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Saturday, April 27, 2013

मालवा की पीढ़ियों में जिंदा कबीर, हर गांव गाता कबीरवाणी

मालवा की पीढ़ियों में जिंदा कबीर, हर गांव गाता कबीरवाणी

मालवी लोगों ने बाजारवाद और दबावों के बावजूद कबीर को ज़िंदा रखा है। प्रहलाद टिपानिया जब तम्बूरे से तार को झंकृत करते हैं तो आत्मा का पोर-पोर बज उठता है.मंडली को देख लगता है कि यही वो कबीर हैं जो मिट्टी में रच-बसकर गा रहा है... 

संदीप नाइक 


मध्यप्रदेश में मालवा के देवास का संगीत से बहुत गहरा नाता है। देवास के मंच पर शायद ही कोई ऐसा लोकप्रिय कलाकार होगा, जिसने प्रस्तुति ना दी हो. और जब बात आती है लोक शैली के गायन की तो कबीर का नाम जाने अनजाने मे उठ ही जाता है. यह सिर्फ कबीर का प्रताप नहीं बल्कि गाने की शैली, यहाँ की हवा, मौसम, पानी और संस्कारों की एक परम्परा है, जो सदियों से यहाँ निभाई जा रही है.

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प्रहलाद सिंह टिपानिया : कबीर से आगे गया समय

देवास के गाँव-गाँव में कबीर भजन मंडलियां हैं। इसमें वो लोग हैं जो दिन भर खेतों-खलिहानों में खटते हैं और फ़िर रात में सत्संग करते हैं।एक छोटी सी ढोलकी और एक तम्बूरे पर कबीर के भजन गाये जाते हैं. किसी भी गाँव की और निकल जाईये रात में यह दृश्य अमूमन हर जगह दिख ही जाएगा. इन्हीं मालवी लोगों ने कबीर को ज़िंदा रखा है। तमाम बाजारवादी दबावों के बावजूद आम लोगों ने भजन गायकी की परम्परा को जीवित रखा है, जिनका शास्त्रीयता के कृत्रिमपन से कोई लेना देना नहीं है. 

प्रहलाद टिपानिया ऐसे ही लोक गायकों की शैली में आते हैं। जब वे तम्बूरे से तार को झंकृत करते हैं तो आत्मा का पोर-पोर बज उठता है. वे जब कबीर को गाते हैं तो मंच पर उनकी सादगी और मंडली के लोगों को देखकर लगता है कि यही वो कबीर हैं जो मिट्टी में, मेहनत में, पसीने में रच-बसकर अपने जीवन के आरोह-अवरोह को भजनों की माला मे गूंथकर सबके सामने गा रहा है. 

पूरी भजन मंडली एकदम सादगी से गाती-बजाती है 'तेरा मेरा मनवा कैसे एक होए रे'. प्रहलाद जी शायद हिन्दुस्तानी लोकशैली मे बिरले ही गायक होंगे जो एकदम मिट्टी से जुड़े हैं.प्रहलाद खेत में काम करते हैं, पढ़ाते हैं, लोगों के हुजूम के बीच समस्याएं सुनते हैं और बहुत ही सादगी से एक सामान्य जीवन जीते हैं।

प्रहलाद सिंह टिपानिया के यहाँ कोई शास्त्रीयता का आडम्बर नहीं है। रागों की खेंच नहीं, ना ही कोमल, मध्य या निषाद का आग्रह है. कोई सुर बेसुरा नहीं और कही विलंबित ताल नहीं, न ही वो चुटकी है जो उन्हें ओरों से अलग करती हो। ना ही वो बनावटीपन है जो उन्हें विशिष्ट की श्रेणी में लाने का भरोसा दिलाता हो. वे किसी अंग्रेजी अखबार के पेज थ्री पर दिखाई नहीं देते और ना ही किसी संस्कृति भवन के गलियारों की गप्प या शिगूफों में वे शामिल है. 

प्रहलाद जी सिर्फ है तो अपने लोगों मे जो सिर्फ मेहनत मजूरी करके जीवन की हकीकतों से दो चार हो रहे है, वे कबीर की उस कुल परम्परा के वाहक है जो सीधे सच्चे शब्दों मे, बगैर लाग लपेट के कहते है 'इस घट अंतर बाग बगीचे इसी मे पालनहार' या धीरे से कहते है 'जिन जोड़ी तिन तोडी'. 

यद्यपि अब उनके गायन में एक दुहराव जरुर है, नया ना करने की, कुछ नया ना रच पाने की बेबसी, जरुर इन दिनों उनके गायन मे झलकने लगी है. स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय, अमेरिका की प्रो. लिंडा हैस के शोध और अनुवाद या शबनम वीरमानी की फिल्मों से लेकर इधर कबीर पर हुए तमाम शोधों और देश भर के लोककला उत्सवों मे भागीदारी से उनकी ऊर्जा का ह्रास हुआ है।

फ़िर भी वे मालवा के एकमात्र ऐसे गायक हैं, जिन्होंने सभी चुनौतियों को स्वीकार करके शास्त्रीयता को एक सिरे से नकार कर कबीर गायन सहज गायक बने हुए हैं. यह सहजपन उनकी अपनत्व की भावना, लोगों से मिलने और जुड़ जाने की प्रक्रिया से लेकर कबीर को गाते हुए नए सन्दर्भ और मौजूदा परिस्थितियों के अनुरूप टीका करने से उत्पन्न हुई है. यह दर्शाता है कि एक लोक गायक जब जन से जुडता है तो वह देश काल से परे होकर गायन करता है और शास्त्रीयता का छद्म आडम्बर छोडकर यही जनमानस भी उसे अपने गले लगाता है. 

कबीर जिन लोगों के लिए जिस भाषा में और जिस सहजपन से दो टूक बात कहते हैं या व्यवस्था का मखौल उड़ाकर आँखें खोलते हैं, वह इसी तरह से स्थापित किया जा सकता है जैसे प्रहलाद जी करते है या गाते हैं. अब समय है कि प्रहलाद टिपानिया नया रचें और इस समाज मे नित नई उठ रही समस्याओं को कबीर ने चौदहवीं सदी में जिस तरह से महसूस करके लिखा था; अब उसी सबको वे जनमानस के सामने रखें। बगैर किसी लाग लपेट के। सांगीतिक शास्त्रीयता की परवाह किये बिना। 

अपने कबीर को अपने लोगों के बीच फ़िर से प्रचलित करें क्योंकि अब समय कहाँ है, स्थितियां दुश्वार होती जा रही हैं। लोग आडम्बर में, ढकोसलों में और अपने 'इगो' को पुष्ट करते हुए नया रच रहे हैं। बेहतर है इस सबसे उबरकर कुछ ऐसा करें कि फ़िर जीवित हो कबीर और फ़िर पुरे दम से कहें 'जो घर जाले आपना चले हमारे साथ'.

sandeep-naikसंदीप नाइक सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं.

http://www.janjwar.com/2011-06-03-11-27-26/77-art/3947-apne-samay-ko-gao-prahlad-singh-tipaniya

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