Follow palashbiswaskl on Twitter

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity Number2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

What Mujib Said

Jyoti Basu is dead

Dr.BR Ambedkar

Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti Devi were living

Thursday, July 20, 2017

साहित्य और कला माध्यमों का माफिया मीडिया तो क्या राजनीति के माफिया का बाप है। --पलाश विश्वास

सबसे बड़ा सच यही है मीडिया तो झूठन है,जिसे पेट खराब हो सकता है,लेकिन दिलों और दिमाग को बिगाड़ने में साहित्य और कला माध्यम निर्णायक है और वहां बी संघ परिवार का वर्चस्व है।संघ परिवार के लोग ही धर्निरपेक्ष प्रगतिशील भाषा और वर्तनी में आम जनता के केसरियाकरण का अभियान चलाये हुए हैं।
साहित्य और कला माध्यमों का माफिया मीडिया तो क्या राजनीति के माफिया का बाप है।

--पलाश विश्वास
समय की चुनौतियों के लिए सच का सामना अनिवार्य है।आम जनता को उनकी आस्था की वजह से मूर्ख और पिछड़ा कहने वाले विद्वतजनों को मानना होगा कि हिंदुत्व की इस सुनामी के लिए राजनीति से कहीं ज्यादा जिम्मेदार भारतीय साहित्य और विभिनिन कलामाध्यम हैं।राजनीति की जड़ें वहीं हैं।भारत में हिंदुत्व की राजनीति में गोलवलकर और सावरकर की बात तो हम करते है,लेकिन बंकिम के महिमामंडन से चूकते नहीं है।गोलवलकर,सावरकर,हिंदू महासभा और संघ परिवार से बहुत पहले ईस्ट इंडिया कंपनी के राज के पक्ष में बंकिम ने आदिवासी किसान बहुजनों के विरोध में जिस हिंदुत्व का आवाहन किया,वही रंगभेदी दिंतुत्व की राजनीति और सत्ता का आधार है।
ताराशंकर बंद्योपाध्याय जमींदारों और राजा रजवाड़ों के सामंती वर्चस्व के वर्णव्यवस्था समर्थक कांग्रेसी नर्म हिंदुत्व के साहित्य के सर्जक है।
अब यह कहना कि बंकिम और विवेकानंद संघ परिवार के न हो जायें तो हमें अपने पाले में बंकिम और विवेकानंद चाहिए और हम उन्हें धर्मनिरपेक्ष और प्रगतिशील हिंदुत्व का आइकन बना दें या ताराशंकर जैसे साहित्यकार को हम संघ के पाले में जाने न दें।
जो जनविरोधी उपभोक्तावादी जनपद और जड़ों से कटा साहित्य है,उसका महिमामंडन करने से हालात नहीं बदलेंगे।अगर हालत बदलने हैं तो प्रतिरोध की परंपरा की पहचान जरुरी है और उसे मजबूत करना,आगे बढ़ाना अनिवार्य है।
हिंदी के महामहिम लोग अपने गिरेबां में पहले झांककर देखे कि हमने प्रेमचंद और मुक्तिबोध की परंपरा को कितना मजबूत किया है।
संघ परिवार साहित्यऔर कला माध्यमों में कहीं नहीं है और सिर्प केसरिया मीडियाआज के हालात के लिए जिम्मेदार है,कम से कम मैं यह नहीं मानता।अभी तो ताराशंकर और बंकिम की चर्चा की है,आगे मौका पड़ा तो बाकी महामहिमों के सच की चीरफाड़ और उससे कहीं ज्यादा समकालीनों के मौकापरस्त सुविधावादी  साहित्य का पोस्टमार्टम भी कर दूंगा।
उतना अपढ़ भी नहीं हूं।मेरे पास कोई मंच नहीं है।इसलिए यह न समझें कि कहीं मेरी बात नहीं पहुंचेगी।सच के पैर बहुत लंबे होते हैं।
सबसे बड़ा सच यही है मीडिया तो झूठन है,जिसे पेट खराब हो सकता है,लेकिन दिलों और दिमाग को बिगाड़ने में साहित्य और कला माध्यम निर्णायक है और वहां बी संघ परिवार का वर्चस्व है।संघ परिवार के लोग ही धर्निरपेक्ष प्रगतिशील भाषा और वर्तनी में आम जनता के केसरियाकरण का अभियान चलाये हुए हैं।
साहित्य और कला माध्यमों का माफिया मीडिया तो क्या राजनीति के माफिया का बाप है।

No comments: