Follow palashbiswaskl on Twitter

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Unique Identity Number2

Please send the LINK to your Addresslist and send me every update, event, development,documents and FEEDBACK . just mail to palashbiswaskl@gmail.com

Website templates

Zia clarifies his timing of declaration of independence

What Mujib Said

Jyoti Basu is dead

Dr.BR Ambedkar

Memories of Another day

Memories of Another day
While my Parents Pulin babu and Basanti Devi were living

Monday, September 24, 2012

Fwd: a report on movement against fake encounter in the name of terror



---------- Forwarded message ----------
From: rajiv yadav <rajeev.pucl@gmail.com>
Date: 2012/9/24
Subject: a report on movement against fake encounter in the name of terror
To: shahnawaz alam <shahnawaz.media@gmail.com>


खुफिया एजेंसियों की साम्प्रदायिकता का मुहतोड़ जवाब देना होगा

हाल ही में छतीसगढ़ में चैदह लोगों को माओवादी बता कर गोलियों से छलनी कर दिया गया। थोड़ा पीछे जाएं तो गुजरात में इशरत जहां का वो फर्जी इनकाउंटर याद कीजिए। सिर्फ यही दो घटनाएं नहीं बल्कि देश भर में फेक इनकाउंटर हो रहे हैं। कहीं आदिवासियों को माओवादी कहकर मारा जा रहा है तो कहीं मुसलमानों को आतंकी कह कर गोलियों से भूना जा रहा है। ठीक चार साल पहले दिल्ली के बाटला हाउस में भी ऐसे ही मुस्लिम युवकों को पुलिस की गोली का शिकार होना पड़ा था। वही बाटला हाउस इनकाउंटर जिसको कांग्रेस के ही महासचिव दिग्गविजय सिंह ने फर्जी इनकाउंटर बताया है। लेकिन इस इनकाउंटर के बाद भी पूरे देश से निर्दोष मुसलमान नौजवानों को पुलिस द्वारा पकड़ा जाना बंद नहीं हुआ है। सिर्फ आजमगढ़ से सात नौजवानों को गायब कर दिया गया तो वहीं बिहार के दरभंगा से लगातार नौजवानों को पकड़ा जा रहा है। यहां तक कि एक नौजवान कतील सिद्दकी की पूने जेल में हत्या भी कर दी गयी। वहीं भारतीय खुफिया एजेंसियों ने दरभंगा बिहार के रहने वाले इंजीनियर फसीह महमूद को सउदी अरब के उनके घर से उनकी पत्नी निकहत परवीन के सामने से उठा लिया। जिन पर कोई तार्किक आरोप तक भारत सरकार नहीं लगा पायी है। बावजूद इसके भारत सरकार उनकी पत्नी को फसीह महमूद से मिलने तक नहीं दे रही है। इशरत जहां फर्जी मुठभेड़ में सीबीआई ने आईबी की भूमिका को जांच के दायरे में लाने का काम किया।

सरकार या कहें कि खुफिया एजेंसियों का सबसे दुखद और दमनकारी चेहरा उस समय सामने आता है जब इन फर्जी गिरफ्तारियों का विरोध कर रहे पत्रकार एसएमए काजमी को आतंकी कहकर पकड़ लिया जाता है। इसी तरह हाल ही में इन सवालों को लेकर काम कर रहे मानवाधिकार संगठन आतंकवाद के नाम पर कैद निर्दोषों का रिहाई मंच की ओर से बाटला हाउस फर्जी मुठभेड़ की चैथी बरसी पर लखनऊ के यूपी प्रेस क्लब में आयोजित कांग्रेस-सपा और खुफिया एजेंसियों की साम्प्रदायिकता के खिलाफ सम्मेलन को पुलिसिया दबाव बना के विफल करने की कोशिश की गई। हालांकि अपने नापाक मंसूबे में वे कामयाब नहीं हो पाए। लेकिन फिर भी सवाल उठना लाजिमी है कि जिस कार्यक्रम के बारे में लगभग सभी अखबार, मुख्यमंत्री से लेकर तमाम बड़े अफसर और नेताओं को पहले से जानकारी भेजी जाती हो, जो कार्यक्रम सार्वजनिक जगह यूपी प्रेस क्लब में हो रहा हो वहां इतनी संख्या में पुलिस की तैनाती की क्यों जरुरत आन पड़ी। पुलिस को जवाब देने की जरुरत है कि आखिर ऐसी कौन सी आफत आन पड़ी कि एक पूरी तरह से अहिसंक और शहर के सम्मानित बुद्धिजिवियों की उपस्थिति वाले इस कार्यक्रम में पुलिसिया पहरा बिठाना पड़ा। पुलिसिया पहरा न सिर्फ प्रेस क्लब के भीतर था बल्कि क्लब के आसपास और सामने वाले पार्क में भी भारी संख्या में पुलिस मौजूद थी। कार्यक्रम में हिस्सा लेने आए लोगों को ये पुलिस वाले ऐसे देख रहे थे मानों कितने बड़े गुनहगार हैं यह सब।

इसी कार्यक्रम में एक प्रस्ताव भी पास किया गया जिसमें कहा गया कि खुफिया एजेंसियों के द्वारा सामाजिक और राजनीतिक संगठनों पर दी जा रही रिपोर्ट को आरटीआई के दायरे में लाया जाय। इस स्थिति में ये बहुत हास्यास्पद स्थिति है कि खुफिया विभाग के साम्प्रदायिकता के खिलाफ किये जा रहे सम्मेलन में खुद खुफिया विभाग के लोग मौजूद थे और फिर यही लोग सरकार को इस कार्यक्रम की रिपोर्ट भी सौपेंगे। ऐसे में उस रिपोर्ट की निष्पक्षता पर कितना विश्वास किया जा सकता है। दरअसल ये पूरा मामला सत्ता के टेकओवर का है। आज स्थिति ये है कि देश की सत्ता को खुफिया विभाग वालों ने टेकओवर कर रखा है। देश के खुफिया विभाग को कोई जनतांत्रिक सरकार नहीं चलाती बल्कि ये सीआईए, मोसाद और इन्टरपोल से सीधे संचालित होने लगीं हैं और सुरक्षा संबंधी आन्तरिक नीतियों को वैसे ही नियंत्रित करने लगीं हैं जैसे देशी-विदेशी मल्टीनेशनल कंपनियां हमारी आर्थिक नीतियां नियंत्रित करती हैं। जिसका नजारा बारबार हम कोडनकुलम, छतीसगढ़, झारखण्ड से लेकर नर्मदा घाटी में देख सकते हैं। तब यह मांग उठना जायज ही है कि इन खुफिया एजेंसियों को मिलने वाले आर्थिक लाभ की भी जांच होनी चाहिए। भारतीय मीडिया भले पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई को व्यव्सथा बिगाड़ू चरित्र का बताती हो। सच्चाई ये है कि खुद भारतीय खुफिया एजेंसियां भी उसी चरित्र की हैं। इन्हीं के दबाव में देशद्रोह जैसे काले कानून को हटाने का साहस कोई भी सरकार नहीं कर पायी है।

लेकिन कुछ है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, कि चाहे लाख कोशिश कर लो दबाने की हमें। सम्मेलन के आरम्भ में ही रिहाई मंच के राजीव यादव ने पुलिस के सामने ही उन्हें ललकारने के तेवर के साथ जब खुफिया एजेंसियों और पुलिस विभाग को बेनकाब करना शुरु किया तो सम्मेलन कक्ष में मौजूद पुलिस वाले बगले झांकने लगे और थोड़ी देर में ही कक्ष से बाहर खिसक लिये।

फिर भी ये सवाल मौजूं है कि क्या हम सच में एक फासिस्ट और हिटलरशाही वाले लोकतांत्रिक देश में रह रहे हैं?

अविनाश कुमार चंचल


No comments: