Follow palashbiswaskl on Twitter

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity Number2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

What Mujib Said

Jyoti Basu is dead

Dr.BR Ambedkar

Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti Devi were living

Sunday, July 1, 2012

चुपचाप लिखने वाले अमर गोस्वामी चुपचाप चले गए

http://www.deshbandhu.co.in/newsdetail/7605/9/193

चुपचाप लिखने वाले अमर गोस्वामी चुपचाप चले गए

 प्रभात रंजन
दुख होता है, हम लेखक अपने लेखक समाज से कितने बेखबर होते जा रहे हैं। अमर गोस्वामी चले गए, हमारा ध्यान भी नहीं गया। मेरा भी नहीं गया था। सच कहूँ तो मैंने भी उनका अधिक कुछ नहीं पढ़ा था। लेकिन उनको जानता था, उनके बारे में जानता था, पहली बार उनका नाम तब पढ़ा था जब हिंदी में बड़ी पत्रिकाएं दम तोड़ने लगी थीं। अपने स्कूल के आखिरी दिन थे और सीतामढ़ी के सनातन धर्म पुस्तकालय में दस रुपए की मेम्बरशिप लेकर कुछ-कुछ साहित्यिक हो चला था। उन्हीं दिनों गंगा नाम की एक पत्रिका शुरु हुई थी। राजा निरबंसिया के लेखक कमलेश्वर का लेखन मन पर छाने लगा था। ऐसे में गंगा के संपादक के रूप में कमलेश्वर का नाम देखकर मैं उसका सतत पाठक बन गया। काफी दिनों तक बना रहा। पहली बार अमर गोस्वामी को मैंने उसी गंगा के सहायक संपादक के रूप में जाना था। गंगा की याद मुझे और भी कई कारणों से रही। भैया एक्सप्रेस जैसी कहानी के लिए, राही मासूम रज़ा, हरिशंकर परसाई के कॉलम्स के लिए, सबसे बढ़कर कमलेश्वर के सम्पादकीय के लिए जिसके नीचे कमलेश्वर का हस्ताक्षर होता था, नाम के नीचे दो बिंदियों वाला। बहुत बाद में जब अमर गोस्वामी से मिलना हुआ तो उन्होंने बताया था कि कमलेश्वर जी तो मुंबई में अधिक रहते थे, गंगा के दफ्तर में नियमित बैठकर पत्रिका वही सँभालते थे।
यही अमर गोस्वामी का स्वभाव था, वे पुराने ढंग के लेखक थे। कॉलेजों में अध्यापन किया, लेकिन उनको अध्यापकी की सुरक्षा नहीं लेखकीय असुरक्षा रास आई और वे जीवन भर वही बने रहे। अपने कलम के बल पर जीने का संकल्प लेने वाले, जीने वाले। उनका लेखन विपुल है, दस से अधिक कहानी संग्रह, एक आत्मकथात्मक उपन्यास, करीब डेड़ दर्जन किताबें बच्चों के लिए। लेकिन मैं उनको याद करता हूं बांग्ला से हिंदी के सतत अनुवादों के लिए। साठ से अधिक पुस्तकें उनके अनुवाद के माध्यम से हिंदी में आईं। बाद में जब वे रेमाधव प्रकाशन से जुड़े तो उन्होंने बनफूल से लेकर श्री पांथे से लेकर सत्यजित राय की कृतियों को हिंदी में सुलभ करवाया। जीवन में सौ से अधिक पुस्तकें लिखने वाले इस लेखक ने अपने लेखन के अलावा किसी और चीज़ पर ध्यान नहीं दिया, न अपना प्रचार किया, न ही अपने लेखन का। जब वे भारतीय ज्ञानपीठ में काम करते थे उन दिनों मैं जनसत्ता में साहित्य का पेज देखता था। वे हर हफ्ते नियमित रूप से फोन करते थे। ज्ञानपीठ की पुस्तकों की रिव्यू के बारे में, कभी अपनी किसी किताब की समीक्षा के लिए नहीं कहा। बाद में मैं उनसे मिलने नोएडा भी गया था दो-एक बार। रेमाधव प्रकाशन के दफ्तर, वे मेरी कहानियों की पहली किताब रेमाधव से छापना चाहते थे। लेकिन बाद में मैं पीछे हट गया। बहरहाल, उन दिनों भी वे कभी अपने लेखन के बारे में बात नहीं करते थे। वे यही बताते रहते थे कि रेमाधव से आने वाली आगामी पुस्तकें कौन-कौन सी हैं। अच्छी साज-सजा वाली रेमाधव की पुस्तकों ने तब हिंदी में अच्छी सम्भावना जगाई थी तो उसके पीछे अमर गोस्वामी की ही मेहनत थी।
आज जब आधी कहानी लिखने वाला लेखक भी अपनी लिखी जा रही पंक्तियों के माध्यम से प्रसिध्दि बटोरने के प्रयास में लग जाता है, अमर जी का अपनी रचनाओं को लेकर इस तरह से संकोची होना आश्चर्यचकित कर देता है। एक बार रेमाधव प्रकाशन के ऑफिस में उनसे इलाहाबाद के दिनों को लेकर लंबी बात हुई थी। उन्होंने बताया था कि उनके पास उन दिनों एक साइकिल हुआ करती थी। जिसके पीछे बिठाकर उन्होंने अनेक लेखकों को इलाहाबाद की सैर कराई थी। साइकिल छोड़कर अमर जी कभी भी चमचमाती चार पहिया वाली गाड़ी के ग्लैमर और प्रसिध्दि के मोह में नहीं पड़े। साहित्य में ऐसे साइकिल चलाने वालों का भी अपना मकाम होता है। हिंदी के उस लिक्खाड़ को अंतिम प्रणाम।
जानकीपुल से साभार

No comments: