मोदी चलें हंस की चाल
2009 का लोकसभा चुनाव हारने के बाद शिमला में बीजेपी की चिंतन बैठक हुई थी। उस वक्त बाल आप्टे ने चिंतन को लेकर जो रिपोर्ट बनायी उसे बीजेपी के ही एक महारथी ने लीक कर दिया था। लेकिन उस वक्त जो सवाल उठे थे संयोग से 2014 के चुनाव से पहले यह सवाल आज भी मौजू है और अब बीजेपी के भीतर सुगुबुहाट चल निकली है कि क्या बीजेपी को मोदी की हवा में बह जाना चाहिये या फिर जनता के सामने जाने से पहले तमाम मुद्दो पर एक बार फिर चितंक बैठक करनी चाहिये।
सवाल है कि गोवा अधिवेशन में बीजेपी का कौन ऐसा महारथी होगा जो सच बोलने के लिये सामने आयेगा और खुलकर कहेगा कि चुनाव प्रचार या चुनाव समिति की बात तब तक नहीं करनी चाहिये जब तक विकल्प का रास्ता ना हो। क्योकि 2009 के चुनाव की हार की सबसे बडी वजह उस वक्त आडवाणी का हल्ला था। मनरेगा को लेकर समझ नहीं थी और सिवाय मनमोहन सिंह को कमजोर बताने के अलावे कोई रणनीति नहीं थी। जबकि इसबार सरकार संसद को दरकिनार कर फूड सिक्यूरटी बिल और कैश ट्रासंभर का खेल शुर करने वाली है। और यह सीधे सीधे गरीबी रेखा से नीचे के उस तबके को प्रभावित करेगा जो लाइन में खडे होकर सौ फिसदी वोट डालता है। लेकिन बीजेपी ने कभी इस बारे में नहीं सोचा।
वोट डालने वाला दूसरा बडा तबका अल्पसंक्यक है। जो एक मुनादी पर वोट डालने के लिये कतारो में नजर आने लगता है। और मोदी के नाम पर बीजेपी का झंडा लहराने का मतलब है मुस्लिम वोट बैंक की तरफ से पहले ही आंख मूंद लेना। और उन सवालो पर चुप्पी बनाये रखना जो सवाल आज जनता को परेशान किये हुये है मसलन बीजेपी के यह अनसुलझे जवाब है कि आंतरिक सुरक्षा और सीमा सुरक्षा को लेकर उसकी नीति क्या होगी, घपले, घोटाले ना हो इसपर आर्थिक नीति कौन सी होगी ,बीपीएल परिवारो के लिये कौन सी योजना होगी ,मौजूदा शिक्षा नीति का विक्लप क्या होगा यानी मनमोहन सरकार के जिन भी मुद्दो पर बीजेपी विरोध कर रही है सत्ता में आने के बाद उन्ही मुद्दो पर बीजेपी की राय क्या होगी यह सामने आना चाहिये।
यानी मोदी की हवा को जमीन पर लाने के लिये गोवा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में 2009 की तर्ज पर चितन बैठक का सवाल उठ सकता है। अगर ऐसा होता है तो अंतर सिर्फ इतना ही होगा कि 2009 में हारने के बाद कमजोरी खोजी गई और अब जीतने के लिये मजबूती बनाने की बात होगी। हो क्या रहा है यह समझे तो जोडतोड कर हर कोई अपनी जमीन ही पुख्ता करने में लगा है जैसे सत्ता बीजेपी के दरवाजे पर दस्तक दे चुकी है। पन्नो को पलटे तो मौजूदा स्थिति समझने में कुछ और मदद मिलेगी। मसलन नीतिन गडकरी ने राजनाथ सिंह के लिये रास्ता बनाया। राजनाथ सिंह नरेन्द्र मोदी के लिये रास्ता बना रहे है। मोदी का रास्ता पुख्ता होते चले इसपर गडकरी भी सहमति जता रहे है और गडकरी की यही सहमति राजनाथ को मजबूत करते जा रही है। यानी राजनाथ, मोदी और गडकरी की तिकडी पहली बार एक-दूसरे के हित को साधते हुये दिल्ली की उस चौकडी पर भारी पड रही है जिसे कभी सरसंघचालक मोहनभागवत ने यह कहते हुये खारिज किया था कि बीजेपी का नया अध्यक्ष दिल्ली से नहीं होगा। तो सवाल तीन है। पहला क्या 2014 के चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष के लिये मोदी के नाम पर आरएसएस ने ठप्पा लगा दिया है। दूसरा क्या प्रचार समिति के जरीये -बीजेपी साथी दलो के मिजाज के एसिड टेस्ट के लिये तैयार हो गई है। और तीसरा क्या संसदीय बोर्ड के आगे मोदी की लक्षमण रेखा खिंच दी गयी है।
यानी नरेन्द्र मोदी के ही इद्रगिर्द बीजेपी को चलाने की ऐसी तैयारी राजनाथ कर रहे है जिससे गोवा अधिवेशन से लेकर आने वाले वक्त में तमाम राजनीतिक सवाल सिर्फ 2014 की चुनावी तैयारी में ही सिमट जाये। क्योकि राजनाथ सिंह ने जो आडवाणी को समझाया उसके मुताबिक -प्रचार की कमान थामते ही मोदी देश भर भ्रमण करेंगे। इससे कार्यकर्ताओ में उत्साह आयेगा और आने वाले वक्त में दिल्ली,मध्यप्रदेश, छत्तिसगढ और राजस्थान के चुनाव में इसका सीधा लाभ बीजेपी को मिलेगा। जानकारी के मुताबिक नरेन्द्र मोदी ने आडवाणी से मिलने पर जब आश्रिवाद मांगा तो आडवाणी ने मोदी के सर पर हाथ रख यही कहा कि आगे बढिये हम सब साथ है। यानी आडवाणी समझ चुके है कि फिलहाल राजनाथ, मोदी और गडकरी की तिकडी की ही चल रही है तो उन्होने सुझाव सिर्फ इतना दिया की गडकरी चुनाव समिति संभाले और मोदी प्रचार समिति। क्योकि आडवाणी मोदी के इस मिजाज को जानते है कि प्रचार समिति ही धीरे धीरे चुनाव के समूचे तौर तरीके को हडप लेगी। शायद गडकरी भी इस बिसात को समझने लगे है इसीलिये उन्होने खुद के नागपुर से चुनाव लडने का बहाना बना कर चुनाव समिति संभालने से इंकार कर दिया।
लेकिन राजनीति तिकडमों से नही चलती। और इसके लिये गोवा के ही 2002 के उस अधिवेशन में लौटना होगा जहा वाजपेयी टाहते थे कि मोदी गुजरात सीएम का पद छोड दें और मोदी ने तिकडम से ना सिर्फ उस वक्तक खुद को बचाया बल्कि अपने लिये सियासी लकीर खिंचते चले गये। शायद इसीलिये कहा जा रहा है कि जो कहानी 2002 में शुरु हुई उस कहानी की असल पटकथा क्या 2013 में लिखी जायेगी। 2002 में बीजेपी के राष्ट्रीय अधिवेशन में भी सवाल नरेन्द्र मोदी ही थे और 11 बरस बाद 2013 में भी गोवा अधिवेशन में सवाल मोदी ही होगें। 2002 में नरेन्द्र मोदी को गुजरात के सीएम के पद को छोडने का सवाल था। 2013 में मोदी को 2014 की कमान सौपने का सवाल है।
2002 में मोदी के चहेतो ने बिसात ऐसी बिछायी कि मोदी की गद्दी बरकरार रह गयी। और माना यही गया कि 2002 में राजधर्म की हार हुई और मोदी की जीत हुई। वहीं 2013 में अब मोदी के लिये रेडकारपेट दिल्ली में तो बिछ चुकी है लेकिन रेडकारपेट पर मोदी चलेगे कब इस आस में गोवा अधिवेशवन कल से शुरु हो रहा है। और सवाल एकबार फिर मोदी है। 2002 के वक्त गुजरात दंगो को बीजेपी पचा नहीं पा रही थी क्योकि उस वक्त केन्द्र में बीजेपी की ही अगुवाई में एनडीए की सरकार थी। लेकिन 2013 में बीजेपी को मोदी की अगुवाई इसलिये चाहिये क्योकि वह केन्द्र की सत्ता पर काबिज होना चाहती है। यानी जो मोदी 2002 में वाजपेयी सरकार के लिये दाग थे वही मोदी 2013 में बीजेपी को सत्ता तक पहुंचाने के लिये तुरुप का पत्ता बन चुके है। यानी मोदी ने 2014 के मिशन को थामा को बीजेपी के सांसदो की संख्या बढेगी लेकिन बीजेपी के भीतर का अंतर्द्वदन्द यही है कि मोदी के आने सी सीट तो बढती है लेकिन सत्ता फिर भी दूर रहती है।
यानी बीजेपी को उन सहयोगियो का भी साथ चाहिये जो अयोध्या, कामन सिविल कोड और धारा 370 को ठंडे बस्ते में डलवाकर बीजेपी के साथ खडे हुये थे। इसलिये सवाल यह नहीं है कि मोदी के नाम का एलान गोवा में हो जाता है। सवाल यह है कि 2002 में कमान वाजपेयी के पास थी जो मोदी को राजघर्म का पाठ पढा रहे थे ौर 2013 में बीजेपी मोदी की सवारी करने जा रही है जहा गुजरात से आगे के मोदी के राजघर्म की नयी पटकथा का इंतजार हर कोई कर रहा है।
मौजूदा दौर में मोदी इसलिये गोवा से आगे भी बडा सवाल बन चुके है क्योकि इसलिये मोदी को लेकर बीजेपी के भीतर सवाल सहयोगी दलो को लेकर भी उठ रहा है और बीजेपी में गठबंधन की जरुरत भी महत्वपूर्म बनती चली जा रही है। चन्द्बाबाबू नायडू, अजित सिंह, चौटाला, नवीन पटनायक, ममता बनर्जी, रामविलास पासवान,फाऱुख अब्दुल्ला, शिबू सोरेन और एक वक्त जयललिता को उनके हटने पर करुणानिधी बीजेपी के साथ खड़े थे। यानी यह दस चेहरे ऐसे है जो 2002 के वक्त बीजेपी के साथ थे तो एनडीए की सरकार बनी हुई थी और चल रही थी। लेकिन 2004 के बाद से 2013 तक को लेकर बीजेपी में भरोसा नहीं जागा है कि एनडीए फिर खडी हो और सरकार बनाने की स्थिति आ जाये। लेकिन 2014 को लेकर अब नरेन्द्र मोदी को जिस तरह प्रचार समिति के कमांडर के तौर पर बीजेपी गुजरात के बाहर निकालने पर सहमति बना चुकी है ऐसे में बीजेपी को अपनी उम्मीद तो सीटे बढाने को लेकर जरुर है लेकिन मौजूदा वक्त में बीजेपी के पास कुछ जमा तीन बडे साथी है। नीतिश कुमार, उद्दव ठाकरे और प्रकाश सिंह बादल।
और इसमें भी नीतिश कुमार मोदी का नाम आते ही गठबंधन से बाहर का रास्ता नापने को तैयार है। शिवसेना के सामने मोदी का नाम आने पर अपने ही वोट बैंक में सेंघ लगने का खतरा है।तो वह दबी जुबान में कभी सुषमा स्वराज तो कभी आडवाणी का नाम उछालने से नहीं कतराती है। लेकिन बीजेपी मोदी को लेकर जिस मूड में है उसे पढे तो तीन बाते साफ उभरती है। पहला मोदी की लोकप्रियता भुनाने पर ही बीजेपी के वोट बढगें। दूसरा सहयोगियो की मजबूरी के आधार पर बीजेपी अपने लाभ को गंवाना नहीं चाहेगी। और तीसरा मोदी की अगुवाई में अगर बीजेपी 180 के आंकडे तक भी पहुंचती है तो नये सहयोगी साथ आ खडे हो सकते है। और मोदी को लेकर फिलहाल राजनाथ गोवा अधिवेशन में इसी बिसात को बिछाना चाहते है जिससे संकेत यही जाये कि मोदी के विरोधी राजनीतिक दलो की अपनी मजबूरी चुनाव लडने के लिये हो सकती है लेकिन चुनाव के बाद अगर बीजेपी सत्ता तक पहुंचने की स्तिति में आती है तो सभी बीजेपी के साथ खडे होगें ही।
http://visfot.com/index.php/current-affairs/9356-narendra-modi-story-punya-prasun-1306.html
No comments:
Post a Comment