अमरीकी प्रतिसंस्कृति के चौराहे पर खड़ा संगीतकार
Author: समयांतर डैस्क Edition : January 2013
सीमा सिरोही
वुडस्टॉक का आयोजन अगर साठ के दशक के अमेरिका में मुख्यधारा और हिप्पी संस्कृति का एक रहस्यमय और जादुई समागम था, तो पंडित रवि शंकर अपनी धरती से दूर सन फ्रांसिस्को के उस 'समर ऑफ लव' (हिप्पी संस्कृति के उस दौर को दिया गया नाम) के केंद्र में बैठे सितार पर पूर्वी धुनों को बुन रहे थे। कुछ एकाकीपन के बावजूद यह उनके लिए बिल्कुल घर में होने जैसा था।
यह वह दौर था जब अमेरिकी नौजवान मोहभंग की स्थिति में सत्ता, वियतनाम की जंग और सत्ता प्रतिष्ठान से जुड़ी किसी भी चीज के खिलाफ समाज से खुद को काट चुके थे। इसके समानांतर चारों ओर स्कॉट मैकिंजी का "इफ यू आर गोइंग टु सन फ्रांसिस्को…" बज रहा था और युवाओं की रगों में रवि शंकर का संगीत दौड़ रहा था। सन फ्रांसिस्को के हैश-एशबरी चौराहे पर पूरा ब्रह्मांड सिमट आया था और सार्थकता की खोज में अपने-अपने घरों से निकल चुके हजारों युवाओं का यथार्थ मादकता के धुएं में नया आकार ले रहा था।
वह दौर था जब एबी हॉफमैन (यिप्पी के संस्थापक) ने खुद को 'अमेरिका का अनाथ' घोषित कर दिया था। वह इंकलाब की बातें कर रहे थे और न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज की सीढिय़ों पर एक डॉलर के नोट उछालकर उन्होंने पूंजी के संकट को अपने मौलिक मुहावरे से चुनौती दे डाली थी। उस दौर में राजनीतिक मुकदमे और कार्यकर्ताओं की तलाश में छापेमारी रोजमर्रा की बात हो चली थी। सुख के मायने मनोविकारी व्यवहार और हशीश (चरस) के धुएं में खोजे जा रहे थे। नशे की बैसाखी पर टिके लोगों के लिए सिर्फ संगीत ही था जो उनके दिल को सुकून दे सकता था। और पूरब के संगीत में शायद हिप्पियों ने अपना सुख खोज लिया था।
रवि शंकर को इससे दिक्कत थी। उनकी सांगीतिक परंपरा, उनका शिष्ट प्रशिक्षण इस किस्म के नशेड़ी श्रोताओं को बरदाश्त कर पाने में मुश्किल महसूस कर रहा था। इस परिदृश्य पर उनका अचानक हुआ उभार दरअसल बीटल्स के जॉर्ज हैरिसन के साथ दोस्ती और साठ के दशक के राग-रॉक संगीत की लोकप्रियता का परिणाम था। बीटल्स के आठवें स्टूडियो अलबम 'सार्जेंट पेपर्स' के दो ऐतिहासिक गीत 'नॉर्वेजियन वुड' और 'विदिन यू विदाउट यू' हैरिसन को रवि शंकर के दिए सितार प्रशिक्षण से प्रेरित रहे थे। इसके बाद तो रवि शंकर ने उस दौर के शीर्ष रॉक सितारों से साथ बजाया और मोंटेरी पॉप संगीत महोत्सव में उन्होंने चार-चार घंटे की प्रस्तुति दी। यह बात 1967 की है जब जिमी हेंड्रिक्स, ओटिस रेडिंग, जेनिस जॉप्लिन और द हू तक सबने रवि शंकर के रागों को सहर्ष अपनाया और अपने संगीत का हिस्सा बनाया।
यह कतई संस्कृतियों का कोई टकराव नहीं था क्योंकि अर्थवत्ता और भाईचारे की तलाश में जो कुछ भी काम आता, सबका खुले मन से स्वागत हो रहा था। मोहभंग की अवस्था में पड़े ये हिप्पी ऐसे स्पॉन्ज की तरह थे जो खुद को पूरी तरह बस शराबोर कर लेना चाहते थे, उनके सामने फिर चाहे हेंड्रिक्स का अराजक 'वाइल्ड थिंग' हो या वाद्य वृंदों से सजा जटिल भारतीय संगीत। मोंटेरी में जब हेंड्रिक्स ने मंच पर घुटनों के बल बैठकर अपने गिटार पर ज्वलनशील द्रव्य छिड़का और वहीं उसमें आग लगा दी, तब रवि शंकर उन्हें भौंचक्का होकर देखे जा रहे थे। बाद में रोलिंग स्टोन पत्रिका को उन्होंने बताया, "मेरे हिसाब से तो यह ज्यादती थी। हमारे यहां वाद्य यंत्रों का इतना सम्मान होता है, हमारे लिए वे ईश्वरीय होते हैं।"
रवि शंकर ने हालांकि इस पागलपन का कुछ तो आनंद लिया ही होगा। आखिर वह खुद ऐसे दुस्साहसपूर्ण संगीत कार्यक्रमों और आकर्षक नई दुनिया का हिस्सा थे जिसकी कीमत उन्हें इसकी सनक के साथ एकमेक होकर ही चुकानी पड़ती। वह भले ही "लोगों को इतने भड़कीले कपड़े पहने देख कर सदमे में थे" और यह जानने के बाद चौंके बगैर नहीं रह पाते कि "वे सब नशे में धुत्त भी थे", लेकिन उन्होंने संगीत की दुनिया के भारतीय राजदूत की अपनी चुनी हुई भूमिका को त्याग नहीं दिया। वह उसमें रमे रहे। दूर तक फैली श्रोताओं की ऐसी भीड़ उन्हें पसंद आती थी जो एक दुनिया से निकलकर दूसरे में जाने को बेकल हुई जा रही हो। जॉन कोलत्राने जैसे लोगों के लिए वह भारतीय संगीत का इकलौता प्रतिनिधि चेहरा थे, जिन्होंने अपने बेटे का नाम उनके सम्मान में रवि रखा। आखिर एक साथ दोनों जहान की ऊंचाई पर होने में नापसंदगी जैसी क्या कोई बात हो सकती है?
बहरहाल, दोनों जहान का निर्णायक संगम अगस्त, 1969 में वुडस्टॉक में हुआ। यह एक ऐसा सांस्कृतिक मंथन था, एक ऐसा मौलिक आयोजन, जिसे किसी सिनेमा में कैद नहीं किया जा सकता है। स्वामी सच्चिदानंद ने कार्यक्रम की शुरुआत अपनी स्तुति से की और रवि शंकर ने जब राग पुरिया धनश्री बजाया, तो ऐसा लगा गोया मैक्स यासगुर के 600 एकड़ में फैले फार्म में इकट्ठा चार लाख शांति प्रेमियों पर राग की फुहार झड़ रही हो। यह श्रोताओं को आत्मलीन कर देने वाली अपने किस्म की सबसे भव्य और शानदार सभा थी।
दूसरे देशों के साथ सैन्य संघर्षों और घरेलू मोर्चे पर नस्लभेदी लड़ाइयों का दौर वह था, जब तमाम नौजवानों ने एक बार फिर अपनी आत्मा की आवाज सुनी। वे आजादी की तलाश में दोबारा वुडस्टॉक की ओर लौट पड़े। इस बार क्रॉस्बी, स्टिलस, नैश और यंग की महान प्रस्तुति 'बैक टु दि गार्डेन' की बारी थी। रवि शंकर खुद इस इतिहास का हिस्सा थे। वह उनकी अपनी विशिष्ट अपील और उस विशिष्ट दौर की पहचान बन गया।
हालांकि अमेरिका की इस हिप्पी संस्कृति और उसमें रवि शंकर की भूमिका का उत्कर्ष हमें 1971 के कॉन्सर्ट फॉर बांग्लादेश में दिखता है। यह इतिहास का पहला धर्मार्थ कॉन्सर्ट था जो लाखों बांग्लादेशी शरणार्थियों की मदद के लिए आयोजित किया गया था। रवि शंकर ने इसके आयोजन के बारे में अपने दोस्त बीटल्स के हैरिसन से बात की थी और वह लगातार उन्हें अखबारी कतरनों के माध्यम से वहां के लोगों के उत्पीडऩ और बदहाली की खबरों से आगाह करते रहे थे।
रवि शंकर का मात्र उद्देश्य एकल कॉनसर्ट से 25, 000 डॉलर की मामूली रकम इकट्ठा करना था, हालांकि जिस तरह इसके आयोजन की खबर फैली, पूरे आयोजन की योजना ने वृहद रूप ले लिया और यह न्यूयॉर्क के मैडिसन स्क्वायर गार्डेन में एक सितारों भरी कामयाब रात में तब्दील हो गया। रातोंरात बांग्लादेश पश्चिमी मानस का हिस्सा बन गया और चारों ओर से आर्थिक मदद बरसने लगी। सरोद पर अली अकबर खान, तबले पर अल्लारक्खा और सितार पर रवि शंकर की तिकड़ी ने 45 मिनट लंबी प्रस्तुति को अंजाम दिया। चालीस हजार बेचैन श्रोताओं के लिए जाहिर है इतनी लंबी प्रस्तुति बरदाश्त से बाहर थी, जो अमूमन बॉब डायलन, एरिक क्लैप्टन और लायन रसेल से ज्यादा परिचित थे। बहरहाल, इससे 2, 40, 000 डॉलर से ज्यादा की रकम जुटाई जा सकी जिसे बाद में वितरण के लिए यूनीसेफ को दान दे दिया गया।
साठ और सत्तर के दशक के अमेरिका में वास्तव में क्या हुआ था, यह अब भी टुकड़ों-टुकड़ों में ही ज्ञात है। एक ही मंच पर ग्रेटफुल डेड बैंड और रवि शंकर की मौजूदगी के मायने निकाले जाने अब भी बाकी हैं और आप सिर्फ अंदाजा लगा सकते हैं कि कैसे एक भारतीय संगीत पुरोधा इनके बीच में खुद को बनाए रख सका। रवि शंकर के विचारों को यदि विस्तार से कलमबद्ध किया जा सकता, तो शायद इस प्रक्रिया को समझने में आसानी होती। दुर्भाग्यवश, सिर्फ ब्रांड रवि शंकर को जीवित रखने के लिए अन्य लोग उनके आखिरी वर्षों का इस्तेमाल करते रहे।
अनुवाद: अभिषेक श्रीवास्तव, साभार: द हिंदू

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