मेरा जन्मदिन कुलीन वर्ग के लिए एक दुर्घटना ही है।
पलाश विश्वास
मेरे दिवंगत पिता पुलिनबाबू
अब इस महाभारत में मेरी हालत कवच कुंडल खोने के बाद कर्ण जैसी है।कुरुक्षेत्र में मारे जाने के लिए नियतिबद्ध क्योंकि नियति नियंता कृष्ण मेरे विरुद्ध हैं।
उत्तराखंड और झारखंड में लोग मुझे पलाश नाम से ही जानते रहे हैं,किसी विश्वास को वे नहीं जानते।
हमें दलित होने के सामाजिक यथार्थ को बंगाल आने से पहले कोई अहसास नहीं था।
तेभागा और ढिमरी ब्लाक की विरासत के मध्य जनमने की वजह से हम जन्म जात कम्युनिस्ट थे जन्मांध की तरह।इसीलिए जातिव्यवस्था के सच को हमने भी भारतीय कम्युनिस्टों की तरह दशकों तक नजरअंदाज किया।
एक बड़े सच का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि मार्टिन जान को मेरी याद तो है लेकिन पलाश विश्वास को वे पहचान नहीं पा रहे।दरअसल उत्तराखंड और झारखंड में लोग मुझे पलाश नाम से ही जानते रहे हैं,किसी विश्वास को वे नहीं जानते।क्योंकि राजकिशोर संपादित परिवर्तन में नियमित लिखने से पहले तक मैं पलाश नाम से ही लिख रहा था।
उत्तराखंड में किसान शरणार्थी आंदोलनों में लगातार पिताजी की सक्रियता,चिपको आंदोलन और नैनीताल समाचार,उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी की वजह से तराई और पहाड़ में लोग मुझे पलाश नाम से ही जानते रहे हैं।
मेरी कहानियां,कविताएं 85-86 तक इसी नाम से छपती रही हैं।पलाश विश्वास के यथार्थ से मेरा सामना देरी से ही हुआ।
बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर को पढ़ने से पहले,बंगाल में जाति वर्चस्व के सामने अकेला,असहाय,बहिस्कृत हो जाने से पहले भारतीय सामाजिक यथार्थ की मेरी कोई धारणा नहीं थी।
भारत विभाजन की त्रासदी के नतीजतन विभाजनपीड़ित जो बंगाली शरणार्थी बंगाल के इतिहास भूगोल से हमेशा के लिए बाहर कर दिये गये,वे बंगाल की समाजव्यवस्था से भी बाहर हो गये।उन्हें जाति व्यवस्था के दंश से मुक्ति मिल गयी।
वैसे भी मतुआ आंदोलन की वजह से बंगाल में अस्पृश्यता नहीं थी।लेकिन सिर्फ अनुसूचितों के बंगाल से बाहर कर दिये जाने के कारण उन्हें मनुस्मृति अनुशासन से मुक्ति मिल गयी।
जिसके नतीजतन मौजूद अभूतरपूर्व रोजगार संकट मुक्तबाजार की वजह से उत्पन्न होने की वजह से आरक्षण के जरिये नौकरी निर्णायक होने और अचानक 2003 में नागरिकता संशोधन विधेयक के तहत देशभर में बसे विभाजनपीड़ितों के देश निकाले का फतवा संघ परिवार के मनुस्मृति अश्वमेध एजंडा के तहत जारी करने से पहले तक देश भर में बंगाली शरणार्थियो को रोजगार और सामाजिक हैसियत के लिए आरक्षण की कोई जरुरत नहीं पड़ी।
वे भी उत्तराखंड की आम जनता की तरह अब भी सवर्ण होने की खुशफहमी में संघ परिवार की पैदल सेना हैं।वे पुलिनबाबू और उनके किसी साथी को याद नहीं करते।इन्ही के बीच हूं।
अपने पिता पुलिनबाबू से मेरे वैचारिक मतभेद की वजह यही थी कि वे बंगाल के यथार्थ की त्रासदी झेल चुके थे।
कम्युनिस्ट पार्टी के ढिमरी ब्लाक किसान विद्रोह में विश्वासघात से पहले अनुसूचित होने के अपराध में वे करोडो़ं बंगाली शरणार्थियों की तरह बंगाल से खदेड़ दिये गये थे और अनुसूचित बंगाली शरणार्थियों का होमलैंड अंडमान में बनाने की अपनी मांग की वजह से ज्योति बसु के साथ उनका बंगाल में टकराव हो गया था क्योंकि शरणार्थी आंदोलन में तब कम्युनिस्टों का कब्जा था।
इसके अलावा पुलिनबाबू गुरुचांद ठाकुर के अनुयायी थे और बाबासाहब की विचारधारा को अपने मार्क्सवाद से जोड़कर चलते थे।वे जोगेंद्र नाथ मंडल का आजीवन समर्थन करते थे।
पुलिनबाबू ने शुरु से ही देशभर में बंगाली शरणार्थियों के लिए मातृभाषा का अधिकार और आरक्षण की मांग उठायी जिसके लिए पचास के दशक से एकमात्र पीलीभीत के युवा वकील नित्यानंद मल्लिक उनके साथ थे और बाकी बंगाली शरणार्थी जाति व्यवस्था से मुक्ति के बाद फिर दलित बनने को तैयार नहीं थे।उन्हें बांग्ला भाषा में पढ़ने लिखने से कोई मतलब नहीं है।
इसके विपरीत हमें दलित होने के सामाजिक यथार्थ को बंगाल आने से पहले कोई अहसास नहीं था।
स्कूल कालेज में हमारे सारे गुरु ब्राह्मण थे और उनमें से ज्यादातर कम्युनिस्ट थे और उन्ही की वजह से मैं आजतक लिखता पढ़ता रहा हूं।उन्होंने मार्क्सवाद का पाठ पढ़ाया लेकिन भारतीय सामाजिक यथार्थ से वे भी अनजान बने हुए थे।
तेभागा और ढिमरी ब्लाक की विरासत के मध्य जनमने की वजह से हम जन्म जात कम्युनिस्ट थे जन्मांध की तरह।
इसीलिए जातिव्यवस्था के सच को हमने भी भारतीय कम्युनिस्टों की तरह दशकों तक नजरअंदाज किया।
2003 तक बंगाल और त्रिपुरा के कम्युनिस्ट नेताओं और मंत्रियों से मेरे अंतरंग संबंध थे।इसके अलावा देशभर में वामपंथी तमाम लोग मेरे मित्र थे।
इसी बीच 2001 में उत्तराखंड की तराई में 1950 से बसे बंगाली शरणार्थियों को उत्तराखंड की पहली केसरिया सरकार ने बांग्लादेशी करार दिया और इसके खिलाफ उत्तराखंड की जनता के भारी समर्थन के साथ बंगाली शरणार्थियों ने व्यापक आंदोलन किया। इस आंदोलन के समर्थन में और देश भर में बसे बंगालियों के पक्ष में संघ परिवार के हमलों के खिलाफ हमने कोलकाता में वाम नेताओं और मंत्रियों,कोलकाता के लेखकों,कवियों,कलाकारों और रंगकर्मियों के सहयोग से सहमर्मी नामक संगठन बनाया।
बड़े लेखकों,संस्कृतिकर्मियों के साथ खड़े होने के कारण मरीच झांपी नरसंहार की अपराधी बंगाल की वाम सरकार के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने सीध केंद्र सरकार से बातचीत की और तब जाकर बंगाली खदेड़ो अभियान तात्कालिक तौर पर स्थगित हो गया।इस कामयाबी के पीछे नीतीश विश्वास और कपिलकृष्ण ठाकुर का बड़ा योगदान रहा है।
2003 में नागरिकता संशोधन विधेयक के खिलाफ हम देशभर में आंदोलन कर रहे थे।2001 में पिताजी का कैंसर से निधन हो गया था बंगाली शरणार्थियों को बांग्लादेशी करार दिये जाने के बाद।
1960 में पुलिनबाबू संघ प्रायोजित असम में बंगालियों के खिलाफ दंगों के दौरान वहां दंगापीड़ितों के बीच हर जिले में उन्हें वहां बनाये रखने के लिए सक्रिय थे।
पिता की मृत्यु के बाद ब्रह्मपुत्र बीच फेस्टिवल में बाहैसियत असम सरकार के अतिथि,मुख्यअतिथि त्रिपुरा के शिक्षामंत्री और कवि अनिल सरकार के साथ मालीगांव अभयारण्य के उद्घाटन के लिए जाते हुए पुलिस पायलट के रास्ता भटकने के कारण दंगा पीड़ित असम के नौगांव मालीगांव जिलों के उन्हीं इलाकों में हम गये जहां मेरे पिता पुलिनबाबू और मेरे चाचा डा. सुधीर विश्वास के बाद तब तक बाहर का कोई बंगाली और शरणार्थी नेता नहीं गया था।कई पीढ़ियों के बाद वे पुलिनबाबू को भूले नहीं हैं।
असम से वापसी के बाद से पिताजी बंगाली शरणार्थियों की नागरिकता और उनके नागिरक और मानवाधिकार की सुरक्षा के लिए मुखर हो गये।
असम आंदोलन के दौरान मैं धनबाद से होकर मेरठ में था और आसू और असम गण परिषद के समर्थन में खड़ा था।प्रफुल्ल महंत और दिनेश गोस्वामी से हमारी मित्रता थी।लेकिन पिताजी इस आंदोलन को अल्फा और संघ परिवार का बंगालियों के खिलाफ असम और पूर्वोत्तर में नये सिरे से दंगा अभियान मान रहे थे।
उसी समय पुलिनबाबू बाकी देश में भी संघ परिवार के बंगाली खदेड़ो अभियान शुरु करने की चेतावनी दे रहे थे।
वामपंथी होने की वजह से तब भी हम लगातार भारत में मनुस्मृति राज और हिंदुत्व के पुनरूत्थान की उनकी चेतावनी को सिरे से खारिज कर रहे थे।
उन्होंने मरीचझांपी अभियान के खिलाफ जिस तरह शरणार्थियों को चेताया,उसीतरह अस्सी के दशक से अनुसूचितों के खिलाफ संघ परिवार के हिंदुत्व एजंडा के खिलापफ मरण पर्यंत आंदोलन चलाते रहे।
मैं उनसे असहमत था और देश भर के शरणार्थी मरीचझांपी के समय उत्तर भारत में सर्वत्र उनके साथ होने के बावजूद नागरिकता और आरक्षण के सावल पर उनके साथ नहीं थे।
चूंकि कक्ष दो में पढ़ते हुए पिताजी के तमाम आंदोलनों और देशभरके किसानों,शरणार्थियों के हक में उलके तमाम पत्र व्यवहार का मसौदा सिलसिलेवार मतभेद के बावजूद मैं ही तैयार करता रहा हूं तो देशभर में शरणार्थी मुझे जानते रहे हैं।
2003 में नागरिकता संशोधन विधेयक भाजपाई गृहमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी के द्वारा पेश होन के बाद मैं झारखंड में जिसतरह चौबीसों घंटे आदिवासियों और कामगारों के दरवाजे पर दस्तक देते रहने से बेचैन हो रहा था,वही हाल हो गया।
पिताजी की अनुपस्थिति में देश भर के शरणार्थियों के फोन आने लगे।मैं भी इस जिम्मेदारी से बेचैन हो गया।
तब वामपंथी मित्रों,नेताओं और मंत्रियों से मेरी लगातार बात होती रही।हमने इस सिलसिले में राइटर्स बिल्डिंग में बंगाल सरकार के शक्तिशाली मंत्री कामरेड सुभाष चक्रवर्ती के साथ प्रेस कांफ्रेंस किया तो त्रिपुरा के आगरतला में माणिक सरकार के सबसे वरिष्ठ मंत्री अनिल सरकार के साथ प्रेस कांप्रेस किया।
बंगाल में कामरेड विमान बोस,कामरेड सुभाष चक्रवर्ती,कामरेड कांति विश्वास, कामरेड कांति गांगुली, कामरेड उपने किस्कू और त्रिपुरा में कामरेड अऩिल सरकार और माणिक सरकार के तमाम मंत्रियों और बंगाल के तमाम सांसदों से रोजाना संपर्क के मध्य संसद में वामपंथियों ने आडवाणी के नागरिकता संशोधन विधेयक का समर्थन कर दिया।
मैंने तुरंत फोन लगाया सबको जनसत्ता के दफ्तर में बैठे हुए और सभीने कहा कि वामपंथियों ने बिल का विरोध किया है।
मैंने उन सबको मेरी मेज पर संसद की कार्यवाही का ब्यौरा पढ़कर सुनाया और उसी वक्त मैंने उनके साथ संबंध विच्छेद कर लिया।
वामपंथियों के समर्थन के साथ नागरिकता संशोधन कानून पास होने के बाद मैं कभी बांग्ला अकादमी रवींद्र सदन परिसर से लेकर कोलकाता पुस्तक मेले में कभी नहीं गया।
इसी कानून की वजह से ही बंगाल में शरणार्थी दलित वोट बैंक वामपंथ से हमेशा के लिए अलग हो गया,जिसका कोई अफसोस वामपंथी कुलीन नेतृत्व को नहीं है क्योंकि शुरु से ही यह वर्ग इन बंगाली दलित शरणार्थियों के बंगाल में बने रहने के खिलाफ रहा है और उनके देश निकाले के संघ परिवार के नरसंहारी अभियान में वे साथ साथ हैं अपने वर्गीय जाति वर्चस्व के लिए।
पंचायत चुनाव में आदिवासियों के साथ छोड़ने के बाद बंगाल में वामपंथ की वापसी अब असंभव है।
दीदी को सत्ता जिस जमीन आंदोलन की वजह से मिली,उसके तमाम योद्धा आदिवासी ही थे।जिनमे से ज्यादा तर माओवादी ब्रांडेड होकर या तो मुठभेड़ में मार दिये गये या फिर जेल में सड़ रहे हैं।
वामपंथ और दीदी के इस विश्वासघात का बदला लेने के लिए सारे दलित शरणार्थी और आदिवासी अब संघ परिवार की शरण में हैं,जानबूझकर वे हिटलर के गैस चैंबर में दाखिल हो चुके हैं।
मेरी लालगढ़ डायरी अकार में छपी थी।उस युद्ध की यह त्रासदी है और घनघोर अंधायुग का यथार्थ भी यही है।
उसी समय अपने मित्र कृपा शंकर चौबे और अरविंद चतुर्वेद के साथ मैं महाश्वेता देवी संपादित बांग्ला पत्रिका भाषा बंधन के संपादकीय में था और इसके संपादकीय में हमने वीरेन डंगवाल,पंकज बिष्ट और मंगलेश डबराल को भी शामल कर रखा था।
नवारुण भट्टाचार्य संपादकीय विभाग के मुखिया थे।
महाश्वेता देवी और नवारुण दा के गोल्फग्रीन के घर में बंगाल के तमाम साहित्यकारों ,सामाजिक कार्यकर्ताओं और संस्कृति कर्मियों का जमघट लगा रहता था।
महाश्वेता देवी से मैंने इस नागरिकता बिल के खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व करने का निवेदन किया तो उन्होंने कहा कि यह आंदोलन तुम करो और बाकी लोग भी कन्नी काट गये।
मैं सिरे से अकेले पड़ गया।
महाश्वेता देवी और भाषा बंधन का साथ भी छूट गया।
शरणार्थियों के हकहकूक के सवाल पर दशकों पुराना संबंध टूट गया।हमारे अलग होने के बाद आनंदबाजार समूह की देश पत्रिका की तरह भाषा बंधन भी बंगाल की भद्रलोक संस्कृति की पत्रिका बन गयी है।
वंचित सर्वहारा के लिए लिखने वाले नवारुण दा भी कैंसर का शिकार हो गये,जिन्हें देखने के लिए भी कुछ सौ मीटर की दूरी पर दीदी के राज में जन आंदोलनों की राजमाता बनी महाश्वेता देवी नहीं गयी।
यह माता गांधारी का हश्र है।
मेरे पिता पुलिनबाबू आजीवन जिनके लिए लड़ते रहे,उनके हक में देश भर में मेरे वैचारिक मित्र मेरे साथ नहीं थे।
कोई राजनीतिक दल या सामाजिक संगठन हमारे साथ नहीं था।
एसे निर्णायक संकट के दौरान भी बामसेफ ने 2003 में नागपुर में इस नागरिकता बिल के विरोध में एक सम्मेलन आयोजित किया,जहां हम बंगाल के तमाम वामपंथी शरणार्थी नेताओं और बुद्धिजीवियों के साथ पहुंचे।
हमें बामसेफ और महाराष्ट्र,मराठी प्रेस का समर्थन संघ परिवार के नागरिकता संशोधन विधेयक और अनुसूचितों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ संघ परिवार के नरसंहारी अश्वमेध अभियान के खिलाफ तब से लगातार मिलता रहा है।
तभी हमने अंबेेडकरको सिलसिलेवार पढ़ने की शुरुआत की और भारतीय यथार्थ के आमने सामने खड़ा हो गया।
हालांकि बामसेफ के सर्वेसर्वा वामन मेश्राम से वैचारिक मतभेद की वजह से हम अब बामसेफ से देश भर के अपने साथियों के साथ अलग थलग हो गये,लेकिन यह भी सच है कि एकमात्र वामन मेश्राम ने ही बामसेफ के जरिये संघ परिवार के अनुसूचितों, शरणार्थियों,आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ संघ परिवार और मुक्त बाजार के नरसंहारी एजंडा के खिलाफ मेरे युद्ध में मेरा साथ दिया,मेरे वामपंथी साथियों ने नहीं।
बामसेफ के मंच से ही मैंने लगातार एक दशक तक देश भर में मुक्तबाजार और संघ परिवार के एजंडे के खिलाफ आम जनता को सीधे संबोधित किया।
अब बामसेफ का राष्ट्रव्यापी संगठन और मंच मेरे पास नहीं है और मैं फिर से अरेले हूं।
इंडियन एक्सप्रेस का सुरक्षा कवच भी मेरे पास नहीं है।
अब इस महाभारत में मेरी हालत कवच कुंडल खोने के बाद कर्ण जैसी है।कुरुक्षेत्र में मारे जाने के लिए नियतिबद्ध क्योंकि नियति नियंता कृष्ण मेरे विरुद्ध हैं।
सारे मठ,मठाधीश और उनकी सेनाएं मेरे खिलाफ है और फिरभी मेरा युद्ध जारी है।
इस युद्ध में ही मुझे तराई और पहाड़ के नये पुराने मित्रों के साथ की उम्मीद है और इसीलिए कोलकाता का मोर्चा छोड़कर यह महाभारत अपने घर से लड़ने का फैसला मेरा है,चाहे परिणाम कुरुक्षेत्र का ही क्यों न हो।
बामसेफ और अंबेडकरी आंदोलन में सक्रियता की वजह से 2003 से पत्रकारिता और साहित्य में मैं बहिस्कृत अछूत हूं तो अपने जयभीम कामरेड अभियान और जाति विनाश के बाबासाहेब के मिशन के तहत वर्गीय ध्रूवीकरण की अपनी सामाजिक सांस्कृतिक रचनात्मकता और पर्यावरण चेतना के तहत हिमालय और उत्तराखंड से नाभिनाल के अटूट संबंध की वजह से अंबेडकरी आंदोलन के लिए भी मैं शत्रूपक्ष हूं।
मेरा जन्मदिन कुलीन वर्ग के लिए एक दुर्घटना ही है।
2 comments:
Everyone born in the country has equal right and those who are discriminating others one the basis of cast and religion should correct their moral values. The land dispute in the country should not give way and disturb the communal harmony of the country.
Thanks for sharing the website
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