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Saturday, June 9, 2012

मंहगाई डायन अब खा नहीं रही है, ‘निगले’ जात है

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मंहगाई डायन अब खा नहीं रही है, 'निगले' जात है

मंहगाई डायन अब खा नहीं रही है, 'निगले' जात है

By  | June 8, 2012 at 9:00 am | No comments | आपकी नज़र

निर्मल रानी

भारतवर्ष में ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में इस बात की चर्चा है कि भारत की बागडोर इस समय विश्व  के प्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह के हाथों में हैं। दूसरी ओर उनका साथ दे रहे हैं विश्व के एक और प्रमुख अर्थशास्त्री डॉ. मोंटेक सिंह आहलूवालिया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इन्हें इनकी काबिलियत के अनुसार योजना आयोग का उपाध्यक्ष बनाया है, जबकि प्रधानमंत्री स्वयं योजना आयोग के अध्यक्ष हैं। भारतीय रिर्ज़व बैंक के गवर्नर से लेकर विश्व बैंक के कई प्रमुख पदों सहित देश के वित्त मंत्री के पद पर सुशोभित रहने के बाद भारत जैसे विशाल लोकतांत्रिक देश के प्रधानमंत्री का पद संभालने वाले डॉ. मनमोहन सिंह की योग्यता पर तो निश्चित रूप से कोई संदेह किया ही नहीं जा सकता।
ज़ाहिर है संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की पहली पारी की शुरुआत अर्थात 2004 में यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने स्वयं प्रधानमंत्री का पद ग्रहण करने के बजाए डॉ. मनमोहन सिंह जैसे महान अर्थशास्त्री को इस पद के लिए प्रस्तावित किया था। डॉ. मनमोहन सिंह के हाथों में देश का नेतृत्व आने के बाद देश के लोगों को यह आस थी कि अन्य क्षेत्रों में भले ही कुछ सकारात्मक हो या न हो परंतु कम से कम देश की, देशवासियों की आर्थिक स्थिति में तो सुधार आएगा ही। लोगों को इस बात की काफी उम्मीदें थी कि देश में मंहगाई यदि कम नहीं हुई तो नियंत्रित ज़रूर रहेगी। गरीब लोगों की आर्थिक स्थिति सुधरेगी। देश में विदेशी  पूंजीनिवेश बढ़ेगा। शेयर बाज़ारों की हालत में सुधार होगा और कुल मिलाकर देश आर्थिक रूप से खुशहाल होगा।
परंतु यूपीए प्रथम के बाद अब यूपीए दो की भी आधी पारी खत्म हो चुकी है। और आठ वर्षों के यूपीए के इस शासनकाल के दौरान स्थिति कुछ ऐसी बन चुकी है कि आज डॉ. मनमोहन सिंह के आलोचकों तथा विपक्षी नेताओं द्वारा इन्हीं प्रधानमंत्री डॉ. सिंह को देश का अब तक का सबसे असफल, निकृष्ट व आर्थिक मोर्चे पर पूरी तरह असफल रहने वाला प्रधानमंत्री बताया जाने लगा है। इसके मुख्य कारण दो ही हैं। एक तो यूपीए प्रशासन काल में दिन-प्रतिदिन मंहगाई का लगातार बढ़ते जाना और दूसरे इन्हीं के शासन में हुए 2 जी स्पेक्ट्रम, कॉमनवेल्थ गेम्स तथा आदर्श सोसायटी जैसे कई बड़े घोटाले व भ्रष्टाचार।
निश्चित रूप से इन हालात ने विपक्ष तथा खासतौर पर कांग्रेस पार्टी के विरोध का बहाना तलाश करने वाली कुछ शक्तियों को कांग्रेस व यूपीए सरकार की खुलकर निंदा व आलोचना करने का सुनहरा अवसर प्रदान किया है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या रोज़ाना बेरोक-टोक बढ़ती मंहगाई ही आर्थिक सुधार, आर्थिक विकास तथा आम भारतीयों के आर्थिक रूप से सुदृढ़ होने का एक उदाहरण है या फिर वास्तव में प्रधानमंत्री व उनकी सरकार इस बढ़ती मंहगाई को रोक पाने में असमर्थ है?
एक दिन एक किसान ने बताया कि वह एक सब्ज़ी मंडी में सुबह मात्र 5 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से अपनी मिर्च आढ़त पर बेचकर आढ़तिए से पैसे लेकर चला आया। कुछ ही घंटों बाद जब वह किसान शहर की बाज़ार में घूम रहा था तो उसकी नज़र हरी मिर्च बेचने वाली रेहड़ी पर पड़ी। किसान अपनी मिर्च को पहचान गया। जब उसने रेहड़ी वाले से मिर्च का मूल्य पूछा तो उसने उसका मूल्य 40 रुपए प्रति किलोग्राम बताया। अब इस सौदे में सीधे तौर पर उपभोक्ता पर अनियंत्रित मंहगाई की गाज गिरती दिखाई दे रही है। यहां साफ नज़र आ रहा है कि या तो इस सौदे में आढ़़ती पैसे कमा रहा है या फिर खुदरा मिर्च बेचने वाला। यदि वास्तव में मिर्च मंहगी हुई होती तो इस मंहगाई का लाभ किसान को भी ज़रूर मिलता। यह कहानी किसी एक किसान, एक मंडी या एक आढ़ती की नहीं है। लगभग पूरे देश में इस समय इस प्रकार की लूट-खसोट व दुकानदारों द्वारा स्वयं बढ़ाई जाने वाली मंहगाई का दृश्य देखा जा सकता है।
इसी प्रकार गेहूं, आटा, मैदा व सूजी आदि का मूल्य अन्य वस्तुओं की तुलना में फिलहाल नियंत्रित है। परंतु मंहगाई के राष्ट्रव्यापी शोर-शराबे का लाभ उठाकर आटा व मैदा से निर्मित होने वाली वस्तुओं में भी बेकरी वाले उद्योगों व दुकानदारों ने आग लगा कर रख दी है। गेहूं के आटे का सामान्य मूल्य इस समय 15-16 रुपए प्रतिकिलो है। यह मूल्य पिछले कई वर्षों से बना हुआ है। परंतु आटे से निर्मित होने वाले साधारण रस्क, बिस्कुट, पेस्ट्री, पेट्रीज़, डबलरोटी, केक, बन आदि बेकरी के उत्पादों के मूल्यों में दिन-प्रतिदिन इज़ाफा होता जा रहा है। चार वर्ष पूर्व भी आटा 15 रुपए किलो था उस समय रस्क 30 से 40 रुपए प्रति किलो मिला करता था तो बिस्कुट 60 से लेकर 80 रुपए प्रति किलोग्राम तक मिल जाया करता था। परंतु आज भी आटे का मूल्य 15 रुपए किलो ही है जबकि रस्क 80 से 90 रुपए किलो हो चुका है व अन्य बिस्कुट 120 रुपए किलो से लेकर 180 व 200 रुपए किलोग्राम तक हो चुके हैं। बेकरी उत्पादों में सबसे अधिक वज़न आटे, मैदे या सूजी का ही होता है। परंतु दुकानदार या बेकरी मालिक घी, तेल, रिफाईंड, चीनी तथा लेबर आदि की बढ़ती कीमतों के नाम पर आटे से निर्मित वस्तुओं की कीमतों में मनमाने तरीके से दो और तीन गुनी वृद्धि करते जा रहे हैं। और इन पर नकेल कसने वाला कोई नज़र ही नहीं आता।
महान अर्थशास्त्री के राज में खुदरा दुकानदारों द्वारा ग्राहकों को लूटे जाने की हद तो यह है कि अब वे यदि 40 रुपए प्रति किलो की दर से कोई वस्तु बेच रहे हैं तो आधा किलो सामान मांगने पर वे अपने ग्राहक से 20 रुपए की बजाए 25 रुपए मांगने लगे हैं। दस सिगरेट का कोई पैकेट यदि 40 रुपए में मिलता है तो एक-दो या चार-छह सिगरेट मांगने पर वही दुकानदार पांच रुपए प्रति सिगरेट की दर से ग्राहक से पैसे वसूल रहा है। गोया ऐसा महसूस होता है कि अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के शासनकाल में खुदरा व्यापारियों द्वारा बेरोक-टोक अर्थशास्त्र की नई परिभाषा लिखी जाने लगी है।
सवाल यह है कि क्या इसी को आर्थिक सुधार स्वीकार कर लिया जाए या फिर वास्तव में यह हालात प्रधानमंत्री की आर्थिक मोर्चे पर असफलता की निशानी हैं। आपको याद होगा कि यूपीए सरकार के प्रथम दौर में जब मंहगाई ने अपने पांव पसारने शुरु किए थे तथा जनता में हाहाकार मचना शुरु हुआ था, उस समय सरकार द्वारा देशवासियों को यह सलाह दी गई थी कि अब भारत के लोगों को मंहगाई के दौर में जीने की आदत डाल लेनी चाहिए। यही नहीं बल्कि अन्य कई देशों की तुलना भारत के बाज़ार से कर यह भी बताया जा रहा था कि लाख मंहगाई बढऩे के बावजूद अब भी भारत में अधिकांश वस्तुएं विश्व के अन्य बाज़ारों के मुकाबले में काफी सस्ती हैं।
अब यदि डॉ. मनमोहन सिंह सरकार की यह बात मान भी ली जाए तो उन्ही के विश्वसनीय सलाहकार, सहयोगी व वर्तमान योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया के उस फतवे को आखिर किस नज़र से देखा जाना चाहिए जिसके अंतर्गत वे 28 रुपए प्रतिदिन खर्च करने वाले व्यक्ति को गरीब की श्रेणी में स्वीकार नहीं करते। एक ओर तो डॉ. आहलूवालिया योजना भवन के दो शौचालयों की मरम्मत के कार्यों पर 35 लाख रुपए खर्च कर डालते हैं, जबकि उसी भवन में दो शौचालयों की मरम्मत का काम अभी शेष है। 35 लाख की इस रकम में लगभग सवा पांच लाख रुपए की लागत से शौचालयों में प्रवेश करने हेतु नियंत्रण प्रणाली लगाई गई है। गोया इसमें प्रवेश हेतु स्मार्ट कार्ड का प्रयोग होगा तभी शौचालयों के दरवाज़े खुल सकेंगे। फिलहाल विभाग द्वारा  60 सौभाग्यशाली अधिकारियों को ही इन शौचालयों में प्रवेश हेतु स्मार्ट कार्ड जारी किए गए हैं। यानी मंहगाई की मार झेल रही गरीब जनता की खून-पसीने की कमाई के पैसों से सुसज्जित इन शौचालयों में देश की आर्थिक तकदीर संवारने वाले मोंटेक सिंह आहलूवालिया व उनकी टीम के सदस्य ही प्रवेश पा सकेंगे।
कुल मिलाकर अनियंत्रित मंहगाई का भरपूर लाभ इस समय जहां बड़े व्यापारियों द्वारा धड़ल्ले से उठाया जा रहा है, वहीं खुदरा व्यापारी भी ग्राहकों को दोनों हाथों से लूटने से बाज़ नहीं आ रहे हैं। बजाए इसके वे लूट-खसोट के नए-नए तरीके अपना रहे हैं। उधर ब्रांडेड कही जाने वाली कंपनियां भी अपने उत्पाद का मूल्य तो बढ़ाती ही जा रही हैं साथ-साथ वस्तुओं की पैकिंग में वस्तु का वज़न भी घटाती जा रही हैं।
ऐसा महसूस हो रहा है कि डायनरूपी मंहगाई अब आम भारतीय को चबा कर खाने का भी कष्ट नहीं कर रही है, बल्कि गरीब जनता को यह मंहगाई निगलने पर ही तुली हुई है। निश्चित रूप से इन हालात में प्रधानमंत्री के अर्थशास्त्री होने पर तथा उनकी सरकार द्वारा मनमाने तरीके से लूट मचाने वाले व्यापारियों पर शिकंजा न कस पाने के चलते उनकी योग्यता पर सवाल उठना लाज़िमी ही है।

निर्मल रानी ,

निर्मल रानी ,राजनीतिक समीक्षक हैं।

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