Follow palashbiswaskl on Twitter

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity Number2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

What Mujib Said

Jyoti Basu is dead

Dr.BR Ambedkar

Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti Devi were living

Thursday, November 28, 2013

जनसंघर्ष का नया अध्‍याय है प्रचण्‍ड लाइन की पराजय

11/23/2013

जनसंघर्ष का नया अध्‍याय है प्रचण्‍ड लाइन की पराजय

विष्‍णु शर्मा 
नेपाल संविधान सभा चुनाव 2013 के अब तक आए परिणामों से यह बात तय है कि पिछली संविधान सभा की सबसे बड़ी पार्टी एकिकृत कम्युनिस्‍ट पार्टी (माओवादी) को तीसरे स्थान से संतोष करना पड़ेगा। माओवादी पार्टी अपनी 'हारको स्वीकार करने से हालांकि कतरा रही है, लेकिन अब वह उस स्थिति में नहीं है कि दबाव डाल कर कोई समझौता करने के लिए दूसरी बड़ी पार्टियोंनेपाली कांग्रेस और नेपाल कम्युनिस्‍ट पार्टी (एमाले) को मजबूर कर सके। 



चुनाव में धांधली का आरोप लगाकर हार के ग़म को गटका तो जा सकता है, लेकिन पार्टी के भविष्य को लेकर उठने वाले सवालों से बचा नहीं जा सकता। और यदि धांधली का उसका दावा सही भी है तो भी कम से कम माओवादी पार्टी को परिणाम को खारिज करने को कोई नैतिक अधिकार नहीं है। इस बार के संविधान सभा चुनाव की जल्दबाजी माओवादी पार्टी को थी। पार्टी के प्रधानमंत्री ने पिछली संविधान सभा को भंग कियापार्टी के ही अध्यक्ष ने मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में चुनावी सरकार के गठन में सबसे अहम भूमिका निभाई। यहां तक कि इस सरकार के गठन का प्रस्ताव प्रचण्ड का ही था। आगेइसी पार्टी ने चुनाव बहिष्कार करने वाले समूह की हर मांग की अनदेखी कर उन्हें चुनाव में शामिल होने से रोका। पार्टी की मान्यता यह रही कि यदि मोहन वैद्य 'किरणके नेतृत्व वाली पार्टी ने चुनाव में हिस्सा लिया तो उसके वोट प्रतिशत में सेंध लगेगी।


क्या यह परिणाम अप्रत्याशित है?
चुनाव परिणाम को जितना अप्रत्याशित दिखाने का प्रयास किया जा रहा है उतना अप्रत्याशित वह है नहीं। माओवादी पार्टी की आंतरिक बैठकों में बार-बार यह बात होती रही कि पार्टी पहाड़ी क्षेत्रों में अपने पुराने प्रदर्शन को नहीं दोहरा पाएगी। पार्टी कार्यकर्ताओं की रिपोर्ट के आधार पर ही यह तय किया गया कि पहाड़ी क्षेत्र से अधिक तराई पर केन्द्रित हो कर चुनाव लड़ा जाए। इसकी वजह यह थी कि पिछले पांच सालो में तराई का मधेश आंदोलन छिन्न-भिन्न हो गया था या कहें कर दिया गया था और पार्टी खुद को मधेशी आंदोलन का जायज़ उत्तराधिकारी मान कर चल रही थी। पार्टी के कई दिग्गज नेताओं ने पुराने क्षेत्र को अलविदा कह कर तराई से नामांकन भरा। अतिउत्साह में वह भूल गई कि1990 से तराई नेपाली कांग्रेस का मजबूत गढ़ रहा है और मधेश आंदोलन के अधिकांश नेता कांग्रेस से ही निकल कर आए हैं। जनयुद्ध के काल में भी तराई में माओवादी पार्टी अपनी तमाम कोशिश के बावजूद कभी पैर नहीं जमा सकी थी। इसलिए मधेश आंदोलन के खत्म हो जाने पर वहां कि जनता ने पुरानी परखी हुई पार्टी को ही वोट देना ही उचित समझा।

उधर पहाड़ी क्षेत्र मेंजो जनयुद्ध का आधार थामाओवादी पार्टी की लोकप्रियता तेजी के साथ कम हुई। जनयुद्ध के क्रम में शहादत देने वाली इस क्षेत्र की जनता ने बहुत जल्द ही यह समझ लिया कि पार्टी का नेतृत्व नेपाली क्रांति को संविधान सभा से आगे ले जाना नहीं चाहता। पांच वर्षों में पार्टी के नेतृत्व की जो तस्वीर उसके सामने बनी, वह उस तस्वीर से बिलकुल अलग थी जो उसने जनयुद्ध के समय देखी थी। साथ चलनेखाने और हंसने-रोने वाला नेतृत्व जनता के समीप जाने से भी कतराने लगा था। नेता सिर्फ उन्हीं दुर्गम क्षेत्रों में जाते थे जहां तक उनका हेलिकॉप्टर उन्हें ले जाता। अपने संसदीय क्षेत्रों से अधिक नेताओं ने विदेशी भ्रमण किए जहां वे हमेशा सपरिवार ही जाते थे। इसी जनता ने ऐसा दवाब बनाया कि पार्टी दो हिस्सों में विभाजित हो गई। जनयुद्ध के लक्ष्य को हासिल करने के दावे के साथ पार्टी के एक बड़े हिस्से ने प्रचण्ड की अध्यक्षता वाली पार्टी को त्याग दिया। इस विभाजन ने पहाड़ी क्षेत्र से एकीकृत माओवादी पार्टी के पैर उखाड़ दिए। पुराने दौर में पार्टी का गढ़ माने जाने वाले रोल्पा के थवाग गांव में एक भी मत न पड़ना पार्टी के कमजोर हो जाने का सबसे बड़ा सबूत है।

इन दो कारणों के अलावा पार्टी की हार का एक और कारण भी है। पिछले समय में पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र को पूरी तरह समाप्त कर दिया गया था। पार्टी के महत्वपूर्ण निर्णय दक्षिण के पड़ोसी को ध्यान में ले कर लिए जा रहे थे। प्रधानमंत्री के पद पर बाबूराम भट्टराई के कार्यकाल में भारत और अन्य देशों के साथ ऐसे समझौते हुए जो खुद पार्टी की लाइन के विपरीत थे। ये सभी समझौते पार्टी में बिना चर्चा किए लिए गए। कई निर्णयों का पार्टी की बैठकों में व्यापक विरोध भी हुआ। जनसेना के शिविरों को नेपाली सेना को सौपें जाने के निर्णय के खिलाफ तो स्वयं पार्टी के कार्यकर्ताओं ने मशाल जुलूस निकाल कर विरोध किया था।

चुनाव से ऐन पहले पार्टी के टिकट बंटवारे की प्रक्रिया में भी पार्टी के नियमों का पालन नहीं किया गया। पुराने कार्यकर्ताओ की कीमत पर पैसे और रसूख वाले नए लोगों को टिकट दिए गए। सैकड़ों पार्टी कार्यकर्ता चुनाव से पहले ही पार्टी ने नाराज़ हो गए और चुनाव में किसी भी तरह की सक्रिय भूमिका से उन्‍होंने खुद को अलग कर लिया। साथ ही टिकट बंटवारे की अलोकतांत्रिक प्रक्रिया ने पार्टी के अंदर तमाम गुट और उपगुट को पैदा किया जो अन्य पार्टी के प्रत्याशी से अधिक अपनी ही पार्टी के प्रत्याशी को हराने के लिए उत्सुक थे। पार्टी का नेतृत्व यह भूल गया कि नेपाल में कार्यकर्ता वोट देता है, जनता नहीं। नेपाल का बहुसंख्य वोटर किसी न किसी पार्टी का सदस्य होता है, इसलिए कार्यकर्ता को नाराज़ करना हमेशा महंगा पड़ता है।

दूसरी तरफ इस बार के चुनाव परिणाम भारत की कूटनीतिक विफलता भी है। प्रचण्ड के नेतृत्व वाली माओवादी पार्टी के कमजोर होने से मोहन वैद्य 'किरण'की लाइन 'स्वतःसही साबित हो जाएगी। नेपाल की राजनीति में हाल में कमजोर हुआ भारत विरोधी स्वर एक बार फिर मुखर हो जाएगा और जल्द ही प्रचण्ड एक बार फिर घोर भारत विरोधी नारों के साथ कार्यकताओं को सम्बोधित करते नज़र आएंगे। इसके अलावा भारत के माओवादियों को भी इस परिणाम से वैचारिक बल अवश्य प्राप्त होगा। इस पार्टी के अंदर भी वे आवाज़ें हाशिए पर चली जाएंगी जो नेपाल का हवाला देकर संसदीय राजनीति की प्रासंगिकता को साबित करने में लगी हुई थीं। बहुत मुमकिन है कि प्रचण्ड समर्थक इस हार का ठीकरा बाबूराम भट्टराई के सर पर फोड़ें और उन्हें पार्टी से चलता होना पड़े। थोड़ा सा पीछे जाकर देखें तो संविधान सभा का विघटन बाबूराम के प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए हुआ था और इसे बहाना बना कर हार के लिए उन्हें दोषी ठहराया जा सकता है। बाबूराम के जाने से पार्टी के अंदर भारत समर्थक पक्ष कमजोर हो जाएगा। और सबसे दिलचस्प बात है कि किरण समूह के पार्टी से अलग होने के बाद बाबूराम पहले से ही कमजोर हैं। पिछले समय में वैचारिक स्तर पर भीषण मतांतर के बावजूद किरण ने हमेशा बाबूराम के खिलाफ किसी भी कार्यवाही का विरोध किया था। अब जबकि उनके खेमे के लोग चुनाव में हार चुके होंगे तो उनकी वैसे भी कोई खास उपयोगिता पार्टी के लिए नहीं होगी। 

किरण माओवादी पार्टी
मोहन वैद्य 'किरणके नेतृत्व वाली माओवादी पार्टी के बारे में जिन लोगों को यह लग रहा है कि चुनाव का बहिष्कार करने के चलते नेपाल की यह माओवादी पार्टी अप्रासंगिक हो जाएगी उन्हें एक बार फिर सोचने की जरूरत है। उदार लोकतंत्र का सबसे जरूरी सबक यह है कि विरोधी का सबसे अच्छा स्थान संसद है। संसद से बाहर विरोधी अधिक ताकतवर साबित होता है। किरण माओवादी पार्टी चुनाव निषेध के फलस्वरूप नेपाल की राजनीती में सबसे बड़ी ताकत बन गई है। साथ हीआने वाले दिनों में प्रचण्ड से टूट कर इस पार्टी में शामिल होने की प्रक्रिया को तीव्रता मिलेगी और लोकतांत्रिक बदलाव के तमाम दावों की हवा निकल जाएगी। प्रचण्ड की हार वास्तव में भारत की कूटनीति की एक और पराजय है। ऐसा लगता है कि भारत को गलती करने में मजा आता है। फिर दक्षिण एशिया में तो उसने जहां कहीं भी हाथ डाला है, चीजों को बुरी तरह फंसा दिया है। श्रीलंकामालदीवबांग्‍लादेश और अब नेपाल भारत की कूटनीति के दिवालियापन का सबूत हैं।

प्रचण्ड माओवादी पार्टी के लिए आगे का रास्ता
प्रचण्ड के नेतृत्व वाली पार्टी के लिए आगे का रास्ता लगभग बंद है। वह लौट कर पुनः जनयुद्ध का रास्ता नहीं ले सकती और न ही इस पराजय के बाद खुद को एक रख सकती है। जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है कि जीत जाने के अतिविश्वास में पार्टी ने अपने ही काडरों को टिकट नहीं दिया और 2008 के बाद पार्टी से जुड़े अधिकांश रसूखदार लोगों को अपने ही कार्यकर्ताओं को विश्वास में लिए बिना टिकट दिया गया। अब जबकि परिणाम आ गए हैं, पार्टी में विद्रोह की आशंका बन रही है। जल्द ही पार्टी कई टुकड़ों में बंट जा सकती है, लेकिन इससे भी पहले वे लोग जो जीत की आशा के साथ पार्टी में शामिल हुए थे वे पार्टी को अलविदा कह सकते है। साथ हीयदि प्रचण्ड पर हार की नैतिक जिम्मेदारी डालने का प्रयास होता है तो हो सकता है वे ऐसी मांग करने वालों को पार्टी से खुद ही अलग कर दें।

नेपाल कहां?

नेपाल के राजनीतिक भविष्य का अनुमान लगाना हमेशा से ही जोखिम भरा रहा है लेकिन एक बात तय है कि आने वाले दिनों में वहां का राजनैतिक संकट और गहराएगा। एक बड़ी पार्टी का इस तरह कमजोर होना नेपाल के लोकतांत्रिक भविष्य के लिए भले ही अच्छा संकेत न हो लेकिन सामाजिक बदलाव की राजनीति करने वालों का धुवीकरण करने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका होगी। एकिकृत माओवादी पार्टी की हार ने नेपाली जनता के सामने फिर से एक बार स्पष्ट कर दिया है कि आमूल परिवर्तन के उसके लक्ष्य के लिए संसदीय रास्ता बहुत दूर तक साथ नहीं दे सकता है और जब तक नेपाल में भारतपरस्त पार्टियों का दबदबा है तब तक बदलाव की उसकी आशा रेगिस्तान में मरीचिका के समान है। हर बार आधे-अधूरे बदलाव ने उसे वहीं लाकर खड़ा कर दिया है जहां से वह शुरुआत करती है। 1950 से लोकतंत्र और सार्वभौमिकता की लड़ाई लड़ रही नेपाल की जनता एक बार फिर छली गई है। यह पराजय संघर्ष की उसकी जीजिविषा को खत्म कर सकता है या और तीव्र, यह तो भविष्य तय करेगा लेकिन यह बात तय है कि उसकी लड़ाई का अगला अध्याय एकिकृत माओवादी पार्टी की हार के साथ आरंभ हो चुका है।  

No comments: