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Tuesday, September 22, 2015

आनेवाली पीढ़ियों से - बर्तोल ब्रेख्त


आनेवाली पीढ़ियों से - बर्तोल ब्रेख्त
सचमुच, मैं एक अँधेरे वक़्त में जीता हूँ !
सीधा शब्द निर्बोध हैं। बिना शिकन पडा माथा
लापरवाही का निशान। हँसने वाले को
ख़ौफ़नाक ख़बर
अभी तक बस मिली नहीं है।
कैसा है ये वक़्त, कि
पेड़ों की बातें करना लगभग ज़ुर्म है
क्योंकि उसमें कितनी ही दरिंदगियों पर ख़ामोशी शामिल है !
बेफ़िक्र सड़क के उस पार जानेवाला
अपने दोस्तों की पहुँच से बाहर तो नहीं चला गया
जो मुसीबतज़दा हैं?
यह सच है : कमा लेता हूँ अपनी रोटी अभी तक
पर यकीन मानो : यह सिर्फ़ संयोग है। चाहे
कुछ भी करूँ, मेरा हक़ नहीं बनता कि छक कर पेट भरूँ।
संयोग से बच गया हूँ। (किस्मत बिगड़े,
तो कहीं का न रहूँ)
मुझसे कहा जाता है : तुम खाओ-पीओ ! ख़ुश रहो कि
ये तुम्हें नसीब हैं।
पर मैं कैसे खाऊँ, कैसे पीऊँ, जबकि
अपना हर कौर किसी भूखे से छीनता हूँ, और
मेरे पानी के गिलास के लिए कोई प्यासा तड़प रहा हो ?
फिर भी मैं खाता हूँ और पीता हूँ।
चाव से मैं ज्ञानी बना होता
पुरानी पोथियों में लिखा है, ज्ञानी क्या होता है :
दुनिया के झगड़े से अलग रहना और अपना थोड़ा सा वक़्त
बिना डर के गुजार लेना
हिंसा के बिना भी निभा लेना
बुराई का जवाब भलाई से देना
अपने अरमान पूरा न करना, बल्कि उन्हें भूल जाना
ये समझे जाते ज्ञानी के तौर-तरीके।
यह सब मुझसे नहीं होता :
सचमुच, मैं एक अँधेरे वक़्त में जीता हूँ!
रचनाकाल : 1934-38
मूल जर्मन भाषा से अनुवाद : उज्ज्वल भट्टाचार्य
( सौजन्य - Amar Nadeem )

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