सीताराम येचुरी |
सर्वोच्च न्यायालय ने कोयला खदानों के आबंटन के घोटाले की सीबीआई जांच में सरकार की दखलंदाजी पर सख्त नाराजगी जताई है। उसने गहराई तक गुणात्मक तफ्तीश का तकाजा किया और इस सिलसिले में सीबीआई की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए हैं। उसने सरकार से आग्रह किया है कि सीबीआई को निष्पक्ष बनाए और यह सुनिश्चित करे कि वह, ''सभी बाहरी दबावों से मुक्त रहकर'' काम करे। सीबीआई के काम-काज पर एक सख्त टिप्पणी में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है: ''यह इसकी क्लेशकर कहानी है कि एक तोता है और उसके कई आका हैं।'' सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सीबीआई एक ''पिंजड़े में बंद तोते की तरह है, जो अपने आका की बोली बोलता है।'' कानून मंत्री का अपने पद पर बने रहना और बेतुका बनाते हुए, सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने कहा है कि कोई मंत्री रिपोर्ट तो मांग सकता है, लेकिन अदालत के काम में दखलंदाजी नहीं कर सकता है। उधर एटार्नी जनरल ने, जिन्होंने पहले अदालत के सामने यह कहा था कि सरकार ने सीबीआई की रिपोर्ट में कोई हस्तक्षेप नहीं किया था, अब अपना बचाव करने की कोशिश करते हुए कहा- ''सीबीआई के अधिकारियों के साथ मेरी बैठक, कानून मंत्री के सुझाव पर ही हुई थी।'' इस सबके बाद, कानून मंत्री अपने पद पर नहीं बने रह सकते हैं और उन्हें जाना ही चाहिए। शायद, सर्वोच्च न्यायालय की ऐसी ही टिप्पणियों का अनुमान लगाकर सरकार ने संसद का बजट सत्र समय से पहले ही खत्म करा देने का फैसला कर लिया और 8 मई को ही संसद अनिश्चितकाल के लिए स्थगित करा दी। इस तरह बजट सत्र का उत्तरार्द्ध तो पूरी तरह से ही बर्बाद हो गया। नियत कार्यक्रम के अनुसार ग्यारह दिन बैठना था, लेकिन लोकसभा सिर्फ एक ही दिन चल पाई। राज्यसभा में 22 अप्रैल को, दिल्ली में एक अबोध बच्ची के साथ बलात्कार तथा कुल मिलाकर महिलाओं के खिलाफ बढ़ती यौन हिंसा के गंभीर मुद्दे पर बहस शुरू तो हुई, लेकिन यह बहस पूरी भी नहीं हो सकी। ग्यारह में से दस दिन, राज्यसभा में भी काम नहीं हुआ। बेशक, यह दयनीय स्थिति इसलिए पैदा हुई है कि यूपीए-द्वितीय की सरकार ने तय ही कर रखा था कि चाहे कैसे भी घपले-घोटाले सामने आएं, किसी को बदला नहीं जाएगा। बजट सत्र की शुरूआत ही हुई थी, सूर्यनेल्ली सामूहिक बलात्कार में भूमिका को लेकर राज्य सभा के डिप्टी चेयरमैन पर लगे आरोपों के मामले में, नंगई से उसका बचाव करने से। सरकार की इस तरह की नंगई, 2-जी स्पैक्ट्रम घोटाले के मामले में संयुक्त संसदीय समिति के काम में, समिति के अध्यक्ष के जरिए जारी रही। उसने इकतरफा तरीके से एक ऐसी रिपोर्ट तैयार कर दी, जो इस घोटाले की पूरी तरह से पर्दापोशी ही करती है। इतना ही नहीं, यह रिपोर्ट संयुक्त संसदीय समिति के सदस्यों के हाथों में पहुंचने से पहले ही मीडिया में आ भी चुकी थी। अंतत: लोकसभा की स्पीकर को संयुक्त संसदीय समिति का कार्यकाल ही बढ़ाना पड़ा ताकि वह मानसून सत्र के अंत तक अपनी रिपोर्ट दे सके। इस बीच भ्रष्टाचार के जो-जो मामले सामने आए हैं, चाहे कोयला ब्लाकों के आबंटन का मामला हो या फिर रेलवे में उच्च स्तर के पदाधिकारियों की नियुक्तियों का, सरकार ने यह जायज मांग मानने से ही इंकार कर दिया है कि कानून तथा रेल मंत्री इस्तीफा दें। बाद वाली मांग तो इस आधार पर ठुकरा दी गई कि अभी तो मामले में तफ्तीश चल रही है। लेकिन, जब तक रेल मंत्री के पद पर ऐसा व्यक्ति बैठा रहेगा जो खुद संदेह के घेरे में है, आरोपों की समुचित तफ्तीश हो ही कैसे सकती है? किसी भी जांच का जनता की नजरों में निष्पक्ष होना जरूरी है। कांग्रेस पार्टी की नंगई जनता के इस भरोसे को ही कमजोर कर रही है। यह एक दिलचस्प तथ्य है कि रेल मंत्री के भांजे के रेलवे में पदस्थापन के बदले में घूस लेने की खबरें आने के बाद, रेलवे ऑफिसर्स एसोसिएशनों की फैडरेशन ने कैबिनेट सचिव को एक पत्र लिखकर, जिसकी प्रति प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव को भेजी गयी है, विस्तार से बताया है कि किस तरह भारतीय रेलवे में ऊंचे स्तर पर पदाधिकारियों की नियुक्तियों में रत्तीभर पारदर्शिता नहीं है तथा पूरी तरह से जोड़-जुगाड़ का बोलबाला है। फैडरेशन ने उच्चतम स्तर से हस्तक्षेप की मांग की है ताकि भारतीय रेलवे के तंत्र को दुरुस्त किया जा सके और उसका गौरव लौटाया जा सके। इसके बावजूद, रेल मंत्री महोदय पद पर ही बने हुए हैं! सर्वोच्च न्यायालय की ताजातरीन टिप्पणियों के बाद कुछ इस्तीफे भी आ सकते हैं। बहरहाल, इस तरह से हमारी समूची संवैधानिक व्यवस्था को ही तोड़ा-मरोड़ा जा रहा है। उसे कार्यपालिका, विधायिका तथा न्यायपालिका के बीच शक्तियों के वितरण तथा उनके बीच के नाजुक संतुलन के पहलू से भी विकृत किया जा रहा है और हमारे संविधान की केंद्रीयता के पहलू से भी, जिसके तहत सर्वोच्च संप्रभुता जनता में ही निहित है। ''हम भारत के लोग'' अपनी इस संप्रभुता का व्यवहार अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों के जरिए करते हैं और ये निर्वाचित प्रतिनिधि खुद जनता के प्रति उत्तरदायी हैं और कार्यपालिका इनके प्रति उत्तरदायी है। जवाबदेही की इसी शृंखला को अब बुरी तरह से चोट पहुंचाई जा रही है। जब संसद का काम-काज ठप हो जाता है, वह कार्यपालिका को उत्तरदायी बनाने की अपनी जिम्मेदारी पूरी करने में भी विफल हो जाती है। यह जनता के प्रति संसद की जवाबदेही को विकृत करता है और इस प्रकार हमारे संविधान की बुनियाद पर ही चोट करता है। मौजूदा संसदीय गतिरोध से यह बुनियादी सवाल उठता है कि किस तरह सत्ता के जिन अंगों को संविधान को लागू कराने की जिम्मेदारी सौंपी गयी है, खुद ही उसे विफल करने में लगे हुए हैं। जब संसद अपना काम नहीं करती है और जब कार्यपालिका अपनी जिम्मेदारी पूरी नहीं करती है, उस सूरत में न्यायपालिका पर 'सक्रियतावाद' का दोष लगाना ही बेकार है। संसद का पंगु हो जाना उस कड़ी को ही तोड़ देता है, जिसका हमारी संवैधानिक व्यवस्था के लिए केंद्रीय महत्व है। प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग को लेकर संसद को ठप करने के जरिए भाजपा, सरकार के ही हाथों में खेली है। सरकार को जवाबदेही से बचने का यह सबसे आसान रास्ता लगा है। बेशक, 2-जी स्पैक्ट्रम का मामला हो या कोलगेट का, एनडीए की पिछली सरकार के पास भी छुपाने के लिए अपनी बहुत सी करनियां और अकरनियां हैं। इसलिए, ऐसा लगता है कि एक बार फिर दोनों के बीच मैच फिक्सिंग हुई है। यहां गंभीर मुद्दे सामने आ जाते हैं। हमारी संवैधानिक व्यवस्था में कार्यपालिका तथा विधायिका को सार्वजनिक मामलों के संचालन की जिम्मेदारी सौंपी गयी है और अंतिम विश्लेषण में जनता के प्रति जवाबदेह बनाया गया है। सच्चाई यह है कि यह जवाबदेही ही है जो जनतंत्र को, शासन की अन्य प्रणालियों से अलग करती है। हम आज ठीक इसी जवाबदेही के त्यागे जाने से दो-चार हो रहे हैं। हमारे संविधान के ऐसे भयावह विकृतिकरणों को फौरन दुरुस्त किए जाने की जरूरत है। सरकार को संसद के प्रति गैर-जवाबदेह बने रहने की इजाजत नहीं दी जा सकती। इसके लिए जरूरी है कि संसद समुचित ढंग से काम करे। बदले में यह जरूरी है कि सरकार, विपक्ष की जायज मांगों को स्वीकार करे जैसे कि संबंधित मंत्रियों के इस्तीफे की उसकी मांग है। अगर सरकार ने वक्त की मांग के मुताबिक विपक्ष द्वारा उठाए गए मुद्दों को मान लिया होता, तो संसद के काम करने में आए व्यवधान को काफी हद तक टाला जा सकता था। इसके साथ ही साथ विपक्ष को भी इस बात की इजाजत नहीं दी जा सकती कि अपनी नाजायज मांगों के लिए, संसद की कार्रवाई को ठप करे। वास्तव में समय आ गया है कि हम सब संविधान के एक ऐसे संशोधन पर विचार करें जिससे एक वर्ष में संसद का सौ दिन तक काम करना सुनिश्चित हो जाए। संसद के कामकाज में ऐसे व्यवधान के परिणामस्वरूप सरकार, बजट के अपने अधिकतर जनविरोधी प्रस्तावों को बिना किसी बहस या विरोध के मंजूर करवाने में सफल हो गई। ये ऐसे जनविरोधी प्रस्ताव थे जिनका वैसे कोई भी बचाव नहीं किया जा सकता था। ऐसे अनेक महत्वपूर्ण मुद्दे थे, जिन्हें उठाया जाना चाहिए था, उन पर बहस होनी चाहिए थी और सरकार को कार्रवाई करने पर मजबूर किया जा सकता था। लेकिन संसदीय कार्रवाई में व्यवधान के उन्हें उठाया ही नहीं जा सका। सीपीआई (एम) के संघर्ष संदेश जत्था कार्यक्रम के दौरान जो मुद्दे उठाए गए थे, वे सीधे जनता के जीवन में सुधार से जुड़े हुए थे, लेकिन उन्हें उठाया ही नहीं जा सका। महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और दूसरे क्षेत्रों के व्यापक हिस्सों में सूखे की स्थिति है जिसके चलते लाखों किसानों को पलायन करने पर मजबूर होना पड़ा है। पर यह मुद्दा भी नहीं उठाया जा सका। मंहगाई, कोबरापोस्ट के स्टिंग ऑपरेशन से बेनकाब हुए निजी तथा सार्वजनिक क्षेत्रों के बैकों द्वारा किए जानेवाले धनशोधन; रेलवे तथा सार्वजनिक सड़क परिवहन जैसे थोक उपभोक्ताओं के लिए डीजल की सब्सीडी का खात्मा, जिसके चलते हमारी जनता के बहुमत के लिए परिवहन की लागत बढ़ गई है; माइक्रो फाइनेंस कारपोरेशनों और चिट फंड ऑपरेटरों की धोखाधड़ीपूर्ण गतिविधियां, जिनके चलते लाखों लोगों का जीवन तबाह हो रहा है और जिनके चलते अनेक लोग आत्महत्याएं कर रहे हैं; आदि निर्णायक महत्व के ऐसे अनेक मुद्दे थे और साथ ही साथ विदेश नीति से जुड़े अनेक मुद्दे भी थे, जिन्हें संसद की कार्रवाई में व्यवधान के चलते नहीं उठाया जा सका। इन मुद्दों को अब संसद के बाहर जबर्दस्त जनलामबंदियों के जरिए उठाना होगा ताकि सरकार को ऐसे निर्णय लेने पर मजबूर किया जा सके, जिनसे हमारी आबादी के व्यापक बहुमत की जीवन स्थितियों में सुधार हो। सीपीआई (एम) ने मई महीने के दूसरे पखवाड़े में जिस देशव्यापी जन सत्याग्रह कार्यक्रम का आह्वान किया है, उसे ऐसे शक्तिशाली लोकप्रिय जनसंघर्षों का मंच बनाना होगा। http://www.deshbandhu.co.in/newsdetail/3703/10/0 |
Current Real News
7 years ago
No comments:
Post a Comment