2009/7/4 reyaz-ul-haque <beingred@gmail.com>
ज़मीन जब पक रही थी…
लालगढ़ से लौट कर रेयाज़ उल हक
अगर वे गांव से भागे नहीं होंगे तो अब कादोशोल के गोपाल धवड़ा को शाम ढ़लने के बाद अपने मवेशियों को जंगल में खोजने जाने से पहले सौ बार सोचना पडेगा. सिजुआ की पांचू मुर्मू को सुबह शौच के लिए जाना पहले जितना ही आतंक से भर देने वाला काम होगा. मोलतोला के दिलीप को फिर से स्कूल जाने में डर लगेगा. 17 जून के बाद लालगढ़ में सीआरपीएफ़, पुलिस और हरमादवाहिनी के घुसने के साथ ही सात महीने से चला आ रहा पुलिस बायकाट खत्म हो गया. और इसी के साथ लालगढ़ के लोगों के शब्दों में उनके पुराने दिन शायद फिर से लौट आये हैं, पुलिसिया जोर-ज़ुल्म के, गिरफ़्तारियों के, यातना भरे वे दिन, जब…
लालगढ़ के रास्तों पर फिर से पुलिस और अर्धसैनिक बलों की गाडि़यां दौड़ने लगी हैं. थाने फिर से आबाद हो गये हैं. स्कूलों, पंचायत भवनों और अस्पतालों में पुलिस और अर्धसैनिक बलों के डेरे लग गये हैं. लालगढ़ में पहले भी बाहरी लोगों के जाने पर रोक थी, लेकिन तब भी पत्रकार और बुद्धिजीवी, छात्र आदि जा सकते थे, राज्य के शब्दों में 'आतंकवादी' माओवादियों के नियंत्रणवाले लालगढ़ में क्या हो रहा है, यह जो देखना चाहे उसकी आंखों के सामने था. लेकिन अब सरकार के नियंत्रण में आने के बाद लालगढ़ में क्या हो रहा है, किसी को नहीं पता. वहां जाने पर अब पूरी पाबंदी है. लालगढ़ में 'लोकतंत्र' को बहाल किये जाने की प्रक्रिया के बारे में हम अब भी कम ही जान पाये हैं. कभी-कभा आ रही खबरें बताती हैं कि किस तरह लोग अभी चल रही कार्रवाई से आतंकित होकर भाग रहे हैं. लोगों के घर, स्वास्थ्य केंद्र, स्कूल जलाये जा रहे हैं. उपयोग में लाये जानेवाले पानी के स्रोत गंदे किये जा रहे हैं. और अनगिनत संख्या में लोगों को माओवादी कह कर प्रताड़ित किया जा रहा है. कुछ हफ़्ते पहले के लालगढ़ में ऐसा कुछ भी नहीं था. माओवादियों से 'आतंकित' और उनकी 'यातनाएं सह रहे' लालगढ़ के लोग निर्भीक होकर कहीं भी आ जा रहे थे. बच्चे स्कूल जा रहे थे. महिलाएं अपने जीवन में पहली बार बिना किसी डर के जंगलों में जा रही थीं. गांवों में शाम ढले घर से निकलने पर किसी को कोई डर नहीं था. अब 'मुक्त' लालगढ़ में ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता.
लेकिन लालगढ़ में 'मुक्ति' से पहले की, लालगढ़ के लोगों के शब्दों में 'आज़ादी' हमेशा से नहीं रही. कुल सात महीने थे, जिनमें पुलिस और अर्धसैनिक बलों को लोगों ने बेहद शांतिपूर्ण तरीके से इलाके से बाहर कर दिया था. यह हुआ था इलाके में पुलिस के आम बायकाट से, जो शुरू हुआ था छोटोपेलिया की चिंतामणि मुर्मु की आंख पुलिस द्वारा फोड़ देने की घटना के बाद से.
लेकिन इसके लिए ज़मीन बहुत पहले से बन रही थी. लोगों में एक गुस्सा था, जो बहुत पहले से खदबदा रहा था. लालगढ़ में किसी से भी पूछ लीजिए, वह इसकी अनेक कहानियां सुना देगा, पूरी तफसील से.
1997-98 में, जब विश्व बैंक और विश्व मुद्रा कोश की वनों की रक्षा के लिए परियोजना आयी तो उनके फंड पर साल वन की रक्षा के लिए तत्कालीन ज्योति बसु सरकार ने ग्राम रक्षा कमेटियां बनायीं. इन कमेटियों में सीपीएम के लोग भरे गये. कमेटी का काम जंगल पर पहरा देना था. इसके बाद आदिवासियों के लिए जीवन मुश्किल होने लगा. फ़ारेस्ट आफ़िसरों का ज़ुल्म भी बढ़ गया. जंगल महाल में रहनेवाले संथाली आदिवासियों के जीने की ज़रूरतें जंगल पूरा करता है. उसके पत्तों से पत्तल बनती है, जिसे बेच कर वे नकद कमाते हैं. यहां उगनेवाली वनस्पति उनकी सब्जियों के काम आती है. यहां के खेतों में अपनी ज़रूरत की फ़सलें उगाते हैं-धान, तिल आलू, आदि. कमेटी बनने के बाद समस्याएं शुरू हुईं. कमेटी के लोग आदिवासियों को जंगल से वनोपज लाने से रोकने लगे. तब इन लोगों ने मांग की कि जंगल पर उनका अधिकार हो जो जंगल पर निर्भर हैं, जो जंगल के निवासी हैं. आदिवासियों ने मांग की कि वनोपज की 70 फ़ीसदी हिस्सा उन्हें मिले. जब उनकी मांगें नहीं सुनी गयीं तो आदिवासियों में असंतोष बढ़ने लगा. तब कुछ सरकारी जीपें जलायी गयीं. सीपीएम से लोगों की दूरी बढती गयी. तृणमूल ने तब विकल्प के रूप में उभरना शुरू किया, लेकिन जल्दी ही लोगों ने पाया कि वह सीपीएम से बहुत अलग नहीं है. गारबेटा, ग्वालपुर, केशपुर में असंतोष बढता गया. इलाके में नक्सलवादी-माओवादी मौजूद थे और सीपीएम-तृणमूल से उनकी झड़पें भी होती रहती थीं.
आदिवासियों में जंगल पर अपने आधिकार को लेकर असंतोष बढता गया. इसके पीछे माओवादियों का हाथ बता कर इसकी वजहों पर परदा डाला जाता रहा. इस असंतोष से निबटने के लिए जोर-ज़बरदस्ती का सहारा लिया गया. 1999-2003 के बीच दो हज़ार से ज़्यादा लोग गिरफ़्तार किये गये. माओवादियों को खाना-पानी देने का आरोप लगा कर लोगों को दो-दो तीन-तीन वर्षों तक जेल में रखा जाता. गर्भवती महिलाएं तक नहीं छोडी़ जातीं. महिलाओं की साड़ी उठा कर लिंग की जांच की जाती कि यह वास्तव में कोई महिला ही है या उसके वेश में कोई पुरुष है. स्कूल से लौटती लड़कियों के साथ भी उत्पीड़न होता. माओवादियों से लड़ने के नाम पर पुलिस आयी. उसके साथ आयी सीआरपीएफ़. लालगढ-बेलपहाडी़ इलाके में 40-45 कैंप लगाये गये. पूरे इलाके को पुलिस से भर दिया गया. गांवों में 24 घंटे पुलिस रहने लगी. तब एक तरह से पुलिस ही सारे काम देखती थी. पंचायतों का पैसा पुलिस के ज़रिये खर्च होता. एसपी स्कूल चलाते और हर विकास कार्य की देख-रेख करते. यहां के आदिवासियों को कोलकाता की सन सिटी में ले जा कर उनका प्रदर्शन किया जाता. आदिवासी युवकों को अश्लील फ़िल्में दिखायी जातीं. एसपी ने माओवादियों के खिलाफ़ 'मनोवैज्ञानिक युद्ध' की घोषणा की. यह सब पिछले वर्ष तक ज़ारी रहा.
इस बीच पश्चिम बंगाल सरकार की अनुमति से सालबनी में जिंदल समूह की परियोजना पर काम शुरू हुआ. इसके लिए कुल पांच हज़ार एकड़ भूमि पर बननेवाली इस परियोजना के लिए 4500 एकड़ भूमि पश्चिम बंगाल सरकार ने जिंदल समूह को दी, जबकि पांच सौ एकड़ भूमि जिंदल ने खुद किसानों से खरीदी. सरकार ने जो ज़मीन जिंदल को दी, उसमें से अधिकतर ज़मीन भूमिहीन आदिवासियों को वितरित की जानेवाली वेस्टेड लैंड थी. यह इस तथ्य के बावजूद है कि वन भूमि का हस्तांतरण अवैध है. लेकिन बंगाल की 'जनवादी' सरकार को इसकी कोई परवाह नहीं थी. यह ज़मीन वेस्टेड बनी रही, इसके बावज़ूद कि वह भूमिहीन आदिवासियों को दिये जाने के बजाय एक स्टील समूह को दे दी गयी.
शुरू में, सितंबर, 2007 में अधिगृहीत की जानेवाली ज़मीन स्टील प्लांट के नाम पर ली गयी थी, लेकिन आगे चल कर इसे सेज़ का दर्ज़ा मिल गया. जिंदल को सेज़ का दर्ज़ा मिलने का किस्सा भी कम हैरतंगेज़ नहीं है. पिछले दो वर्षों में जिंदल समूह लगातार प बंगाल सरकार से बातचीत करता आ रहा था, लेकिन सेज़ के बारे में लोगों को भनक तक नहीं लगने दी गयी. अचानक 24 अगस्त, 2008 को जिंदल स्टील वर्क्स की एक सेज़ परियोजना के रूप में घोषणा की गयी. सेज़ का दर्ज़ा मिलने से इस परियोजना को अनेक नियमों और बाध्यताओं से छूट मिल गयी. इसमें पर्यावरण के लिए उठाये जानेवाले कदमों से छूट भी शामिल थी. कुल मिला कर इस तथ्य को नज़रअंदाज़ कर दिया गया कि जंगल के भीतर एक स्टील प्लांट-जो कि बड़ी मात्रा में प्रदूषण पैदा करता है-का क्या असर पडेगा, खास तौर पर आस-पास की आबादी पर, जिनका जीवन ही खतरे में पड़ जानेवाला था. योजना के अनुसार इस प्लांट से शुरू में-1912 में- 30 लाख मीटरिक टन स्टील का उत्पादन होना है. 2015 तक यह बढ़ कर 60 लाख मिटरिक टन हो जायेगा. 2020 तक इसके बढ़ कर एक करोड़ मीटरिक टन हो जाने का दावा सीपीएम के बांग्ला मुखपत्र गणशक्ति में किया गया था. इस प्लांट में इसके उत्पादन के बढ़ने के अनुरूप रोजगार में भी वृद्धि होनी थी, शुरू में प्लांट सीधे तौर पर पांच हज़ार लोगों को रोजगार देता, फिर यह बढ़ कर 12 हज़ार होता और अंततः यह संख्या 20 हज़ार तक पहुंचती. अप्रत्यक्ष तौर पर इससे लगभग इतने ही लोगों को रोजगार मिलता.
तो दृश्य कुछ ऐसे बन कर उभर रहा था. जिन्होंने अभी खेती तक में आधुनिक मशीनों से कभी काम नहीं किया, उन्हें एक भीमकाय अत्याधुनिक स्टील प्लांट में काम देने के दावे थे. जिस इलाके में हज़ार रुपये के नोट मिलने भी मुश्किल हैं, वहां के लोगों के पास अपनी ज़मीन की कीमत में से आधे मूल्य के शेयर थे, जिसे वे कंपनी के वाणिज्यिक तौर पर उत्पादन शुरू होने के बाद बेच सकते थे. और हां, भूमंडलीकरण की सब तक पहुंचनेवाले विकास की दृष्टि ने लड़कियों को यहां भी नहीं नज़रअंदाज़ किया था. यहां की आदिवासी लड़कियों के लिए भी रोजगार के अवसर लेकर आये बीपीओ सेंटर थे.
02 नवंबर, 2008 को सालबनी में परियोजना का शिलान्यास था. खबरों के मुताबिक शिलान्यास समारोह की सजावट और व्यवस्था ऐसी की गयी थी कि वह सीपीएम की कोई अधिवेशन लग रहा था. 'सीटू' और 'डीवाइएफ़ाइ' के नारों, झंडों, पोस्टरों, बैनरों और तख्तियों से सजे समारोह में बंगाल के वामपंथी मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने 35 हज़ार करोड़ की लागत से बननेवाले इस स्टील प्लांट का शिलान्यास किया. भट्टाचार्य और उनके व्यापार व उद्योग मंत्री निरुपम सेन ने यह विश्वास दिलाने की कोशिश की जिंदल समूह दरअसल मुनाफ़े के किसी व्यावसायिक स्वार्थ से नहीं बल्कि शुद्ध तौर पर अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारियों का वहन करते हुए लोगों की सेवा करने के लिए यहां आ रहा है, वरना ऐसी आर्थिक मंदी के दौर में भला कौन ऐसा काम करने का जोखिम उठायेगा.
इस जगह से दसियों किलोमीटर दूर स्थित अनेक छोटे-बडे गांवों की ही तरह छोटोपेलिया की अधिकतर औरतों और मर्दों के जीवन में जिंदल स्टील वर्क्स की सालबनी सेज़ परियोजना के शिलान्यास कार्यक्रम के बाद का घटनाक्रम किस तरह इतना बडा़ बदलाव लाने जा रहा है, उन्हें अंदाज़ा भी नहीं होगा. सालबनी यहां से दूर है और आम तौर पर लोगों को इसकी कोई खबर नहीं थी. सालबनी में शिलान्यास कार्यक्रम से लौटने के रास्ते में बुद्धदेव और उनके साथ आ रहे केंद्रीय रसायन मंत्री रामविलास पासवान के काफ़िले पर बारूदी सुरंग का विस्फोट हुआ. कुछ पुलिसवाले घायल हुए, बाकी किसी को कोई नुकसान नहीं हुआ. माओवादियों ने इस हमले की ज़िम्मेवारी ली. लेकिन इसके बावजूद पुलिस और सीआरपीएफ़ लालगढ़ और इसके आस-पास के गांवों में पहुंची और आदिवासियों को पीटना और गिरफ़्तार करना शुरू किया. लगभग 35 गांव इस आतंक से घिर गये. 5 नवंबर 2008, की सुबह तीन से चार बजे के बीच पुलिस छोटोपेलिया गांव में बडी़ संख्या में पुलिस पहुंची. उसने आदिवासी महिलाओं को पीटना शुरू किया. पुलिस उस दिन द्वार-द्वार खडी़ थी और सबको पकड़-पकड़ कर कहती-यह माओवादी है. महिलाओं ने बीच-बचाव की कोशिश की तो यहां की चिंतामणि मुर्मु की बायीं आंख पुलिस की राइफ़ल के बट से फूट गयी. 14 अन्य महिलाओं को भी चोटें आयीं.
दूसरी जगहों से भी खबरें मिलनी शुरू हुईं…सालबनी के गारमोल से सरयु महतो और रिटायर स्कूल टीचर क्षमानंद महतो को पुलिस ने उठा लिया. तीन नवंबर को सातवीं, आठवीं और नौवीं कक्षाओं के तीन छात्र कांटापहाड़ी बाज़ार से बाउल गीत सुन कर लौटते हुए उठा लिये गये. पांच को तीन और पुरुष-भागबत हांसदा, सुनील हांसदा और सुनील मांडी.
लोगों का आक्रोश इकट्ठा होने लगा. 6 नवंबर को 12 हज़ार आदिवासियों ने लालगढ़ थाना के सामने प्रदर्शन किया. सात नवंबर को अपने पारंपरिक हथियारों से लैस दस हज़ार संथाली मर्द-औरतों ने पुलिस की गाडी़ और सीपीएम के हथियारबंद दस्ते हरमादवाहिनी की बाइकों को गांव में घुसने से रोकने के लिए सड़कें खोद डालीं और लालगढ को मेदिनीपुर और बांकुरा से काट दिया. उन्होंने बिजली और फोन के तार भी काट डाले. वे दस हज़ार लोग रामगढ़-लालगढ़ मार्ग में दलीलपुर चौक पर अब एक प्रतिरोध जुलूस की शक्ल में बदल गये. बड़ी तेज़ी और व्यापकता के साथ आंदोलन अब एक बहुत बड़े इलाके में फैलता गया. ये इलाके पुलिस और सीपीएम की किसी भी पहुंच से बाहर आते गये.
8 नवंबर को दलीलपुर चौक पर 95 गांवों के प्रतिनिधियों और आम लोग जमा हुए. उन्होंने पुलिस और सीपीएम के आतंक से निज़ात पाने और लड़ने के लिए योजनाएं बनायीं. आदिवासियों ने इस मौके पर ढुलमुल और समझौतेवाला रवैया दिखानेवाले अपने पारंपरिक संगठन भारत जकात माझी माड़वा को दरकिनार कर दिया. इस तरह इलाके में हज़ारों लोगों ने मिल कर एक नयी कमेटी बनायी-पुलिस संत्रास विरोधी जनसाधारणेर कमेटी (पुलिस के अत्याचार के विरोध में आम लोगों की कमेटी). 9 नवंबर तक यह आंदोलन पश्चिम मेदिनीपुर से बांकुरा, पुरुलिया, हुगली और वीरभूम तक फैल गया. जल्दी ही कमेटी में शामिल गांवों की संख्या 200 तक पहुंच गयी. कमेटी ने पहला बड़ा फ़ैसला लिया और उसने जनता की 13 सूत्री मांगें तैयार कीं. इन मांगों में अपनी अन्यायपूर्ण कार्रवाइयों के लिए पुलिस द्वारा माफ़ी मांगे जाने, छोटोपेलिया की ज़ख्मी औरतों को मुआवज़ा देने, सालबनी की घटना के संबंध में गिरफ़्तार सभी लोगों को छोड़ने, 1998 से अब तक माओवादी कह कर गिरफ़्तार किये गये सभी लोगों को छोड़ने और उन पर थोपे गये झूठे मुकदमे वापस करने, इलाके से सभी अर्धसैनिक बलों के शिविरों को बंद करने, लोगों द्वारा बनाये गये क्लबों पर पुलिसिया हमले बंद करने, शाम 5 बजे से सुबह 6 के बीच गांव में पेट्रोलिंग नहीं करने, स्कूलों, अस्पतालों और पंचायत भवनों में पुलिस कैंप न लगाने और लगे हुओं को हटाने के अलावा मुआवज़े संबंधी कुछ और मांगें शामिल थीं.
इन मांगों के माने जाने तक लोगों ने पुलिस के सामाजिक बायकाट का फ़ैसला लिया. इसके बाद पुलिस के लिए इलाके में रहना मुश्किल हो गया. उन्हें दुकानदारों, नाइयों और दूसरे पेशेवालों ने पुलिस को सेवाएं देने से मना कर दिया. उनकी पानी सप्लाई भी बंद कर दी गयी. पुलिस के लिए यहां रहना मुश्किल हो गया…अधिकतर इलाकों से पुलिस कैंप और थाने छोड़ कर भाग गयी. जहां वह रह भी गयी, वहां सिर्फ़ थानों तक ही सीमित रही. स्थिति यहां तक पहुंची कि कलईमुरी में स्थित अर्धसैनिक बलों के कैंप में मौजूद लगभग 150 सैनिक तीन दिन तक भूखे-प्यासे रहने के बाद भाग निकले.
पुलिस का अत्याचार यहां के लोगों के लिये नया नहीं था. जो नया था वह यह था कि लोगों में पुलिस के खिलाफ़ डर खत्म हो गया था.
लेकिन यहां आकर लालगढ़ के आंदोलन ने आगे की ओर एक ऊंची छलांग लगायी. इसे हम सुनेंगे लालगढ़ की गलियों में घूमते हुए, वहां के लोगों की ज़ुबानी.
(ज़ारी)
(ज़रूरी नोट : लालगढ़ की वर्तमान स्थिति को देखते हुए कुछ ग्रामीणों के नाम बदल दिये गये हैं. रिपोर्ट में उपयोग में लायी गयी कुछ सामग्री जादवपुर विश्वविद्यालय, कोलकाता के प्राध्यापक अमित भट्टाचार्य की पुस्तिका सिंगूर टू लालगढ़ वाया नंदीग्राम से ली गयी है.)
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Palash Biswas
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