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Saturday, October 15, 2016

बाबू वृत्तांत में फ्रंटियर प्रसंग: समर सेन अनुवादः पलाश विश्वास


बाबू वृत्तांत में फ्रंटियर प्रसंग:

समर सेन

अनुवादः पलाश विश्वास

Image result for Babu Brittanto by Samar Sen

समयांतर,अक्तूबर,2016 में प्रकाशित

(बाबू वृतांत समर सेन की आत्मकथा है,जो भारतीय सीहित्य में बेमिसाल है।  महज तीस साल की उम्र में कविताएं लिखना उन्होंने चालीस के दशक में छोड़ दी थी। स्टेट्समैन,नाउ और फ्रंटियर के मार्फत भारतीय पत्रकारिता में संपादन और लेखन के उत्कर्ष के लिए वे याद किये जाते हैं।बाबू वृतांत में आत्मकथा में अमूमन हो जाने वाली हावी निजी व्यथा कथा की चर्बी कहीं भी नहीं है और न उन्होंने पारिवारिक पृष्ठभूमि या परिजनों की कोई कथा लिखी है।वे मास्को में रहे हैं और वहां भी उन्होंने पत्रकारिता की है लेकिन बेवजह उस प्रसंग को भी उन्होंने ताना नहीं है।करीब सत्तर पेज के बाबू वृत्तांत में समकालीन सामाजिक यथार्थ को ही उन्होंने वस्तुनिष्ठ पद्धति से संबोधित किया है,जो आत्मकथामें आत्मरति की परंपरा से एकदम हटकर है। बमुश्किल चार पेज में उन्होंने फ्रंटियर निकालने की कथा सुनायी है और उसमें भी आपातकाल की चर्चा ज्यादा है। बाबू वृतांत अनिवार्य पाठ है।जिसमें से हम सिर्फ फ्रंटियर प्रसंग को यहां प्रस्तुत कर रहे हैं।- पलाश विश्वास)


फ्रंटियर 1968 में 14 अप्रैल को बांग्ला नववर्ष के दिन पहली बार प्रकाशित हुआ। पहले पहल आशंका थी कि हो सकता है पैसे के बिना यह अटक ही जायेगा,किंतु शुरु से जोरदार खपत हो जाने से मामला मछली के तेल से मछली तलने का जैसा हो गया। शुरु के दो एक साल में जान लगाकर मेहनत और निजी आर्थिक संकट को छोड़ दें तो विशेष कोई असुविधा नहीं हुई। (नाउ के लिए व्यवसाय का मामला और आर्थिक चिंता मेरी जिम्मेदारी नहीं थी)। नाउ की तुलना में पहले साल वेतन आधे से कम था।इसके बाद तो वेतन आर्थिक हालात के मद्देनजर सांप सीढ़ी का खेल हो गया,कभी बढ़ जाये तो कभी घटता रहे। दस साल निकल गये, अक्सर लगता था कि घर में खा पीकर वन में भैंस हांक रहे हैं- वैसे भारतीय भैंसों को हांकना किसी पत्रिका के सामर्थ्य में होता नहीं है। विशेष तौर पर जब विज्ञापन संस्थाओं के अनेक लोग कहने लगे,फ्रंटियर के लिए `आपका सम्मान करते हैं',तब यह अहसास होता था,सम्मान से कोई बात बनती नहीं है।

वह दिनकाल उत्तेजना का था।1968 में चारों दिशाओं में गर्म हवा,देश में और विदेश में भी। देश में नक्सलबाड़ी आंदोलन से नयी परिस्थिति बन गयी।1969 के चुनाव में फ्रंटियर में संयुक्त फ्रंट का समर्थन किया गया,लेकिन द्वितीय संयुक्त मोर्चा सरकार के कारनामे उजले नहीं लग रहे थे।बहुतों को अब याद ही नहीं होगा कि फ्रंट सरकार के घटकों में सत्ता पर वर्चस्व विस्तार के `संग्राम' के साथ खून खराबा का वह दौर शुरु हुआ। इसके बाद नक्सलपंथियों के साथ संघर्ष शुरु हो गया।ज्योतिबाबू, प्रमोदबाबू अब भी मारे गये मार्क्सवादियों के बारे में बात बात में चर्चा करते रहते हैं। बाहैसियत गृहमंत्री ज्योतिबाबू के लिए यह जानना जरुरी था कि एक मार्क्सवादी के मारे जाने पर कमसकम चार नक्सलवादी खत्म हो रहे थे।इसके अलावा थाना  पुलिस उन्हीं के नियंत्रण में थे,जहां तक नक्सलियों के जाने का कोई रास्ता ही नहीं था।

फ्रंटियर की ख्याति कुख्याति नक्सल समर्थक पत्रिका बतौर अर्जित हो गयी। 1969 में कांग्रेस के विभाजन के बाद  पत्रिका के संपादकीय में इंदिरा समर्थक  उच्छ्वास पढ़कर अब मुझे परेशानी होती है।`बूढ़ों की टीम' की विदाई से बुरा महसुस तो नहीं हुआ,लेकिन भद्र महिला को लेकर भावुकता का कोई मायने न था।

1970-71 के दौरान नक्सलपंथियों के सफाये के बारे में सीपीएम की भूमिका? वह बासी रायता फिर फैलाने का कोई फायदा नहीं है।किंतु मुजीब के मामले में भारतीय सशस्त्र वाहिनी के हस्तक्षेप के सिलसिले में रातोंरात सीपीएम के पलटी मारने के बारे एक बात कहना जरुरी है।अभ्यंतरीन मामलों में इंदिराविरोधी और किसी विदेशी राष्ट्र के साथ संघर्ष हो जाने की स्थिति में केंद्र सरकार को समर्थन- द्वितीय आंतर्जातिक की यह भूमिका सीपीएम ने काफी हद तक बनाये रखी है - हालांकि 1962 में चीन के साथ संघर्ष का मामला कुछ अपवाद जैसा है।

1972 के चुनाव में भारी गड़बड़ी हुई थी।किंतु इंदिरा गांधी का जय अवश्यंभावी था।तब वे इस महादेश की सुलताना थीं।उसकी गुणमुग्ध सीपीएम को निर्वाचन में कोई विशेष सुविधा नहीं मिलनी थी,पार्टी को जान लेना चाहिए था।किंतु मात्र 13-14 सीटें। इसकी कल्पना नहीं की जा सकती।

साठ सत्तर के दशक में वियतनाम युद्ध के महाकाव्य ने लोगों की आस्था को जिंदा रखा।चीन की सांस्कृतिक क्रांति से नये आदर्श की रचना हो गयी।उत्पादन क्षमता हाथों में आने से ही समाजवादी क्रांति का पथ अबाध नहीं हो जाता।हजारों साल की स्तुपीकृत मानसिक, राजनीतिक और आर्थिक कचरा की सफाई,मन की संरचना, अभ्यास में परिवर्तन के लिए संग्राम न करने से संशोधनवाद बार बार वापस चला आता है।

देश के हालात क्रमशः बिगड़ते चले गये।महान नेत्री की महिमा ज्यादा दिनों तक बनी नहीं रही।1974 की रेलवे हड़ताल के नृशंस दमन, कानकटा मिथ्याचार के जो संकेत थे, वे बहुतों की पकड़ में नहीं आये।हमारी राजनीतिक पार्टियों में मैं विशष दूरदर्शिता देखता नहीं हूं।किस वक्त किससे समझौता करना चाहिए,यह हम नहीं जानते। इसके अलावा इंदिरा के समर्थन में महान सोवियत देश खड़ा था, नेतृत्व भले संशोधनवादी रहा हो, लेकिन वैदेशिक कार्यकलाप अति विप्लवी थे!

पूर्व पाकिस्तान और श्रीलंका में आंदोलन के वक्त चीनी नेताओं के बयान निजी तौर पर मुझे अच्छे नहीं लगे। बांग्लादेश की परवर्ती घटनावली हांलांकि चीन के विश्लेषण का काफी हद तक समर्थन करती है क्योंकि चीन को भारतीय हस्तक्षेप पर मुख्य आपत्ति थी।`एक करोड़' शरणार्थी आगमन से पहले,लगभग अप्रैल की शुरुआत से भारत सरकार ने पूर्व पाकिस्तान में हथियार भेजने शुरु कर दिये थे,इसके प्रत्यक्ष साक्ष्य हैं।

देश में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में आंदोलन बिहार और अन्यत्र तेज होता रहा।इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला,गुजरात में कांरग्रेस सरकार की परायज- सब मिलाकर भद्रमहिला अत्यंत घिर चुकी थीं। तय था कि गणतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के लिए जयप्रकाश नारायण के साथ सीपीएम पंथी चल सकते हैं। मैदान में विशाल रैली में इस नीति की घोषणा हो गयी। हांलांकि उस नीति का पालन नहीं हुआ।

26 जून को ट्राम से दफ्तर जाते हुए आपातकाल के ऐलान के बारे में सुनकर पहले तरजीह नहीं दी- एक आपातकाल तो जारी था,और एक कहां से आना था? काफी हाउस में मालूम पड़ा,प्री सेसंरशिप चालू हो रही है। फ्रंटियर तब प्रेस में था-तारीख 28 जून का लगना था।उस अंक में इंदिरा गांधी विषय पर एक अतिशय तीव्र संपादकीय (मेरा लिखा हुआ नहीं) जा रहा था।उसे तब भी रोका जा सकता था,लेकिन मैंने कोई  परवाह नहीं की। बाद में वह अंक जब्त हो गया।5 जुलाई के अंक में  प्रीसेंसरशिप की वजह से हो रही नाना असुविधाओं के बारे में एक नोटिस छापा गया।  प्रशासन ने लिखा वह highly objectionable है।दो एक को  छोड़कर सरकारी विज्ञापन बहुत पहले 1971 में रेडियो पाकिस्तान पर फ्रंटियर के संपादकीय से एक दो उद्धरण सुनाये जाने के बाद बंद हो गया था।

पहले एक दो दिन प्रीसेंसरसिप का मसला क्या है,कैसे लागू होगी,इस बारे में मैं कुछ भी नहीं जानता था।इसके बाद कुछ हफ्ते लेख, वगैरह राइटर्स दे आता था,जो अगले दिन वापस मिलते थे।आखिरकार राइटर्स को लिखा,इस तरह कोई साप्ताहिक नियमित निकाला नहीं जा सकता,बहुत कुछ आखिरी पल छापना पड़ता है एवं संपूर्ण जिम्मेदारी संपादक की होती है।छापेखाने में विश्रृंखला और पैसों की किल्लत से कामकाज अच्छा हो नहीं पा रहा था।इसलिए राइटर्स को लेख भेजना  बंद कर दिया। विदेशी मामलों में अनेक मूल्यवान लेख निकलते थे, देश के संदर्भ में From the Press स्तंभ के तहत विभिन्न पत्र पत्रिकाओं से उद्धरण छापे जाते थे।बीच बीच में जरुर लगता था,इस तरह पत्रिका चलाना निरर्थक है।किंतु मनुष्य अभ्यास और रोजगार का दास है।पत्रिका बंद होने पर कई लोग बेरोजगार हो जाते।

इमरजेंसी के वक्त पुराने लेखकों से संपर्क छिन्न हो गया।इसका मुख्य कारण यह था कि देश के बारे में खुलकर कुछ लिखने का उपाय नहीं था।किसी तरह एक संपादकीय लिख दिया तो वह पर्याप्त।इच्छा होती कि कुछ ऐसा छाप दूं, जिससे पत्रिका बंद हो जाये।किंतु यह स्वीकार करने के लिए बाध्य हूं कि उत्तर भारत की तुलना  में पश्चिम बंगाल में सख्ती कम थी।यहां इंदिरा संजय के चेले चामुंडे अंग्रेजी खास समझते न थे, इस वजह से फ्रंटियर के लिए थोड़ी सुविधा थी।एक मंत्री ने तो रात में स्टेट्समैन के दफ्तर से निकलकर गर्व से कहा कि वे सबकुछ `census' करके निकले हैं।

एकबार वियतनाम के गुरिल्ला युद्ध पर केंद्रित चार पृष्ठ की एक कहानी कंपोज कराकर प्रेस में निश्चिंत बैठा था कि खबर आ गयी,उसे छापा नहीं जा सकता- गुरिल्ला युद्ध की चर्चा न हो तो बेहतर।यह खबर दिल्ली स्थित वियतनाम दूतावास में एक विदेशी पत्रकार के मार्फत पहुंचने पर उन्होने हैरत जताई। `फासिस्टविरोधी ' संग्राम में बीच बीच में विचलन अस्वाभाविक नहीं है।संभवतः इसीलिए पटना के फासिस्टविरोधी  सम्मेलन में हनोई से प्रतिनिधि शामिल हो गये (यह अंश जब लिखा,तब चीन का वियतनाम से झमेला शुरु नहीं हुआ था)।

दिन कट रहे थे,दिन गत,पाप क्षय।1976 में मार्च के अंत में दफ्तर में बैठा था, फ्रंटियर का का एक फर्मा छप चुका थाऔर दूसरा मशीन पर लगने वाला था, हठात् सशस्त्र पुलिस वाहिनी ने आकर छापाखाना जब्त कर लिया। दर्पण पत्रिका की ओर से कोई लेख राइटर्स भेजा नहीं जाता था (हम भी नहीं भेजते थे),उस दर्पण के मुद्रण के अपराध में प्रेस को बंद कर दिया गया,सरकार ने दर्पण के संपादक को कोई पत्र लिखने की जरुरत भी महसूस नहीं की।छापेखाने पर चौबीसों घंटे पालियों में सशस्त्र पहरा। फ्रंटियर छपना बंद हो गया। डेढ़ महीने बाद सरकारी की इजाजत लेकर हम अपने  न्यूज प्रिंट,लेख इत्यादि निकालने पहुंचे तो वहां जाकर सुना कि छापेखाने में पीछे की ओर रखा कुछ भारी और कीमती यंत्र, वगैरह की तस्करी हो गयी।एक सशस्त्र प्रहरी ने कहा,`बाबा रात में उधर कौन जायेगा,रोंगटे खड़े हो जाते हैं। '

अप्रैल में फ्रंटियर बंद रहा (बंद न रहता तो ऋत्विक घटक के कई फिल्में पहले देखने की आश्चर्यजनक अभिज्ञता न होती)।दूसरे छापाखाना जाना संभव नहीं था, क्योंकि तब उसी छापेखाने पर प्रशासन तोप दाग रहा होता। बाद में एक अत्यंत छोटे से छापेखाने की जिम्मेदारी लेने के लिए प्रशासन से निवेदन किया कि उन्हें जरुरी लगे तो वे अवश्य पत्रिका के खिलाफ action लें, छापेखाने के खिलाफ नहीं। पहले पहल उन्हें कुछ गैलि प्रूफ भेजते थे, मुंह बंद रखने के लिए! किंतु तब 24 घंटा नहीं,लेख, आदि वापस मिलने में 26 घंटे इंतजार करना होता।साप्ताहिक इस तरह नहीं चल  सकता। लेख भेजना फिर बंद कर दिया।तब तक इरजेंसी में कुछ शिथिलता आ गयी थी, कमसकम पूर्व भारत में।


आपातकाल में बुद्धिजीवियों की भूमिका

समरसेन

(यह बाबू वृत्तांत का अंश नहीं है,स्वतंत्र आलेख है)

आपातकाल की घोषणा से करीब पंद्रह दिन पहले लगभग दो सौ बुद्धिजीवियों ने एक फासिस्टविरोधी बयान जारी कर दिया।वे तमाम बुद्धिजीवी इंदिरा सरकार को प्रगतिशील मानते हैं-या मानते थे।इनके लिए जयप्रकाश का आंदोलन फासीवाद था। दस्तखत करने वालों में साहित्यकार,अध्यापक,पत्रकार,कलाकार वगैरह शामिल थे।26 जून को इंदिरा गांधी ने अपने भाषण में इन्हीं के वक्तव्य को दोहरा दिया।उस विशेष बुद्धिजीवी महल में आपातकाल से विशेष उल्लास का सृजन हो गया।

मुझे अब्यंतरीन आपातकाल की खबर दफ्तर जाते हुए ट्राम में मिली,तब ध्यान नहीं दिया। दफ्तर पहुंचने पर एक प्रख्यात प्रगतिशील फिल्म निर्देशक ने अत्यंत उत्तेजित भाव के साथ फोन किया।ब्यौरेवार वृत्तांत चित्तरंजन एवेन्यू के काफी हाउस में सुना, दोपहर एक बजे के बाद।वहां जो लोग थे,उनमें अनेक लोग बुद्धिमान थे।इंदिरा गांधी के किसी समर्थक को वहां नहीं देखा।

इसके  दो सप्ताह बाद अखबार में पढ़ा कि हमारे परिचित दो तीन प्रगतिशील बंगाली फिल्म निर्देशक और रंगकर्मी नेता श्रीमान सुब्रत मुखोपाध्याय के नेतृत्व में मास्को फिल्मोत्सव की यात्रा पर गये हैं। इनमें से एक की आर्थिक स्थिति अत्यंत अच्छी  थी- वे ना जाते तो भविष्य में उन्हें क्षति नहीं होती।दूसरे की हालत सुविधाजनक न थी।किंतु काम या किसी और बहाने वे भी नहीं जा सकते थे।

पहलेजिन बुद्धिजीवियों का उल्लेख किया है,उनमें अधिकांश  समाज और सरकार में विभिन्न स्तर पर प्रतिष्ठित थे,ये सीपीआई मास्को के समर्थक थे।यह सोचने की बात थी कि तथाकथित बुद्धिजीवियों की संख्या सबसे ज्यादा सीपीआई में थी। सांस्कृतिक क्षेत्र में,पुरस्कार वितरण या विदेश यात्रा के मामले में ये कांग्रेसी जमाने में कांग्रेसियों से भी आगे निकल गये थे। नवीन कांग्रेसियों में शिक्षित बाहुबली हावभाव वाले व्यक्तियों की संख्या ज्यादा थी।

सेंसरशिप और समाचार के बावजूद थोड़ी बहुत खबरें और अफवाहें बंद नहीं हुईं। अनीक पत्रिका के दीपंकरबाबू गिरफ्तार हो गये।उसके भी उपरांत `कोलकाता' पत्रिका में लिखने के अपराध में गौरकिशोर घोष गिरफ्तार कर लिये गये।दीपंकर बाबू माओपंथी थे तो गौरकिशोर घोष कम्युनिस्टों की विरोधिता लगातार करते रहे, किंतु आर्थिक लाभ या अपने विकास के लिए नहीं।वरुण सेनगुप्त सिद्धार्थशंकर की आंखों की किरकिरी बने हुए थे,जेल में डाल दिये गये।उनके बहुत बाद भूमिगत `कोलकाता'  के संपादक ज्योतिर्मय दत्त।सीपीआई पंथियों के मुताबिक वामपंथी और दक्षिणपंथियों का यह गठजोड़ सीआईए के कार्यकलापों और प्रभाव का नतीजा था- जैसा इंदिरा गांधी का भी मानना था।विदेश में विशेष तौर पर समाजवादी देशों (चीन,उत्तर कोरिया और अलबेनिया को छोड़कर) ने इंदिरा गांधी का समर्थन कर दिया,वियतनाम ने भी।कितने वामपंथी जेल में ठूंस दिये गये,वह शायद इन देशों के जनगण को मालूम न था। जयप्रकाश के आंदोलन में जो दल एकजुट हुए,वे दक्षिणपंथी रुप में परिचित थे। इमरजेंसी से पहले कोलकाता मैदान में ज्योति बसु ने जयप्रकाश नारायण के साथ एक ही मंच पर खड़े होकर आश्वासन दे दिया कि जनता के अधिकार खत्म हुए तो उनकी पार्टी जयप्रकाश का समर्थन करेगी।भारतवर्षव्यापी नेताओं की गिरफ्तारी के बाद,जन साधारण के सारे अधिकार जब खत्म होने लगे, तब भी पश्चिम बंगाल में किसी आंदोलन की कोई खबर हमें नहीं मिली।चुएन लाई की मृत्यु पर शोकसभा बुलाई गयी, पुलिस में इजाजत नहीं दी और आयोजक मान भी गये।माओ त्से तुंग की मृत्यु के बाद हालांकि छोटे छोटे हाल में कुछेक शोकसभाएं हुई थीं।

देश में अन्यत्र क्या हो रहा था, जानने का कोई उपाय नहीं था।विदेशी पत्र पत्रिकाएं काफी कम पाठकों तक पहुंचती थीं।पहले दौर में इंदिरा गांधी के लिए सेंसरशिप बहुत काम की चीज साबित हुई क्योंकि दूसरे स्थानोंसे आंदोलन की खबरें न मिलने से विरोधियों का मनोबल टूट जाता है,असहाय लगता है और यह भी लगता है कि शायद जनगण बछड़ों में तब्दील हैं। इसके अलावा संस्कृति में जो लोग खुद को अग्रगामी समझते थे,वे रेडियो,टेलीविजन एवं वृत्तचित्रों केमाध्यम से सरकार से सहयोग कर रहे थे।रवींद्रभक्त उनके नाना गान पर निषेधाज्ञा के बावजूद गला खुलकर उन्हीं के दूसरे गान गा रहे थे।विगत एक लेखक ने कहा था कि उन्हें उनकी लिखी एक निराशावादी कविता का पाठ रेडियो पर करने नहीं दिया गया।दूसरी कविता का पाठ उन्होंने क्यों किया,मैंने यह उनसे पूछा नहीं।

इमरजेंसी के दौरान वामपंथी पत्रिकाओं का प्रकाशन बंद नहीं हुआ।जोर था पार्टी की पत्रिका के बजाय संस्कृतिके मूल्यांकन पर।किंतु कविताओं में विद्रोह का स्वर था। तब बीच बीच में लगता था कि कड़े बंधन निषेध के नतीजतन जब स्पष्ट कुछ भी लिखा नहीं जा रहा है,तब पत्रिका निकालकर क्या फायदा?अवश्य ही मामा न हो तो कना मामा भी अच्छा है,यदि सही आंख भी सरकारी न हो जाये।

बुद्धिजीवियों की भूमिका जरुर होती है।किंतु कितनी? मोटे तौर पर इमरजेंसी के दौरान उन्होंने कुछ विशेष किया ही नहीं,विशेष तौर पर पूर्व भारत में।हमारे देश में सत्तर प्रतिशत अनपढ़ हैं।रेडियो के मार्फत वामपंथियों के लिए उतक पहुंचना असंभव था। इसके अलावा यहां के बुद्धिजीवियों के साथ देश के लोगों का नाड़ी का कोई संबंध कहें तो है ही नहीं।वे गुटबद्ध हैं।मतामत में कोई खास फर्क है नहीं, लेकिन असंख्य पत्र पत्रिकाओं का प्रकाशन होता है-इससे लोकबल और धनबल का सम्यक प्रयोग नहीं हो पाता।

निर्वाचन में बुद्धिजीवियों की कुछ भूमिका जरुर थी।शहरी इलाकों में बहुत बड़ी भूमिका छात्रों की थी.जो बिहार,उत्तर प्रदेश,पंजाब,हरियाणा,मध्यप्रदेश,राजस्थान में गांव गांव जाकर प्रचार अभियान चलाते रहे किंतु सबसे ज्यादा राजनीतिक बुद्धि का परिचय दे दिया-दक्षिण भारत के राज्यों को छोड़कर- किसानों और मजदूरों ने,जिन तक बुद्धिजीवियों का कोई संदेश नहीं पहुंचता।मेहनतकश इंसानों ने हड्डियों तलक अपने भोगे हुए यथार्थ का जबाव वोट के माध्यम से दे दिया। वोट से अवश्य ही क्रांति नहीं होती।उसके लिए दूसरा रास्ता जरुरी है।बुद्धिजीवियों को गांवों में जाकर काम करना चाहिए- लेकिन अभी तक यह स्वप्नविलास है।जिस देश में मातृभाषा के माध्यम में  सभी स्तरों पर शिक्षा अभी लागू हुई नहीं है, अंग्रेजी का मोह और वर्चस्व प्रबल है,वहां जनगणतांत्रिक क्रांति की तैयारी अत्यंत कठिन है,बुद्धिजीवियों की भूमिका वहां आत्मकंडुयन की तरह है।

मई,1977

अनुवादःपलाश विश्वास

(साभारःदेज पब्लिशर्स,13 बंकिम चटर्जी स्ट्रीट।कोलकाता700073

बाबू वृतात का पहला संस्करण 1978 में प्रकाशित हुआ है।देज पब्लिशर्स ने यह चौथा संस्करण टीका, टिप्पणी और विश्लेषण के साथ,समर सेन की कविताओं और रचनाओं के संकलन समेत प्रकाशित किया है।जो संग्रहनीय अनिवार्य पुस्तक है।


बाबू वृत्तांतःपेज 398,मूल्य 250 रुपये।)

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