Follow palashbiswaskl on Twitter

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity Number2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

What Mujib Said

Jyoti Basu is dead

Dr.BR Ambedkar

Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti Devi were living

Thursday, September 8, 2016

राजद्रोह का राष्ट्र: आनंद तेलतुंबड़े


राजद्रोह का राष्ट्र: आनंद तेलतुंबड़े


कोई कार्रवाई सचमुच राजद्रोह है, या फिर इसके नाम पर किसी तरह से बोलने की आजादी को कुचलने की कोशिश हो रही है, इसकी पहचान के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने 'फौरन हिंसा' भड़काने की जो कसौटी रखी है, उस पर वो अपने फैसलों में बार-बार जोर देता रहा है जैसा कि एस. रंगराजन वगैरह बनाम पी. जगजीवन राम; इंद्र दास बनाम असम राज्य, और अरुप भुइंयां बनाम बनाम असम राज्य मामलों में देखा जा सकता है. इस संदर्भ में सबसे अहम फैसलों में से एक बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य है, जिसमें दो सिखों पर इंदिरा गांधी की हत्या के दिन खालिस्तान के पक्ष में और भारत विरोधी नारे लगाने का आरोप लगाया गया था. नारे साफ तौर पर भारतीय सार्वभौमिकता और सरकार को कमजोर करते हैं, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने आरोपितों को बरी कर दिया क्योंकि उन्होंने फौरी तौर पर कोई हिंसा नहीं भड़काई थी. सर्वोच्च न्यायालय ने इसे साफ किया कि देश से अलग होने या हिंसक तरीके से सरकारों को उखाड़ फेंकने की हिमायत करना भी राजद्रोह के दायरे में नहीं आता, जब तक कि यह फौरी तौर पर हिंसा को उकसावा न देता हो.

राजद्रोह का राष्ट्र: आनंद तेलतुंबड़े


आनंद तेलतुंबड़े बता रहे हैं कि कैसे आलोचना और असहमति को कुचलने के लिए तथा बोलने की आजादी को खत्म करने के लिए राजद्रोह कानून का इस्तेमाल किया जा रहा है. अनुवाद:रेयाज उल हक
धारा 124 ए... भारतीय दंड विधान की राजनीतिक धाराओं का शायद सरताज है, जिसे नागरिकों की आजादी को कुचलने के लिए बनाया गया है.
-महात्मा गांधी

राजद्रोह (जिसे गलत तरीके से और शायद जानबूझ कर देशद्रोह कहा जा रहा है) फिर से सुर्खियों में है. इस बार इसका आरोप एक समूचे संगठन पर लगा है. दुनिया भर में मानवाधिकारों के लिए काम करने वाले एक अग्रणी एनजीओ की शाखा एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया ने 13 अगस्त को 'ब्रोकेन फेमिलीज़' नाम का एक सेमिनार आयोजित किया था. यह जम्मू और कश्मीर में मानवाधिकारों के हनन का इंसाफ मांगने के अभियान का हिस्सा था. कार्यक्रम के दौरान जब पीड़ित अपनी आपबीती सुना रहे थे तो दक्षिणपंथी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के सदस्यों ने विरोध करना शुरू किया. इसके बाद हुई कहासुनी में कुछ कश्मीरी छात्रों ने आजादी के पक्ष में नारे लगाए. एबीवीपी ने एक एफआईआर दर्ज कराया और बैंगलोर पुलिस को इसके लिए मजबूर किया कि वो एमनेस्टी इंडिया पर 'दुश्मनी को बढ़ावा देने' के आरोप में और धारा 124-ए के तहत मुकदमा दर्ज करे जिसमें अगर कसूर साबित हो गया तो आजीवन कैद की सजा हो सकती है. राज्य की कांग्रेस सरकार ने फजीहत से बचते हुए कहा कि वो जांच के बाद ही इस दिशा में कोई फैसला करेगी. इस बेमतलब के बयान के बावजूद, अगर नारे भारत-विरोधी और पाकिस्तान के पक्ष में थे, तब भी सरकार को यह पता होना चाहिए कि कानूनन यह राजद्रोह के दायरे में नहीं आता.

मौजूदा सत्ताधारी गिरोह द्वारा इस पुराने पड़ चुके कानून का जिस तरह गलत इस्तेमाल किया जा रहा है वो सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की पूरी तरह अवमानना है. इसका मतलब हरेक असहमति को राजद्रोह बना देना है. इस गिरोह ने सरकार, राज्य, राष्ट्र और देश के बीच के फर्क को मिटा दिया है और वो खुद को राष्ट्रवाद और देशभक्ति का साकार रूप मानने लगा है, इसलिए जो कोई भी इसके सामने खड़ा होता है वो खुद ब खुद राजद्रोही बन जाता है. पिछले चुनावों में 69 फीसदी भारतीयों ने उनके पक्ष में वोट नहीं डाला था और उनके प्रति कुछ असहमति जाहिर की थी, और इस दलील के मुताबिक वे संभावित रूप से राजद्रोही हैं, और इस तरह यह दलील इस देश को राजद्रोही लोगों का एक राष्ट्र बना देती है.

औपनिवेशिक विरासत

 
धारा 124-ए का मसौदा मूल रूप से मैकाले के 1837-39 के ड्राफ्ट पीनल कोड (मसौदा दंड संहिता) में बनाया गया था, लेकिन 1860 में लागू हुई आईपीसी में से इसे हटा दिया गया था. इसको 1870 में भारतीय मीडिया, बुद्धिजीवियों और आजादी की लड़ाई लड़ने वालों की असहमत आवाजों को दबाने के लिए लागू किया गया. इसके सबसे शुरुआती मुकदमों में से एक 1891 में  बंगोबासी के संपादक जोगेंद्र चंद्र बोस का मुकदमा था, जो एज ऑफ कॉन्सेंट बिल की आलोचना करने और ब्रिटिश उपनिवेशवाद के नकारात्मक आर्थिक प्रभावों पर टिप्पणी करने के लिए उन पर चला था. इसके बाद अनेक मुकदमे चले, सजाएं हुईं. लोकमान्य तिलक को इस अधिनियम के तहत 1897 में कसूरवार ठहराया गया लेकिन उन्हें 1898 में मैक्स वेबर जैसी अंतरराष्ट्रीय रूप से मशहूर शख्सियत के दखल के साथ इस शर्त पर रिहा कर दिया गया कि ऐसा कुछ नहीं करेंगे, न लिखेंगे और न बोलेंगे जिससे सरकार के प्रति नाखुशी को बढ़ावा मिलता हो. यह कानून 'नाखुशी' (disaffection) की अजीबोगरीब बात की ओट में सरकार के प्रति वफादारी की मांग करती है, जिसको तिलक के खिलाफ मुकदमे के दौरान परिभाषित करते हुए जज ने बताया था कि नाखुशी का मतलब मतलब सरकार के प्रति 'प्यार की कमी' है. आगे चल कर इसका शिकार बने गांधी ने इसकी साफ-साफ आलोचना करते हुए कहा था, 'कानून के जरिए आप प्यार नहीं जगा सकते और न इसको अपनी मर्जी से चला सकते हैं. अगर किसी को किसी इंसान से प्यार नहीं है, तो उसे अपनी नाखुशी को जाहिर करने की इसकी पूरी आजादी होनी चाहिए, बशर्ते वो हिंसक तरीके नहीं अपनाता और इसके लिए लोगों को प्रोत्साहित करने और भड़काने नहीं लग जाता.' आगे चल कर गांधी राष्ट्रपिता बने और भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य बना, लेकिन यह कठोर औपनिवेशिक कानून, बल्कि पूरा का पूरा आईपीसी ही अच्छे लगने वाले जुमलों और बातों के संवैधानिक मुलम्मे के साथ जस का तस अपना लिया गया.

संविधान सभा में राजद्रोह को हटाने के लिए एक संशोधन पेश किया गया था, लेकिन के.एम. मुंशी की दखल ने इसे बचा लिया, जिनकी दलील थी कि सरकार की आलोचना और सुरक्षा और व्यवस्था को नुकसान पहुंचाने वाले उकसावे के बीच में फर्क किया जा सकता है. पहले संविधान संशोधन के वक्त प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने साफ साफ कहा था कि राजद्रोह कानून बुनियादी तौर पर असंवैधानिक है. इसके बावजूद राजद्रोह कानून कानून की किताब में बना रहा और केंद्र और राज्य सरकारें बार-बार इसका इस्तेमाल राजनीतिक असहमति को दबाने के लिए करती रहीं. इस कानून को पहली बड़ी संवैधानिक चुनौती पचास के दशक में मिली जब तारा सिंह गोपी चंद (1951), साबिर रजा (1955) और राम नंदन (1958) के तीन मामलों में इसे बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी के बुनियादी अधिकार का उल्लंघन करने के कारण रद्द कर दिया गया. पहले मामले में मुख्य न्यायाधीश एरिक वेस्टन ने लिखा, "भारत अब एक सार्वभौम लोकतांत्रिक राज्य है. ...विदेशी शासन के वक्त जरूरी माना गया राजद्रोह का कानून अब इस बदलाव की वजह से ही नामुनासिब हो गया है." बाद में राम नंदन के मामले में, जिनको खेतिहरों और मजदूरों को अपनी सेना बना कर सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए प्रोत्साहित करने के भड़काऊ भाषण का कसूरवार ठहराया गया था, इलाहाबाद उच्च न्यायालय में धारा 124-ए की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई. अदालत ने राम नंदन को कसूरवार माने जाने को खारिज कर दिया और धारा 124-ए को असंवैधानिक घोषित किया.

कानून की वापसी
 

लेकिन 1962 में सर्वोच्च न्यायालय ने केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य के मामले में इस फैसले को पलट दिया. केदार नाथ सिंह बिहार में फॉरवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के एक सदस्य थे, उन्होंने कांग्रेस सरकार पर भ्रष्टाचार, कालाबाजारी और तानाशाही का आरोप लगाया था और जमीन के फिर से बंटवारे की विनोबा भावे की कोशिशों को निशाना बनाया था. उन्होंने क्रांति की बात की थी, जो पूंजीपतियों, जमींदारों और कांग्रेस नेताओं को उखाड़ फेंकेगी. ट्रायल कोर्ट ने उन्हें आईपीसी की 124-ए और 505-बी के तहत कसूरवार ठहराया. उन्होंने इस फैसले के तहत अपील किया. पटना उच्च न्यायालय ने उनकी अपील को खारिज कर दिया. सर्वोच्च न्यायालय ने राजद्रोह कानून की संवैधानिकता को तो कायम रखा, लेकिन इसे सिर्फ उन्हीं कार्रवाइयों में लागू किए जाने लायक बताया जिनमें कानून-व्यवस्था भंग किए जाने का रुझान मिलता है  या फिर जिनमें फौरन हिंसा भड़काई गई हो. जजों ने साफ-साफ यह कहा कि अगर राजद्रोह कानून की व्याख्या व्यापक हुई तो यह संवैधानिकता की कसौटी पर खरा नहीं उतरेगा. इसलिए अदालत ने अमेरिकी कानून की तर्ज पर राजद्रोह के मामलों को तय करने के लिए इस बात पर जोर दिया कि उस कार्रवाई का असर क्या था, न कि अपने आप में वह कार्रवाई क्या थी. इसने बहुत साफ-साफ कहा कि अगर 'लिखे या बोले गए शब्द, जिनसे सरकार के खिलाफ सिर्फ नाराजगी या दुश्मनी पैदा होती हो' के मामले में धारा 124-ए को लागू किया गया तो ऐसे में यह धारा संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के अधीन होगी. यह अनुच्छेद अन्य बातों के अलावा सभी नागरिकों को बोलने और अभिव्यक्ति के, शांति पूर्ण रूप से जमा होने और संगठित होने के अधिकार देता है.

कोई कार्रवाई सचमुच राजद्रोह है, या फिर इसके नाम पर किसी तरह से बोलने की आजादी को कुचलने की कोशिश हो रही है, इसकी पहचान के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने 'फौरन हिंसा' भड़काने की जो कसौटी रखी है, उस पर वो अपने फैसलों में बार-बार जोर देता रहा है जैसा कि एस. रंगराजन वगैरह बनाम पी. जगजीवन राम; इंद्र दास बनाम असम राज्य, और अरुप भुइंयां बनाम बनाम असम राज्य मामलों में देखा जा सकता है. इस संदर्भ में सबसे अहम फैसलों में से एक बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य है, जिसमें दो सिखों पर इंदिरा गांधी की हत्या के दिन खालिस्तान के पक्ष में और भारत विरोधी नारे लगाने का आरोप लगाया गया था. नारे साफ तौर पर भारतीय सार्वभौमिकता और सरकार को कमजोर करते हैं, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने आरोपितों को बरी कर दिया क्योंकि उन्होंने फौरी तौर पर कोई हिंसा नहीं भड़काई थी. सर्वोच्च न्यायालय ने इसे साफ किया कि देश से अलग होने या हिंसक तरीके से सरकारों को उखाड़ फेंकने की हिमायत करना भी राजद्रोह के दायरे में नहीं आता, जब तक कि यह फौरी तौर पर हिंसा को उकसावा न देता हो.

कानून का राज कहां है

कानून भले ही ऐसा हो, लेकिन सरकारें इसे राजनीतिक असहमति को कुचलने या फिर लोगों को काबू में करने की खातिर उन्हें आतंकित करने के लिए इसका धड़ल्ले से इस्तेमाल करती रही हैं. बदकिस्मती ये है कि अरुंधति रॉय, एसएआर गीलानी, डॉ. बिनायक सेन और हाल ही में जेएनयू के छात्रों, तमिल लोक गायक कोवन, हार्दिक पटेल और असीम त्रिवेदी जैसे कुछ मशहूर मामले ही मीडिया में जगह बना पाते हैं. दिलचस्प बात ये है कि गीलानी और रॉय के मामले में राजद्रोह के मुकदमे पुलिस द्वारा नहीं बल्कि निचली अदालत द्वारा थोपे गए. कुछ कम जाने माने मामलों में शामिल है एक कश्मीरी स्कूली शिक्षक का मामला जिसको कश्मीर घाटी में अशांति से संबंधित सवाल वाला एक प्रश्न पत्र तैयार करने के लिए राजद्रोही बताया गया, दलित सामाजिक कार्यकर्ता और विद्रोही के संपादक सुधीर धवले को माओवादी संपर्कों के लिए गिरफ्तार किया गया, अहमदाबाद में द टाइम्स ऑफ इंडिया के स्थानीय संपादक भारत देसाई को अपने एक वरिष्ठ रिपोर्टर और फोटोग्राफर के साथ इस आरोप का सामना करना पड़ा, जिन्होंने पुलिस अधिकारियों की काबिलियत पर सवाल उठाए थे और उनके और माफिया के बीच रिश्तों का आरोप लगाया था; एक भारत-पाक क्रिकेट मैच के दौरान पाकिस्तान के लिए खुशी मनाने वाले कश्मीरी छात्रों पर इसका आरोप लगाया गया. लेकिन गरीब आदिवासियों, दलितों और मुसलमानों के ऐसे बेशुमार मामले हैं, जिन पर किसी की भी निगाह नहीं जाती.

एक तरफ जहां अवाम के हक में खड़े कार्यकर्ता और बुद्धिजीवियों को राजद्रोह के आरोपों में परेशान किया जाता है, वहीं दूसरी तरफ असली अपराधियों को महान देशभक्त बताया जाता है. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राजद्रोह की जो परिभाषा दी गई है, उसकी सबसे अच्छी मिसाल 1992-93 में बंबई दंगों के पहले और उसके दौरान बाल ठाकरे के भाषण हैं, जिन्होंने श्रीकृष्णा आयोग के मुताबिक मुसलमानों की हत्याओं के लिए सीधे-सीधे उकसाया. उसके पहले भाजपा नेताओं द्वारा रथ यात्रा के दौरान और अयोध्या में 1992 में दिए गए भाषण हैं, जिनका अंजाम ऐतिहासिक बाबरी मस्जिद की तबाही और खौफनाक सांप्रदायिक दंगे रहे. ये राजद्रोह के सटीक मामले हैं. खुद नरेंद्र मोदी द्वारा 2002 में दिए गए सांकेतिक बयान भी राजद्रोह की मिसाल हो सकते हैं, जो गुजरात में 2000 मुसलमानों के कत्लेआम की वजह बने. और बेशक साधुओं और साध्वियों और प्रवीण तोगड़िया और प्रमोद मुतलिक जैसों द्वारा लगातार जहर उगलना तो पक्के तौर पर राजद्रोह है, जो सीधे-सीधे मुसलमानों के खिलाफ हिंसा भड़काते हैं.

राजद्रोह के मामलों के इतिहास को देखें तो उनमें से शायद ही कोई अदालत में टिक पाता है, लेकिन पुलिस बेधड़क इसका इस्तेमाल करती जा रही है, जैसा कि एमनेस्टी के मौजूदा मामले में देखा गया है. इस मामले में विडंबना ये है कि सेमिनार में एबीवीपी की हरकत को राजद्रोही कहा जा सकता है, क्योंकि इसने सीधे-सीधे एक भीड़ को एमनेस्टी के दफ्तर पर हमला करने के लिए उकसाया और सार्वजनिक व्यवस्था को भंग किया, जबकि कश्मीरी छात्रों द्वारा लगाए गए आजादी के नारों से कुछ भी नहीं हुआ था. अनुभव के आधार पर साबित तथ्य यह है कि सार्वजनिक व्यवस्था को खतरा तभी होता है जब एक प्रभावशाली इंसान, जो हरेक मामले में एक ऐसा राजनेता होता है जिसे राज्य का समर्थन हासिल होता है, कोई विवादास्पद बयान देता है. कार्यकर्ता भले ही लोगों को विद्रोह में उठ खड़े होने को उकसाएं, उन्हें जनता की तरफ से ऐसी कोई प्रतिक्रिया मुश्किल से ही मिलती है.

लेकिन फिर यह अधिनियम कानून का हिस्सा अभी तक क्यों बना हुआ है, जो लोकतंत्र के इतने अयोग्य है? हमारे भलेमानस जजों ने इसकी व्याख्या की है, लेकिन जिस भाषा में यह व्याख्या की गई है वह अभी भी पुलिस को इसके लिए एक पर्याप्त ओट देती है कि वह लोगों को परेशान करती रहे. और शासकों का मकसद ही यही है. संविधान की संरक्षक अदालतों को इस अधिनियम को असंवैधानिक घोषित कर देना चाहिए, क्योंकि यह संविधान की आत्मा को पूरी तरह से नकारता है. अगर जनता सार्वभौम है और उसने ही सरकार बनाई है, तो फिर जनता को ही कैसे राजद्रोही कहा जा सकता है? जिन चुने हुए प्रतिनिधियों पर भरोसा करते हुए जनता ने उन्हें सत्ता सौंपी है, अगर वो गलत आचरण करते हैं और इस भरोसे का उल्लंघन करते हुए अपनी सत्ता का गलत इस्तेमाल करते हैं, तो असल में राजद्रोह तो इसे होना चाहिए.

वक्त आ गया है कि हमारा सर्वोच्च न्यायालय इस कानून को और ऐसे ही दूसरे कठोर कानूनों को खत्म करे और हमें इस मजाक से राहत दिलाए.
--
Pl see my blogs;


Feel free -- and I request you -- to forward this newsletter to your lists and friends!

No comments: