Follow palashbiswaskl on Twitter

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity Number2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

What Mujib Said

Jyoti Basu is dead

Dr.BR Ambedkar

Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti Devi were living

Tuesday, April 2, 2013

वेदविश्वासियों के शिकंजे में :आदिवासी एच एल दुसाध

गैर-मार्क्सवादियों से संवाद-7            2 अप्रैल,2013

        वेदविश्वासियों के शिकंजे में :आदिवासी

                                एच एल दुसाध  

                        

चार दशक से चल रहे नक्सलवादी आन्दोलन के इतिहास में 6 मार्च ,2010 एक खास दिन था.उस दिन माओवादी नेता कोटेश्वर राव उर्फ किशनजी ने घोषणा किया था,'हम 2050 के बहुत पहले भारत में तख्ता पलट कर रख देंगे.हमारे पास अपनी पूरी फ़ौज है.'उनके उस  बयान पर गृहसचिव जीके पिल्लई ने कहा था,'माओवादी यह सपना देखते रहें,आखिर डेमोक्रेसी में सबको सपना देखने का अधिकार है.'जाहिर है  सरकार  ने माओवदियों  की चेतावनी को गंभीरता से नहीं लिया था.किन्तु उसके बाद थोड़े-थोड़े अंतराल पर बड़ी-बड़ी वारदातों को अंजाम देकर यह संकेत देते रहे कि वे सिर्फ सपना ही नहीं देखते बल्कि उसे मूर्त रूप देने कि कूवत भी रखते हैं.

बहरहाल माओवादी जब-जब राष्ट्र को सकते में डालनेवाली घटनाओं को अंजाम देते हैं,तब-तब हमारे बुद्धिजीवी भी कलम के साथ सक्रिय हो जाते हैं.कोई सरकार को माओवादियों से कड़ाई से निपटने का सुझाव देता है तो कोई माओवाद प्रभावित इलाकों में विकास की  गंगा बहाने का नुस्खा पेश करता है.कुछ बुद्धिजीवी विदेशी विद्वानों के अध्ययन के आधार पर नए सिरे से इस समस्या के जड़ को  पहचानने की कोशिश करते हैं.किन्तु ऐसे लोग इसकी जड़ों की पहचान के लिए संविधान निर्माता डॉ आंबेडकर की ओर मुखातिब नहीं होते.जबकि सच्चाई यही है कि डॉ आंबेडकर को पढ़े  बिना न तो हम इस समस्या की  सही पहचान कर सकते हैं और न ही उपयुक्त समाधान सुझा सकते हैं.

 माओवाद या नक्सलवाद के कारण आज राष्ट्र जिस हालात से दो-चार हो रहा है,उसकी कल्पना करके ही डॉ आंबेडकर ने 25 नवंबर 1949 को संसद के केन्द्रीय कक्ष से एक चेतावनी दे हुए कहा था कि हमलोगों को निकटतम  भविष्य के मध्य आर्थिक और सामाजिक विषमता का खात्मा कर लेना होगा नहीं तो विषमता से पीड़ित जनता इस राजनैतिक गणतंत्र को विस्फोटित कर सकती है.''चूंकि सदियों से ही सारी दुनिया में आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी की उत्पत्ति शक्ति के तीन प्रमुख स्रोतों(आर्थिक-राजनितिक और धार्मिक)के विभिन्न सामाजिक समूहों और उनकी महिलाओं  के मध्य असमान बंटवारे  से होती रही है इसलिए लोकतंत्र की सलामती को ध्यान में रखकर शासक दलों को भारत के चार सामाजिक समूहों-सवर्ण,ओबीसी,एससी/एसटी और धार्मिक अल्पसंख्यकों-के स्त्री-पुरुषों के संख्यानुपात में शक्ति के बंटवारे की ठोस नीति बनानी चाहिए थी,जो नहीं हुआ .इस बीच आधुनिक भारत के रूपकार पंडित नेहरु,इंदिरा गाँधी,जयप्रकाश नारायण,राजीव गाँधी,नरसिंह राव,अटल बिहारी वाजपेयी जैसे ढेरों राजनीति के सुपर स्टारों का उदय हुआ,पर तमाम खूबियों के बावजूद वे लोकतंत्र की सलामती की दिशा में कारगर कदम न उठा सके.फलस्वरूप 15 प्रतिशत विशेषाधिकारयुक्त तबके का शक्ति के स्रोतों पर 80-85 प्रतिशत कब्ज़ा हुआ और शेष आबादी 15-20 प्रतिशत अवसरों पर गुजर-वसर करने के लिए विवश हुई.ऐसी  बेनजीर गैर-बराबरी दुनिया के किसी और लोकतान्त्रिक देश में होती तो लोकतंत्र के परखचे कब के उड़ गये होते.बहरहाल देर से ही सही अंततः एक तबसे से भारतीय लोकतंत्र को चुनौती मिली,जिसके पीछे एकमेव कारण था डॉ आंबेडकर की चेतावनी की पूर्णतया अनदेखी.

आजाद भारत में  शक्ति के स्रोतों का जो असमान बंटवारा हुआ ,उससे सर्वाधिक प्रभावित होनेवाले आदिवासी ही रहे.ऐसा क्यों कर हुआ,इसका जवाब डॉ आंबेडकर की महानतम रचना'जाति  का उच्छेद' में ढूंढा जा सकता है.उन्होंने आदिवासियों की दुर्दशा के कारणों की खोज करते हुए इसमे लिखा है,'अपने को सुसंस्कृत एवं सभ्य माननेवाले हिंदुओं के बीच ही करोड़ों से अधिक असभ्य और अपराधी जीवन व्यतीत करनेवाले आदिवासी विद्यमान हैं परन्तु हिंदुओं ने कभी इस स्थिति को लज्जाजनक अनुभव नहीं किया. इस लज्जाहीनता की मिसाल मिलना कठिन है.हिंदुओं की इस उदासीनता का क्या कारण हो सकता है?क्या कारण है कि आदिवासियों को सुसभ्य व सम्मानित जीवन बिताने का अवसर प्रदान करने का कोई प्रयत्न नहीं किया गया?हिंदुओं से पूछने पर वे शायद इसका कारण उनकी जन्मजात जड़ता बताएंगे.वे इस बात को कभी स्वीकार नहीं करेंगे कि आदिवासियों को कभी सभ्य बनाने का प्रयत्न ही नहीं किया गया. न उन्हें चिकित्सा अथवा अन्य सुधारों से सम्बंधित कोई सुविधा ही प्रदान की गई,जिससे वे सभ्य नागरिक बन सकते.

  हिंदुओं द्वारा ऐसा चाहते हुए भी संभव नहीं था.ईसाई मिशनरियों की भांति काम करके अदिवासियों  को सम्मुनत बनाने का अर्थ होता,उन्हें अपने कुटुम्बियों की भांति अपनाना,उनके साथ रहना,उनमे परिजनों का भाव पैदा करना.सारांश यह कि उन्हें हर प्रकार से स्नेह प्रदान करना.किसी हिंदू के लिए यह कैसे संभव था ? क्योंकि हिंदू के जीवन का उद्देश्य ही अपनी संकुचित जाति की रक्षा करना है.जाति उसकी बहुमूल्य थाती है जिसे वह किसी भी दशा में गंवा नहीं सकता,फिर भला वेदनिन्दित अनार्यों की संतान इन आदिवासियों के संसर्ग में आकर हिंदू अपनी जाति खोने को क्यों तैयार होते?बात यहीं तक नहीं है कि हिंदुओं को पतित मानवता के प्रति द्रवीभूत नहीं किया जा सकता.कठिनाई यह रही है कि कितना प्रभाव क्यों न डाला जाय,हिंदुओं को अपनी जाति निष्ठा छोडने के लिए राजी नहीं किया जा सकता .अतः निष्कर्ष यही निकलता है कि अपनी सभ्यता के बीच आदिवासियों के असभ्य बने रहने देने के लिए जाति-प्रथा ही जिम्मेवार है और इसके कारण ही हिंदुओं ने कभी ग्लानिबोध नहीं किया.'

  वेदनिन्दित अनार्य आदिवासियों  के दुर्भाग्य से आजाद भारत की सत्ता वेदविश्वासियों  के हाथ में आई जिन्होने  शक्ति के स्रोतों में इनका प्राप्य नहीं दिया.आदिवासी इलाकों में लगने वाली परियोजनाओं में बाबु से मैनेजर आर्य संतानें ही रहीं.यदि इन्होंने  इनको उन परियोजनाओं की श्रमशक्ति,सप्लाई,डीलरशिप,ट्रांसपोर्टेशन इत्यादि में न्यायोचित भागीदारी तथा विस्थापन का उचित मुआवजा दिया होता,इनकी स्थित कुछ और होती.यही नहीं,उनका दुर्भाग्य यही तक सीमित नहीं रहा, निरीह आदिवासियों के बीच गैर-अदिवासी  इलाकों के ढेरों और वेदविश्वासी पहुंचे.वैदिकों की नंबर-2 टीम ने अपनी  तिकडमबाजी और जालसाजी के चलते अपना राज कायम कर,उन्हें गुलाम बना लिया.जमीन उनकी और मालिक बन गए बाबुसाहेब और बाबाजी.मेहनत उनकी और फसल काटते रहे बाबाजी-बाबूसाहेब.ये उनके श्रम के साथ उनकी इज्ज़त-आबरू भी बेरोक-टोक लुटते रहे.इन इलाकों में ट्रांसपोर्टेशन,सप्लाई,डीलरशिप इत्यादि सहित जो भी थोड़ी बहुत आर्थिक गतिविधियां थी,सब पर इनका कब्ज़ा कायम हो गया.

 उनके दुर्भाग्य का चक्का यहीं नहीं थमा.शोषण और गरीबी के दलदल में धकेले गए  आदिवासियों पर नजर पड़ी वैदिकों की ही एक और टीम की.वैदिकों की  नंबर-3 टीम शोषण-गरीबी को हथियार बनाकर भारत में मार्क्स और माओ का सपना पूरा करने के लिए उपयुक्त लोगों की तलास में थी.उन्होंने पहाड़ी-विद्रोह(1756-1773 ),चुवार-विद्रोह(1793-1800),गोंड-विद्रोह(1819-1842),कोल-विद्रोह(1831-1832),संथाल-विद्रोह(1855-1856)और सरदार मुंडा-विद्रोह (1859-1894)के इतिहास  के आईने में यह गणित तैयार कर लिया कि सिद्धू-कानू-विरसा मुंडा की संतानों को गरीबी-और शोषण के सहारे क्रांति के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है.ऐसे में अपने लक्ष्य के लिए विस्तृत भूभाग में फैले आदिवासियों पर ही ध्यान केंद्रित किया और इनके लिए बड़ी चालाकी से जल-जंगल और जमीन के अधिकार की लड़ाई का सुरक्षित अजेंडा स्थिर किया.इससे वे अपने सजाति वैदिकों की नंबर-२ टीम के उद्योग-व्यापार आदि पर कब्जे को सुरक्षित रखते हुए जल-जंगल-जमीन की अंतहीन लड़ाई में खुद को व्यस्त रख सकते थे.

 आदिवासी इलाकों में माओवाद/नक्सलवाद के प्रसार के साथ माओवादियों के समर्थन हाथ में कलम लिए वैदिकों की एक और टीम मैदान में उतर आई.वैदिकों की इस टीम नंबर-4 में लेखक –पत्रकार, कालेज और विश्वविद्यालयों के अध्यापक तथा विदेशों से करोड़ो-करोड़ों का अनुदान पानेवाले एनजीओ संचालक हैं. माओवाद के बौद्धिक समर्थक विलासितापूर्ण जीवन शैली के अभ्यस्त हैं.ये महंगी से महंगी शराब और सिगरेट का सेवन करते तथा शहरों के आभिजात्य इलाकों में वास करते हैं.ये मंचों से अमेरिका की बखिया उधेड़ते हैं किन्तु अपने बच्चो को वहां सेटल करने की हर मुमकिन कोशिश करते हैं.इन बौद्धिकों की मिडिया में सीधी पहुँच है लिहाजा माओवाद तथा आदिवासी मामलों के एक्सपर्ट के रूप में ये अपनी छवि स्थापित का लिए हैं.आदिवासी समस्या पर आमलोग इनकी ही भाषा बोलते नजर आते हैं.आदिवासी और माओवादियों के बीच इनका बेरोक-टोक आना-जाना रहता है.आदिवासियों की बेहतरी के लिए इनका क्या अजेंडा है?इनका पहला अजेंडा यह है कि आदिवासी इलाकों में उद्योग-धंधे न लगें.इससे उनका विस्थापन और शोषण होता है.दूसरा,आदिवासी संस्कृति को बाहरी प्रभाव  से बंचाया जाय और आदिवासियों को जल,जंगल  और जमीन का बेरोक-टोक अधिकार दिया जाय.तीसरा,कुछ हद हिडेन है और वह यह है कि आदिवासियों का मुख्य शत्रु राज्य है.माओवादियों की भांति वे भी चाहते है लोकतंत्र के मंदिर पर बंदूकधारियों का कब्ज़ा हो.ज़ाहिर है बंदूकधारी माओवादियों और उनके कलमधारी समर्थकों का अजेंडा एक है.आंबेडकर की भाषा में कहा जाय तो वेद्विश्वासी आर्यों का दोनों ही खेमा आदिवासियों को जंगली व असभ्य बनाये रखना चाहता है.                

चूंकि माओवादी  नेता  आदिवासी इलाकों में व्याप्त शोषण और गरीबी को हथियार बनाकर ही अपना लक्ष्य पूरा करना चाहते हैं इसलिए वे अपने इच्छित लक्ष्य के लिए नरेगा-मनरेगा जैसी राहत टाइप की योजनाओं में भी बाधक बनते तथा अलेक्स पाल मेनन जैसे कर्तव्यनिष्ठ अफसरों का अपहरण करते रहेंगे .अब अगर सरकारें वेद विश्वासियों के शिकंजे से आदिवासियों को मुक्त कर उन्हें 21 वीं सदी में पहुँचाना चाहती है तो उनकी आकांक्षा के अनुरूप कार्ययोजना बनायें.21वीं सदी के सूचनातंत्र ने आदिवासियों की आकांक्षाएं जल-जंगल-जमीन से बहुत आगे बढ़ा दी है.वे भी मेट्रोपोलिटन शहरों के लोगों की भांति अत्याधुनिक सुख-सुविधाओं का भोग करना चाहते हैं.वे भी उद्योगपति-व्यापारी;अख़बारों और फिल्म स्टूडियो के मालिक तथा किसी एमएनसी के सीइओ बनने जैसे सपने देखना शुरू कर दिए है.ऐसे में माओवाद प्रभावित इलाकों की सरकारें यदि ईमानदारीपूर्वक आदिवासियों को सप्लाई,डीलरशिप,ठेकों ,पार्किंग-परिवहन,प्रिंट व इलेक्ट्रानिक मिडिया इत्यादि में सख्यानुपात में भागीदारी देने की ठोस नीति की घोषणा कर दें ,परिदृश्य पूरी तरह बदल जायेगा.तब नरेगा-मनरेगा में एवरेस्ट बननेवाले माओवादी उनकी आकांक्षा को देखते हुए क्रांति के लिए किसी और समुदाय कि तलाश में निकल जायेंगे.

   अगर सरकारें माओवाद के खात्मे तथा अदिवासियों को सभ्यतर जीवन प्रदान कने के लिए ऐसी नीति पर अमल करना चाहती हैं तो 13 जनवरी 2002 को भोपाल के ऐतिहासिक दलित –आदिवासी सम्मलेन,जिसमे महान आदिवासी विद्वान दिवंगत रामदयाल मुंडा ने भी शिरकत किया था, से जारी डाइवर्सिटी केंद्रित 'भोपाल-घोषणापत्र' एक मार्गदर्शन का काम कर सकता है.इसमे दलित-आदिवासियों को कैसे उद्योगपति-व्यापारी,ठेकेदार इत्यादि बनाया जाय,इसका निर्भूल  उपाय सुझाया गया है.इससे प्रेरणा पाकर ही आज अम्बेडकरवादी आन्दोलन डाइवर्सिटी आन्दोलन में तब्दील हो चुका है.इसके तहत आंबेडकरवादी लोकतांत्रिक तरीके से सरकारी और निजी क्षेत्र की नौकरियों ,सप्लाई,डीलरशिप,ठेकों,पार्किंग-परिवहन,फिल्म-मीडिया,विज्ञापन और एनजीओ को बंटनेवाली धनराशि,ग्राम पंचायत,शहरी निकाय,संसद-विधानसभा इत्यादि सहित पुरोहिती में सामाजिक और लैंगिक विविधता लागु करवाने की लड़ाई लड़ रहे हैं.ऐसा होने पर शक्ति के स्रोतों में एससी/एसटी,ओबीसी,धार्मिक अल्पसंख्यकों और सवर्णों के स्त्री -पुरुषों की संख्यानुपात में भागीदारी का मार्ग प्रशस्त होगा.फिलहाल इन पर सवर्णों ने 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा जमाकर विषमता का अंतहीन साम्राज्य कायम कर रखा है.डाइवर्सिटी लागु होने पर विषमता का तो अंत होगा ही,सबसे चमत्कारिक परिवर्तन  आदिवासियों के जीवन में आयेगा.डाइवर्सिटी के रास्ते वे सप्लायर,डीलर,ठेकेदार,ट्रांसपोर्टर,फिल्मकार-एक्टर,मीडिया स्वामी बनकर महाश्वेता देवी,अरुन्धती राय जैसी आधुनिक सुख-सुविधाओं के भोग की अधिकारी बन सकते हैं.इस रास्ते भूरि-भूरि  राम दयाल मुंडाओं का उदय होगा.पर सवाल खड़ा होता है ,क्या सत्ता पर हावी वेदविश्वासी,वेदनिन्दित अनार्यों के जीवन में सुखद बदलाव आने देंगे?         

मित्रों आज के लेख से जुड़ी शंकाओं की तालिका निम्न है-

1-अब जबकि कुछ वर्ष पूर्व माओवादियों ने लोकतंत्र  के मंदिर पर बन्दूक के बल पर कब्ज़ा ज़माने का एलान कर दिया,क्या ऐसा नहीं लगता कि माओवादियों के एलान के 60 साल पूर्व ऐसी आशंका ज़ाहिर करनेवाले डॉ.आंबेडकर सचमुच महान दूरद्रष्टा थे और उनकी चेतावनी पर अमल करके लोकतंत्र को संकटग्रस्त होने से बचाया जा सकता था?

2-क्या ऐसा नहीं लगता कि वर्षों पहले डॉ.आंबेडकर ने आदिवासी समस्या की जड़ में वेदविश्वासियों की भूमिका को चिन्हित कर आदिवासी समस्या के कारण सही पहचान कर लिया था?यदि वेद विश्वासियों में आदिवासियों की स्थिति को लेकर कुछ ग्लानिबोध होता ,स्थिति कुछ और होती?

3-क्या ऐसा नहीं लगता कि आजाद भारत की सत्ता जिनके हाथ में आई वे वेदविश्वासी होने के कारण समग्र वर्ग की चेतना से दरिद्र रहे ,ऐसे में लोगों के विभिन्न तबकों के मध्य शक्ति के स्रोतों का न्यायोचित बंटवारा,जोकि आर्थिक-सामाजिक विषमता की नाश के लिए परमावश्यक था,न कर सके?

4-जिस तरह माओवादियों ने लोकतंत्र को चुनौती देने का अवसर पाया है,उसके आधार क्या यह यह नहीं कहा जा सकता कि पंडित नेहरु,इंदिरा गाँधी,राजीव गाँधी,अटल बिहारी वाजपेयी,ज्योति बासु और सम्पूर्ण-भ्रान्ति (क्रांति) के नायक जेपी इत्यादि प्रकारांतर में लोकतंत्र विरोधी रहे?यदि ऐसा नहीं होता तो वे लोकतंत्र के सुदृढीकाण का कोई ठोस उपाय करते.क्या आपको लगता है उन्होंने भारतीय लोकतंत्र  लोकतान्त्रिक तरीके(वोट के माध्यम)से सत्ता बदल के सिवा कुछ खास काम किया है ?                                          

5-क्या आजाद भारत की सत्ता पर काबिज वेदविश्वासियों की टीम न.1 की लोकतंत्र की लोकतंत्र विरोधी नीतियों के कारण ही टीम न.3 को आदिवासियों के बीच पैठ बनाने  का अवसर मिला ?

6-क्या वेद विश्वासियों की न.4 टीम ने आदिवासी हितों के लिए महज़ जल-जंगल-जमीन में अधिकार दिलाने का एजेंडा इसलिए स्थिर किया ताकि अर्थोपार्जन के बेहतर क्षेत्रों-उद्योग-व्यापार,फिल्म-मीडिया इत्यादि पर उनके सजातियों का निर्विघ्न वर्चस्व कायम रहे?

7-आदिवासियों पर वेदविश्वासियों की टीम न.3 टीम का शिकंजा कसने के बाद  उनके बौद्धिक मददगार के रूप में पहुंची वेदविश्वासियों की टीम न.4 जिसमें शामिल हैं बड़े-बड़े लेखक-पत्रकार,विश्वविद्यालयों के प्रोफ़ेसर और देश विदेशसे करोड़ों की फंडिंग पानेवाले एनजीओ संचालक.वेदविश्वासियों की टीम-3 की तरह टीम -4 वाले भी चाहते कि आदिवासी इलाकों में न लगे उद्योग-धंधे तथा उनकी सभ्यता-संस्कृति की जल-जंगल-जमीन के हिमायती हैं.आप बताएं जिस तरह वेद विश्वासियों की प्रत्येक टीम आदिवासियों कों उद्योग-धंधों से विमुख रखते तथा उनकी सभ्यता -संस्कृति कों बचाते हुए सिर्फ जल-जंगल जमीन पर कब्ज़ा दिलाने के लिए चिंतित हैं,उससे क्या ऐसा नहीं लगता की वे 21 वीं सदी में आदिवासियों कों असभ्याव्स्था में देखते रहना चाहते हैं-जिस तरह युवा आदिवासियों में उद्योगपति-व्यापारी,चैनलों और अख़बारों के मालिक तथा बहुराष्ट्रीय निगमों के सीइओ इत्यादि बनने की महत्वाकांक्षा पैदा होती दिख रहे उसे देखते यदि केन्द्र आदिवासी इलाकों की सरकारे उनके लिए संख्यानुपात में सप्लाई,डीलरशिप,पार्किंग,परिवहन,प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया में भागीदारी का प्रावधान कर दें तो माओवादी  वाहन से अपना बोरिया बिस्तर समेटने लिए बाध्य होंगे,आपकी क्या राय है?

8-आदिवासियों के विकास तथा लोकतंत्र के सशक्तिकरण में क्या डाइवर्सिटी सबसे प्रभावी रोल अदा कर सकती है?

मित्रों आज शंकाओं का बोझ फिर कुछ ज्यादा हो गया.बहरहाल अब आपको रोजाना कष्ट नहीं दूंगा.कुछ मित्रों ने फोन कर रोजाना शंकाएं ज़ाहिर करने पर विरक्ति प्रकाश किया .उनकी भावनाओं की कद्र करते हुए अब निर्णय लिया हूँ कि अब रोजाना नहीं,एक दो दिन के अंतराल बाद ही आपको कष्ट दूंगा.अतः आज विदा लेता हूँ .दो तीन दिन बाद फिर मिलूँगा.

जय भीम-जय भारत   


No comments: