिबद्ध करने में ही भारत में कारपोरेट राज के हित सधते हैं क्योंकि पहचान अस्मिता से खंड खंड भारतीय समाज एकता बद्ध हुए बिना हत्यारों के राजपाट राज्यतंत्र को बदल नहीं सकते।

जाहिर है कि इस कारोबार में शेयरबाजारी दांव अरबों खरबों का है।

तमाम झंडेवरदारों की दुकाने बंद होने वाली हैं अगर भारतीय जनगण कारपोरेट राज के खिलाफ गोलबंद हो जाये।

हम बार बार जो कह रहे हैं कि जाति व्यवस्था दरअसल नस्ली भेदभाव है और उसका अहम हिस्सा भौगोलिक अस्पृश्यता भी है तो हम बार बार यह भी कह रहे हैं  कि मनुस्मृति कोई धर्मग्रंथ नहीं है,यह वर्ग वर्चस्व का मुकम्मल अर्थव्यवस्था है ,जो नींव बन गयी है वैश्विक जायनवादी जनसंहारी स्थाई बंदोबस्त की।

हम बार बार कह रहे हैं कि जाति मजबूत करने से हिंदुत्व मजबूत होता है और इसीका तार्किक परिणति नमोमयभारत है।

हम बार बार कह रहे हैं कि  जाति पहचान अस्मिता  केंद्रित धर्म निरपेक्षता दरअसल धर्मन्मादी ध्रूवीकरण की ही दिशा बनाता है,प्रतिरोध का नहीं।

हम बार बार कह रहे हैं कि  यह विशुद्ध सत्ता समीकरण है।

इसी सिलसिले में समाज वास्तव की चीरफाड़ बेहद जरुरी है और यह सत्य हम नजरअंदाज नहीं कर सकते कि तकनीकी वैज्ञानिक विकास के चरमोत्कर्ष समय़ में मुक्त बाजार के शापिंग माल में हम दिलोदिमाग से अब भी मध्ययुग के अंध तम में हैं और हर शख्स के भीतर सामंती ज्वालामुखी का स्थगित महाविस्फोट है और रंग बिरंगी क्रांतियों के बावजूद हम हिंदुत्व से मुक्त नहीं है।

क्योंकि जैसे कि बाबासाहेब कह गे है कि हिंदुत्व धर्म नहीं,राजनीति है।और सत्ता की राजनीति हिंदुत्व के बिना इस भारत देश में हो ही नहीं सकती।

पेय पानीय जहर नरम और गरम रसायन है।बाकी इंदिरा गांधी  के गले में रुद्राक्षमाला और धीरेंद्र ब्रह्मचारी के योगाभ्यास और नमो उपनिषद पुराण के साथ बाबा रामदेव में प्रकार भेद जरुर है,लेकिन गुणवत्ता और प्रभाव समान है।

उत्पेरक वहीं शाश्वत वैदिकी मनुस्मृतिनिर्भर जाति जर्जर नस्ली हिंदुत्व और वही संघ परिवार जो सिखों और मुसलमानों,शरणार्थियों,आदिवासियों और बहुजनों के संहार और स्त्री आखेट के पुरुषतांत्रिक वर्चस्व के लिए समान रुप से जिम्मेदार है।

इस बात को समझ लेना शायद सबसे मददगार साबित हो सकता है सत्ता की राजनीति  और अर्थव्यवस्था के अंतहीन दुश्चक्र को समझने के लिए कि हिंदू राष्ट्र किसी अकेले संघ परिवार का एजंडा नहीं है,इस राजसूय यज्ञ के पुरोहित या यजमान तो इंद्रधनुषी भारतीय राजनीति के सारे रंग हैं,केसरिया थोड़ा ज्यादा चटख है,बस।

इस बात को समझ लेना शायद सबसे मददगार साबित हो सकता है आम जनता की गोलबंदी के लिए कि मातृभूमि और मातृभाषा के प्रति प्रेम मनुष्यता और सभ्यता के अनिवार्य गुण हैं और स्वभाव से मनुष्य सामाजिक है।राजनीतिक गोलबंदी की तुलना में सामाजिक मानवबंधन ज्यादा व्यवहारिक और कारगर है।बाबासाहेब ने भी इसीलिए सामाजिक आंदोलन को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है तो कामरेड माओ ने सांस्कृतिक आंदोलन को।मातृभाषा की पूंजी लेकर बांग्लादेश में तो लोकतंत्र कट्टर धर्मांध राष्ट्रवाद को लगातार शिकस्त दे रहा है।

इस बात को समझ लेना शायद सबसे मददगार साबित हो सकता है गोलबंदी के लिए अनिवार्य अलाप संलाप के लिए कि अंध राष्ट्रवाद राष्ट्रद्रोह हैं और मनुष्य स्वभाव से राष्ट्रद्रोही होता नहीं है चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान या ईसाई।

इसीलिए यह समझना बेहतर है कि हर मुसलमान कट्टरपंथी नहीं होता और न हर हिंदू धर्मोन्मादी,चाहे राजनीतिक लिहाज से उनका रंग कुछ भी हो। आप राजनीतिक पहल के बजाये सामाजिक पहल करके तो देखिये कि रंगरोगन कैसे उड़कर फुर्र हो जायेगा।

हालांकि हम इतने दृष्टि अंध हैं कि पंजाब की सत्ता राजनीति में अकाली सिखों के लिए न्याय की गुहार लगाते हुए जैसे सत्ता की भागेदारी के लिए हत्यारों की पांत में बैठने से हिचकते नहीं हैं वैसे ही बहुजनहिताय हिंदुत्व और ब्राह्मणवाद के साथ अबाध पूंजीवाद के त्रिफला आहार का भोग लगाकर बाबासाहेब का श्राद्धकर्म कर रहे हैं बहुजन रंग बिरंगे झंडेवरदार।

लेकिन इन सबमें सबसे भयानक वर्णवर्चस्वी पाखंडी तो विचारधारा की जुगाली और वैज्ञानिक दृष्टि के स्वयंभू अवतार जनविश्वास घाती और आत्मघाती भी, जनसंहार पुरोहित भारत में लाल झंडे को घृणा का प्रतीक बना देने वाले ,सामाजिक शक्तियों को बेमतलब बना देने वाले और जनांदोलनों को एनजीओ में तब्दील करने वाले वाम झंडेवरदार है।

वाम झंडेवरदार सत्ता के लिए कुछ भी करेंगे लेकिन वर्ण वर्चस्व को तोड़ेंगे नहीं। पद छोड़ेंगे नहीं।दूसरी तीसरी पंक्ति के नेतृत्व को उभरने देंगे नहीं।भौगोलिक अस्पृश्यता के तहत वाम से वंचित करेंगे बंगाल ,त्रिपुरा और केरल को छोड़कर बाकी देश को।

अब संभावना यह प्रबल है कि आगामी पार्टी कांग्रेस में प्रकाश कारत की जगह सीताराम येचुरी वाम कमान संभालेंगे।हो गया नेतृत्व परिवर्तन।बूढ़े चेहरे के बदले नयेचेहरे खोजे नहीं मिल रहे वाम को जो अवाम में जाते ही नहीं हैं।

हम जब कहते हैं कि सारे हिंदू हिंदू राष्ट्र के पक्षधर नहीं हैं तो हम तमाम अश्वेतों की बात करते हैं जो गोरा रंग पर फिदा हैं और गोरा बनाने के उद्योग के सबसे बड़े खरीददार हैं और जिन्हें काला होने पर शर्म आती है।

हम जब कहते हैं कि सारे हिंदू हिंदू राष्ट्र के पक्षधर नहीं हैं  तब हम उन तमाम आदिवासियों की बात करते हैं,जिनके खिलाफ अनवरत युद्ध जारी है ,जारी है देश व्यापी सलवा जुड़ुम।

हम जब कहते हैं कि सारे हिंदू हिंदू राष्ट्र के पक्षधर नहीं हैं,तब  उन धर्मान्तरित लोगों के बारे में कह रहे हैं जो हिंदुत्व का परित्याग तो कर चुके हैं लेकिन जाति का मोह छोड़ नहीं पाये हैं और जाति को मजबूत करने के लिए पूरा दम खम लगा रहे हैं।

हम जब कहते हैं कि सारे हिंदू हिंदू राष्ट्र के पक्षधर नहीं हैं, उन बहुजनों की बात करते हैं जो कर्मकांड वैदिकी संस्कृति में ब्राह्मणों से मीलों आगे हैं और हिंदू राष्ट्र के पैदल सेनाोओं मे तब्दील हैं।

वे तमाम लोग  बेशक रामराज चाहते हैं।वे बेशक मर्यादा पुरषोत्तम राम के पुजारी हैं और गीता उपदेश के मार्फत कर्म सिद्धांत के मुताबिक जन्म पुनर्जन्म और मोक्ष के सबसे बड़े कारोबारी यदुवंशी कृष्ण के अनुयायी हैं।

लेकिन हकीकत यह भी है कि वे जैसे राज्यतंत्र और अर्थव्यवस्था नहीं समझते वैसे ही वे रामराज और कारपोरेट राज के संयुक्त मनुस्मृति उपक्रम को समझते नहीं हैं और उन्हें हकीकत बताने की कोई कोशिश भी अब तक नहीं हुई है।

इस प्रसंग की चर्चा से लेकिन जिनकी दुकानें बंद होती है,वे हमें हिंदुत्व के दलाल और ब्राह्मणों के पिट्ठू कहकर केसरिया बहुजनों के साथ संवाद की कोई गुंजाइश ही नहीं रखेंगे।

आर्थिक मुद्दों पर बात करने की मानोपोली हमने वामपंथियों और माओवादियों के हवाले कर दी है।इसलिए अरुंधति हो या आनंद तेलतुंबड़े या यह नाचीज यह  रोजनामचाकार, सारे लोग माओवादी घोषित हैं।

अब अगर मैं माओ को उद्धृत करके कहूं कि हमें जनता से सीखना चाहिए क्योंकि जनता अपने अनुभवों से बेहतर जानती है,तो हमें माओवादी मार्क कर देना बहुत सरल होगा।लेकिन लगभग यही बात तकनीकी क्रांति में समाहित कला साहित्य परिवेश के बारे में कही है बालीवूड में वाणिज्य के लिहाज से सुरसाम्राज्ञी से भी ज्यादा कामयाब,ज्यादा सक्रिय उनकी सगी बहन आशा भोंसले ने।

आशा भोंसले ने साफ साफ कहा है कि कला साहित्य अब तकनीकी चकाचौंध के अलावा कुछ भी नहीं है और न कविता लिखी जा रही है और न कोई गीत तैयार हो रहा है। वे कह रही हैं कि जीवनयापन का अनुभव न होने से कला और साहित्य प्राणहीन चीत्कार का रियेलिटी शो है और कुछ भी नहीं।जैसा कि कई साल पहले हमने अपनी कविता ई अभिमन्यु में कही है।


राजनीति के संदर्भ में भी यही चरम सत्य है।जिस जनता के प्रति उत्तरदायी यह संसदीय लोकतंत्र है,जिस जनता के आदेश से यह राज्यतंत्र का कारपोरेट मैनेजमेंट है,वोट देने के आगे पीछे वह कहीं भी नहीं है।

उसके प्रति कोई जवाबदेह नहीं है।न राष्ट्र,न कानून व्यवस्था,न संविधान,न संसद,न भारत सरकार,न राज्य सरकारें, न्याय पालिका,न मीडिया और न वे अरबपति खरबपति या न्यूनतम करोड़पति भ्रष्ट देश बेचो काला बाजारी जमात,जिसमें उसकी अगाध आस्था अखंड हरिकथा अनंत है।

एंटरटेइनमेंट के लिए कुछ भी करेगा,तीन प्रख्यात रामों का अत्याधुनिक रामायण गाया जा चुका है।क्षत्रपों के हवाई करतब देखे जा चुके हैं।

अब वामपक्ष के बेपर्जा दहोने की बारी है।कलाबाजी और सत्ता सौदेबाजी में विचारधारा को तिलांजलि देने में वे भी कहीं पीछे नहीं रहे,ममताम् शरणाम् करते उन्होंने भी साबित कर दिया कि जैसे वे धर्मनिरपेक्षता के नाम दस साल तक मनमोहिनी जनसंहार के हिस्सेदार रहे,वैसे ही संघ परिवार की बढ़त रोकने के लिए वे ममता के पांव भी चूम सकते हैं,जो खुद वजूद का संकट झेलते हुए वाम सहारे के भरोसे मरणासण्ण वाम को आक्सीजन देने के लिए पलकपांवड़े बिठाये हुए हैं।

याद करें कामरेड कि सताहत्तर में फासीवाद और तानाशाही के खिलाफ अटल आडवाणी के साथ गलबहियां ले रहे थे वाम नेता किंवदंती तमाम तो वीपी को भ्रष्टाचार विरोधी प्रधानमंत्री बनाने के लिए वाम दक्षिण एकाकार हो गये थे।

कारपोरेट राज के लिए जरूरी हर कानून को बनाने बिगाड़ने की संसदीय सहमति निर्माण में भी वाम दक्षिण नवउदारवादी जमाने में एकाकार है।भारत में धर्म निरिपेक्षता की सौदे सत्ताबाजी का यह सार संक्षेप है।


आज हफ्तेभर बाद सब्जी बाजार जाना हुआ।शरणार्थी दलित किसान परिवार से हूं और अपनी इस औकात के मुताबिक हवाई उड़ानें मेेरे लिए निषिद्ध हैं।इसलिए पांव जमीन पर ही रहते हैं। लगभग चौथाई शताब्दी जहां बीता दिये,उस स्थानीयता में सारे मामूली लोग मेरे परिचित आत्मीयजन हैं और खासमखास मेरे लिए तो कोई भी नहीं है।

दफ्तर से लौटने के बाद रात ढाई बजे से सुबह साढ़े पांच बजे मैं अपने पीसी के साथ रहता हूं।इसलिए नींद से जागकर बाजार जाने से पहले मैंने अखबार नहीं देखा था।

बाजार गये तो छोटे दुकानदारों ,सब्जीवालों और बाजार में मौजूद लोगों ने मेरी घेराबंदी कर दी।तमाम प्रश्न करने लगे लोग।मसलनः

क्या नवान्न में कल आप थे?

क्या विमानबोस के साथ दीदी ने आपको भी फिशफ्राई खिलाया?

ये क्यों हमें लड़ाते हैं,लहूलुहान करते हैं जबकि ये भीतर से सत्ता के लिए एक हैं?

आपने आनंद बाजार में अशोक मित्र का लिखा आज का लेख पढ़ा है? ये वाम पंथी लोग कुर्सी क्यों नहीं छोड़ना चाहते?

कारत गये तो येचुरी आयेंगे,फर्क क्या पड़ने वाला है?

मुझे खुशी है कि ज्योतिबसु के पहले वित्तमंत्री और इंदिरा गांधी के मुख्य सलाहकार अशोक मित्र की साख अब भी बनी हुई है,जिनसे समयांतर के लिए कुछ अनुवाद के सिलसिले में मेरी भी बातचीत होती रही है।

वामोर्चा के भूमि सुधार अतीत के वित्तमंत्री अशोक मित्र और मौलिक राष्ट्रीयकरण और गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम के मुख्य सूत्रधार डा.असोक मित्र का साक्षात्कार छपा है आज आनंद बाजार के संपादकीय पेज में,जिसमें उन्होंने मौजूदा वाम नेतृत्व पर निर्मम प्रहार करते हुए वाम आंदोलन के तमाम अंतर्विरोधों का खुलासा करते हुए साफ साफ कहा कि आज के वामपंथी आत्मघाती है लेकिन इस देश में वाम पंथ के अलावा कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है इस जनसंहार बंदोबस्त के विरुद्ध प्रतिरोध के लिए।

जाहिर है कि आदरणीय अशोक मित्र ने तमाम वामपंथियों की तरह अंबेडकर पढ़ा नहीं है और पढ़ा है तो उसे तरजीह नहीं दी है।वरना वे अंत्यज  बहुजनों की बात करते और अंबेडकर की प्रासंगिकता पर भी लिखते।

आनंद पटवर्धन,आनंद तेलतुंबड़े,अरुंधति और हम सिर्फ इतना कह रहे हैं कि वामपंथ और अंबेडकरी आंदोलन की मंजिल समता और सामाजिक न्याय है और जनप्रतिरोध
के लिए अलग अलग झंडों और पहचान,अस्मिता में बंटी जो जनता है,उसकी गोलबंदी सबसे जरुरी है और इस सिलसिले में सर्वस्वहाराओं के हितों को सर्वोच्च प्राथमिकता दें,तो अबंडकरी विचार और वाम आंदोलन में अंतरविरोध नहीं है।

हम सिर्फ इतना कह रहे हैं कि बहुजन समाजका निर्माण ही वामपक्ष बहुजन अंबेडकरी पक्ष का घोषित साझा लक्ष्य हो और अंबेडकरी आंदोलन का प्रस्तानबिंदू फिर वही जाति उन्मूलन हो तो सिरे से गायब सत्तर दशक के प्रतिरोध की वापसी असंभव भी नहीं है।पूंजीवाद और ब्राह्मणवाद के खिलाफ राष्ट्रव्यापी जनांदोलन भी असंभव नहीं है। राज्यतंत्र में बदलाव भी असंभव नहीं है और न ही समता और सामाजिक न्याय का लक्ष्य असंभव है।

आने वाले समय में आर्थिक गतिविधियों में सुधार होने पर बाजार नई ऊचाइयां छू सकता है। इसी ल्क्ष्ये के साथ राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने संसद के संयुक्त सत्र में सरकार के दस साल का एजेंडा पेश किया। सरकार के आर्थिक सुधार एजेंडे से अर्थव्यवस्था में सुधार की उम्मीदों से बाजार को बल मिला। केंद्र में नई सरकार ने संसद में अपने एजेंडे की झलक दिखाई। उसने आर्थिक मुद्दों पर जोर देते हुए पांच प्राथमिकताएं रखी हैं, जिनमें आर्थिक वृद्घि दर बढ़ाना और मुद्रास्फीति विशेष तौर पर खाद्य मुद्रास्फीति पर नियंत्रण करना शामिल हैं। इसके अलावा सरकार ने प्रशासन में सुधार, प्रमुख बुनियादी ढांचे को विकसित करने और कृषि क्षेत्र में नई जान फूंकने के लिए भी कदम उठाने की बात कही है। खाद्य मुद्रास्फीति पर लगाम कसने के लिए सरकार ने आपूर्ति सुधारने पर भी जोर देने का वादा किया है।सरकार ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली दुरुस्त करने, जमाखोरी और कालाबाजारी रोकने, कृषि बुनियादी ढांचे में सार्वजनिक और निजी निवेश लाने, सिंचाई बुनियादी ढांचे को बेहतर बनाने और खाद्य प्रसंस्करण उद्योग को रियायतें देने की योजना बनाई है।अभिभाषण में फिजूल नियमों को हटाकर, अनुमतियों के लिए राज्य व केंद्र स्तर पर सिंगल विंडो मुहैया कराकर  'कारोबार को आसान' बनाने की भी बात कही गई। इसके अलावा कर नियमनों को सरल बनाने और वस्तु एवं सेवा कर लागू करने पर भी आगे बढऩे का जिक्र किया गया। अभिभाषण में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को खासी तवज्जो दी गई। सरकार ने कहा कि उन क्षेत्रों में एफडीआई को अनुमति दी जाएगी, जो रोजगार सृजन में मदद करेंगे, जबकि रक्षा उपकरणों के देसीकरण को बढ़ावा देने के लिए रक्षा में भी एफडीआई पर विचार किया जाएगा।

गरीबी उन्मूलन का नजारा यह है कि रामरज्य की आहट से ही  इस साल शेयर बाजार की रैली में निवेशक मालामाल हो गए हैं। जिनके शेयर लंबे अर्से से निगेटिव रिटर्न दे रहे थे उन्होंने भी इस तेजी में मुनाफा काट लिया। वैसे, बाजार की असली रैली शुरू हुई थी 14 फरवरी से। तब से लेकर अब तक जहां सेंसेक्स-निफ्टी ने 27-28 फीसदी रिटर्न दिए हैं, वहीं मिडकैप इंडेक्स ने 38 फीसदी का रिटर्न दिया है।

अब तो रामराज्य फूल ब्लूम है। कमल खिलखिला रहा है बाजार में।दिग्गजों के मुताबिक निवेश का यही सही मौका है। आज का निवेश 5 साल में आपको करोड़पति बना सकता है।

आपका दिवालिया भी तय है अगर आप अर्थव्यवस्था समझते नहीं हैं।हाल के वर्षों में साल 2014 भारतीय इक्विटी निवेशकों के लिए बेहतर वर्षों में से एक रहा है। बेंचमार्क एसऐंडपी बीएसई सेंसेक्स हर हफ्ते नई ऊंचाई को छू रहा है और साल की शुरुआत से अब तक 20 फीसदी से ज्यादा उछल चुका है। साथ ही इसके और ऊपर जाने की संभावना है। दलाल स्ट्रीट के तेजडिय़े अब नई तेजी की शुरुआत की बात कर रहे हैं, जो नरेंद्र मोदी की अगुआई में विकासोन्मुखी सरकार के सत्ता संभालने के कारण देखने को मिल सकती है। उम्मीद यही है कि मोदी सरकार आर्थिक विकास दर में तेजी से सुधार लाएगी। इसके साथ-साथ कंपनियों की आय में इजाफे की भी संभावना है, जिससे शेयरों की ऊंची कीमत उचित दिखेगी।

शुक्रवार को सेंसेक्स के बंद का स्तर देखें तो सूचकांक की 30 कंपनियों की संयुक्त आय (जो पिछले 12 महीने से इंडेक्स का हिस्सा हैं) के करीब 19 गुना पर कारोबार कर रहा है।

राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने सोमवार को संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में अपने अभिभाषण में मोदी सरकार का रोडमैप पेश किया। उन्होंने ऐसा वातावरण तैयार करने का वादा किया जिसमें स्थायित्व हो और जो पारदर्शी व निष्पक्ष हो। उन्होंने कहा कि कर व्यवस्था को युक्तिसंगत और सरल बनाया जाएगा जो निवेश, उद्यम और विकास के खिलाफ नहीं होगी बल्कि उसे बढ़ाने में सहायक होगी।राष्ट्रपति ने कहा कि राज्य सरकारों से परामर्श करके राष्ट्रीय योजना तैयार की जाएगी ताकि वामपंथी चरमपंथ से उत्पन्न चुनौतियों और सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं पर प्रभावी तरीके से अंकुश लगाया जा सके। सरकार सुरक्षा बलों को आधुनिकतम तकनीक से सुसज्जित करने और इनके कामकाज की स्थिति सुधारने के लिए कदम उठाएगी।

अभिभाषण में कहा गया कि सरकार गरीबों के प्रति समर्पित है। गरीबी का कोई धर्म नहीं होता है। भूख का कोई पंथ नहीं होता और निराशा का कोई भूगोल नहीं होता। हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती भारत में गरीबी के अभिशाप को समाप्त करना है। मेरी सरकार केवल निर्धनता हटाने से संतुष्ट नहीं होगी बल्कि यह गरीबी के समग्र उन्मूलन के लक्ष्य के प्रति वचनबद्ध है। विकास पर पहला हक गरीब का है और सरकार अपना ध्यान उन पर केंद्रित करेगी, जो जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित हैं। सरकार सहानुभूति, सहायता और सशक्तीकरण द्वारा सभी नागरिकों को हर तरह की सुरक्षा मुहैया कराने के लिए जरूरी उपाय करेगी।

इस गरीबी उन्मूलन घोषणा का तात्पर्य इस सेनसेक्सी साड़भाषा में समझे कि  लगातार चौथे कारोबारी सत्र में शेयर बाजार में तेजी का रूख जारी रहा। नई सरकार द्वारा आर्थिक सुधारों के लिए अपना एजेंडा पेश किए जाने से उत्साहित विदेशी निवेशकों की लिवाली से बीएसई सेंसेक्स 25,711.11 अंक की नई ऊंचाई को छू गया।समझिये कि गरबी उन्मूलन की उदात्त घोषणा से शेयर बाजार बम बम क्यों हैं और दुनियाभर के विदेशी निवेशक मय बाराक ओबामा तक कैसे कैसे केसरियाहुए जा रहे हैं।

जाहिर है कि  अगर आप ऐसे कुत्ते को देख रहे हैं जो नहीं भौंकता है तो फिर आपको सरकार के हालिया आर्थिक नीति की घोषणाओं को  अलग हटकर देखने की जरूरत नहीं है।कारोबारी धारणा में सुधार से उत्साहित भारतीय कंपनियों ने अगले तीन महीने में विश्वभर में जबरदस्त नियुक्तियों की योजना बनाई है। आज जारी मैनपावर एंप्लायमेंट आउटलुक सर्वे के मुताबिक, एक स्थायी सरकार बनने के साथ कारोबारी धारणा में सुधार की उम्मीद में कई क्षेत्रों में नियुक्ति गतिविधियों में तेजी आ रही है।

विनिर्माण के मोर्चे पर सरकार ने कहा कि वह निवेश और औद्योगिक क्षेत्र विशेष रूप से डेडिकेटेड फ्रेट कॉरिडोर स्थापित कर विनिर्माण को बढ़ावा देगी। माना जा रहा है कि ये गुजरात में स्थापित धोलेरा विशेष निवेश क्षेत्र और गिफ्टी सिटी के ही संस्करण हो सकते हैं। बुनियादी ढांचा उद्योग को मजबूती देने के लिए सरकार सार्वजनिक निजी भागीदारी प्रणाली, फास्ट टै्रक व निवेश के लिए माकूल व्यवस्था लाने की खातिर 10 वर्ष की अवधि के लिए बुनियादी ढांचा विकास योजना तैयार कर रही है।

बुनियादी ढांचा उद्योग में भी सरकार का ध्यान रेलवे के आधुनिकीकरण, हाई स्पीड ट्रेन के लिए हीरक चतुर्भुज परियोजना, फ्रेट कॉरिडोर का नेटवर्क , बंदरगाह के विकास और जहां मुमकिन हो नदियों को जोडऩे पर रहेगा। सरकार ने पारंपरिक और गैर-पारंपरिक तरीकों की मदद से बिजली उत्पादन बढ़ाने, कोयला क्षेत्र में निजी निवेश आकर्षित करने और परमाणु ऊर्जा विकसित करने का वादा किया। इसके अतिरिक्त सरकार ने स्पष्टï कर दिया कि उसके एजेंडे में शहरीकरण, शिक्षा, स्वास्थ्य, महिलाओं की सुरक्षा और रक्षा आधुनिकीकरण पर भी काफी जोर दिया जाएगा।

हालांकि अभिभाषण में राजकोष के बारे में कुछ नहीं कहा गया, जो अर्थशास्त्रियों के मुताबिक चिंता का विषय है। भाषण में इसका भी जिक्र नहीं था कि सरकार सब्सिडी में कटौती के लिए क्या करेगी या फिर करों में कटौती करेगी या बढ़ोतरी। लेकिन अभिभाषण में स्पष्टï कहा गया कि केंद्र विभिन्न राज्यों की विशिष्टï जरूरतों को पूरा करने के लिए उनके साथ मिलकर काम करेगा न कि अलग फैसले करेगा।

সাক্ষাৎকার

আমাদের বামপন্থীরা আত্মঘাতী, কিন্তু এ দেশে বামপন্থা ছাড়া গতি নেই

পার্টির এ-রকম দুর্দশা হল, তার একটা বড় কারণ, পার্টির সঙ্গে, বিশেষ করে এই রাজ্যের পার্টি নেতৃত্বের সঙ্গে বাইরের যোগাযোগ একেবারে শূন্য হয়ে গিয়েছিল। বাইরের পৃথিবীতে কী হচ্ছে, দেশের ও রাজ্যের লোকেরা কী বলছে, কী চাইছে এবং নেতাদের সম্বন্ধে কী ভাবছে, সেটা তাঁদের জানা দরকার। তা জানতে হলে খোলাখুলি সকলের সঙ্গে কথা বলতে হবে। দ্বিতীয়ত, নেতারা কী ভাবছেন, কী করতে চাইছেন সেটাও বাইরের লোককে জানানো দরকার। অশোক মিত্রের সাক্ষাৎকার নিলেন অনির্বাণ চট্টোপাধ্যায়।

১০ জুন, ২০১৪, ০০:৩৯:১৭

আপনি সম্প্রতি একটি প্রবন্ধে লিখেছেন, লোকসভা নির্বাচনে বামপন্থীদের এই ব্যর্থতা একটা গভীর সংকটের পরিণাম, তার মোকাবিলা করতে না পারলে সিপিআইএমের ভবিষ্যৎ অত্যন্ত অনিশ্চিত। এই সংকট কি অনেক দিন ধরেই জমে উঠছিল না?

একটু পুরনো কথায় ফিরে যাই। আমি ১৯৮৪ সালে হঠাৎ কেন বাম মন্ত্রিসভা ছেড়ে বেরিয়ে এলাম? আমি তখনই ওঁদের জানিয়ে দিয়েছিলাম যে, আপনারা নিশ্চিন্ত থাকুন, পার্টির বিরুদ্ধে আমি বাইরে একটা কথাও উচ্চারণ করব না, কিন্তু আমার পক্ষে আর থাকা সম্ভব নয়। কারণ আমি দেখছিলাম, যে আদর্শের কথা ভেবে আমি নিজের বৃত্তি ছেড়ে বামপন্থী আন্দোলনের সঙ্গে একাত্ম হয়েছিলাম, তা ছেড়ে পার্টি আস্তে আস্তে সরে যাচ্ছে। প্রবীণ এবং অভিজ্ঞ নেতারা কেউ কেউ প্রয়াত, কেউ কেউ অবসন্ন, ক্লান্ত, পার্টির ভিতরে কী হচ্ছে তা যেন তাঁরা ঠিক দেখছেন না, বা দেখার ক্ষমতা হারিয়ে ফেলেছেন। শেষ পর্যন্ত যখন আমাকে বলা হল, বেসরকারি কলেজের যাঁরা অধ্যক্ষ, তাঁদের সরকারি কলেজের অধ্যক্ষদের সমান বেতন দিতে হবে, তখন আমি ঠিক করলাম, ঢের হয়েছে, আর নয়।
কেন, আমি সেটা বলি। আমি এমন অনেক বিশিষ্ট শিক্ষাব্রতী মানুষের কথা জানতাম, যাঁরা সুযোগ পেয়েও সরকারি কলেজের অধ্যক্ষের পদ নেননি, পড়ানো ভালবাসতেন বলে শিক্ষকতাতেই থেকে গিয়েছিলেন, যদিও অধ্যক্ষ পদে বেতন ও অন্যান্য সুবিধে অনেক বেশি ছিল। তখন নানা বেসরকারি কলেজে এমন অনেক অধ্যক্ষ ছিলেন, যাঁদের যোগ্যতা যথেষ্ট ছিল না, দলীয় নেতারা তাঁদের সেখানে বসিয়ে দিয়েছিলেন। আমাকে বলা হচ্ছিল, তাঁদের সুশোভন সরকার, তারকনাথ সেন, সুবোধ সেনগুপ্তদের চেয়ে বেশি মাইনে দিতে হবে। আমি বলেছিলাম, 'এটা ঠিক হবে না, আপনারা মুড়িমিছরির দর এক করতে যাবেন না, তাতে দক্ষতা চুলোয় যাবে, আখেরে শিক্ষার সর্বনাশ হবে, সমাজের সর্বনাশ হবে। আপনারা তো গোটা দেশকে সীমিত সামর্থ্যের মধ্যে একটা সুষ্ঠু সৎ প্রশাসনের উদাহরণ দেখাতে চান। কিন্তু অন্যায় দূর করতে গিয়ে যদি আপনারা অন্যায়কেই প্রশ্রয় দেন, তা হলে আমরা কোথায় গিয়ে দাঁড়াব?' কিন্তু ওঁরা সেটা শুনতে চাইলেন না।
আসলে পার্টি এক সময় বশ্যতা আর দক্ষতার তফাত করতে ভুলে গেল। আরও অনেক সমস্যা ছিল, কিন্তু আমার মনে হয় এটাই আসল। পদত্যাগের কিছু দিন পর দিল্লি গেলে দলের এক প্রবীণ নেতা, একদা দলের সাধারণ সম্পাদক ছিলেন, আমাকে বিশেষ স্নেহ করতেন, ঝেড়ে বকুনি দিলেন, 'তুমি একটা গাধা, পার্টির ভেতরে থেকে আন্দোলন চালিয়ে যাওয়া তোমার কর্তব্য ছিল।' স্বীকার করি, অন্তর্দলীয় কোঁদল চালাবার মতো প্রতিভা বা মানসিকতা কিছুই আমার নেই।
আপনি অনেক দিন আগে কমিউনিস্ট পার্টির দুটি ধারার কথা লিখেছিলেন। প্রাকৃত এবং সংস্কৃত। মুড়িমিছরি এক করে ফেলার মধ্যে কি প্রাকৃত ধারার একটা প্রভাব ছিল?
বামফ্রন্টের প্রধান দলে যাঁরা যোগ দেন, তাঁদের মধ্যেও কিছু বিশিষ্ট, সংস্কৃতিমান মানুষ ছিলেন। স্বয়ং জ্যোতি বসু অত্যন্ত দায়িত্বশীল, সৌজন্যপূর্ণ এবং বিচক্ষণ ব্যক্তি ছিলেন। কিন্তু সামগ্রিক নেতৃত্বের যে চাপ, উঁচুদরের প্রবীণ নেতারা সেই চাপটা আটকালেন না।
এখানে কি সরকার আর পার্টির মধ্যে বিরোধ ঘটল? পার্টি নিজের মতটা চাপিয়ে দিল?
ব্যাপারটা অনেকটা এ-রকমই। দলের সিদ্ধান্ত হয়েছে, ফ্রন্টের সিদ্ধান্ত হয়েছে, সুতরাং প্রশাসনকে তা মানতে হবে। প্রশাসনের যে কতকগুলো আলাদা বক্তব্য থাকতে পারে, সেটা ধৈর্যের সঙ্গে শোনার সময় সেই মুহূর্তে কারও ছিল না। তত দিনে, বিশেষত পঞ্চায়েত নির্বাচনের মধ্যে দিয়ে গ্রামাঞ্চলে ব্যাপক জনসমর্থন গড়ে তোলার পরে, তাঁরা তো ধরে নিয়েছিলেন, 'চিরকাল পশ্চিমবঙ্গে শাসন করে যাব।' সোজা কথা, এই সাফল্যে তাঁদের মাথা ঘুরে গিয়েছিল। এবং সেটাই মারাত্মক হয়ে দাঁড়াল। আশির দশকের মাঝামাঝি থেকেই দেখা যাচ্ছিল পার্টির মধ্যে নেতারা কেউ কেউ একটু অহঙ্কারে ভুগছেন, চাটুকারদের দ্বারা পরিবৃত হচ্ছেন, চাটুকাররা বাছা বাছা ক্ষমতার জায়গায় পৌঁছচ্ছেন, তাঁরা আবার তাঁদের চাটুকার তৈরি করছেন। এই ভাবে বৃত্তের মধ্যে বৃত্ত তৈরি হল, পুরো দলটায় ঘুণ ধরল।
কিন্তু তার পরেও তো দীর্ঘ দিন বিরাট জনসমর্থন ছিল। ২০০৬-এও। সাফল্য। তার দু'তিন বছরের মধ্যে ধস নামল কেন?
এটার কারণ হচ্ছে, উনিশশো নব্বইয়ের দশকে এবং এই শতাব্দীর প্রথম দশকের গোড়ার দিকে বামফ্রন্টের প্রশাসন এবং তার নানান শাখাপ্রশাখা যে ধরনের মানসিকতা নিয়ে কাজকর্ম করছিলেন, তাতে কিছু লোকের মনে গভীর অসন্তোষ এবং বিরক্তি জন্ম নিয়েছিল। কিন্তু তাঁরা কোনও বিকল্প দেখছিলেন না। মন্দের ভাল হিসেবে তাঁরা বামফ্রন্টকে সমর্থন করছিলেন। জ্যোতি বসু তখনও বেঁচে। তাঁর সম্বন্ধে বাঙালির, বিশেষত মধ্যবিত্ত সমাজের মনে এক আশ্চর্য স্বপ্নালু মায়াবোধ ছিল। এখনও আছে। আমি এই সমস্ত কথাগুলো বলছি এই কারণে যে, আমি আমার দীর্ঘ জীবনে এই আন্দোলনের সঙ্গে, এই পার্টির সঙ্গে একাত্ম থেকেছি। বর্তমান বিপর্যয়ের গ্লানি আমাকেও সমান স্পর্শ করেছে, তার দায়ও। ১৯৮৪ সালে মন্ত্রিসভা ছেড়ে দেওয়ার পরেও আমি দলের বাইরে নিজেকে ভাবিনি। আমি এটাও সবিনয় দাবি করব যে, পার্টির ভেতরে যাঁরা আছেন, যাকে আমি বলব পার্টির সমর্থনের বৃত্ত, তাঁদের অনেকে আমাকে পার্টির এক জন বলেই মনে করেন, যদিও নেতৃত্ব তা মনে করেন না। এমনকী ১৯৯৩ সালে পার্টি থেকে যখন আমাকে রাজ্যসভায় যেতে আহ্বান জানানো হল, আমি খানিকটা উৎসাহের সঙ্গেই সম্মত হলাম, প্রধানত দুটি কারণে। প্রথমত, যে কেন্দ্র-রাজ্য সম্পর্কের পুনর্বিন্যাস বিষয়ে মন্ত্রিসভায় থাকাকালীন— জ্যোতিবাবুর পূর্ণ সমর্থন নিয়ে— দেশে এক বিশেষ ধরনের আলোড়ন তুলতে অংশত সফল হয়েছিলাম, সংসদে গিয়ে ফের তা নিয়ে উত্তাল হব, কারণ ইতিমধ্যে বামফ্রন্ট সরকার এ বিষয়ে কেমন যেন ঝিমিয়ে পড়েছে। দ্বিতীয় বড় কারণ, দু'বছর আগে, তথাকথিত মুক্ত অর্থনীতি প্রবর্তনের পর দেশ জুড়ে আর্থিক সংকট যে ক্রমশ ঘনীভূত এবং এই পথে দেশের যে মুক্তি নেই, তা গোটা দেশের প্রতিনিধিদের সামনে উচ্চারণের সুযোগ পাব। দলীয় বিচ্যুতির কথাগুলি আমি বরাবরই আত্মসমালোচনা হিসেবে বলেছি।
পার্টি নতুন পৃথিবী, নতুন বাস্তবের মোকাবিলা করতে পারল না বলেই কি এ বিচ্যুতি ঘটল?
প্রথম কথা, যে কঠোর নিয়মের বেড়াজালে পার্টিতে নতুন আগমনপ্রার্থীদের যাচাই করা হত, আমার মনে হয়, আশির দশকের মাঝামাঝি থেকে সেটা ঢিলে হয়ে গেল। প্রবীণ নেতারা একটু অন্যমনস্ক, একটু শ্রান্ত, তার সুযোগ গ্রহণ করলেন কিছু কিছু নবীন, ভূতপূর্ব ছাত্রনেতা কিংবা যুবনেতা, তাঁরা এই প্রবীণ নেতাদের প্রধান উপদেষ্টা ও সহায়ক হলেন, এবং তাঁদের যারা সমর্থক ও পেটোয়া মানুষ, তারা কাতারে কাতারে পার্টিতে ঢুকে পড়ল।
অন্য আর একটা দিক আছে। যদিও গণতান্ত্রিক কেন্দ্রিকতার কথা বলা হয়, এবং এখনও পর্যন্ত নিয়ম হল, কেন্দ্রই শেষ কথা বলবে, অন্তত পশ্চিমবঙ্গে তা-ই হয়, কিন্তু পশ্চিমবঙ্গ এবং কেন্দ্রের পার্টির মধ্যে যে সম্পর্ক, তা একটু অন্য রকম। কেন্দ্রে যাঁরা হাল ধরে আছেন, তাঁদের নিজেদের অঞ্চলে প্রভাব অত্যন্ত সীমিত। অন্য দিকে পশ্চিমবঙ্গ থেকে যাঁরা যাচ্ছেন কেন্দ্রীয় নেতৃত্বে, তাঁদের পেছনে এত জমাট একটা আন্দোলন, এত সম্ভ্রান্ত একটি প্রশাসন। তাই অনেক ক্ষেত্রেই কেন্দ্রীয় নেতৃত্বের পছন্দ হোক বা না হোক, এ রাজ্যের নেতৃত্বের ইচ্ছা-অনিচ্ছার ওপর পার্টির সিদ্ধান্ত অনেকটাই নির্ভর করত। যদিও কোনও কোনও কেন্দ্রীয় নেতৃত্ব জানতেন, পশ্চিমবঙ্গে এখানে ওখানে অনেক গলদ ঢুকছে, তাঁদের কিছু করার ছিল না। তাঁরা অসহায় বোধ করতেন।
পশ্চিমবঙ্গে পার্টির দীর্ঘ নির্বাচনী সাফল্যই কি কেন্দ্রীয় নেতৃত্বের কিছু না করার একটা কারণ ছিল? তাঁরা কি মনে করতেন, রাজ্য নেতৃত্ব যখন ভোট আনছেন, তখন তাঁরা যে ভাবে পার্টি চালাচ্ছেন সে-ভাবেই চালান?
তাঁরা ভাবতেন, আমরা দূর থেকে কী সিদ্ধান্ত চাপিয়ে দেব? ওরা এতগুলো নির্বাচনে জয়ী হয়েছে, ওরা জানে স্থানীয় অবস্থা কী রকম, কী করা উচিত। সিঙ্গুর নিয়ে হট্টগোলের পরে অবস্থাটা প্রকট হয়ে গেল।
কিন্তু একটা কমিউনিস্ট পার্টির তো কেবল ভোটের হিসেব কষার কথা নয়। তার আদর্শ সে কতটা অনুসরণ করতে পারছে, বাস্তব অনুযায়ী সেই আদর্শের পরিমার্জন দরকার কি না, এগুলোও তার ভাবার কথা। তেমন চিন্তার লক্ষণ তো দেখা গেল না!
একটা উদাহরণ দিই। ভূমিসংস্কারের কথা ধরা যাক। বর্গাদারদের আইন করে অধিকার পাইয়ে দেওয়া হল। কিছু কিছু ভূমিহীন মানুষ এক ছটাক দু'ছটাক করে জমি পেতে শুরু করলেন। ব্যাঙ্কের ওপর চাপ দিয়ে কিছু কিছু টাকার ব্যবস্থাও হল। কিন্তু এর পরে কী হবে? ওই যে ছোট ছোট জমি, তার উৎপাদনশীলতা তো অত্যন্ত সীমিত। এবং আজ যাকে একটু জমি দিলাম, কাল গিয়ে তো তাকে বলতে পারি না যে, এসো, তোমার জমির সঙ্গে পাশের জমি মিলিয়ে দিয়ে একসঙ্গে চাষ-আবাদ করো, তা হলে উন্নতি হবে। সমবায় আন্দোলনের মধ্য দিয়ে এগোনোর চেষ্টা করা উচিত ছিল। বীজ, সার, ফসল ইত্যাদি ক্রয়বিক্রয়ের ক্ষেত্রে সমবায় আন্দোলনকে কাজে লাগাতে পারলে কৃষিজীবীর লাভ হত, এবং সেই অভিজ্ঞতা থেকে তাঁরা উৎপাদনের ক্ষেত্রেও সমবায়ের প্রয়োজন অনেক ভাল বুঝতে পারতেন। কিন্তু সে দিকে নজর দেওয়া হল না। তার পরে ফ্রন্টের সব ভাগাভাগি ব্যাপার ছিল, সমবায় ছিল এক শরিক দলের হাতে। নানা সমস্যা।
একটা উদাহরণ দিই। ভার্গিস কুরিয়েন আমার অনেক দিনের বন্ধু, একসঙ্গে কাজ করেছি, তাঁকে বললাম, 'তুমি পশ্চিমবঙ্গের জন্যে একটা মাদার ডেয়ারি তৈরি করে দাও।' তিনি বললেন, 'তুমি বলছ, আমি নিশ্চয়ই করে দেব।' দিলেনও। কিন্তু দু'বছর যেতে না যেতেই দেখা গেল অদ্ভুত ব্যাপার। যে ধারণাটা কুরিয়েনের বরাবর ছিল, তা হল, ছোট বড় সবাই মিলে সমান অধিকার প্রয়োগ করবে, ক্ষুদ্রতম কৃষক বা দুধওয়ালাও দাবি করতে পারবেন যে, 'এই যে দুধ, মাখন, পনির, এমনকী মিষ্টি দই তৈরির মস্ত ব্যবস্থাটা দেখছ, এটা আমারও।' কিন্তু এখানে মাদার ডেয়ারিতে প্রথম থেকেই কে কত মাইনে পাবে, সে সব নিয়ে দল থেকে নাক গলানো শুরু হল। এই নিয়ে আর একটা গল্প শুনেছিলাম। পশ্চিমবঙ্গে তিনি আরও মাদার ডেয়ারি খুলছেন না কেন, এই প্রশ্নের জবাবে কুরিয়েন নাকি বলেছিলেন, 'দেয়ার আর টু মেনি বেঙ্গলিজ ইন বেঙ্গল'!
ছোট ছোট জমিতে চাষের জন্য অন্যান্য ব্যবস্থাও তো ঠিক মতো হয়নি, কৃষিঋণ...
মহারাষ্ট্র, গুজরাত, কর্নাটক, এই সব রাজ্যে নাবার্ড থেকে বছরে চার হাজার, পাঁচ হাজার, ছ'হাজার, আট হাজার, দশ হাজার কোটি টাকা ঋণ দেওয়া হচ্ছে। পশ্চিমবঙ্গে সেখানে বড়জোর পাঁচ-সাতশো কোটি। এটাই তফাত।
নীচের থেকে কোনও চাপ এল না? কৃষক সভা এ সব নিয়ে পার্টিকে চাপ দিল না?
তত দিনে কৃষক সভায় পঞ্চায়েতের প্রাধান্য বেড়ে গিয়েছিল। কারণ পঞ্চায়েতের হাতে টাকা আছে, কৃষক সভার হাতে টাকা নেই। এবং আর একটা ব্যাপার— কোনও কোনও জেলায় বর্গা বিলির ফলে পার্টির সমর্থকদের মধ্যে শ্রেণিবিন্যাসেরও একটা পরিবর্তন দেখা দিল। যাঁরা ছোট বর্গাদার ছিলেন তাঁরা মধ্য বর্গাদার হলেন, যাঁরা মধ্য বর্গাদার ছিলেন তাঁরা বড় বর্গাদার হয়ে গেলেন। তাঁদের গোষ্ঠীস্বার্থ পার্টির ঘোষিত আদর্শ থেকে একটু সরে গেল। একটা গল্প মনে পড়ছে। ১৯৬২ সালে পঞ্জাবের সাধারণ নির্বাচনের প্রাক্কালে ছ'জন কমিউনিস্ট বিধায়ক পার্টি ছেড়ে দিলেন। এবং কমিউনিস্ট পার্টি ছেড়ে তাঁরা কংগ্রেসে যোগ দিলেন না, যোগ দিলেন স্বতন্ত্র পার্টিতে। কমিউনিস্ট পার্টি এত দিন সেচের ওপর কর বসানোর বিরুদ্ধে লড়াই করেছে, জমি পাইয়ে দেওয়ার আন্দোলনগুলোও সফল হয়েছে, এঁরাও আর ছোট কৃষক নেই, মাঝারি কৃষক হয়ে গেছেন, বিত্তবান হয়ে গেছেন...
এ বার শ্রেণিস্বার্থ...
শ্রেণিস্বার্থটা পালটে গেছে। এটা পঞ্জাবে তো চোখের সামনে দেখেছি। সম্ভবত সেই কারণেই, যদিও পার্টি ভারতের অন্য প্রায় সর্বত্র খেতমজুর ফেডারেশন তৈরি করেছিল, পশ্চিমবঙ্গে রাজ্য নেতৃত্ব থেকে তা করার অনুমতি মেলেনি।
পশ্চিমবঙ্গের শিল্প উন্নয়ন সম্পর্কেও তো দীর্ঘ দিন বামফ্রন্ট প্রয়োজনীয় সচেতনতার পরিচয় দেয়নি।
শিল্পায়নের জন্য পুঁজিপতিদের কাছে ভিক্ষাপাত্র নিয়ে যাওয়ার পরিবর্তে একটি আদর্শসম্মত বিকল্প সুযোগ বামপন্থী নেতা-মন্ত্রীরা হাতছাড়া করেছিলেন। ২০০৪ সালে কেন্দ্রে সরকার গঠনে কংগ্রেস দলকে সমর্থনের সুবাদে বামফ্রন্ট তিনটি সুস্পষ্ট শর্ত আরোপ করতে পারত: (১) পাঁচ বছরের মধ্যে পশ্চিমবঙ্গ সহ গোটা পূর্ব ভারতে ব্যাঙ্ক ঋণ অন্তত দশগুণ বাড়াতে হবে; (২) পশ্চিমবঙ্গ সহ পূর্ব ভারতে কৃষি শিল্প পরিষেবা ইত্যাদি বিভিন্ন ক্ষেত্রে কেন্দ্রীয় সরকারের প্রত্যক্ষ বিনিয়োগ পাঁচ বছরে দশ গুণ বাড়াতে হবে; (৩) বামদের পূর্বসম্মতি ছাড়া অর্থ কমিশন ও যোজনা কমিশনের সদস্য নির্বাচন নিয়ে সিদ্ধান্ত গ্রহণ করা যাবে না। পাশাপাশি, জমি অধিগ্রহণের সমস্যা নিরসনের জন্য যে কৃষকদের জমি নেওয়া হল, আর্থিক ক্ষতিপূরণ ছাড়াও সংশ্লিষ্ট শিল্পের আংশিক মালিকানা তাঁদের প্রদানের জন্য নির্দিষ্ট করা যেত। কিন্তু বামফ্রন্টের নেতারা সে-সব নিয়ে আদৌ ভাবলেন না, ভাসা-ভাসা সদিচ্ছা-ঠাসা একটি যুক্ত বিবৃতিতে স্বাক্ষর করে নিশ্চিন্ত মনে ইউপিএ সরকারকে সমর্থন জানালেন।
ট্রেড ইউনিয়নের ক্ষেত্রেও তো সাধারণ শ্রমিকের স্বার্থ না দেখে ইউনিয়নের নেতারা...
আমার মনে পড়ছে, উত্তর চব্বিশ পরগনার একটা ইঞ্জিনিয়ারিং কারখানা অনেক দিন ধরে বন্ধ হয়ে ছিল। তা, সেটিকে পুনরুজ্জীবিত করার উদ্যোগ হল, ব্যাঙ্কের সঙ্গে কথা বলে ঋণের ব্যবস্থা করা হল, যাতে খুব ভাল ভাবে পরিচালনা করা যায় সে জন্য শ্রমিকদের মধ্যে থেকে দু'এক জন প্রতিনিধি নেওয়া হল। এক জন শ্রমিক নেতাকে সেখানে দায়িত্ব দেওয়া হল। তাঁকে বার বার বলা হল, 'আপনাকে দেখতে হবে যেন কোনও টাকাপয়সার অপচয় না হয়, যাতে উৎপাদন বাড়ে,' ইত্যাদি ইত্যাদি। এক সপ্তাহ বাদে আমার চোখে ভিরমি লাগল— দেখি, সেই শ্রমিক নেতা ইঞ্জিনিয়ারিং কোম্পানির একটা গাড়ি নিয়ে সারা কলকাতা আর চব্বিশ পরগনা চক্কর দিচ্ছেন। এই রকম ছোট ছোট অনেক ঘটনা আছে। এবং মানুষ বোকা নয়, তাঁরা সবই দেখেছেন, প্রথম দিকে নিঃশব্দে মেনে নিয়েছেন, তার পর এক সময় তিতিবিরক্ত হয়ে ভেবেছেন যে, 'ঢের হয়েছে, আর পারছি না।' সিঙ্গুর, নন্দীগ্রাম, শালবনির পরে যেটা হল, লোকে মনে করল, যে-ই আসে আসুক, এদের আর নয়। তা-ও তো খুব বেশি নয়, ২০০৬ বিধানসভা নির্বাচন থেকে ২০০৯ লোকসভা নির্বাচনে পার্টির ভোটের অনুপাত ছয় শতাংশ কমেছিল, ২০১১'র বিধানসভা নির্বাচনে আরও দুই শতাংশ। কিন্তু এ বারের লোকসভা ভোটে বারো শতাংশ কমে গেল। তিন বছরে একেবারে ধস নেমেছে।
সেটা তো অনেকখানি এই জন্যেই যে, পার্টি ক্ষমতায় ছিল বলে তার সংগঠন ছিল, ক্ষমতা চলে যাওয়ার পরে সেটাও সঙ্গে সঙ্গে...
সংগঠন ছত্রভঙ্গ হয়ে গেছে। আর কিছু কিছু ফালতু লোক যারা এসেছিল তারা সরে গেছে।
আপনি কী ভবিষ্যৎ দেখেন?
আমি একটা কথা খুব স্পষ্ট করে বলছি এবং খুব বিনয়ের সঙ্গেই বলছি। এই নেতৃত্বের কারও সঙ্গেই আমার বৈরিতা নেই, কেউ কেউ আমার বাড়িতে আসেন। তা হলেও আমি বলছি যে, এখন মানুষ কতকগুলো মুখ আর দেখতে চায় না। সেই মুখগুলো যতক্ষণ থাকবে, তারা পার্টির দিকে ফিরবে না। আর মুখগুলো সরাতে যত দেরি করা হবে, তত জনসমর্থন কমে যাবে। এখন বলা হচ্ছে, শুনতে পাই, 'আমরা নভেম্বরে পার্টি কংগ্রেসে সিদ্ধান্ত নেব।' নভেম্বর আসতে এখনও পাঁচ মাস বাকি, ইতিমধ্যে আরও কত সর্বনাশ হবে কে জানে। অথচ আমার মনে পড়ে, ১৯৫০ সালে অবিভক্ত কমিউনিস্ট পার্টি যখন একটা গভীর সংকটে পড়ে, তখন গোপন সভা ডেকে খুব দ্রুত নেতৃত্ব পরিবর্তন করা হয়েছিল।
কিন্তু এটাও কি ঠিক নয় যে, এখন পার্টির যে অবস্থা হয়ে আছে তাতে নেতৃত্বে খুব তাড়াতাড়ি পরিবর্তন করতে চাইলে সমস্যা আরও বেড়ে যাবে?
না, তা হবে না। নতুন নেতৃত্ব এসে পুরনো পার্টিকে আবার নতুন করে গড়তে হবে। এখানে আমার বন্ধুদের অনেকে বলছেন, এই পার্টি দিয়ে আর কিছু হবে না, একটা একেবারে নতুন সংগঠন করতে হবে। আমি তা মনে করি না। এখনও কিছু কিছু মানুষ, অভ্যাসবশত হোক, ঐতিহ্যবশত হোক, ধরে নেন যে বাম মানেই মার্ক্সবাদী কমিউনিস্ট পার্টি। সুতরাং এই জনসমর্থনকে সম্মান জানিয়ে এই পার্টিটাকে সংশোধন করার চেষ্টা করা যাক। এটা হচ্ছে আমার নিজের মত। আমার অনেক ঘনিষ্ঠ বন্ধু আমার সঙ্গে একমত নন।
কিন্তু এটা তো কেবল নেতৃত্ব বদলের ব্যাপার নয়, এখানে তো নীতি এবং কার্যক্রম পরিবর্তনের একটা প্রশ্ন আছে। নতুন ভাবে দেখার দরকার আছে।
পার্টির এ-রকম দুর্দশা হল, তার একটা বড় কারণ, পার্টির সঙ্গে, বিশেষ করে এই রাজ্যের পার্টি নেতৃত্বের সঙ্গে বাইরের যোগাযোগ একেবারে শূন্য হয়ে গিয়েছিল। কারণ আমরা ধরে নিয়েছিলাম যে, ভারতীয় সংবিধান যা-ই বলুক, পশ্চিমবঙ্গের শাসন থেকে আমাদের কেউ বিচ্যুত করতে পারবে না, বিপ্লব হোক বা না হোক, এখানে আমরা একতান্ত্রিক ব্যবস্থা চালু করেছি, সুতরাং বাইরের কারও কথা শোনবার আমাদের দরকার নেই। এখন, আমি ওঁদের একটা কথা বলতে চাই। সেটা হল, 'লেনিন যে গণতান্ত্রিক কেন্দ্রিকতার ব্যবস্থা করেছিলেন, সেটা করেছিলেন একটি বিশেষ অবস্থায়। পার্টি গোপন ছিল, পার্টির একমাত্র লক্ষ্য ছিল বিপ্লব সাধন। একটা গোপন দলকে বিপ্লব সফল করতে হলে অটুট শৃঙ্খলা দরকার এবং সেই কারণেই গোপনীয়তার একান্ত প্রয়োজন। কিন্তু এখন আপনারাই বলছেন, বিপ্লব দূর অস্ত্, পার্টির সভায় মিছিলে আপনারাই বেশ কয়েক বছর হল, 'ইনকিলাব জিন্দাবাদ' উচ্চারণ বন্ধ করে দিয়েছেন। এখন আপনারা এই গণতান্ত্রিক বহুদলীয় ব্যবস্থার মধ্যে নির্বাচনে লড়ে রাজ্যে এবং কেন্দ্রে ক্ষমতায় পৌঁছতে চান। তা হলে দুটো জিনিস করতে হবে। এক, বাইরের পৃথিবীতে কী হচ্ছে সেটা আপনাদের জানা দরকার। দেশের লোকেরা কী বলছে, কী চাইছে এবং আপনাদের সম্বন্ধে কী ভাবছে, এগুলো আপনাদের জানতে হবে, এবং জানতে হলে আপনাদের খোলাখুলি সকলের সঙ্গে কথা বলতে হবে।
দ্বিতীয়ত, আপনারা কী ভাবছেন, কী করতে চাইছেন সেটা বাইরের লোককে জানানো দরকার। আপনারা হয়তো বলবেন, 'আমরা সজাগ আছি, পার্টির ভিতরে সব কিছু আলোচনা করে নিচ্ছি।' কিন্তু এটাই একটা বড় সমস্যা। লেনিন যুগে সোভিয়েত পার্টিতে সর্বস্তরের মতামতকে সমান গুরুত্ব দিয়ে শ্রদ্ধার সঙ্গে শোনা হত। আর হালের পশ্চিমবঙ্গে সেই পবিত্র নীতি নিছক বাঙালি জমিদারিতে পরিণত হয়েছে। নেতারা সভা ডাকেন, লম্বা লম্বা বক্তৃতা দেন, তার পর এক জন দু'জন সাধারণ সদস্য কাকুতিমিনতি করে কিছু বলার চেষ্টা করলেই তাঁকে থামিয়ে দেওয়া হয়, চিঠি লেখার অনুজ্ঞা জানিয়ে সভা শেষ। তা ছাড়া, বাইরের মানুষ দেখছে আপনারা অনেক নীতি-নিয়ম মানছেন না, তাই আপনারা পার্টির ভিতরে কী আলোচনা করছেন সে কথা তাঁরা জানতে চান। এবং সেটা যতক্ষণ আপনারা তাঁদের জানতে না দেবেন, আপনাদের প্রতি মানুষের অবিশ্বাস কমবে না।'
অনেকের মত হল, সিপিআইএমের এই সংকট আসলে বুঝিয়ে দেয় যে, কমিউনিস্ট পার্টির প্রয়োজন ফুরিয়েছে...
যদি দেশ থেকে বাম আন্দোলন উধাও হয়ে যায়, তা হলে গরিব ও মধ্যবিত্তদের ওপর শোষণ অত্যাচার অনাচার মাত্রা ছাড়িয়ে যেতে বাধ্য। যাঁরা বলেন, গোটা দেশের আর্থিক উন্নতি হলেই সঙ্গে সঙ্গে দারিদ্র মিলিয়ে যাবে, তাঁরা বিভ্রান্তিতে ভুগছেন। যদি বাধাবন্ধহীন মুনাফা করার একচ্ছত্র ক্ষমতা সমাজের ওপরের শ্রেণির মানুষের হাতে চলে যায়, তাঁদের বিবেক তাঁদের সংযত হতে বলবে না, যদি বলত তা হলে কোনও শিল্পপতি পাঁচ থেকে দশ হাজার কোটি টাকা খরচ করে মুম্বই শহরে নিজের বসবাসের জন্য বাহারি অট্টালিকা তৈরি করতেন না, যে মুম্বইয়ের ষাট শতাংশ মানুষ ঝুপড়িতে বাস করেন। সুতরাং যত দিন দারিদ্র থাকবে, অসাম্য থাকবে, বামপন্থী আন্দোলনের প্রাসঙ্গিকতা আদৌ কমবে না, বরঞ্চ আরও বাড়বে।




राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने सोमवार को संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में अपने अभिभाषण में मोदी सरकार का रोडमैप पेश किया। उन्होंने ऐसा वातावरण तैयार करने का वादा किया जिसमें स्थायित्व हो और जो पारदर्शी व निष्पक्ष हो। उन्होंने कहा कि कर व्यवस्था को युक्तिसंगत और सरल बनाया जाएगा जो निवेश, उद्यम और विकास के खिलाफ नहीं होगी बल्कि उसे बढ़ाने में सहायक होगी।
संसद के केंद्रीय कक्ष में दिए गए 50 मिनट के अभिभाषण में उन्होंने कहा कि आतंकवाद, चरमपंथ, दंगा और अपराध को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करने की नीति अपनाई जाएगी। राज्य सरकारों से परामर्श करके राष्ट्रीय योजना तैयार की जाएगी ताकि वामपंथी चरमपंथ से उत्पन्न चुनौतियों और सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं पर प्रभावी तरीके से अंकुश लगाया जा सके।अभिभाषण में अल्पसंख्यकों को आश्वासन देते हुए कहा गया कि सरकार भारत की प्रगति में सभी अल्पसंख्यकों को बराबर का भागीदार बनाने के लिए कृतसंकल्प है।
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कहा कि आजादी के 75 साल पूरे होने पर यानी 2022 तक देश के प्रत्येक परिवार का अपना पक्का मकान होगा। जिसमें पानी का कनेक्शन, शौचालय सुविधाएं और चौबीस घंटे बिजली आपूर्ति और आवागमन की सुविधाएं होंगी। हम ऐसी अपमानजनक स्थिति को सहन नहीं करेंगे जिसमें घरों में शौचालय नहीं हों और सार्वजनिक स्थान गंदगी से भरे हों।
उन्होंने 2014 को विगत वर्षों की टकराव की राजनीति से राहत देने वाला वर्ष बताते हुए कहा कि नागरिकों ने ऐसे उदीयमान भारत में स्थिरता, ईमानदारी और विकास के लिए मत दिया, जिसमें भ्रष्टाचार की कोई जगह न हो। सरकार की प्राथमिकताएं गिनाते हुए उन्होंने कहा कि मुद्रास्फीति को रोका जाएगा। सांप्रदायिक दंगों को लेकर 'जीरो टालरेंस' की नीति अपनाई जाएगी और स्वच्छ व कुशल प्रशासन सुनिश्चित किया जाएगा।
राष्ट्रपति ने इस बात को दुर्भाग्यपूर्ण बताया कि स्वतंत्रता के इतने दशकों बाद भी अल्पसंख्यक समुदाय गरीबी से पीड़ित है और सरकारी योजनाओं के लाभ उस तक नहीं पहुंचते हैं। मेरी सरकार भारत की प्रगति में सभी अल्पसंख्यकों को बराबर का भागीदार बनाने के लिए कृतसंकल्प है। सरकार अल्पसंख्यक समुदाय में आधुनिक और तकनीकी शिक्षा का प्रसार करने के उपायों को विशेष तौर पर कारगर बनाएगी और राष्ट्रीय मदरसा आधुनिकीकरण कार्यक्रम शुरू करेगी।
राष्ट्रपति ने कहा कि आर्थिक मोर्चे पर देश काफी कठिन दौर से गुजर रहा है। लगातार दो साल से हमारा जीडीपी विकास पांच फीसद से कम रहा है। अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना हमारी प्राथमिकता है। हम अपनी अर्थव्यवस्था को सतत उच्च विकास पर ले जाने के लिए मिलजुल कर कार्य करेंगे, महंगाई नियंत्रित करेंगे, निवेश चक्र में तेजी लाएंगे, रोजगार सृजन तेज करेंगे और अपनी अर्थव्यवस्था के प्रति घरेलू व अंतरराष्ट्रीय समुदाय का विश्वास बहाल करेंगे।
लोकसभा के नवनिर्वाचित सदस्य, राज्यसभा के सदस्य, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, उनके मंत्रिपरिषद सहयोगी, पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और विपक्ष के अन्य नेताओं ने राष्ट्रपति के 50 मिनट तक चले अभिभाषण को ध्यान से सुना। अभिभाषण के दौरान कई मौकों पर सदस्यों ने मेजें थपथपाकर राष्ट्रपति की घोषणाओं का स्वागत किया।
अपने निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी में चुनाव से पूर्व गंगा को स्वच्छ बनाने का एलान और सरकार गठन के बाद नए गंगा पुनर्जीवन मंत्रालय का गठन करने वाली नरेंद्र मोदी सरकार ने कहा कि वह गंगा की पवित्रता बनाए रखने के लिए सभी उपाय करेगी। गंगा नदी जो लाखों लोगों के लिए आस्था का प्रतीक और जीवन रेखा है, हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा है।
विदेश नीति के बारे में राष्ट्रपति ने कहा कि सरकार की अपने अड़ोस-पड़ोस के माहौल को शांतिपूर्ण व स्थिर रखने और आर्थिक रूप से जोड़ने की दिशा में प्रतिबद्धता और संकल्प को दर्शाती है जो दक्षिण एशियाई क्षेत्र के सामूहिक विकास और समृद्धि के लिए अनिवार्य है।
उन्होंने कहा कि पूर्वोत्तर क्षेत्र में घुसपैठ और अवैध प्रवासियों के मुद्दे को प्राथमिकता से निपटाया जाएगा और सीमा पर बाड़ लगाने के रुके हुए कार्य को जल्द पूरा किया जाएगा।
मुखर्जी ने कहा कि ये सुनिश्चित करने के लिए विशेष प्रयास किए जाएंगे कि कश्मीरी पंडित अपने पूर्वजों की भूमि पर पूर्ण गरिमा, सुरक्षा और सुनिश्चित जीविका के साथ लौटें। उन्होंने कहा कि सरकार उसे मिले जनादेश को पूरा करने के लिए सही वातावरण तैयार करने के लिए प्रतिबद्ध है। इसके लिए सरकार 'सबका साथ, सबका विकास' सिद्धांत को अपनाएगी। हम लोकतांत्रिक संस्थाओं की विश्वसनीयता को पुन: कायम करने के लिए साथ मिलकर कार्य करेंगे। मेरी सरकार 'न्यूनतम सरकार, अधिकतम सुशासन' के मंत्र पर कार्य करेगी।
अभिभाषण में कहा गया कि सरकार गरीबों के प्रति समर्पित है। गरीबी का कोई धर्म नहीं होता है। भूख का कोई पंथ नहीं होता और निराशा का कोई भूगोल नहीं होता। हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती भारत में गरीबी के अभिशाप को समाप्त करना है। मेरी सरकार केवल निर्धनता हटाने से संतुष्ट नहीं होगी बल्कि यह गरीबी के समग्र उन्मूलन के लक्ष्य के प्रति वचनबद्ध है। विकास पर पहला हक गरीब का है और सरकार अपना ध्यान उन पर केंद्रित करेगी, जो जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित हैं। सरकार सहानुभूति, सहायता और सशक्तीकरण द्वारा सभी नागरिकों को हर तरह की सुरक्षा मुहैया कराने के लिए जरूरी उपाय करेगी।
महंगाई रोकने को सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता बताते हुए उन्होंने कहा कि विभिन्न कृषि और कृषि आधारित उत्पादों के आपूर्ति पक्ष को सुधारने पर बल दिया जाएगा।  सरकार जमाखोरी और कालाबाजारी को रोकने के लिए प्रभावी कदम उठाएगी। सरकार सर्वोत्तम प्रक्रियाओं को अपनाते हुए सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार करेगी। सरकार इस साल सामान्य से कम मानसून की संभावना के प्रति सतर्क है और इसके लिए उपयुक्त योजनाएं तैयार की जा रही हैं।
राष्ट्रपति ने कहा कि भारत संघीय व्यवस्था वाला देश है। परंतु काफी वर्षों से इसकी संघीय भावना को कमजोर किया गया है। राज्यों और केंद्र को सामंजस्यपूर्ण 'टीम इंडिया' के रूप में काम करना चाहिए। राष्ट्रीय मुद्दों पर राज्यों के साथ सक्रियता से कार्य करने के लिए केंद्र सरकार राष्ट्रीय विकास परिषद, अंतरराज्यीय परिषद जैसे मंचों को पुन: सशक्त बनाएगी।
राष्ट्रपति ने कहा कि राज्य सरकारों से परामर्श करके राष्ट्रीय योजना तैयार की जाएगी ताकि वामपंथी चरमपंथ से उत्पन्न चुनौतियों और सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं पर प्रभावी तरीके से अंकुश लगाया जा सके। सरकार सुरक्षा बलों को आधुनिकतम तकनीक से सुसज्जित करने और इनके कामकाज की स्थिति सुधारने के लिए कदम उठाएगी।
भ्रष्टाचार से निपटने के लिए लोकपाल को महत्त्वपूर्ण मानते हुए उन्होंने कहा कि वह स्वच्छ और कुशल प्रशासन प्रदान करने को प्रतिबद्ध है। लोकपाल, भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के लिए महत्त्वपूर्ण संस्था है और सरकार अधिनियम के अनुरूप नियम बनाने का प्रयास करेगी।
न्याय में विलंब को अन्याय बताते हुए प्रणब ने कहा कि सरकार न्यायाधीशों की संख्या को चरणबद्ध ढंग से दोगुनी करने के लिए कदम उठाएगी। सरकार न्यायिक प्रणाली में बड़ी संख्या में लंबित मामलों की समस्या को दूर करने के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाएगी। उन्होंने कहा कि सरकार ने कश्मीरी पंडितों को पूरी गरिमा, सुरक्षा और सुनिश्चित जीविका के साथ घाटी में वापस भेजने का इरादा किया है। अपने कार्यकाल के दौरान सरकार इस मुद्दे पर विशेष रूप से ध्यान देगी। भाजपा ने अपने चुनावी घोषणापत्र में कश्मीरी विस्थापितों की वापसी और पुनर्वास का जिक्र किया था। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक घाटी में जब 1990 में आतंकवाद ने सिर उठाया तो कश्मीरी पंडितों के 24,202 परिवार विस्थापित हो गए। जम्मू कश्मीर राजस्व व राहत मंत्रालय के साथ अब तक 38,119 परिवार पंजीकृत हैं।


সংস্কারের পথেই সেরা ভারত, প্রণবের বক্তৃতায় বার্তা মোদীর

নিজস্ব সংবাদদাতা

নয়াদিল্লি, ১০ জুন, ২০১৪,



আগামী দিনগুলিতে কোন পথে এগোবে তাঁর সরকার, আজ রাষ্ট্রপতির অভিভাষণের মাধ্যমে এই প্রথম তা নথি আকারে পেশ করলেন প্রধানমন্ত্রী নরেন্দ্র মোদী।
মন্ত্রক ধরে ধরে মোদী বলে দিলেন, ভোট প্রচারে তিনি যে নতুন ভারতের স্বপ্ন দেখিয়েছেন, কী ভাবে তার রূপায়ণ করতে চাইছেন তিনি। রাষ্ট্রপতির মুখ দিয়েই বলিয়ে দিলেন নিজের তিনটি স্লোগান, 'সর্বনিম্ন সরকার, সর্বোচ্চ প্রশাসন', 'এক ভারত, শ্রেষ্ঠ ভারত' ও 'সকলের সহযোগ, সকলের বিকাশ'। এর মাধ্যমেই মোদী তুলে ধরলেন একটি ব্র্যান্ড-ভারতের রূপরেখা।
কী ভাবে তুলে ধরলেন এই নতুন ভারতের ভাবনাকে?
সংসদের সেন্ট্রাল হলে সনিয়া গাঁধী ও মনমোহন সিংহের উপস্থিতিতেই মোদী স্পষ্ট করে দিলেন, ইউপিএ জমানার মূল্যবৃদ্ধি, দুর্নীতি, নীতিপঙ্গুত্ব দূর করে অর্থনীতির মোড় ঘোরানোই তাঁর লক্ষ্য। গরিবদের মান উন্নয়ন করা যেমন তাঁর অগ্রাধিকার, তেমনই স্বচ্ছ প্রশাসনের মাধ্যমে বিনিয়োগকারীদের আস্থা ফেরানোও তাঁর বড় চ্যালেঞ্জ। দীর্ঘদিন ধরে লালিত রাষ্ট্রীয় নিয়ন্ত্রণ ব্যবস্থাকে তুলে দিয়ে একটি দক্ষিণপন্থী খোলা বাজারের অভিমুখই তিনি গ্রহণ করতে চলেছেন, রাষ্ট্রপতির বক্তৃতায় স্পষ্ট রইল সেটিও। বিশেষ করে ইউপিএ জমানায় যে ভাবে সামাজিক ক্ষেত্রকে অধিক গুরুত্ব দেওয়া হয়েছিল, কথায় কথায় আইন করে বিভিন্ন অধিকার সুনিশ্চিত করা হয়েছিল, সে পথে হাঁটবেন না মোদী। বরং মানুষকে স্বাবলম্বী করে তাঁদের নিজের পায়ে দাঁড় করিয়ে রোজগার বাড়ানোর উপরেই জোর দিতে চান।
তবে এই যাত্রাপথের সূচনা যে আদৌ মসৃণ নয়, সে কথাও কবুল করেছেন মোদী। রাষ্ট্রপতির  বক্তৃতায় উঠে এসেছে, লাগাতার দু'বছর বৃদ্ধির হার ৫ শতাংশের নীচে থাকার কথা। কমেছে কর সংগ্রহ। হতাশায় মুখ ফিরিয়ে নিয়েছেন লগ্নিকারীরাও। তার উপর কৃষি ক্ষেত্রকে তিনি অভিনব  নানা পথে লাভজনক করে তুলতে চাইলেও আশঙ্কা রয়েছে অনাবৃষ্টিরও। এই অবস্থায় জরুরি ভিত্তিতে বিকল্প প্রস্তুতির পাশাপাশি সরকারি তন্ত্রের খোলনলচেও বদলে ফেলতে চাইছেন মোদী। ইউপিএ জমানায় সনিয়া গাঁধী ও মনমোহন সিংহের দ্বৈত ক্ষমতাকেন্দ্রের জন্য প্রধানমন্ত্রীর রাজনৈতিক কর্তৃত্বের যে অভাব ছিল, এ বারে একদলীয় জনমতের জন্য সেই সমস্যা থাকার কোনও কথাও নয়। এই বিপুল জনমতের জোরেই জয়ললিতার আপত্তি সত্ত্বেও যেমন তিনি শপথের অনুষ্ঠানে আমন্ত্রণ জানিয়েছেন শ্রীলঙ্কার প্রেসিডেন্টকে, সরকারের যাবতীয় সিদ্ধান্ত নেওয়ার সময়ও তাঁর প্রয়োজন নেই কাউকে পরোয়া করার। মন্ত্রিগোষ্ঠী বিলোপের মাধ্যমেই মোদী বুঝিয়ে দিয়েছিলেন, তাঁর জমানায় সিদ্ধান্ত হবে চটজলদি। আমলাদেরও দেওয়া হচ্ছে ঢের বেশি স্বাধীনতা, যাতে তাঁদের মনোবল বাড়ে। সরকারের কাজ হবে সব বিষয়ে স্বচ্ছ নীতি রূপায়ণ করা। যাতে সরকারের উপরেও সকলের আস্থা থাকে। মানুষ অনেক বেশি অংশীদার হয়ে ওঠে সরকারের কর্মযজ্ঞে।
আর এই দর্শনের উপরে দাঁড়িয়েই আজ মোদী রাষ্ট্রপতির বক্তৃতার মাধ্যমে ঘোষণা করলেন কিছু স্বল্প ও কিছু দীর্ঘমেয়াদি প্রকল্প। পরিকাঠামো ক্ষেত্রে বিপুল জোয়ার এনে দেশি-বিদেশি লগ্নিকারীদের জন্য বিশাল বাজার খুলে দিলেন। পুরনো অকেজো আইন বাতিল করে প্রশাসনিক জটিলতা ও কর কাঠামোয় সরলীকরণের পথনির্দেশিকাও পেশ করলেন। প্রথমেই জোর দিলেন গ্রামীণ উন্নয়নে। কিন্তু সেখানেও বুঝিয়ে দিলেন, গ্রাম ও শহরের মধ্যে কোনও বিভেদ নেই। নতুন শহর নির্মাণের পাশাপাশি গ্রামেও পৌঁছে দেবেন শহরের সুবিধা। গ্রামে-গ্রামে পৌঁছে দিতে চাইছেন ইন্টারনেটের সুবিধা। ভোট প্রচারে সব বাড়ি পাকা করে সেখানে ২৪ ঘণ্টা বিদ্যুৎ, পানীয় জল পৌঁছে দেওয়ার প্রতিশ্রুতি দিয়েছিলেন। মোদী আজ স্পষ্ট করলেন, পাঁচ বছরে নয়, এই প্রকল্প রূপায়ণ করতে লেগে যাবে আরও আট বছর। মোদী এটাও বোঝালেন যে, জনমত পাঁচ বছরের হলেও লম্বা ইনিংস খেলতেই মাঠে নেমেছেন তিনি। ফলে আগামী পাঁচ বছর এমন কাজই তিনি করতে চান, যাতে পরের পাঁচ বছরেও ভিতও তৈরি হয়ে থাকে।
বিরোধী পক্ষে থাকার সময় বরাবরই বিজেপি অভিযোগ তুলে এসেছে, কংগ্রেস সংখ্যালঘুদের তোষণ করে আসছে। কিন্তু মোদীর দর্শন ছিল, সকলের জন্য উন্নয়ন। গুজরাতেও তিনি উন্নয়নে শরিক করেছেন সকলকে। এ বারে প্রধানমন্ত্রীর কুর্সিতে বসেও সেই কথাই রাষ্ট্রপতির মাধ্যমে বললেন তিনি। মাদ্রাসার আধুনিকীকরণের কথা বললেও সংখ্যালঘুদের সমান সুযোগ দেওয়ার কথা বলে তিনি চেনা ছন্দেই হাঁটলেন। একই পথ ধরলেন তফসিলি জাতি-উপজাতি ও অন্যান্য পিছিয়ে পড়া শ্রেণির ক্ষেত্রেও। সব ধর্মের তীর্থস্থলকে সমান গুরুত্ব দেওয়া, নতুন ৫০টি পর্যটন সার্কিট চালুর কাজকেও মিশন হিসেবে দেখার কথা জানালেন মোদী।
প্রধানমন্ত্রী আজ স্পষ্ট করে দিয়েছেন, তিনি যেমন ব্যবসা-বান্ধব হবেন, তেমনই যাঁদের ভোটে তিনি জিতে এসেছেন, তাঁদের আশা ও স্বপ্ন পূরণও তাঁর অগ্রাধিকার হবে। রাষ্ট্রপতি প্রণব মুখোপাধ্যায় বক্তৃতায় জানিয়েছেন, তাঁর সরকার গরিবদের জন্য দায়বদ্ধ। গরিবের কোনও ধর্ম হয় না, খিদের কোনও জাত হয় না, হতাশার কোনও ভূগোল হয় না। দারিদ্রের অভিশাপ থেকে মুক্তি দেওয়া এই সরকারের লক্ষ্য। এবং এমন নীতিতে বিশ্বাসী একটি দলকে ত্রিশ বছর পর জাত-পাত-ধর্মের ঊর্ধ্বে উঠে সরকারে বসিয়েছে জনতা। আশার এই নির্বাচন ভারতের গণতন্ত্রেও এক নতুন মোড়।
ভোট প্রচারেই আশার সঞ্চার করেছিলেন। এখন সরকারে এসে মোদী দিলেন নির্দিষ্ট রূপরেখা। মন্ত্রক ধরে ধরে। বলে দিলেন, মূল্যবৃদ্ধি রুখতে সরবরাহ ব্যবস্থা ঠিক করা হবে। যে প্রস্তাব তিনি প্রধানমন্ত্রী থাকার সময় মনমোহনকে দিয়েছিলেন। গণবন্টন ব্যবস্থা ঢেলে সাজার সঙ্গে বন্ধ করা হবে কালোবাজারি, মজুতদারি। কৃষি পরিকাঠামোয় সরকারি ও বেসরকারি বিনিয়োগ বাড়ানো হবে। বিজ্ঞান ও প্রযুক্তিকে কাজে লাগিয়ে লাভজনক করে তোলা হবে কৃষি ক্ষেত্রকে। একটি নতুন জমি ব্যবহার নীতি রূপায়ণ করা হবে, যার মাধ্যমে চাষের অযোগ্য জমি চিহ্নিত করে উৎপাদন বাড়ানো হবে। গুজরাতে সফল পরীক্ষার পর এক-এক জলবিন্দুর প্রয়োগ করে সেচ ব্যবস্থাকেও ঢেলে সাজা হবে।
যুবকদের হাতের কাজ, প্রশিক্ষণের ব্যবস্থা করার প্রতিশ্রুতিও দিয়েছে সরকার। এমপ্লয়েন্টমেন্ট এক্সচেঞ্জের নাম বদলে করা হচ্ছে কেরিয়ার সেন্টার। ভুরি-ভুরি অনলাইন কোর্সে গুণমান যাতে হারিয়ে না যায়, তার জন্য চেষ্টা করা হবে। সব রাজ্যে গড়া হবে আইআইটি, আইআইএম, এইমসের ধাঁচে হাসপাতাল। জাতীয় ক্রীড়া প্রতিভা সন্ধানের জন্য একটি নতুন নীতি রূপায়ণ করে গ্রাম থেকে যোগ্য ব্যক্তিদের তুলে আনা হবে। নেওয়া হবে নতুন একটি স্বাস্থ্য নীতি।
জোট রাজনীতির বাধ্যবাধকতায় যে মহিলা সংরক্ষণ বিল পাশ করাতে পারেনি ইউপিএ সরকার, এ বারে তা পাশ করানোর ব্যাপারে দায়বদ্ধতাও প্রকাশ করলেন মোদী। উৎপাদন শিল্পকে চাঙ্গা করতে শ্রম-ভিত্তিক শিল্পে জোর দেওয়া হবে। পাশাপাশি পেনশন ও স্বাস্থ্য বিমাও দেওয়া হবে শ্রমিকদের। ডেডিকেটেড ফ্রেট করিডর ও শিল্প করিডরের পাশে বিশ্ব মানের বিনিয়োগের ক্ষেত্র প্রস্তুত করে কেন্দ্র ও রাজ্যের এক-জানলা পদ্ধতিও চালু করতে চাইছেন প্রধানমন্ত্রী। রফতানিতে উৎসাহ দেওয়া, হাই-স্পিড ট্রেনের চতুর্ভুজ সংযোগ, কৃষি-রেল নেটওয়ার্ক, নতুন বন্দর, বন্দরের সঙ্গে রেল-সড়ক যোগাযোগ গড়াও রয়েছে সরকারের কাজের তালিকায়।
মোদীর এই ব্র্যান্ড ভারত সম্পর্কে এখনই নেতিবাচক কোনও মন্তব্য করার অবস্থায় নেই কংগ্রেস। তাদের নেতা আনন্দ শর্মা এ দিন বলেছেন, "সংসদে মহিলা সংরক্ষণ বিল পাশ ও পরমাণু চুক্তি কার্যকর করার ঘোষণাকে আমরা স্বাগত জানাচ্ছি। আর বাকি বিষয়গুলি সম্পর্কে এটাই বলার যে, কাজগুলি কিন্তু করে দেখাতে হবে।"
মোদীর বিশ্বাস, তিনি পারবেন। রাষ্ট্রপতির বক্তৃতায় আজ সেই বিশ্বাসটাই তুলে ধরলেন তিনি।

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