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Sunday, October 30, 2016

महत्वपूर्ण खबरें और आलेख नई विश्व व्यवस्था बनाने की तैयारी में इजराइल, साझेदार संघ परिवार

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हर मुश्किल आसान विनिवेश,यानी देश बेच डालो! देशभक्ति का नायाब नमूना,सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों का लग रहा है सेल ताकि अच्छे दिन आये दिशी विदेशी निजी कारपोरेट कंपनियों के! पलाश विश्वास


हर मुश्किल आसान विनिवेश,यानी देश बेच डालो!

देशभक्ति का नायाब नमूना,सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों का लग रहा है सेल ताकि अच्छे दिन आये दिशी विदेशी निजी कारपोरेट कंपनियों के!

पलाश विश्वास

हर मुश्किल आसान विनिवेश,यानी देश बेच डालो!

देशभक्ति का नायाब नमूना,सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों का लग रहा है सेल ताकि अच्छे दिन आये दिशी विदेशी निजी कारपोरेट कंपनियों के!

औद्योगीकरण के बहाने स्मार्ट भारत के लिए सबसे सीधा रास्ता विनिवेश का है।खेती में मरघट है और किसानों की खुदकशी आम है तो औद्योगिक ढांचा चरमरा रहा है और उत्पादन लगातार गिर रहा है।भारत का बाजार विदेशी कंपनियों के हवाले हैं।जिस चीन के बहिस्कार का नाटक है,सबसे ज्यादा मुनाफे में वे ही चीनी कंपनियां है।जाहिर है कि अच्छे दिन सचमुच आ गये हैं।बहरहाल किनके अच्छे दिन हैं और किनके बुरे दिन,यह समझ पाना टेढ़ी खीर है।अब केंद्र सरकार भी अपने पीएसयू ( पब्लिक सेक्टर यूनिट) के लिए बड़ा सेल लाने पर विचार कर रही है।जाहिर है कि भारत सरकार सार्वजनिक क्षेत्र की उत्पादन इकाइयों,उनके अधीन राष्ट्र की बेशकीमती संपत्ति और इन कंरपनियों के नियंत्रित प्रबंधित सारे संसाधनों को एकमुश्त निजी कारपोरेट देशी विदेशी कंपनियों के हवाले करने जा रही है।देशभक्ति यही है।

रोजगार सृजन का यह अभूतपूर्व उपक्रम बताया जा रहा है।सरकारी कंपनियों यानी सरकारी क्षेत्रों के बैंकों,जीवन बीमा निगम,भारतीय रेलवे जैसी कंपनियों की जमा पूंजी विनिवेश में लगाकर,यानी इन कंपनियों में लगगी आम जनता और करदाताओं के खून पसीने की कमाई विदेशी और देशी, निजी और कारपोरेट कंपनियों केहित में शेयर बाजार में हिस्सेदारी खरीदने के दांव पर लगाकर सरकारी कंपनियों को ठिकाने लगाने के  इस महोत्सव से व्यापक पैमाने पर रोजगार सृजन का दावा किया जा रहा है।सरकारी कंपनियों को,देशी उत्पादन इकाइयों को छिकाने लगाकर मेहनतकशों और कर्मचारियों के हकहकूक छीनकर कैसे रोजगार का सृजन होगा,खुलासा नहीं है।

विभिन्न मंत्रालयों के सचिवों के साथ नई विश्वव्यवस्था के परिकल्पित कल्कि अवतार ने सिसिलेवार बैटक करके मैजिक शो  के बीच देश की सरकारी कंपनियों के खजाने को खोलकर लोककल्याण और भारत निर्माण का यह विनिवेश किया है।कल्कि महाराज की दलील है कि सरकारी कंपनियां पूंजी पर बैठी हैं,इस पूंजी का निवेश कर दिया जाये तो अच्छे दिन आ जायेंगे और हर युवा हाथ को रोजगार मिलेगा।देश में दूध घी की नदियां बहने लगेंगी।सरकारी कंपनियों की इस पूंजी से सरकारी कंपनियों को निजी हाथों में सौंपर उनमें काम कर रहे मेहनतकशों और कर्मचारियों की रोजी रोटी छीन ली जाये तो देशी विदेशी कंपनियों की दिवाली घनघोर मनेगी,जो उन्हेंने इस देश की सेना को विदेशी कंपनियों के हाथों देश हारने की दीवाली काबतौर समर्पित किया है।

जाहिर है कि दिवाली सेना को समर्पित करके युद्धोन्माद का ईंधन फूल टंकी भर लेने के बाद मां काली की पूजा के तहत अब उसी फर्जी औद्योगीकरण के शहरीकरण अभियान के तहत सरकारी कंपनियां,सरकारी संपत्ति और आम जनता के संसाधन विदेशी हितों की बलि चढ़ाने का कार्यक्रम जारी है।देश को देशभक्त सरकार का यह तोहफा है कि केंद्र सरकार अपनी 22 लिस्टेड और अनलिस्टेड कंपनियों की नियंत्रण हिस्सेदारी बेचने पर विचार कर रही है।

आम जनता के अच्छे दिनों के आयात निर्यात की इस बुलेट परियोजना के तहत दावा यह है कि  इससे सरकार को 56,500 करोड़ रुपये का विनिवेश लक्ष्य (डिसइनवेस्टमेंट टारगेट) हासिल करने में मदद मिलेगी।

फिलहाल विनिवेश की इस ताजा लिस्ट में बड़ी सरकारी कंपनियां जैसे कंटेनर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया, भारत अर्थमूवर्स शामिल हैं। बाकी कंपनियों के कर्मचारी अफसर धीरज रखें,अबकी दफा नहीं तो बहुत जल्द उनका भी काम तमाम है।

इस घोषित लिस्ट के अलावा सरकार स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया (SAIL)के तीन प्लांट्स और अनलिस्टेड कंपनी सीमेंट कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया में भी अपनी हिस्सेदारी बेचने की योजना बनाई है।

गौरतलब है कि नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया की अध्यक्षता वाली समिति ने अपनी रिपोर्ट में घाटे में चल रहे 74 में से 26 सरकारी पीएसयू को बंद करने की सलाह दी है। वहीं, पांच पीएसयू को लॉन्ग टर्म लीज या मैनेजमेंट कॉन्ट्रैक्ट बेसिस पर देने का सुझाव दिया गया है। तीन सब्सिडियरी फर्म को पैरेंट पीएसयू में मिलाने और दो को जस-का-तस बनाए रखने की सिफारिश की है।

सातवें वेतन आयोग और वन रैंक, वन पेंशन लागू करने से भले ही सरकार के खजाने पर दबाव बढ़ा हो लेकिन कालेधन के खुलासे और स्पेक्ट्रम की नीलामी से मिलने वाली राशि से चालू वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटे की भरपाई में बड़ी मदद मिलेगी।इन दोनों स्रोतों के बाद अब सरकार की नजरें विनिवेश पर हैं। पहली छमाही में कर राजस्व संग्रह मिला-जुला रहते देख वित्त मंत्रालय की कोशिश है कि दूसरी छमाही में विनिवेश के माध्यम से राशि जुटाई जाए।

गनीमत है कि विदेशी कंपनियों को इस तरह भारतीय कंपनियों, भारत की संपत्ति और संसाधनों को हासिल करने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह को ई पलाशी का युद्ध नहीं लड़ना पड़ रहा है।देश की स्वतंत्रता और संप्रभुता उन्हें धनतेरस के उपहार की तरह सप्रेम भेंट दिया जा रहा है।आम जनता देश के भीतर विदेशी कंपनी के हाथों देश को बेचे जाते देखकर खामोश रहे,इसके लिए उनका ध्यान भटकाने के लिए युद्ध और गृहयुद्ध का माहौल बनाये रखना जरुरी है ताकि लाखों ईस्टइंडिया कंपनी के हाथों देश का चप्पा चप्पा बेच सकें देशभक्तों की सरकार।

इस कारपोरेट धनतेरस कार्निवाल के लिए डिपार्टमेंट ऑफ इनवेस्टमेंट एंड पब्लिक एसेट मैनेजमेंट (दीपम) ने कैबिनेट नोट जारी किया है। दावा यह है कि सार्वजनिक कंपनियों का कूटनीतिक विनिवेश (स्ट्रैटेजिक डिसइनवेस्टमेंट) होने जा रहा है। इसकी प्रक्रिया शुरू हो गई है।गौरतलब है कि इस लिस्ट में ऐसी कंपनियां भी शामिल हैं, जो मुनाफे में चल रही हैं। वहीं कुछ ऐसी भी हैं, जो मुनाफे में नहीं हैं लेकिन उनके पास काफी संपत्ति है।

संसद के बजट सत्र से पहले ही विनिवेश का यह नील नक्शा तैयार है और हमेशा की तरह संसद को बाईपास करके कैबिनेट ने सरकारी कंपनियों में हिस्सा बेचने से संबंधित विनिवेश प्रस्ताव को सैद्धांतिक मंजूरी दे दी है और आगे होने वाले विनिवेश की रुपरेखा तय कर दी है,जिसका इस देश के निर्वाचित जनप्रतिनिधि विरोध करेंगे,इसकी कोई आशंका भी नहीं है।  इस फैसले के तहत 50 पीएसयू में स्ट्रैटेजिक विनिवेश होगा। इस मामले में अब कंपनी दर कंपनी फैसला लिया जाएगा।

गौरतलब है कि इससे पहले नीति आयोग ने मुनाफे में चल रही सरकारी कंपनियों (पीएसयू) में स्ट्रैटेजिक डिसइनवेस्टमेंट के सुझाव वाली रिपोर्ट दी थी। उसी के आधार पर यह योजना बनाई गई है। आयोग ने उन कंपनियों की पहचान की थी, जिन्हें बेचा जा सकता है। वह इस मामले में दीपम के साथ मिलकर काम करेगा। प्लानिंग के तहत सरकार अनलिस्टेड कंपनियों से पूरी तरह बाहर निकल जाएगी। वह पूरी कंपनी निवेशकों को बेच देगी। वहीं, लिस्टेड कंपनियों में केंद्र सरकार अपनी हिस्सेदारी 49 पर्सेंट से कम करेगी। इससे कंपनी पर उसका नियंत्रण खत्म हो जाएगा।

कैबिनेट बैठक में महंगाई भत्ते में 2 फीसदी की बढ़ोतरी को मंजूरी मिल गई है। इसके अलावा कैबिनेट ने कीमतों को काबू में रखने के लिए चीनी पर स्टॉक होल्डिंग लिमिट की मियाद 6 महीने के लिए बढ़ा दी है।रोजगार भले छीनजाये।सर पर चाहे चंटनी की तलवार लटकी रहे।बचे खुचे अफसरों और कर्मचारियों को सातवां वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू करने के अलावा इस तरह के तमाम क्रयक्षमता बढ़ाने वाले वियाग्रा की आपूर्ति होती रहेगी,ताकि संगठित सरकारी क्षेत्र में विनिवेश के खिलाप कोई चूं बी न कर सकें।

बहरहाल 1991 के बाद 1916 तक ट्रेड युनियनों के लिए विनिवेश के सौजन्य से सपरिवार विदेश दौरे और दूसरी किस्म की मौज मस्ती की गुंजाइस बहुत कम हो गयी है और कामगार कर्मचारी हितों की लड़ाई और आंदोलन की विचारधारा अब विशुध चूं चूं का मुरब्बा है,जो आयुर्वेद का वैदिकी चमत्कार है।

बहरहाल वित्त मंत्री मशहूरकारपोरेट वकील अरुण जेटली ने गुरुवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट की बैठक के बाद जानकारी देते हुए मीडिया मार्फत कहा है कि  कि किस पीएसयू का रणनीतिक विनिवेश होगा यह तय करने का काम डिपार्टमेंट ऑफ इन्वेस्टमेंट एंड पब्लिक एसेट मैनेजमेंट (डीअाईपीएएम) को सौंपा गया है। वही विनिवेश के लिए न्यूनतम मूल्य तय करेगा। उन्होंने बताया कि सरकारी कंपनियों में रणनीतिक हिस्सेदारी की बिक्री के जरिए 20,500 रुपए जुटाने की योजना है। लेकिन इस लक्ष्य को पाने के लिए सरकार विनिवेश में जल्दबाजी में नहीं करेगी।

विनिवेश के इस खेल में आपका बीमा प्रीमियम और उसका भविष्य भी दांव पर है क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र की जीवन बीमा निगम कंपनी भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) ने सरकार द्वारा एनबीसीसी के 2,218 करोड़ रुपये के विनिवेश के तहत 50 प्रतिशत से अधिक शेयरों की खरीद की है। एनबीसीसी की पिछले सप्ताह आयोजित बिक्री पेशकश में भागीदारी के बाद सार्वजनिक क्षेत्र की निर्माण कंपनी में एलआईसी की हिस्सेदारी बढ़कर 8.11 प्रतिशत हो गई है। एनबीसीसी द्वारा शेयर बाजारों को दी गई जानकारी के अनुसार ओएफएस के दिन उसके नौ करोड़ शेयरों की पेशकश में से 54.08 प्रतिशत या 4.86 करोड़ शेयर खरीदे।

मीडिया के मुताबिक ओएफएस के न्यूनतम मूल्य 246.50 रुपये प्रति शेयर के हिसाब से एलआईसी ने एनबीसीसी के 4.86 करोड़ शेयरों की खरीद के लिए करीब 1,200 करोड़ रुपये का निवेश किया। सरकार ने संस्थागत और खुदरा निवेशकों को एनबीसीसी की 15 प्रतिशत हिस्सेदारी बिक्री के जरिये 2,218 करोड़ रुपये जुटाए हैं। इस साल अप्रैल से सरकार बिक्री पेशकश के जरिये तीन कंपनियों में विनिवेश से 8,632 करोड़ रुपये जुटा चुकी है। सरकार ने चालू वित्त वर्ष में विनिवेश से 56,500 करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा है।

विनिवेस हर मुश्किल आसान क्यों है,इसकी दलील यह है कि वित्त वर्ष 2016-17 के लिए सरकार ने राजकोषीय घाटे का लक्ष्य जीडीपी का 3.5 प्रतिशत रखा है। चालू वित्त वर्ष में रक्षा क्षेत्र में वन रैंक वन पेंशन तथा सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने के चलते सरकार के खजाने पर बोझ बढ़ा है।इसके बावजूद केंद्र ने राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को सहजता से हासिल करने की ओर बढ़ रहा है। सिर्फ सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें ही लागू होने से चालू वित्त वर्ष में सरकार के खजाने पर एक लाख करोड़ रुपये से अधिक का बोझ पड़ा है।हालांकि सरकार को काले धन की घोषणा होने और स्पेक्ट्रम की नीलामी से अतिरिक्त आय जुटाने में मदद मिली है। घरेलू काले धन के लिए आय घोषणा योजना से सरकार को लगभग 30,000 करोड़ रुपये मिलने का अनुमान है लेकिन चालू वित्त वर्ष में इसमें से मात्र आधी राशि ही आएगी।इसी तरह स्पेक्ट्रम की नीलामी से भी सरकार को 65 हजार करोड़ रुपये से अधिक राजस्व मिलने का अनुमान है लेकिन यह पूरी राशि भी सरकार को इसी साल में नहीं मिलेगी। ऐसे में अब सरकार की नजर विनिवेश पर है।

गौरतलब है कि आम बजट में सरकार ने विनिवेश से 56500 करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य रखा है लेकिन अप्रैल से अगस्त के दौरान पहले पांच महीने में इससे महज 3182 करोड़ रुपये ही जुटाए जा सके हैं जो बजटीय लक्ष्य का मात्र नौ प्रतिशत हैं।


चालू वित्त वर्ष के पहले पांच महीनों में की प्रगति देखें तो सरकार 533,904 करोड़ रुपये के राजस्व घाटे में से 76.4 प्रतिशत यानी 407,820 करोड़ रुपये का इस्तेमाल हो चुका है। वैसे पहली छमाही में राजस्व प्राप्तियों के संबंध में प्रदर्शन मिला-जुला रहा है।


परोक्ष कर संग्रह के मामले में सरकार का प्रदर्शन ठीक रहा है लेकिन प्रत्यक्ष कर संग्रह पर अर्थव्यवस्था की सुस्ती का असर दिख रहा है। चालू वित्त वर्ष में अप्रैल से सितंबर के दौरान परोक्ष कर संग्रह 4.08 लाख करोड़ रुपये रहा है जो बजट अनुमानों का 52.5 प्रतिशत है। इसी तरह प्रत्यक्ष करों के मोर्चे पर भी सरकार ने पहली छमाही में 3.27 लाख करोड़ रुपये का शुद्ध संग्रह किया है जो बजटीय अनुमान का मात्र 38.65 प्रतिशत है।

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Saturday, October 29, 2016

नई विश्व व्यवस्था बनाने की तैयारी में है इजराइल,साझेदार संघ परिवार पलाश विश्वास

नई विश्व व्यवस्था बनाने की तैयारी में है इजराइल,साझेदार संघ परिवार

https://www.youtube.com/watch?v=8S53ESH-JWE

पलाश विश्वास

इजराइल की तरह सर्जिकल स्ट्राइक के लिए चित्र परिणाम

भारत अमेरिका भले बन नहीं पाया हो,अमिरीकी उपनिवेश मुकम्मल बन गया है।विडंबना यह है कि वह अमेरिका अब गहरे संकट में है और डालर से नत्थी भारतीय अर्थव्यवस्था का अंजाम क्या होगा,अगर अमेरिका की पहल पर तृतीय विश्वयुद्ध शुरु हो गया,इस पर हमने सोचा नहीं है।अमेरिका इजराइल के शिकंजे में है।ट्रंप और हिलेरी दोनों इजराइल के उम्मीदवार हैं और जो भी जीते,जीत इजराइल की है और हार अमेरिकी गणतंत्र की है।जीत रंगभेद की है।नतीजा महान अमेरिका का पतन है।इजराइल की तैयारी नई विश्व व्यवस्था बनाने की है और संघ परिवार उसका सच्चा साझेदार है।इसके नतीजे क्या क्या हो सकते हैं,इस पर अभी से सोच लीजिये।

मसलन अभी टाटा संस का जो संकट है,वह अध्ययन और शोध का मामला है। टाटा मोटर्स का कारोबार इस मुक्त बाजार में जैसा बेड़ा गर्क हुआ कि नैनो झटके से टाटा का अंदर महल जिस तरह बेपर्दा हो गया है,उससे साफ जाहिर है कि चुनिंदा एकाध कंपनियों की दलाली का कारोबार भले मुक्तबाजार में आसमान की बुलंदियां छू लें, बाकी सभी भारतीय घरानों, कंपनियों, मंझौले और छोटे उद्योगों और व्यवसाइयों का बंटाधार है।खुदरा बाजार तो अब सिरे से बेदखल है और उत्पादन प्रणाली ठप है।

ग्लोबल कंपनियों को खुला बाजार के बहाने भारत में कारोबार का न्यौता देने से भारतीय बाजार से बेदखल होने लगी है देशी कंपनियां।सेक्टर दर सेक्टर यही हाल है।टाटा का किस्सा टाटा समूह का निजी संकट नहीं है।इस संकट के मायने बुहत गहरे हैं।घाव किसी एक को लगा है,यह समझकर बाकी लोग अपना ही जख्म चाटने लगे हैं।

सेवा क्षेत्र के दम पर अर्थव्यवस्था को फर्जी आंकड़ों और तथ्यों के सहारे पटरी पर रखना बेहद मुश्किल है।

टाटा के संकट से उद्योग और कारोबार जगत को खतरे की घंटी सुनायी नहीं पड़ी तो आगे चाहे ट्रंप जीते या फिर मैडम हिलेरी तृतीय विश्व युद्ध हो गया और डालर खतरे में हुआ तो कयामत ही आने वाली है।

इस बीच भारत के प्रधानमंत्री ने परंपरागत भारतीय विदेशनीति और राजनय को तिलांजलि देखकर एक तीर से दो निशाने साधन का करतब जो किया है,वह भी कम हैरत अंगेज नहीं है।इसे उनकी मंकी बात समझ लेना ऐतिहासिक भूल होगी।तेलअबीब और नागपुर के मुख्यालयों में नाभिनाल का संबंध है।अमेरिकी चुनाव में दोनों मुख्य उम्मीदवार ट्रंप और हिलेरी के पीछे तेल अबीब है।तेलअबीब के दोनों हाथों में लड्डू है।उस लड़्डू के हिस्से की दावेदारी का यह नजारा है,ऐसा समझना भी गलत होगा।

अब कोई गधा भी इतना नासमझ नहीं होगा कि इजराइल के सर्जिकल हमलों का असल मतलब क्या है।इजराइल कहां हमला करता है और किनकेखिलाफ हमला करता है।एक झटके से फलीस्तीन पर दशकों से होरहे हमलों को भारत के राजनीतिक नेतृत्व ने जायज बता दिया है,जिसे भारत हमेशा नाजायज बताता रहा है।भारत की गुटनिरपेक्ष राजनय का मुख्य फोकस फलस्तीन को बारत का समर्थन है और फलीस्तीनी जनता पर इजराइली हमलों का विरोध भी है।

भारत की इसी गुट निरपेक्ष राजनय की वजह से  पाकिस्तान खुद को कितना ही इस्लामी साबित करें,अरब देशों में से किसी ने अब तक भारत के खिलाफ पाकिस्तान का साथ नहीं दिया है।पाकिस्तान तो पहले से घिरा हुआ है तो इजराइलके पक्ष में फलीस्तीन की खिलाफत करके अरब देशों को पाकिस्तान के पाले में धकेलने का इस राजनयिक  सर्जिकल स्ट्राइक का आशय बहुत खास है।

जाहिर सी बात है कि खिचड़ी कुछ और ही पक रही है।

तेलअबीब और नागपुर का यह टांका नई विश्व्यवस्था पर काबिज होने की तैयारी है।अमेरिका का अवसान देर सवेर हुआ तो विश्वव्यवस्था भी नई होगी और इस गलतफहमी में न रहे कि रुश को सोवियत संघ है और पुतिन कोई लेनिन।रूस पर भी दक्षिणपंथी नस्लवाद का शिकंजा है।रूस हो या न हो,नई विश्वव्यवस्था बनाने की तैयारी में है इजराइल और उसका साझेदार संघ परिवार है,जो ग्लोबल हिंदुत्व को नई विश्वव्यवस्था की एकमात्र आस्था बनाने पर आमादा है।

गुजरात नरसंहार के वक्त किसी ने नहीं सोचा था कि उस मामले में अभियुक्त इतना पाक साफ निकल जायेगा कि वही देश का प्रधानमंत्री होगा।लगभग यही परिदृश्य अमेरिका में है।ट्रंप के हक में गोलबंदी फिर तेलअबीब और नागपुर का हानीमून है।जैसे 2103 में भी मोदी के प्रधानमंत्रित्व का ख्वाब किसी को नही आया,वैसे ही मीडिया और विश्व जनमत को धता बताने वाले घनघोर रंगभेदी ट्रंप के अमेरिका के राष्ट्रपति बनने की आशंका अब भी लोकतांत्रिक ताकतों को नहीं है।

फासिज्म की चाल इसीतरह होती है कि कब मौत की तरह घात लगाकर वह देस काल परिस्थिति पर काबिज हो जाये,उसका अंदाजा कभी नहीं लगता।

जगजाहिर है कि सोवियत संघ के विघटन के बाद विश्वव्यवस्था पर अमेरिका काबिज है।खाड़ी युद्ध से ही मध्यएशिया का युद्धस्थल हिंद महासागर में स्थांनातरित करने की कवायद शुरु हो चुकी थी।क्योंकि तेल अमेरिका के पास कम नहीं है।फालतू तेल और जलभंडार मध्यएशिया से लूटने की उनकी रणनीति जो है सो है,उनका असल मकसद दक्षिण एशिया के अकूत प्राकृतिक संसाधन हैं और तेजी से पनप रहे दक्षिण एसिया के उपभोक्ता बाजार उनके खास निसाने पर है।युद्धक अर्थव्यवस्था के लिए यह हथियारों का सबसे बड़ा बाजार भी है।

जेपी के आंदोलन को समर्थन के जरिये राजा रजवाड़ों की स्वतंत्र पार्टी और भारतीय जनसंघ के विलय से बनी जनता पार्टी के आपातकाल के अवसान के बाद से अबतक दक्षिणपंथी हिंदुत्ववादी संग पिरवार समेत तमाम अमेरिका परस्त तत्वों ने भारत को अमेरिका बनाने की कोशिश में इस महादेश को सीमाओं के आर पार अमेरिकी उपनिवेश बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

इंदिरा गांधी के अवसान के बाद कांग्रेस पर भी उन्हीं तत्वों का वर्चस्व हो गया है।शुरुआत 1977 की ऐतिहासिक हार के बाद 1980 में सत्ता में इंदिरा की वापसी के बाद इंदिराम्मा और संघ सरसंचालक देवरस की एकात्मता से हुई जिसे सिखों के नरसंहार के जरिये संघ समर्थन से भारी बहुमत के साथ सत्ता में पहुंचने के बाद 1984 में प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी ने अयोध्या के विवादित मंदिर मस्जिद धर्मस्थल का ताला खोलकर अंजाम तक पहुंचाया।

फिर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के बहाने वाम और संघ दोनों के समर्थन से बनी वीपी सिंह के राजकाज के दौरान मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के बाद मंडल के खिलाफ कमंडल हाथों में लेकर जो आरक्षण विरोधी आंदोलन चालू हुआ, उसीके नतीजतन भगवान श्रीराम का रावणवध कार्यक्रम फिर शुरु हो गया।

इसी सिलसिले में भारत में सोवियत संघ के विघटन के बाद वाम राजनीति का हाशिये पर चला जाना भी बहुत प्रासंगिक है।

सोवियत समर्थक वाम राजनीति ने आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी का साथ दिया तो आपातकाल का अंत होते न होते आपातकाल के तुरंत बाद सत्ता की राजनीति में दक्षिणपंथ वापंथ एकाकार हो गया।सोवियत समर्थक धड़ा हालाकिं 1977 के बाद भी गाय और बछड़े की तरह उस इंदिराम्मा से जुड़ा रहा जो सत्ता में वापसी के लिए गुपचुप संघ परिवार के हिंदुत्व की लाइन पकड़ चुकी थी।बंगाल में सत्तामें भागेदारी की मलाई खाने के लिए सोवियत समर्थक फिर माकपाई मोर्चे में भी शामिल हो गये।

इंदिरा के अवसान के बाद राजीव गांधी के राजकाज के पीछे भाजपा की परवाह किये बिना संघ परिवार का हाथ रहा है।लेकिन वाम राजनीति की कोई दिशा बनी नहीं।तीन राज्यों की सत्ता की राजनीति में उलझकर खत्म होती गयी वामपंथी विचारधारा और पूरा देश दक्षिणपंथी अमेरिकापरस्ती के शिकंजे में फंसता गया।

1989 में मंडल आयोग के बहाने वीपी की सरकार गिराकर फिर बाबरी विध्वंस और गुजरात नरसंहार के जरिये संघ परिवार का प्रत्यक्ष राजकाज  की बुनियाद बन गयी।डा.मनमोहन सिंह के ऩवउदारवादी अवतार से भारत के मुक्त बाजार बनते जाने के नरसिम्हाकाल और मनमोहक समय के अंतराल में भारतीय राजनीति से वाम का सफाया हो गया तो मुख्ट राजनीति के कांग्रेस केंद्रित और भाजपाकेंद्रित दोनों धड़े अमेरिकापरस्त हो गये।सरकार चाहे जिस किसी की हो,राजकाज वाशिंगटन का जारी रहा है।राजनीति चाहे जो रही हो,आर्थिक नीतियां अमेरिकी हितों के मुताबिक बनती बिगड़ती रही है।संसद में बहुमत हो या नहीं,सारे कायदे कानून सुधार के समाजवादी नारों के साथ अर्थव्यवस्था को बंटाधार करने के लिए सर्वदलीय सहमति से बनते बिगड़ते रहे और राजनीति धार्मिक ध्रूवीकरण की हो गयी।

सत्तर के दशक से जारी धार्मिक ध्रूवीकरण का परिणाम यह अंध धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद है जो अंततः मुक्तबाजार का कार्यक्रम है।जिसका भारतीय वामपंथ ने किसी बी स्तर पर कोई विरोध नहीं किया तो अंततः फासिज्म का यह कारोबार निर्विरोध सर्वदलीय सहमति से फलता फूलता रह गया है और नतीजतन राजनीति भी अब कारपोरेट है और ग्रामप्रधान भी अब करोडों में खेलता है।इस पेशेवर राजनीति से विचारधारा या जनप्रतिबतिबद्धता की उम्मीद करने से बेहतर है मर जाना।भारतीय किसान थोक दरों पर खुदकशी करके यही साबित कर रहे हैं।

अब लगता है कि घटना क्रम जिस तेजी से बदलने लगा है और अर्थव्यवस्था का जिस तेजी से बंटाधार होने लगा है,किसानों और आम मर्द औरतों के अलावा उद्योग और कारोबार जगत के वातानुकूलित लोगों के लिए भी आखिरी विकल्प वही है।


इसी सिलसिले में बहुत कास बात यह है कि अब संघ परिवार देश जीतने के बाद दुनिया जीतने के फिराक में है।इसी वजह से नागपुर और तेल अबीब का यह नायाब गठबंधन है तो ट्रंप के समर्थन में ग्लोबल हिंदुत्व की जय जयकार है।


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Thursday, October 27, 2016

शरणार्थियों की नागरिकता के विरोध में ममता बनर्जी और इस विधेयक को लेकर बंगाल और असम में धार्मिक ध्रूवीकरण बेहद तेज शरणार्थियों को नागरिकता का मामला कुछ ऐसा ही बन गया है जैसे महिलाओं को राजनीतिक आरक्षण का मामला है।तकनीकी विरोध के तहत संसद के हर सत्र में महिला सांसदों की एकजुटता के बावजूद उन्हें राजनीतिक आरक्षण सभी दलों की ओर से जैसे रोका जा रहा है,2016 के नागरिकता संशोधन विधेयक के तक


शरणार्थियों की नागरिकता के विरोध में ममता बनर्जी और इस विधेयक को लेकर बंगाल और असम में धार्मिक ध्रूवीकरण बेहद तेज

शरणार्थियों को नागरिकता का मामला कुछ ऐसा ही बन गया है जैसे महिलाओं को राजनीतिक आरक्षण का मामला है।तकनीकी विरोध के तहत संसद के हर सत्र में महिला सांसदों की एकजुटता के बावजूद उन्हें राजनीतिक आरक्षण सभी दलों की ओर से जैसे रोका जा रहा है,2016 के नागरिकता संशोधन विधेयक के तकनीकी मुद्दों के तहत मुसलमान वोट बैंक को साध लेने की होड़ में विभाजनपीड़ितों की नागरिकता का मामला तो लटक ही गया है और इससे असम और बंगाल में कश्मीर से भी भयंकर हालात पैदा हो रहे हैं।पहले शरणार्थी वामदलों के साथ थे।मरीचझांपी नरसंहार के बाद परिवर्तन काल में शरणार्थी तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में हो गये और शरणार्थियों में देशबर में कहीं भी वामदलों का समर्थन नहीं है।धर्मनिरपेक्ष राजनीति के इस विधेयक के तकनीकी विरोध के साथ शरणार्थी अब पूरे देश में संघ परिवार के खेमे में चले जायेंगे।बंगाल में 2021 में संघ परिवार के राजकाज की तैयारी जोरों पर है।

पलाश विश्वास

Refugees from East Bengal के लिए चित्र परिणाम

सबसे पहले यह साफ साफ कह देना जरुरी है कि हम भारत ही नहीं,दुनियाभर के शरणार्थियों के हकहकू के लिए लामबंद हैं।

सबसे पहले यह साफ साफ कह देना जरुरी है कि हम विभाजनपीड़ित शरणार्थियों की नागरिकता के लिए जारी देशव्यापी आंदोलन के साथ है।

सबसे पहले यह साफ साफ कह देना जरुरी है कि विभाजनपीड़ितों की नागरकता के मसले को लेकर धार्मिक ध्रूवीकरण की दंगाई राजनीति का हम पुरजोर विरोध करते हैं।विभाजनपीड़ितों की पहचान अस्मिताओं या धर्म का मसला नहीं है।यह विशुद्ध तौर पर कानूनी और प्रशासनिक मामला है,जिसे जबर्दस्ती धार्मिक मसला बना दिया गया है और पूरी राजनीति इस धतकरम में शामिल है,जो विभाजनपीड़ितों के खिलाफ है।

कुछ दिनों पहले मैंने लिखा था कि इतने भयंकर हालात हैं कि अमन चैन के लिहाज से उनका खुलासा करना भी संभव नही है।पूरे बंगाल में जिस तरह सांप्रदायिक ध्रूवीकरण होने लगा है,वह गुजरात से कम खतरनाक नहीं है तो असम में भी गैरअसमिया तमाम समुदाओं के लिए जान माल का भारी खतरा पैदा हो गया है। गुजरात अब शांत है।लेकिन बंगाल और असम में भारी उथल पुथल होने लगा है।मैंने लिखा था कि असम और बंगाल में हालात कश्मीर से ज्यादा संगीन है।

पहले मैं इस संवेदनशील मुद्दे पर चुप रहना बेहतर समझ रहा था लेकिन हालात असम में विभाजनपीड़ितों की नागरिकता के खिलाफ अल्फाई आंदोलन  और बंगाल में भी धार्मिक ध्रूवीकरण की वजह से बेहद तेजी से बेलगाम होते जा रहे हैं,इसलिए अंततः इस तरफ आपका ध्यान खींचना अनिवार्य हो गया है।

नागरिकता संशोधन विधेयक 2016 को लेकर यह ध्रूवीकरण बेहद ते ज हो गया है।हम शुरु से शरणार्थियों के साथ हैं।यह समस्या 2003 के नागरिकता संशोधन विधयक से पैदा हुई है,जो सर्वदलीय सहमति से संसद में पास हुआ।

जन्मजात नागरिकता का प्रावधान खत्म होने से जो पेजदगिया पैंदा हो गयी हैं,उन्हें उस कानून में किसी भी तरह का संशोधन से खत्म करना नामुमकिन है।

1955 के नागरिकता कानून के तहत शरणार्थियों को जो नागरिकता का अधिकार दिया गया था,उसे छीन लेने की वजह से यह समस्या है।

यह कानून भाजपा ने पास कराया था,जिसका समर्थन बाकी दलों ने किया था।बाद में 2005 में डा. मनमोहनसिह की कांग्रेस सरकार ने इस कानून को संसोधित कर लागू कर दिया।गौरतलब है कि मनमोहन सिह और जनरल शंकर राय चौधरी ने ही 2003 के नागरिकता संशोधन विधेयक में शरणार्थियों को नागरिकता का प्रावधान रखने का सुझाव दिया था,लेकिन जब उनकी सरकार ने उस कानून को संशोधित करके लागू किया तो वे शरणार्थियों की नागरिकता का मुद्दा सिरे से भूल गये।

अब वही भाजपा सत्ता में है और वह अपने बनाये उसी कानून में संसोधन करके मुसलमानों को चोड़कर तमाम शरणार्थियों को नागरिकता देने के लिए नागरिकता संशोधन 2016 विधेयक पास कराने की कोशिश में है और उसे शरणार्थी संगठनों का समर्थन हासिल है।लेकिन भाजपा को छोड़कर किोई राजनीतिक दल इस विधेयक के पक्ष में नहीं है।दूसरी ओर,शरणार्थियों की नागरिकता के बजाय संघ परिवार मुसलमानों को नागरिकता के अधिकार से वंचित करने की तैयारी में है।जबकि तृणमूल कांग्रेस और वामपंथी दलों के साथ असम की सरकार के इस विधेयक को समर्थन के बावजूद असम के तमाम राजनीतिक दल और अल्फा,आसु जैसे संगठन इसके प्रबल विरोध में हैं।आसु ने असम में इसके खिलाफ आंदोलन तेज कर दिया है।असम में गैर असमिया समुदायोेें के खिलाफ कभी भी फिर दंगे भड़क सकते हैं।भयंकर दंगे।

राजनीतिक दल इस कानून के तहत मुसलमानों को भी नागरिकता देने की मांग कर रहे हैं जिसके लिए संघ परिवार या एसम के राजनीतिक दल या संगठन तैयार नहीं हैं।असम में तो किसी भी गैरअसमिया के नागरिक और मानवाधिकार को मानने के लिए अल्फा और आसु तैयार नहीं है,भाजपा की सरकार में राजकाज उन्हीं का है।

वामपंथी दलों के साथ तृणमूल कांग्रेस इस विधेयक का शुरु से विरोध करती रही है।अब बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और पश्चिम बंगालसरकार इस विधेयक का आधिकारिक विरोध करते हुए उसे वापस लेने की मांग कर रही है।

शरणार्थियों को नागरिकता का मामला कुछ ऐसा ही बन गया है जैसे महिलाओं को राजनीतिक आरक्षण का मामला है।तकनीकी विरोध के तहत संसद के हर सत्र में महिला सांसदों की एकजुटता के बावजूद उन्हें राजनीतिक आरक्षण सभी दलों की ओर से जैसे रोका जा रहा है,2016 के नागरिकता संशोधन विधेयक के तकनीकी मुद्दों के तहत मुसलमान वोट बैंक को साध लेने की होड़ में विभाजनपीड़ितों की नागरिकता का मामला तो लटक ही गया है और इससे असम और बंगाल में कश्मीर से भी भयंकर हालात पैदा हो रहे हैं।पहले शरणार्थी वामदलों के साथ थे।मरीचझांपी नरसंहार के बाद परिवर्तन काल में शरणार्थी तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में हो गये और शरणार्थियों में देशबर में कहीं भी वामदलों का समर्थन नहीं है।धर्मनिरपेक्ष राजनीति के इस विधेयक के तकनीकी विरोध के साथ शरणार्थी अब पूरे देश में संघ परिवार के खेमे में चले जायेंगे।बंगाल में 2021 में संघ परिवार के राजकाज की तैयारी जोरों पर है।

गौरतलब है कि दंडकारण्य और बाकी भारत से विभाजनपीड़ितों को बंगाल बुलाकर उनके वोटबैंक के सहारे कांग्रेस को बंगाल में सत्ता से बेदखल करने का आंदोलन कामरेड ज्योति बसु और राम चटर्जी के नेतृत्व में वामदलों ने शुरु किया था।मध्यबारत के पांच बड़े शरणार्थी शिविरों को  उन्होंने इस आंदोलन का आधार बनाया था।शरणार्थियों के मामले में बंगल की वामपंथी भूमिका से पहले ही मोहभंग हो जाने की वजह से शरणार्थियों के नेता पुलिनबाबू ने तब इस आंदोलन का पुरजोर विरोध किया था,जिस वजह से वाम असर में सिर्फ दंडकारण्य के शरणार्थी ही वाम आवाहन पर सुंदरवन के मरीचझांपी पहुंचे तब तक कांग्रेस को वोटबैंक तोड़कर मुसलमानों के समर्थन से ज्योति बसु बंगाल के मुख्यमंत्री बन चुके थे और वामदलों के लिए शरणार्थी वोट बैंक की जरुरत खत्म हो चुकी थी।जनवरी 1979 में इसीलिए मरीचझांपी नरसंहार हो गया और बंगाल और बाकी देश में वामपंथियों के खिलाफ हो गये तमाम शरणार्थी।

बहुत संभव है कि लोकसभा में भारी बहुमत और राज्यसभा में जोड़ तोड़ के दम पर संघ परिवार यह कानून पास करा लें लेकिन 1955 के नागरिकता कानून को बहाल किये बिना संशोधनों के साथ 2003 के कानून को लागू करने में कानूनी अड़चनें भी कम नहीं होंगी और इस नये कानून से नागरिकता का मामला सुलझने वाला नहीं है।शरणार्थी समस्या सुलझने के आसार नहीं है लेकिन इस प्रस्तावित नागरिकता संशोधन के विरोध और विभाजनपीड़ितों की नागरिकता के साथ मुसलमान वोट बैंक की राजनीति जुड़ जाने से जो धार्मिक ध्रूवीकरण बेहद तेज हो गया है,उससे बंगाल और असम में पंजाब,गुजरात और कश्मीर से भयानत नतीजे होने का अंदेशा है।

जहां तक हमारा निजी मत है,हम 2003 के नागरिकता संशोदन कानून को सिरे से रद्द करके 1955 के नागरिकता कानून को बहाल करने की मांग करते रहे हैं।1955 के कानून को लेकर कोई विरोध नही रहा है।इसीके मद्देनजर हमने अभी तक इस मुद्दे परकुछ लिखा नहीं है और न ही संसदीय समिति को अपना पक्ष बताया है क्योंकि संसदीय समिति में शामिल सदस्यअपनी अपनी राजनीति कर रहे हैं और सुनवाई सिर्फ इस विधेयक को लेकर राजनीतिक समीकरण साधने का बहाना है।

वे हमारे अपने लोग हैं जिनके लिए मेरे दिवंगत पिता पुलिनबाबू ने तजिंदगी सीमाओं के आर पार सर्वहारा बहुजनों को अंबेडकरी मिशन के तहत एकताबद्ध करने की कोशिश में दौड़ते रहे हैं। जब बंगाल में कम्युनिस्ट नेता बंगाल से बाहर शरणार्थियों के पुनर्वास का पुरजोर विरोध कर रहे थे,तब पुलिनबाबू कम्युनिस्टों के शरणार्थी आंदोलन में बने रहकर शरणार्थियों को बंगाल से बाहर दंडकारण्य या अंडमान में एकसाथ बसाकर उन्हें पूर्वी बंगाल जैसा होमलैंड देने की मांग कर रहे थे।

केवड़ातला महाश्मशान पर इस मांग को लेकर पुलिनबाबू ने आमरण अनशन शुरु किया तो उनका कामरेड ज्योतिबसु समेत तमाम कम्युनिस्ट नेताओं से टकराव हो गया।उन्हें ओड़ीशा उनके साथियों के सात भेज दिया गया लेकिन जब उनका आंदोलन वहां भी जारी रहा तो उन्हें नैनीताल की तराई के जंगल में भेज दिया गया।वहां भी कम्युनिस्ट नेता की हैसियत से उन्होंने ढिमरी ब्लाक किसान आंदोलन का नेतृत्व किया।आंदोलन के सैन्य दमन के बाद तेलंगना के तुरंत बाद कम्युनिस्ट पार्टी ने उस आंदोलन से नाता तोड़ दिया।फिर उन्होंने कम्युनिस्टों पर कभी भरोसा नहीं किया।

वैचारिक वाद विवाद में बिना उलझे पुलिनबाबू हर हाल में शरणार्थियों की नागरिकता,उनके आरक्षण और उनके मातृभाषी के अधिकार के लिए लड़ते रहे।1971 में बांग्लादेश बनने के बाद भी वे ढाका में शरणार्थी समस्या के स्थाई हल के लिए पूर्वी और पश्चिमी बंगाल के एकीकरण की मांग करते हुए जेल गये।

1971 के बाद वीरेंद्र विश्वास ने भी पद्मा नदी के इस पार बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों के लिए होम लैंड आंदोलन शुरु किया था।मरीचझापी आंदोलन में भी वे नरसंहार के शिकार शरणार्थियों के साथ खड़े थे।

तबसे आजतक विभाजनपीड़ित बंगाली शरणाऱ्थियों की नागरिकता,आरक्षण और मातृभाषा के अधिकार को लेकर आंदोलन जारी है लेकिन किसी भी स्तर पर इसकी सुनवाई नहीं हो रही है।सीमापार से लगातार जारी शरणार्थी सैलाब की वजह से दिनोंदिन यह समस्या जटिल होती रही है।भारत सरकार ने बांग्लादेश में अल्पसंक्यक उत्पीड़न रोकने के लिए कोई पहल 1947 से अब तक नही की है।2003 के कानून के बाद सन1947 के विभाजन के तुरंत बाद भारत आ चुके विभाजनपीड़ितों की नागरिकता छीन जाने से यह समस्या बेहद जटिल हो गयी है।1971 से हिंदुओं के साथ बड़े पैमाने पर असम,त्रिपुरा,बिहार और बंगाल में जो बांग्लादेशी मुसलमान आ गये,उसके खिलाफ असम औरत्रिपुरा में हुए खून खराबे के बावजूद इस समस्या को सुलझाने के बजाय राजीतिक दल अपना अपना वोटबैंक मजबूत करने के मकसद से राजनीति करते रहे,शरणार्थी समस्या सुलझाने की कोशिश ही नहीं हुई।

1960 के दशक में बंगाली शरणार्थियों के खिलाफ असम में हुए दंगो के बाद से लगातार पुलिन बाबू शरणार्थियों की नागरिकता की मांग करते रहे लेकिन वे शरणार्थियों का कोई राष्ट्रव्यापी संगठन बना नहीं सके।वे 1960 में असम के दंगाग्रस्त इलाकों में शरणार्तियों के साथ थे।अस्सी के दशक में भी बिना बंगाल के समर्थन के विदेशी हटाओ के बहाने असम से गैर असमिया समुदायों को खदेडने के खिलाफ वे शरणार्थियों की नागरिकता के सवाल को मुख्य मुद्दा मानते रहे हैं।

शरणार्थी समस्या सुलझाने के मकसद से अटल बिहारी वाजपेयी की पहल पर वे 1969 में भारतीय जनसंघ में शामिल भी हुए तो सालभर में उन्हें मालूम हो गया कि संघियों की कोई दिलचस्पी शरणार्थियों को नागरिकता देने में नहीं है।

हमें अनुभवों से अच्छीतरह मालूम है कि शरणार्थियों को बलि का बकरा बनाने की राजनीति की क्या दशा और दिशा है।लेकिन राजनीति यही रही तो हम शरणार्थी आंदोलन के केसरियाकरण को रोकने की स्थिति में कतई नही हैं।जो अंततः बंगाल में केसरियाकरण का एजंडा भी कामयाब बना सकता है।वामपंथी इसे रोक नही सकते।

बाकी राजनीतिक दलों के विभाजनपीड़ितों की नागरिकता के किलाफऱ लामबंद हो जाने के बाद असम और बंगाल में ही नहीं बाकी देश में भी इस मुद्दे पर धार्मिक ध्रूवीकरण का सिलसिला तेज होने का अंदेशा है।

कानूनी और तकनीकी मुद्दों को सुलझाकर तुरंत विभाजनपीड़ितों की नागरिकता देने की सर्वदलीय पहल हो तो यह धार्मिक ध्रूवीकरण रोका जा सकता है।

The Citizenship (Amendment) Bill, 2016

Security / Law / Strategic affairs

The Citizenship (Amendment) Bill, 2016

Highlights of the Bill

  • The Bill amends the Citizenship Act, 1955 to make illegal migrants who are Hindus, Sikhs, Buddhists, Jains, Parsis and Christians from Afghanistan, Bangladesh and Pakistan, eligible for citizenship.

  • Under the Act, one of the requirements for citizenship by naturalisation is that the applicant must have resided in India during the last 12 months, and for 11 of the previous 14 years.  The Bill relaxes this 11 year requirement to six years for persons belonging to the same six religions and three countries.

  • The Bill provides that the registration of Overseas Citizen of India (OCI) cardholders may be cancelled if they violate any law.

Key Issues and Analysis

  • The Bill makes illegal migrants eligible for citizenship on the basis of religion. This may violate Article 14 of the Constitution which guarantees right to equality.

  • The Bill allows cancellation of OCI registration for violation of any law. This is a wide ground that may cover a range of violations, including minor offences (eg. parking in a no parking zone).

Read the complete analysis here

http://www.prsindia.org/billtrack/the-citizenship-amendment-bill-2016-4348/



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Tuesday, October 25, 2016

সময় এসেছে। ভিক্ষা বৃত্তি ছাড়ুন। বাংলার নিপিড়িত শোষিত বঞ্চিত বহুজনের স্বার্থে একত্রিত হোন। রাজনৈতিক ক্ষ্মতায়নের মধ্য দিয়েই যোগ্য জবাব দিন এই যুগান্তের ষড়যন্ত্রকারীদের।


মোদিভাইয়ের আনা নাগরিকত্ব সংশোধনী বিল একেবারে বাতিল করার দাবী তুললেন দিদিভাই। দুর্দান্ত সাজানো নাটকের প্লট। শ্যামাপ্রসাদ থেকে শ্যামাঙ্গিনী মমতা নিখুঁত অভিনেতা অভিনেত্রী। দিদিভাই মোদিভাইরা জেনে গেছেন যে তাদের পূর্বপুরুষেরা ভারতকে টুকরো করে বাংলাকে টুকরো করে উদ্বাস্তুদের শিরদাঁড়া ভেঙ্গে দিয়েছেন। এখন তাদের মাথা নিচু করে থাকা ছাড়া উপায় নাই। ২০১৪ সাল পর্যন্ত আগত উদ্বাস্তুদের পক্ষে নাগরিকত্ব বিলকে সংশোধন করে আইনে পরিণত করলে এই ক্লীব শিরদাঁড়ায় আবার হাড় গজাতে শুরু করবে। ঘাড় শক্ত হবে। ঝুঁকে পড়া মাথা খাঁড়া হয়ে দাঁড়াবে। মূলনিবাসীর এই খাঁড়া মাথা ব্রাহ্মন্যবাদীদের কাছে বড় বেমানান। বড় বেশি আতঙ্কের। 
বিজেপি যে বিল এনেছেন তাতে অসংখ্য ছিদ্র। এমন একটি ইস্যুতে এত ছিদ্র? খসড়া বিল আনার আগে সর্বদলীয় বৈঠকে এই ছিদ্র এড়ানো যেত। আসলে আন্তরিকতা নয় রাজনৈতিক ফয়দা তোলাই এদের লক্ষ্য। মানুষকে ছিন্নমূল করে রাখতে পারলেই এরা নিশ্চিন্ত থাকতে পারে। 
সমাধান একটাই, বহুজনের রাজনৈতিক ক্ষ্মতায়ন। একটি বিদ্যালয়ের জন্য আন্দোলন, বিডিও অফিস ঘেরাও, ডেপুটেশন, একটি পরিষদ ইত্যাদি ইত্যাদি আসলে আবেদন-নিবেদন এবং ভিক্ষা বৃত্তির সামিল। সংখ্যা গরিষ্ঠ কেন এই ভিক্ষা বৃত্তিতে সামিল হবে? কেন তারা রাজনৈতিক ভাবে নিজেদের অধিকার প্রতিষ্ঠিত করবেন না !! আবেদন নিবেদনে ব্যক্তি মানুষের কিছু গতি হলেও সামগ্রিক স্বার্থ রক্ষা হয় না।

সময় এসেছে। ভিক্ষা বৃত্তি ছাড়ুন। বাংলার নিপিড়িত শোষিত বঞ্চিত বহুজনের স্বার্থে একত্রিত হোন। রাজনৈতিক ক্ষ্মতায়নের মধ্য দিয়েই যোগ্য জবাব দিন এই যুগান্তের ষড়যন্ত্রকারীদের।

Saradindu Uddipan and 3 others shared a link.
কংগ্রেস সহ অন্যান্য ধর্মনিরপেক্ষ দলগুলির সঙ্গে সমন্বয় করে তৃণমূল যে এ বার সংসদে মোদী সরকারকে কোণঠাসা করতে চাইছে তার ইঙ্গিত দু'দিন আগেই দিয়েছিলেন তৃণমূল নেত্রী মমতা বন্দ্যোপাধ্যায়।
ANANDABAZAR.COM|BY নিজস্ব সংবাদদাতা

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Monday, October 24, 2016

সত্যি সেলুকাস্ কি বিচিত্র এদেশ ভারতবর্ষ!

দক্ষিনেশ্বর কালীমন্দির নির্মান করেছিলেন রানীরাসমনি ১৮৫৫ সালে।একটু পয়সার মুখ দেখলেই সকল মানুষের বিশেষ করে দলিত মানুষের মন্দির গড়ার মানসিকতা তৈরি হয়ে যায়।এতে পাপ মুক্তি- পূণ্যত্ব প্রাপ্তি এবং নাম- যশের ভাগি হওয়া যায়।আবার ওদিকে ভাত ছড়ালে যেমন কাকের অভাব হয়না তেমনি মন্দির হলেও পূজারির অভাব হয়না।অথচ যেদিন মন্দিরের জন্য জমি খুঁজছিলেন তখন কোন হিন্দুরাই গঙ্গাপারে জমি বিক্রি করতে রাজি হয়নি শুদ্রানির কাছে সেই জমি অবশেষে পেলেন কিছুটা ফিরিঙ্গিদের কবর স্থান আর বাকিটা মুষলমানদের কবর স্থান।বেগতিক বুঝে কিছু ব্রাহ্মণ বলতে শুরু করল শশ্মানের উপর কচ্ছপের পিঠের মত উচুঁ জায়গাইতো কালিসাধনার উপযুক্ত স্থান।একথা শুনে দিগুন উৎসাহে কালি-মন্দির নির্মান হল কিন্তু পূজারি পাওয়ায় বাধাঁ ঘটল।বীর রমনী রানীরাসমনি যিনি ইংরেজদের সঙ্গে যুদ্ধ করে জেলেদের গঙ্গা বক্ষে মাছধরার অধিকার ফিরিয়ে আনলেন যিনি বাবুঘাট, নিমতলাঘাট তৈরি করলেন তিনি পুরহিত খুঁজে পাচ্ছেননা কারন জেলে শুদ্রনীর মন্দিরে পূজা করতে রাজি কেউ রাজি নয়।ওদিকে কামার পুকুরের রামকুমার গরীব পিতৃহীন পূজারি ব্রাহ্মণ তার ছোট ভাইএর ভবিষ্যত নিয়ে চিন্তিত মুখ দিয়ে লালা গড়ায় মাঝে মাঝে ফিট্পড়ে গ্রামের কেউ পূজা করতে ডাকেনা।সুতরাং তিনি রাসমনির আর্জি নিয়ে ছুটলেন নবদ্বীপ সেখানে গিয়ে ন্যায়লংঙ্কার তর্কলংঙ্কার সব লংঙ্কারদের অলংঙ্কার নিয়ে হাজির রাসমনির দ্বারে। এসে বললেন পূজারিদের স্বত্ত্ব দান করলে কোন দোষ থাকবেনা।ব্যাস্ গদাই এর চাকরি পাকা সঙ্গে অনেক পুরোহিতের জীবিকার পথ পরিস্কার।
অথচ এইতো কদিন আগে বিড়ার অসুর স্মরণ সভায় বাঁধা দলিতের জন্য দলিতেরাই তারা একবার ভেবে দেখলনা আমার জাতির লোক যখন বলছে তখন সহযোগিতা না করি একবার এর সত্যতা বা উপযোগীতা যাচাই করে দেখি।
এব্যাপারে উচ্চবর্ণ সমাজ একদম সোচ্চার নিজেদের স্বার্থে।যখন তখন নিয়ম তৈরি করে।
সত্যি সেলুকাস্ কি বিচিত্র এদেশ ভারতবর্ষ!
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বিশিষ্ট গান্ধীবাদী স্বাধীনতা সংগ্রামী পদ্মভূষণ ও আনন্দ পুরস্কারপ্রাপ্ত লেখক কেন্দ্রীয় খাদি বোর্ডের অধিকর্তা শৈলেশকুমার বন্দ্যোপাধ্যায় আজ সকাল সাড়ে 6 টায় প্রয়াত হয়েছেন ।

Emanul Haque

বিশিষ্ট গান্ধীবাদী স্বাধীনতা সংগ্রামী পদ্মভূষণ ও আনন্দ পুরস্কারপ্রাপ্ত লেখক কেন্দ্রীয় খাদি বোর্ডের অধিকর্তা শৈলেশকুমার বন্দ্যোপাধ্যায় আজ সকাল সাড়ে 6 টায় প্রয়াত হয়েছেন ।
বেলা 1.30 টার সময় তাঁর দেহ নীলরতন সরকার হাসপাতালের অ্যানাটোমি বিভাগে দান করা হয়.।

মৃত্যু কালে তাঁর বয়স হয়েছিল 90।
জন্ম 10 মার্চ 1926 বিহারের সিংভূমে।
1942 ভারত ছাড়ো আন্দোলনে যোগ দিয়ে জেলে যান। গান্ধীর শিষ্য । সর্বোদয় ভূদান আন্দোলনে সক্রিয় ভূমিকা নেন।
40 গ্রন্থের লেখক ।।
গান্ধী পিস ফাউন্ডেশনের প্রথম সম্পাদক ।।
হেরিটেজ কমিশনের প্রথম চেয়ারম্যান ।
পেয়েছেন আনন্দ পুরস্কার ।
জিন্না: পাকিস্তান,দাঙ্গার ইতিহাস তাঁর অন্যতম প্রধান গ্রন্থ ।।
তাঁর দুই কন্যা ও এক পুত্র বর্তমান।
ভাষা ও চেতনা সমিতির পক্ষে তাঁর মৃত্যুতে শ্রদ্ধা জানান হয়।।
দেহ নিয়ে যাওয়া হয় নীলরতন হাসপাতালে। ।


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