breathed his last
Tuesday, October 14, 2014
Lok Sabha MP Kapil Krishna Thakur (78) breathed his last আমাদের মধ্যে আর নেই সংসদে হরিবোল করা মতুয়া সঙ্ঘাধিপতি কপিল কৃষ্ণ ঠাকুর
breathed his last
Monday, October 13, 2014
हमारे मुद्दे दूसरे हैं। हमारे मुद्दे युद्धक कारपोरेट मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था में कृषि,कारोबार और उत्पादन प्रणाली में जारी नरसंहार के हैं। हम किसी भी स्तर पर स्त्री के चरित्रहनन के खिलाफ हैं तो नरसंहार संस्कृति में स्त्री के इस्तेमाल उत्पीड़न के भी खिलाफ है हम! पलाश विश्वास
हमारे मुद्दे दूसरे हैं।
हमारे मुद्दे युद्धक कारपोरेट मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था में कृषि,कारोबार और उत्पादन प्रणाली में जारी नरसंहार के हैं।
हम किसी भी स्तर पर स्त्री के चरित्रहनन के खिलाफ हैं तो नरसंहार संस्कृति में स्त्री के इस्तेमाल उत्पीड़न के भी खिलाफ है हम!
पलाश विश्वास
संविधान बचाओ देश बचाओ देशभक्त नागरिकों!
हमारे मुद्दे युद्धक कारपोरेट मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था में कृषि,कारोबार और उत्पादन प्रणाली में जारी नरसंहार के हैं।
इसीलिए इसी सिलसिले में मित्रों,अमित्रों,आज कुछ बेतरतीब बातें करने की इजाजत हूं और शायद अगले पखवाड़े में यही सिलसिला जारी रहना है छिटपुट उपलब्ध कनेक्टिविटी के साथ क्योंकि पीसी तो सोदपुर छूटा जा रहा है और टैब और ऐप्स का अभ्यस्त नही हूं।घर में जो पीसी है,उसकी कनेक्टिविटी का अंदाज नहीं है।फिर दौड़ भाग भी खूब होनी है और मोबाइल पर मैं सोसल नेटवर्किंग कर नहीं सकता।
सिलसिलेवार बातें कोलकाता लौटकर होनी है।फिलवक्त यात्रा पर जाते जाते बेहद जरुरी बातें करनी हैं।जिनपर आगे सिलसिलेवार चर्चा बी करेंगे ,अगर मौका हुआ और सकुशल सोदपुर लौटना हुआ।
आगे किस किनारे बंधेगी अपनी नाव,कुछ भी पता नहीं है।
हो सकता है कि इस बार आखिरी बार अपनी माटी को छूने का मौका है।
आखिरीबार हिमालय को छूने का कार्यक्रम भी हो सकता है यह।
दोस्तों से मुलाकातें भी आखिरी हो सकती हैं।
हालात संगीन है और हम मुक्तबाजारी युद्ध गृहयुद्ध के कुरुक्षेत्रे धर्मक्षेत्रे अपनी नियतिबद्ध परिणति के इंताजार में हैं।
दोस्त सारे महामहिम होते जा रहे हैं और आम लोगों के महामहिमों से संवाद के अवसर होते नहीं हैं।
आगे सिर्फ पिछवाड़ा है।
सामने कुछ भी नहीं है।
हम अब अतीत में जी रहे हैं और वर्तमान हमें लील रहा है।
फिर हो सकता है कि जिंदगी मौका दें न दें।जिंदगी जो अबूझ पहेली है कि गले मिलने का फिर मौका मिले न मिले, न गिले न शिकवे का फिर कोई मौका बने न बने।जिनके होने के लिए हम हैं,जो गुलमोहर की धूप छांव हैं,वे हो न हो।
हो सकता है कि मित्रों में कुछ विश्वसुंदरी की तर्ज पर नोबेलिया हो जायें।जेएनयू के किसी कवि या कोलकाता के किसी कथाकार के नोबेल बन जाने की प्रबल संभावना है जैसे हमारे पुरातन सारे सहकर्मी और मित्र संपादक हो गये हैं और हम वही डफर के डफर रहे।
प्रीमियम रेट पर रेलयात्रा की औकात हो यान हो और न जाने किस बंद गली में कैद रहे बाकी जिंदगी।अपनी माटी की खुशबू में समाहित हो आने का संजोग कोईबने न बने।अनियंत्रित विनियमित बाजार के अबाध पूंजी प्रवाह और न्यूनतम राजकाज में हम जैसे लोगों का क्या हश्र होगा कौन जाने।
देश की सबसे धनी महिला अब छनछनाते विकास बांटेंगी वंचितों को और देश को युद्धक अर्थव्यवस्था बनाने का जिम्मा जिस कंपनी का है ,उसका संविधान दशकों बाद बदल रहा है।कारोबारियों को ईटेलिंग में प्रतिस्पर्धा करने की सलाह दी जा रही है।हीरक चतुर्भुज में हम फिर कहा मिले या न मिले ,क्या ठिकाना है।
हमारे मुद्दे दूसरे हैं।
हमारे मुद्दे युद्धक कारपोरेट मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था में कृषि,कारोबार और उत्पादन प्रणाली में जारी नरसंहार के हैं।
हमारे मुद्दे आम जनता के खिलाफ राष्ट्र के नस्ली युद्ध के हैं।हमारे मुद्दे भारतीय लोक गणराज्य का भविष्यसे जुड़े हैं।रहेंगे।क्योंकि हम सर्फ नागरिक हैं।महामहिम पार्टीबद्ध नहीं हैं और न होंगे।
बाबासाहेब अंबेडकर का भी हो सकता है कि कोई जाति पूर्वग्रह रहा हो और जाति उन्मूलन के उनके एजंडे में खामियां भी रही हों,हो सकता है कि उनका अर्थशास्त्र मौलिक भी न हो।
हो सकता है कि हिंदुत्व के मुद्दों पर उनके खुलासे में इतिहास बोध न हो और न उनके बनाये संविधान में कोई वैज्ञानिक दृष्टिकोण हो।
बाबासाहेब के बचाव के लिए हम कुछ कहना नहीं चाहेंगे क्योंकि बाबासाहेब की ऊंचाई हालिल किये बिना हम मंतव्य करने की हालत में नहीं है।पद,प्रतिष्ठा और संपन्नता में जो हमसे बेहतर हैं,वे बोलें लिखें,उनकी अभिव्यक्ति का हम सम्मान करते हैं।
वर्णवर्स्वी दुर्गा पूजा और महिषासुर वध के लिए स्त्री मिथक के पक्ष विपक्ष के मिथकों के हम खिलाफ हैं क्योंकि हम किसी भी स्तर पर स्त्री के चरित्रहनन के खिलाफ हैं तो नरसंहार संस्कृति में स्त्री के इस्तेमाल उत्पीड़न के भी खिलाफ है हम।
हम जेएनयू कैंपसे अस्मिता अभियान के खिलाफ रहे हैं और हमारी कोशिश देश तोड़ने की नहीं जोड़ने की है।
हम किसी खेमे में नहीं हैं और हिंदुत्व के एजंडे का विरोध करने के बावजूद देशभक्त निष्ठावान समर्पित संघ परिवार के कार्यकर्ताओं का हम सम्मान करते हैं और इसीलिए मोदी के राजकाज के उजले पक्ष पर हम कालिख नहीं पोत रहे हैं।
हम इंदिरा और नेहरु की आलोचना कर रहे हैं और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर वाम पाखंड का भी विरोध कर रहे हैं।
नरसंहार संस्कृति वाम दक्षिण नहीं होती है,वह सत्ता वर्ग की वर्णवर्चस्वी और नस्ली संस्कृति है।
हम महिषासुर प्रकरण में महिषासुर पूजा के उतने ही खिलाफ हैैं जितना आस्था के बहाने अश्लील वर्णवर्चस्व और नस्ली घृणा के दुर्गोत्सव का और इसे हम धार्मिक मामला नहीं मानते हैं और न जाति का मामला।
लोकतंत्र का तकाजा है कि जैसे धार्मिक माने जानेवाली कुप्रथाओं का अब तक निषेध होता रहा है,उसीतरह भ्रूण हत्या,आनर किलिंग,दहेज समेत नरसंहार की स्त्रीविरोधी आदिवासी और दलित विरोधी प्रथाओं का भी अंत हो।
हम यह भी मानते हैं कि भारतीय संविधान में अनेक गड़बड़ियां रह सकती हैं जैसे धर्मग्रंथों और मिथकों में भी होती हैं।
मानवाधिकार और सभ्यता के लिहाज से उनमें संशोधन अवश्य होने चाहिए।लेकिन देशी विदेशी कंपनियों,वर्ण वर्चस्व और नस्लभेद के मनुस्मृति शासन को लागू करने के लिहाज से इतिहास और संविधान संशोधन के हम विरुद्ध हैं।
हम कानून के राज के पक्ष में हैं तो लोकतंत्र के पक्ष में भी।एकपक्षीय सांस्कृतिक वर्चस्व के किलाप अपर संस्कृति के वक्तव्य को बाकायदा पुलिसिया राष्ट्र के दमन तंत्र के तहत दबाना और बहुसंख्य का उसके पक्ष में खड़े हो जाने के विरुद्ध हम हैं।
राष्ट्रतंत्रमें बुनियादी परिवर्तन के लिए हम भारतीय संविधान में भी परिवर्तन के पक्ष में हैं।वोट बैंक के गणित,मुक्त बाजार और युद्धक अर्थव्यवस्था के देशी विदेशी हितों के मद्देनजर विशुद्ध कारपोरेट लाबिइंग के तहत काननून और संविधान बदलने के देश बेचो अभियान का हम हर हल में विरोध करेंगे और इसीलिए हम संविधान बचाओ देश बचाओ अभियान भी चला रहे हैं।
आप आस्था के नाम पर आदिवासियों की हत्या का जश्न मना सकते हो और उन पर अपना ध्रम और मिथक थोंप सकते हों तो उनका भी अधिकार बनता है,इतिहास को अपने नजरिये से गढ़ना और अपने मिथकों को सार्वजनिक करना।
हो सकता है कि यह विशुद्ध राजनीति हो,लेकिन सत्तावर्ग को अपनी राजनीति में अपनी आस्था का इस्तेमाल जायज है तो आदिवासियों और वंचितों की राजनीति का हम हर स्तर पर विरोध करें तो यह लोकतंत्र के खिलाफ है।
हम फारवर्ड प्रेस का समर्थन नहीं कर रहे हैं और न दुर्गा को गणिका बताते हुए महिषासुर मिथक का।
हम मनावाधिकार के हक में खड़े हैं जिसके तहत नरहत्या गलत है,गैरकानूनी है और असुर भी मनुष्य हैं,आदिवासी हैं।ओबीसी भी हैं,उन शूद्र राजाओं के वंशज जो अठारवीं सदी तक इस देश के विबिन्न हिस्सों पर राज करते रहे हैं।
हम सत्तापक्ष के अलावा विपक्ष की अभिव्यक्ति का भी सम्मान करते हैं और असहमत होने के बावजूद उसके खातिर लड़ सकते हैं।
लेकिन जैसा कि हमने कहा कि हमारे मुद्दे मिथक नहीं,सामाजिक यथार्थ हैं।
हमारा नजरिया भाववादी नही है,वस्तुवादी है और हम किसी भी तरह के अस्मिता आधारित ध्रूवीकरण के बजाय वर्गीय ध्रूवीकरण के पक्षधर हैं।
अपने पुरातन और बेहद कामयाब सहकर्मी संपादक सुमंत भट्टाचार्य के हस्तक्षेप पर लगे फेसबुकिया मंतव्य पर दो बातें कहनीं हैं।
उन्होंने बिल्कुल ठीक कहा है कि मिथकीय महिमांडन नहीं होना चाहिए।
हम भी यही अर्ज कर रहे हैं कि दुर्गा की मूर्ति बनायी गयी है और उसीकी पूजा होती है तो इसके विरोध में महिषासुर की मूर्ति बनाकर मिथकीय महिमांडन से भावावेग अंधड़ से हम सामाजिक यथार्थ को संबोधित नहीं कर सकते।
हमारा दुर्गापूजा का विरोध लेकिन मिथकीय महिमामंडन नहीं है और न ही दुर्गा का चरित्र हनन है।किसी भी स्त्रीके ,चाहे वह स्त्री मिथक ही क्यों न हो,उसका चरित्रहनन पुरुषतांत्रिक है।
दुर्गा का मिथक जो भी है और आस्था भी जो है,उसके बारे में हमें कुछ नहीं कहना है।
महिषासुर विवाद का सच किंतु यही है कि देश भर में आदिवासी समाज की पहचान असुरसंस्कृति से जुड़ती है और बंगाल और झारखंड और शायद अन्यत्र भी असुर जातियां हैं।तो उनीकी हत्या का उत्सव क्यों मनाया जाना चाहिए,बुनियादी सवाल यही है।
बुनियादी सवाल है कि अपनी ह्त्या के उत्सव का वे विरोध क्यों नहीं कर सकते।
अगर नरबलि की प्रथा रुक सकती है तो असुर बिरादरी की भावनाओं का सम्मान करते हुुए बिना असुर वध के भी आस्था के उत्सव हो सकते हैं।
बहुसंख्य समुदायों को अल्पसंख्यक समुदायों को मुख्यधारा मे जोड़ने की पहल करनी चाहिए।दूसरी बात यह कि बाकी जो सतीरुपेण देवियां हैं ,वे भी आदिवसी मूल की ही हैं और उनका कहीं कोई विरोध नहीं हो रहा है।
दरअसल सतीपीठों का विमर्श और भैरवों को उनसे जोड़ने का मिथक दरअसल आर्य अनार्य संस्कृतियों का समायोजन रहा है।यह मिथक संस्कृतियों के एकीकरण का है।
दूसरी बात यह है कि आर्य बाहरी है या भीतरी ,इस पर अलग अलग दावे हैं।संघ परिवार तो महाकाव्यों से लेकर वैदिकी साहित्य को भी इतिहास बनाने पर तुले हैं।
इस पचड़े में हम पड़ना नहीं चाहते हैं लेकिन भारत वर्ष में अद्वैत संस्कृति कभी रही हो,ऐसा अभी साबित हुआ नहीं है।
बहुल संस्कृति के देश में अलग अलग नस्लें है और जाति व्यवस्था में इस नस्ली आधिपात्य के भी ऐतिहासिक कारण हैं।जो उत्पादन संबंधों से जुड़े हैं।अर्थव्यवस्था में जन्मजात आरक्षण का स्थाई बंदोबस्त है यह और व्यवस्था बदलने के लिए,राष्ट्रतंत्र में बुनियादी परिवर्तन के लिए हम बाबासाहेब के जाति उन्मूलन एजंडा को प्रस्थानबिंदू मानते हैं।
सांप्रतिक इतिहास में कश्मीर, मणिपुर, संपूर्ण हिमालय, दक्षिण भारत और मध्य भारत,समूचा पूर्वोत्तर और यहां तक कि पूरब के बंगाल,बिहार और ओड़ीशा जैसे राज्यों के प्रति सत्ता वर्चस्व वाले समुदायों का आचरण नस्लवादी है।
हम इस नस्लवादी आचरण को समझे बिना कश्मीर को देश का अभेद्य अंग मानते हैं और हद से हद किसी हैैदर जैसी फिल्म बजरिये मुख्य़धारा के विमर्श के तहत हम अपने अपने स्तर पर कश्मीर का यथार्थ देखते परखते हैं,जबकि कश्मीरियों के नजरिये को हम सिरे से राष्ट्रद्रोही मानते हैं।
मध्यभारत के आदिवासी भूगोल,हिमालय और पूर्वोत्तर के आफसा देश से भी हम जुड़ते नहीं हैं क्योंकि नस्ली वर्चस्व के कारण हम इस अस्पृश्य भूगोल के गैरनस्ली लोगों के नागरिक और मानवाधिकार हनन को राष्ट्रहित में मानते हैं।
फिर भी गनीमत है कि इरोम शर्मिला लेकिन सोनी सोरी की तरह राष्ट्रद्रोही अभी करार नहीं दी गयीं।
दुर्गा के मिथक पर असुरों की टिप्पणी से जो हमारी आस्था को आघात पहुंचता है,वह मिथक सर्वस्व है।
दुर्गा न मूल मिथक में कोई सामाजिक यथार्थ है और न महिषासुर मिथक के आदिवासी विवरण में।
हम दरअसल दो अलग अलग मिथकों के विवाद में है।
इसके विपरीत,गुवाहाटी की सड़क पर नंगी भगायी जाती आदिवासी कन्या और निरंकुश सैन्य शासन के विरुद्ध मणिपुरी माताओं के नग्न प्रदर्शन या सोनी सोरी की आपबीती और ऐसे ही रोजाना देश कि किसी न किसी कोने में गैर नस्ली महिलाओं के उत्पीड़न पर हम विचलित नहीं होते।
सलवा जुड़ुम हमें बतौर नागरिक लज्जित नहीं करता।
न आफसा हमें शर्मिंदा करता है और न हम आधार निगरानी योजना के खिलाप खड़े हो पाते हैं और न निरंकुश बेदखली अभियान या अश्वमेधी राजकाज और सत्ता राजनीति के।
संतान समेत दुर्गावतार की प्रतिमाएं है और वध्य जो असुर है अश्वेत,उसके नस्ली बिंब संयोजन के सौंदर्यबोध में नरसंहार संस्कृति का आक्रामक और अद्यतन सामाजिक यथार्थ है।
हम पहले भी लिख चुके हैं कि दुर्गा बाकी चंडी रुपों की तरह कोई वैदिकी देवी नहीं हैं और दुर्गावतार मिथक वैदिकी है।
यह बंगीय अवदान है.जिसका राष्ट्रीयकरण हुआ है।
वैष्णोदेवी की पूरे देश में आराधना होती है और असुरों को मां के दरबार से कोई ऐतराज नहीं है।इसे समझा जाना चाहिए।
असली दुर्गा पूजा तो बनेदी बाड़ी की पूजा है जो बंगाल के सामंतों की विरासत है,उसीतरह जैसे सतीप्रथा।सतीप्रथा कोई वंचितों और गैरनस्ली लोगों की परंपरा नहीं रही है।
बौद्धमय बंगाल के पतन से पहले जयदेव ने गीत गोविंदम रचा और इस्लामी शासन के दौरान बंगाल में वैष्णव आंदोलन चैतन्य.महाप्रभु का चला।
शैव और शाक्त संप्रदाय आदिकाल से रहे हैं जैसे राजा शशांक शैव रहे हैं।
आधुनिक राजनीतिकों के सार्वजनीन दुर्गोत्सव से पहले बंगाल में कोई दुर्गा संप्रदाय नहीं रहा है।
यह ब्राह्मणों की देवी रही है और दुर्गा का मिथक ब्राह्मणवादी है,यह भी इतिहास विरुद्ध है।
ब्राह्मण को शिव ,काली और विष्णु के उपासक रहे हैं।
दुर्गापूजा इस्लामी मनसबदार राजाओं और अंग्रेजी हुकूमत में जमींदारी की निहायत व्यक्तिगत पूजा रही है,जिसकी अनिवार्य रस्म नरबलि है।
नरबलि तंत्र पद्धति और कापालिक कर्म है और बंगाल और अन्यत्र भी नरबलि और नरसंहार ब्राह्मण जाति का नहीं,बल्कि शासक वर्ग का साझा अश्वमेध राजसूय है।
लेकिन इस नरसंहारी शक्ति में हिंदुत्व के पुरोहितों को शामिल किये बिना इस सर्वजन स्वीकृत बनाया जा नहीं सकता,इसलिए राक्षस रावण को भी ब्राह्मण बना दिया गया।
पूजा समंतों की और पुरोहित ब्राह्मण।
चूंकि प्रजाजनों की कोई भूमिका वध्य बन जाने के सिवाय थी नहीं,इसलिए इस पूजा के कर्मकांड में शामिल होने की योग्यता सिर्फ ब्राह्मणों और सिर्फ ब्राह्मणों को दे दिया गया।
वही रघुकुल रीति चली आ रही है और दुर्गापूजा में भोग रांधने का अधिकार सिर्फ ब्राह्मण को ही है।
किसी और देव देवी की पूजा पद्धति में इतना कठोर अनुशासनबद्ध बहिस्कार नहीं है।
आस्था की लोक परम्परा भी है और उसमें ब्राह्मण या पुरोहित की कोई भूमिका नहीं है।सूर्यउपासना वैदिकी और गैर वैदिकी दोनों है।
यूपी बिहार की लोकभूमि में जो सूर्यउपासना का छठ है ,उसमें न जाति और न नस्ली भेदभाव है और न उगते और डूबते सूर्य को अर्घ देने की कोई विधि है।
आस्था के इस सामाजिक न्याय को भी समझना जरुरी है।
সংবিধান বাঁচাও দেশ বাঁচাও
প্রিয় ভারতবাসী,
ভারতের সংবিধান সারা বিশ্বে গণতন্ত্রের সর্ববৃহৎ এবং সর্বশ্রেষ্ঠ সংবিধান হিসেবে গণ্য করা হয়। গণতন্ত্রপ্রেমী সব দেশ এই সংবিধানকে মহান সংবিধান হিসেবে অভিবাদন করে। এই সংবিধানের জন্যই বিগত ৬৫ বছর ধরে দেশের ২৯টি রাজ্য, ৭টি কেন্দ্রশাসিত অঞ্চল, ২২টি মূখ্য ভাষা, ১৭০০ র বেশী মাতৃভাষা, ৭টি মুখ্য ধর্ম এবং ৬৭৪৮টির বেশী জাতীসমূহের বিভিন্নতা থাকা সত্ত্বেও এদেশের মানুষ সংবদ্ধ নাগরিক জীবন উপভোগ করছে। বিবিধের মাঝে মিলনের এমন সুনিবিড় বন্ধন সারা বিশ্বে বিরল।
ভারতের সংবিধানের ভীত এমন ভাবে গড়া হয়েছে যে, এদেশের প্রত্যেক নাগরিক যেন আর্থিক, সামাজিক, ধার্মিক ও সাংস্কৃতিক মার্গ প্রদর্শন করতে সক্ষম হয়। সমতা, স্বতন্ত্রতা, ন্যায় ও মিত্রতাই এই সংবিধানের মূল উদ্দেশ্য। এই সংবিধান ভারতের প্রত্যেক নাগরিককে ধর্ম, জাতি, লিঙ্গ, ভাষা এবং আঞ্চলিক ভেদাভেদের ঊর্ধ্বে এসে সদ্ভাবনার সাথে জীবন অতিবাহিত করার মৌলিক অধিকার প্রদান করে। আমাদের গর্ব এখানেই যে, ভারতের সংবিধান নির্মাতাগণ দেশকে এমন এক মহান সংবিধান প্রদান করেছেন যেখানে ধ্বনিত হয়েছে ঃ
না থাকবে কেউ ভুখা নাংগা না থাকবে কেউ নিরক্ষর গোয়াড়
সবার হাতে থাকবে কাজ, কেউ হবেনা অন্যায়ের শিকার।
জাতি ধর্ম, লিঙ্গ, ভাষা সব ভেদাভেদ হবে বিনাশ,
রাজা প্রজা কেউ রবেনা সবার হবে সমবিকাশ।
গর্বে ভরা উন্নত শির উন্নত বাণীর উড়বে নিশান
বিশ্ব মাঝে বন্দিত হবে মহান ভারতের সংবিধান।
কিন্তু অত্যন্ত বেদনার সাথে বলতে হচ্ছে যে, বিগত ৬৫ বছের ধরে দেশে যে সরকার গঠন হয়েছে তাদের সমতা, স্বতন্ত্রতা, ন্যায় ও মিত্রতার উপর কোন বিশ্বাস ছিলনা। বরং তারা হাজার হাজার বছরের প্রাচীন অসাম্য ব্যবস্থাকেই টিকিয়ে রাখার উপর বেশী মনযোগী ছিলেন। এই সরকারগুলির দ্বারা সংবিধানের এই বিপ্রতীপ প্রয়োগের ফলে ভারতের মত জনকল্যাণকারী শান্তিপ্রিয় রাষ্ট্র আজ বিচ্ছিন্নতাবাদ, নকশালবাদ, আঞ্চলিকতাবাদ, উৎপীড়ন, দারিদ্র, ভুখমারি, ক্ষুধার্ত, বেকারত্ব ও সাম্প্রদায়িক হানাহানির ক্লেদাক্ত কর্দমে পতিত হয়েছে।
আজ ক্ষমতাসীন শাসকেরা ভারতীয় সংবিধানের মূল কাঠামোকে অগ্রাহ্য করে দেশের জল, জঙ্গল, জমিন এবং সরকারী সম্পদগুলিকে পুঁজিপতি এবং বিদেশি নেকড়েদের কাছে 'দু'কড়িমূল্যে বেঁচে দিয়েছে এবং দেশকে আর্থিক গোলামীর যূপকাষ্ঠের সামনে খাড়া করে দিয়েছে। সংসদীয় গণতন্ত্রে যে জনকল্যাণকারী নির্ণয় সংসদের অভ্যন্তরে নেওয়া প্রয়োজন তা আজ সংসদের বাইরে নেওয়া হচ্ছে যা ভারতের গণতন্ত্র, সংবিধান ও ভারতবাসীকে সরাসরি অপমান। বিশ্বের সর্বশ্রেষ্ঠ লোকতন্ত্রের এমন অসহায় পরিণতিতে দেশবাসী ভারতকে স্বৈরাচারী, ফ্যাসিবাদী রাষ্ট্রে পরিণত হওয়ার দুর্ভাবনায় আতঙ্কিত।
এমন বিকট পরিস্থিতিতে ভারতের একজন আদর্শ দেশপ্রেমী নাগরিক হিসেবে, সংসদীয় গণতন্ত্র রক্ষার জন্য, দেশকে আর্থিক গোলামী থেকে মুক্ত করার জন্য, দেশের প্রত্যেক নাগরিকের সমতা, স্বতন্ত্রতা, ন্যায় ও মিত্রতার নিবিড় বন্ধনে জীবন অতিবাহিত করার জন্য আমাদের কাছে কেবল একটিই মাত্রই উপায় খোলা আছে যা হল ভারতের মহান সংবিধানের প্রতিটি অক্ষর সততার সাথে অনুসরণ করা। আগামী ২৬শে নভেম্বর, ২০১৪ এই বিশ্বমান্য সংবিধানের ৬৫ সাল পূর্ণ হতে চলেছে। এই উপলক্ষে সমস্ত ভারতবাসীকে "সংবিধান জাগৃতি অভিযান", "সংসদীয় লোকতন্ত্র দিবস" পালন করার সংকল্প গ্রহণ করতে আহ্বান জানাচ্ছি।
এই উপলক্ষে ঃ
ক) ভারতের জাতীয় পতাকা এবং সংবিধানের প্রতিরূপ নিয়ে শান্তিপূর্ণ ভাবে, আইনানুগ শৃঙ্খলা পূর্বক বিশাল সংখ্যক জন সমারোহের সাথে র্যালি প্রদর্শন করুন।
খ) ভারতের সংবিধানের উপর আলোচনা চক্র, সেমিনার, প্রদর্শনী, পথনাটক সহ সাংস্কৃতিক কর্মসূচী পালন করুন।
জন সচেতনতা ও জনকল্যাণের জন্য ন্যাশনাল সোশ্যাল মুভমেন্ট অফ ইন্ডিয়া দ্বারা প্রচারিত
Sunday, October 12, 2014
Condemn the raid and attack on Forward Press Magazine
Condemn the raid and attack in the office of Forward Press Magazine following the diktats of Brahmanical forces!
On 9th October, the special branch of Delhi police brazenly attacked and vandalised the Delhi office of Forward Press magazine, a Hindi-English bilingual monthly of Dalits and Bahujans, and forcibly seized copies of their October special issue on Bahujan Sramana Tradition along with arresting fouremployees.The consulting editor of the magazine who is being maliciously targeted and threatened with arrest has stated in a press release that the October issue of the magazine has attempted a Bahujan reading of the story of Mahishasur and Durga through the medium of pictures and essays. This motivated act of police violence following the diktats of Brahmanical forces, is because of the attempt by Forward Press to challenge the dominant myths about Mahishasura. He also added that the police forces were confiscating copies of the magazine from stalls in Delhi without any order of any court or competent authority.On the same night, rabid ABVP goons attacked and assaulted students attending a programme conducted by AIBSF on Mahishashur in JNU. Hoodlums from ABVP even filed an FIR against a student in the Vasant Kunj police station for distributing copies of the article 'Kiski Puja Kar Rahe Hai Bahujan' from the magazine.
This is only a flashpoint in a chain of instances where writers, artists and scholars have faced a backlash from a right-wing bolstered by a communal fascist state and its machinery. When James Laine's book on Shivaji, Paul Courtwright's book on a hindu deity, Wendy Doniger's The Hindus: An alternative history or AK Ramanujan's essay Three Hundred Ramayanas (which was removed from the history syllabus in Delhi University) allegedly 'hurt the sentiments of certain religious communities', it was not only these 'hurt' jingoist guardians 'from Hindu right-wing organisations, but also the high court, universities and home ministry that issued diktats that the books be removed from syllabus, or banned, and even sanctioned arrest warrants and unleashed the police force upon them.
Agents of this state like the newly appointed ICHR chairperson Yellapragada Sudershan Rao or the self appointed custodian of preserving hindu myths, Dinanath Batra, however, are free to make open and rabid casteist and communal statements and celebrate their saffronized reinterpretation of history. At a time when everyone is hysterically brandishing a preposterous peace prize awarded to Kailash Satyarthi, at the same time, any other voice from the marginalized which even remotely challenge the dominant notions of history or even dare to present an alternative reading of the myths face censorship, clamp down and state repression. The incarceration of cultural activists like Sudhir Dhawale, Hem Mishra and many others or clamp down on magazines like Peoples March only reveals one half of the oppressive face of the juggernaut that is the Indian State. The point is that it is not the adherence to a particular ideology or the use of violence that this state suppresses, it attacks and attempts to suppress all democratic voices of dissent even when they follow the politics of parliamentary democracy and Indian constitution. The attack on Forward Press magazine only exposes the true character of the Indian State in cahoots with the oppressive agenda of Hindutva. We condemn the police crackdown on the staff of Forward Press in strongest terms.
BJP's 'Hindu' Model by Anand Teltumbde
BJP's 'Hindu' Model
- Margin Speak
The Sangh Parivar had better understand that their "Hindu" model is never going to work. The more they drive their supremacist project, the more they would alienate people.
Anand Teltumbde (tanandraj@gmail.com) is a writer and civil rights activist with the Committee for the Protection of Democratic Rights, Mumbai.
Notwithstanding Narendra Modi's passionate appeal from the ramparts of the Red Fort for a 10-year moratorium on casteism, communalism and regionalism, the communal intrigues by his Parivar members have not diminished. On the contrary, these manoeuvres reached such cacophonous levels during the campaign for the recent by-polls in nine states that one thought the Bharatiya Janata Party (BJP) had gone back to its old game of doublespeak and deceit. The party had nominated its controversial MP (Member of Parliament) Yogi Adityanath to lead its campaign for the by-poll of 11 assembly seats and one Lok Sabha seat in Uttar Pradesh (UP), along with the state BJP chief Laxmikant Bajpai, and Union Minister of Micro, Small and Medium Enterprises, Kalraj Mishra. The young saffron-clad Adityanath – an MP from Gorakhpur since 1998 – has attained notoriety for his communal antics to become the BJP's Hindutva face. Just two days before Modi's Independence-Day speech, he had spewed communal venom in Parliament under approving nods from Union Home Minister Rajnath Singh, stressing the need for Hindus to unite against minorities. In fact, Sudhanshu Trivedi, the BJP spokesperson, has said that Adityanath was consciously chosen to be the face of BJP's campaign in UP. It is clear that the BJP wanted to communally polarise the people, repeat what Amit Shah had skilfully accomplished in the Lok Sabha elections.
In a previous column ("Back to Monkey Tricks", EPW, 30 August 2014), I had warned that the monkey tricks of the Hindutva brigade would prove suicidal for the BJP if such antics were not arrested in time. The by-poll results have verily borne this out. The BJP, which had handsomely won just four months ago, had held 26 of the 32 assembly seats in the nine states, but it could retain only 12. The biggest hit was in UP, the state where Adityanath led its campaign, where it lost seven of its 11 seats. In Rajasthan and Gujarat, where the BJP had swept the Lok Sabha polls, it lost three seats each. I had also warned against the unwarranted euphoria in the RSS (Rashtriya Swayamsevak Sangh) camp by indicating that despite BJP's landslide win, its core constituency was more-or-less stagnant at around 22% as in previous elections; what made all the difference was the 40 million odd votes of the first-time voters it attracted with its development rhetoric and strategically muted Hindutva. This election surely shows this first-time voters' disapproval of its communal politics. While the BJP could ignore this only to its peril, the broader issue it must introspect upon is the very viability of its communal plank in the future.
Hindutva Hocus-pocus
Notwithstanding its rhetorical posturing on myriad other issues, Hindutva, inherited from its mother organisation, the RSS, constitutes the BJP's ideological core. Howsoever the Sangh Parivar may equivocate about it, Hindutva is nothing but a ploy of the upper caste elites to regain their racist supremacy. India is a land of paradoxes where, at the very basic level, language fails to bear meanings – where freedom could mean slavery, imperialism could signify anti-imperialism, swaraj could convey bondage, national could denote anti-national, and so on, depending on the caste band one identified with.
The fall of Peshwai in 1818 deeply hurt the Chitpawans of Pune, which impelled many of them to take up arms against the British. This was stereotypically taken as anti-imperialist and revolutionary but in reality it was imperialist and reactionary. Essentially, the Peshwas tried to regain their lost kingdom. If they were anti-imperialist, they would have certainly noticed the ubiquitous caste oppression of two-thirds of their own people. Vinayak Damodar Savarkar, the father of "Hindutva", was the last of these "brave revolutionaries", who provided the ideological basis for his people to organise and work for their dream. Muslims and Christians, having largely come from the lower castes, were to be their "Other". The potential threat germinating from the incipient movements of dalits in Maharashtra by the early 1920s also pushed them to group into a fascist form of organisation, the RSS.
Fascism and Nazism in Europe have been the RSS's inspiration. One has only to take a glimpse at Golwalkar's gems of thought to realise how insidious they are. Realising that they could not progress without "brahmanising" the larger masses, the Sanghis created a number of organisations, constituting a continuum, catering to the needs of most social groups. Thus over the years, they succeeded in brahmanising large sections of tribals, dalits, and backward castes. While the other minor dalit castes were easily trapped, the followers of Ambedkar – by far the most bitter critic of brahmanism – were also netted into the "Samajik Samarasata Manch". Today, the BJP has the largest number of SC/ST MPs and MLAs in its kitty. While the Sangh Parivar has succeeded with such subterfuges, its internal contradictions have also grown to limit its rise and sustenance. It does not realise that these contradictions basically stem from the non-definition of its ideological intent. Hindu, Hinduism, Hindutva, Hindustan – its fond lexicon may appear real but is intrinsically unreal and foggy. These words in its vocabulary existed neither in history nor in any other way.
Hindu, Hindutva, Hindustan
Mohan Bhagwat, the Sangh supremo, has a simplistic syllogism that India was Hindustan; the people of Hindustan are Hindus, and hence India is already a Hindu rashtra. He hardly realised that it was not only foolish but also self-defeating as it would imply that the RSS's mission has been accomplished and hence the enterprise should be closed. As one can see, the mission of the Sangh Parivar is rooted either in ignorance or in deceit. The identity the Parivar flaunts is, at best, given to it by foreigners and, at worst, it is an abuse. The word Hindu, in the former interpretation, comes from the Persian mispronunciation of 's' as 'h' to mean people living beyond the river Sindhu. Popular though, this uncritical hypothesis is untenable because there are scores of words in the Persian language starting with 's' (e g, shia, sunni, shariat, sahir, sardar) which are pronounced properly. The connotation with which the Persians and Turks used Hindu is found in their dictionaries and could be very embarrassing to Bhagwat and his Parivar. There, the meaning of Hindu is thief, dacoit, waylayer, slave, obedient servant, and also black-skinned as inHindu-e-falak meaning "the black of the sky and Saturn". Another clue for its derogatory connotation comes from "Hindu Kush", the name of the mountain range bordering central Asia, which means killers of Hindus. In any case, the word Hindu is neither found in Sanskrit nor in any of the native dialects and languages of India.
Hindu never had a religious connotation. The ancient Persian Cuneiform inscriptions and the Zend Avesta refer to the word "Hindu" as a geographic name rather than a religious one. When the Persian King Darius I extended his empire up to the borders of the Indian subcontinent in 517 BC, the ancient Persians referred to the people from the latter as "Hindus". The ancient Greeks and Armenians followed the same pronunciation, and thus, gradually the name stuck.
When it comes to the meaning of Hinduism, its protagonists like Tilak and Radhakrishnan provide its non-definition, including practically any and everything. Ultimately it became a matter for the Supreme Court to decide what it is, which it did in 1966 and again in 1995. In a case filed by the followers of Swaminarayan (1780-1830) claiming to be non-Hindus in order to challenge the applicability of the 1948 Bombay Harijan (Temple Entry) Act, which guaranteed dalits access to all temples, the Supreme Court had defined Hinduism by its tolerance and inclusivity, citing the definitions of Radhakrishnan and some Europeans. Interestingly, it was actually inspired by the desire of certain Hindus to exclude other Hindus (dalits) from their temples. Contrary to the contentions of the Sangh Parivar, its claim that everyone in India is (or should be) a Hindu was never true. It was not true during the millennia before the Indus Valley or the Vedas. And, it was not true of most of India even after the early settlements of north India, and certainly never true after the rise of Buddhism.
The Idea of India
It is time the Sangh Parivar came out of its reveries and realised certain hard facts of history. This country they feign a pride in and devotion to is called India or Bharat and not Hindustan. It is the gift of the colonialists; it never existed before in this shape and size. The Muslims that they love to hate have been part of this land since that 17-year-old lad called Muhammad bin Qasim captured Sindh in the eighth century and paved the way for Islamic expansion, not by the sword as they believe but by Islam's egalitarian appeal to the lower castes, who were oppressed by their Sanatan Dharma. This great subcontinent, so richly endowed, was given a history of slavery by their own supremacist obsession, which eventually led to cataclysmic partition. Even then Muslims make India one of the most populous Muslim nations in the world. Muslim input into Indian culture, of which Muslims are unduly proud, is far more extensive than their numbers would imply. As a matter of fact, much of the archaeological treasures of India are due to them. The "arch", which was unheard of in ancient or even early medieval India, was their bequest. Their contribution to the arts and music is disproportionately high. It is the colonialists, who, driven by their own interests, had given India its modernity and infrastructure, whereas it is their native successors who are milking her dry.
The Sangh Parivar must understand that their "Hindu" model is never going to work. The more they drive their supremacist project, the more they would alienate people. It is better they heed the counsel of Babasaheb Ambedkar, whom they consider pratahsmaraniya:
There is an utter lack among the Hindus of what the sociologists call 'consciousness of kind'. There is no Hindu consciousness of kind. In every Hindu the consciousness that exists is the consciousness of his caste. That is the reason why the Hindus cannot be said to form a society or a nation.
The idea of India is based on the plurality and diversity of its people. It is on these terms alone this multinational country can survive.