"सिनेमा यथार्थवादी होगा, तो उसमें गालियां भी होंगी"
अनुराग कश्यप हिंदी सिनेमा के ऐसे अभिमन्यु हैं, जो उन समीक्षकों के चक्रव्यूह में रह कर अपना सिनेमा बना रहे हैं, जो उन्हें सिनेमा को गलत गली की ओर धकेलने का जिम्मेदार मान रहे हैं। बदलाव की शुरुआत धीरे-धीरे और टुकड़ा टुकड़ा होती है। ब्लैक फ्राइडे से लेकर गैंग्स ऑफ वासेपुर तक की अनुराग की फिल्म यात्रा के मामले में उनके आलोचक सौ फीसदी परफेक्शन का नजरिया अपनाने लगते हैं। पुराने फिल्म पत्रकार शांतिस्वरूप त्रिपाठी से बातचीत में एक बार फिर उन्होंने अपना पक्ष रखा है। यह बातचीत आज के दैनिक हिंदुस्तान में छपी है: मॉडरेटर
सौ साल बाद अब हमारा सिनेमा जिस दौर से गुजर रहा हैं, उसमें सेक्स के साथ साथ गालियों की मात्रा बढ़ गयी है?
क्या आपको लगता है कि मैंने अपनी फिल्मों के लिए गालियों को ईजाद किया? क्या आप, हम या कोई भी आम इंसान अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में गुस्से में या प्यार से गालियों का उपयोग नहीं करता है? तमाम ऐसी गंदी गालियां हैं, जिन्हें हर इंसान अपने दोस्तों के साथ बातचीत के दौरान बोलता है। इसी वजह से हर फिल्म में गाली का इस्तेमाल होता आया है। हमने हर फिल्म में फिल्म की बैकग्राउंड के अनुरूप ही सारे संवाद रखे हैं। सभी गालियां समाज से ही ली गयी हैं। सिनेमा में समाज का कुछ न कुछ हिस्सा रहता है। राह चलते, ट्रेन में, बस में, यहां तक कि ऑफिस के अंदर भी गालियां सुनाई पड़ती हैं। आप सिनेमा को जिंदगी से अलग-थलग नहीं कर सकते। जब यथार्थवादी सिनेमा बनेगा, तो जीवन की बोलचाल के शब्द भी होंगे ही होंगे।
आप सिनेमा को कौन सी दिशा देना चाहते हैं?
मैं सिनेमा को जिंदगी के साथ लेकर चलता हूं। हमारे कुछ विचारशील फिल्मकार बाजार के मकड़जाल में फंस कर एक खास लीक पर चलने को मजबूर हैं। मेरी स्पष्ट धारणा यह है कि यदि हर फिल्मकार अच्छी स्क्रिप्ट के साथ अच्छी कहानी सुनाये, तो बाजार खुद ब खुद चल कर उसके पास आ जाएगा। लेकिन जब फिल्मकार सिनेमा बनाते समय फायदे की बात सोचने लगता है, तो उसकी स्क्रिप्ट, उसका सिनेमा भ्रष्ट हो जाता है। इसके मायने यह भी नहीं है कि मैं सिनेमा के व्यावसायिक होने के खिलाफ हूं। मैं गलत तरीके से पैसा कमाने के खिलाफ हूं।
'बॉंबे टॉकीज' की अपनी कहानी को लेकर क्या कहना चाहेंगे?
मैंने यह फिल्म अब जाकर बनायी है, मगर इसकी कहानी 1995 में लिखी थी। यह कहानी अमिताभ बच्चन और उनके बंगले प्रतीक्षा की है। इसमें उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर इलाहाबाद से एक युवक अपने बीमार पिता की अंतिम इच्छा को पूरा करने के लिए मुंबई आता है, जिससे शायद उसके पिता की जिंदगी बच जाए। इस कहानी पर फिल्म बनाने के लिए मैंने तमाम निर्माताओं से संपर्क किया था। कोई तैयार नहीं हुआ था। पर अब मैंने खुद ही बनाया है। मेरे लिए यह बहुत बड़ा अवसर है। जबकि मेरे और अमिताभ बच्चन में पिछले 14 साल से कोई बातचीत नहीं हुई।
आपकी कई फिल्में लगातार असफल क्यों रहीं?
क्योंकि मैं सिर्फ व्यवसाय की बात नहीं सोचता। मैं विषय से प्रेरित होकर फिल्म बनाता हूं। मेरी कोशिश होती है कि मैं ऐसे विषय चुनूं, जिनमें युनिवर्सल अपील हो। अपनी फिल्मों के लिए दर्शकों की तलाश में मैं विदेश गया। भारत में मेरी फिल्म 'देव डी' को पसंद किया गया, तो विदेशों में चर्चा नहीं हुई। जबकि 'गुलाल', 'ब्लैक फ्राइडे', 'नो स्मोकिंग' को विदेशों में जबरदस्त सराहना मिली। मेरी फिल्म 'गुलाल' को भारत में सिनेमा घर में देखने दर्शक नहीं गया। इसी तरह यदि मेरी फिल्म 'उड़ान' कान फिल्म फेस्टिवल में नहीं जाती या इसे राष्ट्रीय पुरस्कार न मिलता, तो भारत में रिलीज भी न हो पाती। जो फिल्म भारत में नहीं चलती, उसे विदेश ले जाता हूं।
विश्व सिनेमा में भारतीय सिनेमा की कितनी कद्र है?
नहीं है। हमने नैतिकता का इतना लबादा ओढ़ रखा है कि हमारा सिनेमा, विश्व सिनेमा से काफी पीछे है। हम अपनी दकियानूसी विचारधारा से आगे निकलने को तैयार नहीं हैं। हम यह मानने को तैयार नहीं हैं कि भारतीय सिनेमा से इतर भी सिनेमा व दुनिया है। हमारे यहां इस पर बहस होती है कि हम सिनेमा के माध्यम से क्या संदेश दे रहे हैं? मेरी राय में सिनेमा का मकसद समाज का दर्पण बन सिनेमा के अंदर समाज की अच्छाई व बुराई, कुरीति सब कुछ यथार्थ के साथ पेश किया जाना है। मगर हमारे फिल्मकारों ने सिनेमा में सिर्फ अच्छी अच्छी बनावटी बातें दिखाकर लोगों को एक अलग तरह का चश्मा पहना दिया है, जिसका पक्षधर मैं तो बिलकुल नहीं हूं। मैं तो समाज में जो कुछ हो रहा है, उसे सिनेमा में लाना पसंद करता हूं।
नीरज पांडे, दिबाकर बनर्जी, सुधीर मिश्र की नयी पीढ़ी जो बदलाव ला रही है?
यह सभी अच्छा काम कर रहे हैं। इससे सिनेमा की दिशा बदलती हुई नजर भी आ रही है। इनके सिनेमा को लोग पसंद भी कर रहे हैं। मगर इनके मुकाबले मैं आक्रामक हूं। मैं लीक से हटकर काम करना पसंद करता हूं। दिबाकर बनर्जी ने 'शंघाई' जैसी बेहतरीन फिल्म बनायी है। विशाल भारद्वाज भी अलग किस्म की फिल्में बना रहे हैं। इन सब के बीच मैं खुद को 'अंडरडॉग' मानता हूं। हमारा युवा वर्ग अंडरडॉग ही होता है, इसलिए वह मेरे साथ जुड़ गया।
आपने पश्चिमी देशों के फिल्मकारों से क्या सीखा?
मैंने उनसे तकनीक की बजाय वर्क कल्चर सीखने का प्रयास किया। जब मैं डैनी बोयले और मिचेल विंटर से मिला, तो मैंने उनके 'वर्क कल्चर' को समझा। डैनी बोयले या मिचेल अपना काम खुद करते हैं। उनके पास कई सहायक नहीं होते। मिचैल खुद मॉनिटर उठाकर चलते हैं। पश्चिमी देशों में कैमरामैन खुद कैमरा उठाकर चलता है। वह सहायक के भरोसे नहीं रहता।

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