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Thursday, March 28, 2013

हमारे लोगों ने अंबेडकर को चुनकर संविधानसभा में भेजा और इसी वजह से हमारे लोग शरणार्थी बना दिये गये, अब हमारे खिलाफ देश निकाला अभियान चल रहा है। अविनाश जी को हमारा भोगा यथार्थ गैर प्रासंगिक लगता है। पर हरिचांद ठाकुर, मतुआ आंदोलन,चंडाल आंदोलन के लड़ाकू योद्धाओं को मुस्लिमलीगी बताने के बावजूद बहस करते रहना हमारे लिए असंभव है। जोगेंद्रनाथ मंडल मुस्लिम लीग समर्थित मंत्री जरूर थे, लेकिन मुस्लिम लीग के किसी सदस्य ने अंबेडकर को वोट नहीं दिये और न मंडल के अलावा मुकुंद बिहारी मल्लिक जैसे तमाम दूसरे वोटरों का दूर दूर से मुस्लिम लीग से को संबंध था। ऐसा मूल्यांकन तो कट्टर हिंदुत्ववादियों ने भी नहीं किया। नमोशूद्र जाति के होने के कारण, विभाजनपीड़ित शरणार्थी परिवार की संतान होने के कारण ऐसे लोगों के साथ हमारा संवाद अब असंभव है।

हमारे लोगों ने अंबेडकर को चुनकर संविधानसभा में भेजा और इसी वजह से हमारे लोग शरणार्थी बना दिये गये, अब हमारे खिलाफ देश निकाला अभियान चल रहा है। अविनाश जी को हमारा भोगा यथार्थ गैर प्रासंगिक लगता है। पर हरिचांद ठाकुर, मतुआ आंदोलन,चंडाल आंदोलन के लड़ाकू योद्धाओं को मुस्लिमलीगी बताने के बावजूद बहस करते रहना हमारे लिए असंभव है। जोगेंद्रनाथ मंडल मुस्लिम लीग समर्थित मंत्री जरूर थे, लेकिन मुस्लिम लीग के किसी सदस्य ने अंबेडकर को वोट नहीं दिये और न मंडल के अलावा मुकुंद बिहारी मल्लिक जैसे तमाम दूसरे वोटरों का दूर दूर से मुस्लिम लीग से को संबंध  था। ऐसा मूल्यांकन तो कट्टर हिंदुत्ववादियों ने भी नहीं किया। नमोशूद्र जाति के होने के कारण, विभाजनपीड़ित शरणार्थी परिवार की संतान होने के कारण ऐसे लोगों के साथ हमारा संवाद अब असंभव है।

साथियो,
जो लोग पलाश जी का ईमेल प्राप्‍त करके उसके संदर्भ को समझने का प्रयास कर रहे हैं, वे मेरे और पलाश विश्‍वास के बीच चली बहस को देखने के लिए यह लिंक देखें :

इस पर आपको मेरे और पलाश विश्‍वास के बीच चली पूरी बहस मिल जायेगी। इसे देखकर यह समझना आसान होगा कि पलाश विश्‍वास वही कर रहे हैं जो अपने तर्क चुक जाने पर बहस से भागने के लिए लोग करते हैं।

साभिवादन,
अभिनव.


हम बहस से भागे नहीं हैं। लेकिन जो बाबासाहेब के प्रति अस्वीकार व अनादर, भहुजन आंदलन को दलितो ंतक सीमाबद्ध करके बात करें, उत्पादन प्रणाली और श्रम संबंधों की आड़ में हिंदुत्व की स्थापनाएं प्रसारित करें, पूना समझौते की चर्चा किये बिना अंबेडकर और दूसरे बहुजन नायकों को पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के समर्थक घोषित करें, बहस में हमारे प्रशनों का जवाब दिये बिना अपने अंबेडकरविरोधी अभियान जारी रखें, उनसे बहस की गुंजाइश कहां है, सोचें। जो अंबेडकर डेवी का अनुयायी कहकर सिरे सेखारिज कर दें और उन्हें मुस्लम लीग के समर्थन से संविधान सभा में निर्वाचित बतायें, ऐसे प्रखर विद्वान जो संविधान, लोकतंत्र और धर्मनिरपेश्क्षता में आस्था न रखते हों, वे हमें चूका हुआ बतायें, इस पर हम कोई मंतव्य नहीं करना चाहते। चंडीगढ़ जाति विमर्श में विश्व प्रसिद्ध  दलित चिंतकों का जो इस्तेमाल उन्होंने अंबेडकर की खिल्ली उड़ाते हुए की , उसके बाद उनसे सम्मानजनक बहस की उम्मीद निराधार है। हमें मार्क्सवादी लेनिनवादी माओवादी विचार धारा या इतिहास की औतिकवादी व्याख्या, द्वंद्वात्मक पद्धति से कोई विरोध नहीं है। इसी पर आनंद तेलतुंबड़े ने भी सहमति जतायी। जिसे अंबेडकर के अवमूल्यन के प्रति आनंद जी की सहमति के बतौर पेश किया गया ौर उनके खंडन को कुत्सा अभियान कहकर प्रचारित किया गया। चंडीगढ़ जाति विमर्श के आधार पत्र  से उनके असली एजंडा बेनकाब है और आनंद जी के वक्तव्य और उसके जवाब से साफ जाहिर है कि अंबेडकर को, और गौतम बुद्ध को भी खारिज करना ही उनका एकमात्र उद्देश्य है। जब अंबेडकर जैस व्यक्ति के विचार, उनके योगदान और बहुजनसमाज के आंदोलन को वे दो कौड़ी का नहीं समझते, तो हम जैसा अपढ़ मामूली पत्रकार, सामान्य कार्यकर्ता उनके सामने मैदान में कैसे टिक सकता है। विचारधारा और सिद्धांता पर जाति विमर्श हावी हो जाते हैं, इसका उन्होंने जवाब तक नहीं दिया। तो ऐसे में बहस कैसेजारी रखी जा सकती है।बहस के लिए ईमानदारी और एक दूसरे के प्रति सम्मान बेहद जरुरी है। क्रांति के इनयुवा तुर्कों को इसकी परवाह नहीं है। इसके अलावा हम तो कारपोरेट साम्राज्यवाद और हिंदू साम्राज्यवाद के खिलाफ वलोकतांत्रिक व संवैधानिक लड़ाई के लिए अंबेडकरवादियों व गैर अंबेडकरवादियों का संयुक्त मोर्चा बनाने की बात कर रहे हैं, जिसके वे विरुद्ध हैं। वे लोकतंत्र व संविधान दोनों को सिरे से नकार रहे हैं। ऐसे में इस बहस को जारी रखने से हमें कुछ हासिल नहीं होने वाल है। हम अपना पक्ष अपने तरीके से रखेंगे। सहमति के कुछ बिदु अगर उभरकर आये, तो अपनी अकादमिक सीमाबद्धता के बावजूद हम किसी से भी चर्चा करने को तैयार हैं।

हमने फेसबुक पर और अन्यत्र चंडीगढ़ विमर्श का आधारपत्र और तेलतुंबड़े का वीडियो जारी कर दिया है। हस्तक्षेप ने भी सारे आलेख और आधारपत्र जारी करने का वायदा करें।फिर हमसे बड़े विद्वान और कार्यकर्ता हैं, उनका मतामत आना अभी बाकी है। मेरी पहली प्राथमिकता अपने लोगों तक सूचनाओं पहुंचाने की है। इस बहस में यह काम स्थगित हो रहा है। में हफ्तेभर बांग्ला में लिख ही नहीं पाया। बहसें तो होती रहेंगी, पर इतिहास से ज्यादा हमारे लिए समकालीन इतिहास महत्वपूर्ण हैं। हमारे क्रांतिकारी मित्रों को इसकी परवाह नहीं है और नही अपने आधारपत्र में भारतीय जनते के मौजूदा संकट की उन्होंने चर्चा की है। इसलिए सिर्फ अपने तर्क साबित करने के लिए बहस करते रहने का कोई औचित्य नहीं है। जब हम लोग प्रतिबद्ध होने का दावा करते हैं और जनसरोकारों के लिहाज से विचारधारा और सिद्धांतों की बात कर रहे हैं, तो बहस में जीत हार की बात तो होनी नहीं चाहिए।हम तो लगाता कह रहे थे कि िस बहस का दायरा बढ़ाना चाहिए।

हमारे लोगों ने अंबेडकर को चुनकर संविधानसभा में भेजा और इसी वजह से हमारे लोग शरणार्थी बना दिये गये, अब हमारे खिलाफ देश निकाला अभियान चल रहा है। अविनाश जी को हमारा भोगा यथार्थ गैर प्रासंगिक लगता है। पर हरिचांद ठाकुर, मतुआ आंदोलन,चंडाल आंदोलन के लड़ाकू योद्धाओं को मुस्लिमलीगी बताने के बावजूद बहस करते रहना हमारे लिए असंभव है। जोगेंद्रनाथ मंडल मुस्लिम लीग समर्थित मंत्री जरूर थे, लेकिन मुस्लिम लीग के किसी सदस्य ने अंबेडकर को वोट नहीं दिये और न मंडल के अलावा मुकुंद बिहारी मल्लिक जैसे तमाम दूसरे वोटरों का दूर दूर से मुस्लिम लीग से को संबंध  था। ऐसा मूल्यांकन तो कट्टर हिंदुत्ववादियों ने भी नहीं किया। नमोशूद्र जाति के होने के कारण, विभाजनपीड़ित शरणार्थी परिवार की संतान होने के कारण ऐसे लोगों के साथ हमारा संवाद अब असंभव है।

बाकी बहस करने के लिए बहुजन समाज के तमाम दुकानदार, राजनेता, विद्वान और चिंतरक हाजिर हैं।हमारे मैदान छोड़ने से कुछ फर्क नहीं पड़ता। दुसाध जी के आलेख आरहे हैं। हस्तक्षेप में ईमानदारी हों तो उन्हें छापें। फिर चलायें बहस। लेकिन अब हरगिज ऐसे लोगों से बात नहीं करना चाहेंगे, जिनका हमारे विचारों और कार्यक्रम के बारे में तनिक सम्मानभाव भी नहीं है। अभिनव जी का ताजा पत्र इसी भाव की मुखर अभिव्यक्ति है।

अब अंबेडकर विरोधियों, बहुजनों को खंडित करने वालों से कोई संवाद नहीं!


​पलाश विश्वास


हम भारत में कारपोरेट धर्मराष्ट्रवादी जायनवादी एकाधिकारवादी नस्लवादी वंशवादी जाति व्यवस्था पर आधारित व्यवस्था को निनानब्वे​​फीसद बहिष्कृत, वंचित, शोषित, मुक्तबाजार अर्थव्यवस्था की शिकार ​जनता का सबसे बड़ा शत्रु मानते हैं।और मौजूदा राजसत्ता को ​अर्द्धसामंती, पूंजीवादी साम्राज्यवादी विश्वव्यवस्था की दलाल पारमाणविक सैन्यशक्ति मानते हैं, जिसके निरंकुश दमन के आगे जल जंगल जमीन ​​नागरिकता और मानवअधिकार ही नहीं, मानवता , प्रकृति और पर्यावरण विपन्न है। इसके विरुद्ध हम संवैधानिक लोकतांत्रिक जनप्रतिरोध के पक्ष ​​में है क्योंकि आम जनता निहत्था और असहाय है। आत्मरक्षा और प्रतिरोध, दोनों लिहाज से फिलहाल लोकतांत्रिक धरमनिरपेक्ष संयुक्त मोर्चा जिसमें अंबेडकर के अनुयायी और गैर अंबेडकराइट भी शामिल हों, के अलावा हम कोई दूसरा विकल्प नहीं देखते।


जंगल में सीमाबद्ध जनयुद्ध में हमें मुक्तिमार्ग नहीं ​​दिखायी देता। हम मानते हैं कि भारत में बहुजनों का आंदोलन सत्ता और व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिरोध की निरंतरता है, जिसका प्रारंभ गौतम बुद्द की सामाजिक क्रांति से हुई। इस निर्मीयमान बहुजनसमाज में  सत्तावर्ग को छोड़ समस्त भारतवासी जिनमें मुख्यतः दलित, आदिवासी,पिछड़े और धर्मांतरित अल्पसंक्यक, विस्थापित, ​शरणार्थी,बंजारे और कबीले,गंदी बस्तियों में रहने वाले लोग, संगठित और असंगठित मजदूर, छोटे कारोबारी और कऋषि ाधारित आजीविकाओं से जुड़े तमाम समुदाय हैं, जो इस देश के मूल निवासी हैं।


हम आदिवासी नेता जयपाल सिंह मुंडा के इस बयान को हमारा सही इतिहास मानते हैं कि यह बहुजन समाज हजारों सालों से आक्रमणकारियों का गुलाम है, और यह गुलामी जाति व्यवस्था और वंशवाद, नस्लवाद, भौगोलिक अलगाव में अभिव्यक्त हैं।


हम सशस्त्र सैन्यबल अधिनियम के विरुद्ध हैं और ऐसे तमाम कानूनों, आर्थिक सुधारों और जनविरोधी नीतियों के विरुद्ध हैं।


हम बायोमैट्रिक डिजिटल नागरिकता को  को आम जनता के  सभी अधिकार छीनने, उसे नागरिकता और संप्रभुता से वंचित करने का सबसे कारगर हथियार मानते हुए उसका विरोध कारपोरेट साम्राज्यवाद के प्रतिरोध में अनिवार्य मानते हैं।


हम आदिवासी इलाकों में जल जंगल जमीन पर आदिवासियों के हक हकूक की लड़ाई और भूमि सुधार, संपत्ति का बंटवारा, सबके लिए समान अवसर, समता , सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेश्रता और आर्थिक सशक्तीकरण के अलावा सत्ता में आनुपातिक प्रतिनिधित्व के लिए लड़ रहे हैं।


हम मानते हैं कि पूना समझौते के अंतर्गत मिले राजनीतिक आरक्षण से इस संसदीय प्रणाली में कारपोरेट बिल्डर प्रोमोटर राज के ही प्रतिनिधि हैं, आम जनता के नहीं। इसलिए इस व्यवस्था को बदले बिना हम बहुजन समाज की मुक्ति का कोई दूसरा विकल्प नहीं देखते और इसके लिए सामाजिक और सांस्कृतिक क्रांति को राजनीतिक क्रांति से पहले अनिवार्य मानते हैं।हम कम्युनिस्टों, लेनिनवादियों और माओवादियों के भी विरुद्ध नहीं हैं और मानते हैं कि वे हमारे बहुजन समाज के ही लोग हैं, पर  सत्तावर्गीय नेतृत्व,चिंतकों, नीति निर्धारकों के विश्वासघाती इतिहास को भूल भी नहीं सकते। हम अलग से दलित विमर्श जैसी किसी भी प्रचेष्टा का विरोध करते हैं क्योंकि हमारा मानना है कि दलित आंदोलन कोई अलग चीज नहीं है, यह किसानों और आदिवासी विद्रोहों, जाति विरोधी आंदोलनों का समन्वय है।


हम पर्यावरण आंदोलन को आर्थिक स्वतंत्रता के लिए अनिवार्य मानते हैं। नस्ली आधार पर हिमालयी क्षेत्र,दक्षिण भारत और आदिवासी इलाकों से रंगभेदी भेदभाव, उनके​​ अलगाव और उनके दमन का विरोध करते हैं। हम कालाधन और अबाध विदेशी पूंजी निवेश की अर्थ व्यवस्था, उदारीकरण, निजीकरण और ग्लोबीकरण का विरोध करते हैं।इस सिलसिले में समविचारवाले संगठनों और व्यक्तियों से हम सहयोग और विचार विमर्श के लिए तैयार हैं।​

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​हम मानते हैं कि अंबेडकर या बारत के दूसरे राष्ट्रीय नेताओं के कहे या लिखे से नहीं, उनके समग्र योगदान के आधार पर मूल्यांकन हो। हम मूर्ति पूजा के विरुद्ध हैं, पर चाहते हैं कि अंबेडकर का अनादर न हों।हम द्वंद्वात्मक पद्धति के विरुद्ध नहीं है और विज्ञान और तर्क को अस्वीकार भी नहीं करते। हम सामंती उत्पादन प्रणाली और श्रम संबंधों के पक्ष में कतई नहीं है। सामाजिक व उत्पादक शक्तियों की गोलबंदी से ही मुक्ति संभव हैं, ऐसा हम मानते हैं।​

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​इतना कहते हुए मैं स्पष्ट कर दूं कि  आधारपत्र और आनंद तेलतुंबड़े के वीडियो देखने पर हमे प्रतीत हुआ कि यह आयोजन न सिर्फ एकतरफा तौर पर भारत में जाति विरोधी आंदोलनों और संगठनों और उनके निर्विवाद नेता डा. बाबासाहेब अंबेडकर को खारिज करने की सुनियोजित योजना कै तहत हुआ, बल्कि इसका मकसद दलितों को बाकी बहुजन समाज से अलग काटने का है। आधार पत्र में आदिवासी आंदोलनों का दलित आंदोलनों के सिलसिले में जिक्र न होना इतिहास विकृति है। इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या के बहाने उत्पादन संबंधों, श्रम संबंधों और भूमि बंदोबस्त की दृष्टि से इतिहास की चर्चा करते हुए बहुजनों की पहचान और शासक जातियों के प्रति उसकी प्रिरोधी इतिहास की अवहेलना करते हुए ब्राह्मणवादी तरीके से अंबेडकर ही नहीं गौतम बुद्ध की क्रांतिकारी भूमिका को सिरे से नकारा गया है। आनंद तलतुंबड़े ने लोकतांत्रिक बहस की पद्धति पर सहमति जतायी , न कि अंबेडकर के अवमूल्यन पर। अंबेडकर के जाति उन्मूलन की कोई परियोजना हो या नहीं, इस विमर्श के आयोजकों की जातीय वर्चस्व, रंगभेद, व वंशवादी व्यवस्था जारी रखने की परियोजना बेनकाब हो गयी।


हम उनके वायदे पर भरोसा करके यह मान ही रहे थे कि रपटें आधी अधूरी होंगी, भ्रामक होंगी और हम उनसे बहस को तैयार थे। फिर उनके आधार पत्र में अंबेडकर के मुस्लिम लीग के समर्थन से संविधान सभा पहुंचने जैसी घनघोर बहुजनविरोधी इतिहास विकृति को देखते हुए उनसे बहस की कोई संभावना नहीं लगती। य़ह सर्वविदित सत्य है कि बंगाल के नमोशूद्र जाति के विधायकों ने दलीय अवस्थान तोड़कर अंबेडकर को पूर्वी बंगाल से जिताया, जिसमें मतुआ अनुयायी जोगेंद्रनाथ मंडल के अलावा मुकुंद बिहारी मल्लिक जैसे तमाम लोग थे , जिनका मुस्लिम लीग से कोई लेना देना नही था। इसी वजह से नमोशूद्र बहुल पूर्वी बंगाल के इलाके जबरन पाकिस्तान में डालकर चंडाल आंदोलन की शक्ति खत्म कर दी गयी। इस इतिहास चर्चा में पूना समझौते की चर्चा ही ​नहीं हुई और अंबेडकर को पूंजीवादी साम्राज्यवादी समर्थक और यहां तक कि मुक्त बाजार की व्यवस्था के लिए एक तरफा तौर पर जिम्मेवार ​​ठहराया गया। इस आयोजन में दलित चिंतकों का इस्तेमाल बहुजन समाज और गौतम बुद्ध और अंबेडकर के विरुद्ध किया गया और आरक्षण के औचित्य पर प्रश्नचिह्न लगाया गया।


इनकी लोकतंत्र और संविधान में कोई आस्ता नहीं है। ये हिंदुत्ववादियों के मनुस्मृति संविधान लागू करने की मांग की तर्ज पर अंबेडकर रचित ​​संवि​धान को बदल देने की बातकर रहे हैं।​

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​अगर भारत के इतिहास में अंबेडकर का कोई योगदान नहीं रहा तो कम्युनिस्टों, मार्क्सवादियों और माओवादियों का क्या अवदान है, हमें इसका मूल्यांकन करना होगा।​

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​अगर मुक्तबाजार की नींव अबेडकर ने डाली, तो बीस साल के  इस मुक्त बाजार में इसके प्रतिरोध के लिए इन क्रांतिकारियों ने क्या किये, इसका मूल्यांकन होना जरूरी है।क्या कारपोरेट साम्राज्यवाद के विरुद्ध वामपंथी विचारधारा हमें कोई दिशा देती है, यह भी विवेचनीय है।ये देश काल परिस्थिति को सिरे से नकारते हुए हवाई विचारधारा और सिद्धांत बघारकर हमें दिग्भ्रमित कर रहे हैं। भविष्य में इनके किसी प्रवक्ता से कोई संवाद नहीं होगा।


वे हमारे संगठन और आंदोलन के अस्तित्व पर सवाल उटा रहे हैं।जबकि न उनका संगठन है और आंदोलन । देश में छात्र, महिला . युवा , श्रमिक किसान आंदोलनों को खत्म करने वाले ये वामपंथी कारपोरेट साम्राज्यवादी नस्लवादी जातिवादी हिंदुत्व के सबसे बड़े समर्थक हैं।चंडीगढ़ जाति विमर्श से नये सिरे से फिर साबित हुआ।

अभी लड़ाई जारी है….आप किसके साथ..?


हरियाणा के मेहनतकश साथियो,

मारुति सुजुकी, मानेसर के मज़दूरों के खि़लाफ हरियाणा सरकार और मारुति सुजुकी मैनेजमेन्ट के बर्बर दमन की कार्रवाइयों ने पूँजीवादी शासन के घनघोर मज़दूर विरोधी चेहरे को एकदम नंगा कर दिया है। बिना किसी जाँच और मुकदमे के 147 मज़दूरों को "हत्यारा" और "अपराधी" घोषित करके जेल में प्रताड़ित किया जा रहा है और वहीं दूसरी तरफ 2400 मज़दूरों को बेरोज़गार करके सड़क पर धकेल दिया गया है। हथियारबन्द पुलिस के साये में फैक्ट्री को हिटलरी जेल ख़ाने में बदलकर चलाया जा रहा है। पुलिस, सरकार से लेकर न्यायपालिका तक बेशर्मी के सारे रिकार्ड तोड़कर कम्पनी के एजेण्टों की भूमिका निभा रहे हैं। लेकिन इस एकतरफा कार्रवाई के बाद भी मारुति सुजुकी के बर्खास्त मज़दूर पिछले आठ महीनों से अपने हक और इंसाफ की लड़ाई जारी रखे हुये हैं। अभी तक मारूति सुजुकी वर्कर्स यूनियन हरियाणा के श्रम मन्त्री, उद्योग मन्त्री से लेकर मुख्यमन्त्री भूपिन्दर हुडडा के सामने अपनी माँगें रख चुकी है, लेकिन सभी मन्त्रियों ने मारुति सुजुकी मैनेजमेंट के सुर में सुर मिलाते हुये मज़दूरों को ही दोषी बताया और निष्पक्ष उच्च स्तरीय जाँच की माँग तक को ख़ारिज कर दिया। हम मारुति सुजुकी के मज़दूरों को उनके जुझारूपन के लिये बधाई देते हैं। कदम-कदम पर दमन, उत्पीड़न और तमाम तरह की मुश्किलों का सामना करते हुये भी उन्होंने अपने संघर्ष को जारी रखा है और विरोध को कुचल डालने के सरकारी हथकण्डों के आगे झुके नहीं हैं।

नौजवान भारत सभा और बिगुल मजदूर दस्ता कैथल में जारी मारुति सुजुकी मज़दूरों के आमरण अनशन का गर्मजोशी से समर्थन करता है और साथ ही हरियाणा के समस्त मेहनतकश जनता का आह्वान करता हैः साथियो, मारुति के मज़दूरों का आन्दोलन हम सबके लिये एक चेतावनी है! अगर हम अलग-अलग लड़ते रहेंगे और एक नहीं होंगे तो पूँजी और सत्ता की ये ताक़तें हमें कुचलकर रख देंगी, विरोध की हर आवाज़ का गला घोंट डालेंगी। ऐसे में हमारी असली ताकत अपनी वर्ग एकजुटता की ताकत है। आज़ादी के 65 वर्ष बीत जाने के बाद मज़दूरों-गरीब किसानों के हालात शहीद-ए-आजम भगतसिंह की इस चेतावानी को याद दिलाते हैं कि पूँजीपरस्त चुनावबाज पार्टियों के नेतृत्व में मिलने वाली आजादी 10 फीसदी ऊपर के लोगों की आजादी होगी, यानी पूँजीपतियों –धन्ना सेठों की आजादी जबकि देश का 90 फीसदी उत्पादक वर्ग बदस्तूर पूँजीपतियों की तानाशाही और लूट के तले पिसता रहेगा। इसलिये इस डाकेजनी और लूट के खिलाफ हमें मारुति मज़दूरों का साथ देने के लिये आगे आना होगा। हम मिलकर लड़ेंगे, तो ज़रूर जीतेंगे!

हम तमाम मेहनतकश जनता का आह्वान करते हैं संकट की इस घड़ी में मारुति के मज़दूरों का साथ देने के लिए आगे आओ और ज्यादा से ज्यादा जन बल के साथ कैथल में उद्योगमन्त्री रणदीप सुरजेवाला के आवास स्थान पर मारुति मजदूरों के अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल के समर्थन में पहुँचो! हरियाणा सरकार और मारुति के मैनेजमेंट को हमें बता देना होगा कि यह अँधेरगर्दी नहीं चल सकती! मारुति सुजुकी के अपने मज़दूर भाइयों की आवाज़ में आवाज़ मिलाकर कहें-

 

अंधकार का युग बीतेगा! जो लड़ेगा वो जीतेगा!!

इंकलाबी सलाम के साथ!

 नौजवान भारत सभा,  बिगुल मजदूर दस्ता

सम्पर्कः रमेश खटकड़ 09991908690, रोहताश कलायत- 09729619310.

खौफ आंबेडकरवाद का एच एल दुसाध

                     खौफ आंबेडकरवाद का

                              एच एल दुसाध  

विद्यार्थी जीवन में मेररा  यह स्वप्न था कि कलकत्ता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड में लाल पताका फहराने वाली रैलियां निकट भविष्य में किसी दिन चमत्कार करेंगी समानता के आधार पर विवेकपूर्ण समाज के निर्माण का;एक राष्ट्र का जो जाति,सम्प्रदाय अथवा वंश रूपी चीनी दीवार में बंटा हुआ नहीं अपितु परस्पर प्रेम और भाईचारे रूपी दृढ सेतु से मिला हुआ होगा.मेरा सपना था कि 'ये आज़ादी झूठी है-मेहनती जनता भूखी है' का उद्घोष करनेवाले मार्क्सवादी स्थापना करेंगे एक ऐसे समाज की स्वतंत्र विचारों की  धारा को जिसे निरर्थक तथा पुरातन शास्त्रीय क्रियाकलाप रूपी रेतीला रेगिस्तान अवरुद्ध नहीं कर पायेगा.अकस्मात एक रात 'मरिच झापी' के डेल्टा पर आर्थिक अवरोधों तथा मार्क्सवादी कहे जानेवाले शक्तिशाली व्यक्तियों द्वारा मनचाहा जीवन जीने के इच्छुक असहाय शरणार्थियों के नरसंहार के भयावह स्वप्न ने मुझे झकझोर कर जगा दिया व मैंने अपने आपको उस मृगी की दशा में पाया जो वर्षों से मृग-मरीचिका के पीछे भाग रहा रही है.मैं सदमे से उबरा तथा इस असफलता के कारणों की खोज में लग गया...कलकत्ता के उसी परेड ग्राउंड से महान चिन्तक कांशीराम ने प्रश्न किया,'सर्वोच्चता का उपभोग करनेवाले ब्राह्मणवादियों को क्या मार्क्सवाद का नेतृत्व क्लारना चाहिए?'मैंने इसे कुछ दूरी से सुना और मेरे सामने सत्यता के द्वार खुल गए.शोषित,पीड़ित और  दुखित लोग ही विद्रोह करते हैं,शोषक भला क्यों विद्रोह करने जायेंगे?

मित्रों उपरोक्त पंक्तियां मेरे गुरु एस के विश्वास की हैं जो उन्होंने अपनी चर्चित  पुस्तक 'भारत में मार्क्सवाद की दुर्दशा' की भूमिका में लिखा है.उसी पुस्तक में एक जगह कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र के निम्न अंश में मार्क्स को उद्धृत करते हुए विश्वास साहब लिखते हैं.

'यूरोप एक खौफ से त्रस्त है-खौफ साम्यवाद का.इस भूत-बाधा को दूर करने के लिए पुरातन यूरोप की सभी शक्तियों ने एक पवित्र गठबंधन किया है:पोप और जार ,मैटरनिच तथा  गिजोत,फ़्रांस के पुरातन पंथी तथा जर्मनी के जासूस ...अब समय आ गया है कि साम्यवादी संसार के सामने स्पष्ट रूप से अपने विचार लक्ष्य और प्रवृतियां प्रकाशित कर दें और दल एवं स्वयं साम्यवाद के खौफ की शिशु-कथा के साथ अपने घोषणा पत्र के साथ समरस हों.'

मार्क्स की इस विचारधारा ने भारत के आलावा सभी देशों में सत्ता के शीर्ष पर बैठे सामर्थ्यवानों को सर से पैर तक कंपा दिया.किन्तु भारत के सामर्थ्यवानों ने इसका खुले दिल और मुक्त हांथों से स्वागत किया .भारतीय शासक वर्ग जबकि मार्क्स की इस भयानक विचारधारा को समाज के लिए आनंददायक और स्वास्थ्यकारी मानता है,एक शब्द 'बाबासाहेब' और एक विचारधारा 'आंबेडकरवाद' सुनते ही वह भय और घृणा से कांपने लगता है.भारतीय ब्राह्मण मार्क्सवाद का प्रचार-प्रसार करते हैं जबकि वे आंबेडकरवाद को अस्वीकार करते हैं.यह तथ्य हमें भारतीय मार्क्सवादियों की संदिग्ध भूमिका के प्रति जिज्ञासु एवं सचेत बनाता है.'जिससे ब्राह्मणों को प्रसन्नता प्राप्त होती है वह दलित-बहुजन के कल्याण में बाधक होनी ही चाहिए तथा ब्राह्मण जिससे दुखित हो उसे दलित-बहुजा के लिए अच्छा होना ही चाहिए'.भारतीय मार्क्सवादियों की भूमिका पर संदेह करनेवाले विश्वास साहब अगली कुछ पंक्तियों के बाद लिखते हैं कि भारत में हम उसी प्रसंग को दोहरा सकते हैं,जिसे कार्ल मार्क्स ने इतिहास के पन्नों पर उकेरा है-

'भारतीय ब्राह्मणवादी गढ़ के सत्ता के गलियारों में एक खौफ व्याप्त –खौफ आंबेडकरवाद का.इस खौफ को दूर करने के लिए पुरातन आर्यवर्ती आस्था के रक्षक यथा राष्ट्रवादी और पुरातन पंथी,साम्यवादी और परम्परावादी प्रगतिशील और दक्षिण पंथी प्रतिक्रियावादी सभी ने एक गठबंधन कर लिया है... अब समय आ गया है कि मूल भारतीय उत्पादक वर्ग ,शूद्र्जन संसार के सम्मुख स्पष्ट रूप से अपने विचार,लक्ष्य और प्रवृतियां प्रकाशित कर दें और वे स्वयं इस पुरातन उपनिवश के अनाथों के घोषणा पत्र के माध्यम से आंबेडकर वाद की इस शिशु–कथा के साथ समरस हों.'

मित्रों, कुछ दिन पूर्व जब जब मैंने चंडीगढ़ की पांच दिवसीय संगोष्ठी से निकले १२ निष्कर्षों को आधार बनाकर, आपसे मार्क्स वादियों का योग्य प्रत्युत्तर देने के लिए जब एक अपील जारी किया,तब उसे एक इंट्रेस्टिंग ग्राउंड पर नकारते हुए एक मार्क्सवादी,जो संभवतः हिंदी पट्टी का था, ने लिखा था-'एक कथिक आंबेडकरवादी ने दावा किया है कि बंगाल में ३३ वर्ष बिताने तथा हिंदू साम्राज्यवादियों से बहुजनों को निजात दिलाने के ५० से अधिक किताबें लिखने के कारन वह मार्क्सवादियों के चरित्र को औरों से बेहतर जानते हैं.लेकिन हम जानते कि किताबे छापना उनका धंधा है,इसलिए उनकी अपील को ऍम विज्ञापन मानकर खारिज करते हैं.'तो मित्रों मार्क्सवादियों ने मुझे किताबों का व्यापारी समझकर संकेत दे दिया है कि वे मुझे इस लायक नहीं समझते जिसकी बात का जवाब दिया जा सके.उनका यह आचरण देखकर अस्पृश्य लेखक दुसाध के अंदर बैठे स्वाभिमानी व्यक्ति को भी गवारा नहीं कि वह उच्च-वर्णीय मार्क्स वादियों से कोई संवाद करे.मार्क्सवादी चाहें तो जश्न मन सकते हैं कि दुसाध भाग गया.किन्तु बंधुगण मार्क्स और भारतीय मार्क्स वादियों को लेकर मेरे मन में इतने सवाल है कि अगर इस समय उनका बहिर्प्रकाश नहीं होता है तो मैं बौद्धिक घुटन का शिकार बन जाऊंगा.इसीलिए मैंने गतकाल एक लेख पोस्ट/मेल किया था.अतः मैं  अपनी घुटन दूर करने के लिए आप गैर-मार्क्सवादी मित्रों के समक्ष उन प्रश्नों को रख रहा हूँ.प्रश्नों और लेखों का सिलसिला लंबे समय तक चलेगा.उम्मीद करता हूँ लेखक दुसाध को घुटन से बचाने के लिए आप एकाध महीने तक कष्ट झेलते रहेंगे.तो मित्रों शुरू होता है मेरा सवाल.     

1-क्या आपको भी लगता है कि पुरातनपंथी व प्रगतिशील,दक्षिण पंथी तथा वामपंथी सभी ही अम्बेडकरवाद से खौफज़दा है इसीलिए वे आंबेडकर को खारिज करने के लिए समय-समय पर तरह-तरह का उपक्रम चलाते रहते हैं,जिसकी ताज़ी कड़ी चंडीगढ़ में आयोजित पांच दिवसीय संगोष्ठी है?

2-क्या विस्वाश साहब की तरह आपको भी लगता है कि जिस मार्क्सवाद ने दुनिया के तमाम सामर्थ्यवान लोगों में खौफ की  लहरें पैदा कर दिया, उसे अगर भारत में शक्ति के स्रोतों(आर्थिक,राजनितिक और धार्मिक) पर ८०-८५ प्रतिशत कब्ज़ा जमानेवाले तबके ने  खुशी-खुशी अपनाया,तो जरुर कोई दाल में काला है?

3-क्या विश्वास साहब की तरह आपको यह भी लगता है कि जिस बात से ब्राह्मण-सवर्णों  को खुशी होती है वह बहुजन समाज के लिए दुखदायी और विपरीत उसके जो बात उनके लिए दुखदायी है वह बहुजनों के लिए सुखदायी हो सकती है?

तो मित्रों ,आज के लिए इतना ही .कल फिर कुछ सवालों के साथ आपसे मिलते हैं.            

दिनांक:28 मार्च,2013

       


Wednesday, March 27, 2013

জামাত শিবিরের ধংসযজ্ঞের অতি সামান্য কিছু ছবি।


জামাত শিবিরের ধংসযজ্ঞের অতি সামান্য কিছু ছবি।

ছবিটি শেয়ার করুন এবং সবার কাছে এদের মুখশ উন্মচিত করুন।

জামায়াতের জ্বালাও-পোড়াও হরতালে দেয়া আগুনে পুড়ে হাসপাতালে কাতরাচ্ছেন ব্যাটারি চালিত অটো-রিক্সা টমটম চালক মো. মুছা। আট ভাই-বোনের মধ্যে তিনিইসবার বড়। স্বপ্ন ভাই-বোনকে লেখাপড়া শিখিয়ে সংসারের অভাব দূর করা।
এনিয়ে সংসারের শত অভাব অনটনের মধ্যেও ভাইকে কলেজে ভর্তি করিয়েছেন। বোনকেও স্কুলে দিয়েছেন।
কিন্তু হঠাৎ করেই যেন তার স্বপ্ন পুড়ে গেছে! জামায়াত-শিবিরের ক্যাডারদের দেয়া আগুনে পুড়ে তিনি যন্ত্রনায় কাতরাচ্ছেন চমেক হাসপাতালের বেডে। প্রহর গুনছেন স্বাভাবিক জীবনে ফেরার।


ব্রিটেনের মাইনাস তিন ডিগ্রি সেলসিয়াস আবহাওয়ার তুষার আবৃত রাস্তায়ও "অবিরাম হাঁটছে "হিমু বাহিনী"। ঢাকার শাহবাগে চেতনার যে স্ফূরণ ঘটেছে, সেই চেতনাকে বুকে ধারণ করে বিলেতের ট্রাডিশনাল আবহাওয়াও গতিরোধ করতে পারছে না বাঙালির দ্বিতীয় প্রজন্মের এই সাহসী মুক্তিযোদ্ধা হিমু বাহিনীর। 

চেতনার অগ্নিস্ফূলিঙ্গের কাছে মাইনাস ডিগ্রির তীব্র ঠাণ্ডাও যেন একাত্তরের পাকিস্তানি হানাদার বাহিনীর মতো পরাজিত এই তারুণ্যের কাছে! 

ব্রিটেনে বসবাসরত একাত্তরের বুদ্ধিজীবী হত্যার মূল নায়কসহ বহির্বিশ্বে আশ্রয় নেওয়া যুদ্ধাপরাধীদের দেশে ফেরৎ পাঠানোর দাবিতে 'ওয়াকিং ফর জাস্টিস' কর্মসূচির এই অভিযাত্রীরা ছুটে চলছেন ব্রিটিশ প্রধানমন্ত্রীর কার্যালয় অভিমুখে!
ব্রিটেন যেন একাত্তরের যুদ্ধাপরাধীদের 'সেইফ হ্যাভেন' না হয়, এ আশা নিয়েই হিমু বাহিনী যাচ্ছে ১০ ডাউনিং স্ট্রিটে। 'সভ্য দুনিয়ার মুরুব্বি'খ্যাত ব্রিটেন যুদ্ধাপরাধী নরঘাতকদের 'সেইফ হ্যাভেন' এটি তো সভ্যতার সঙ্গে বেমানান। হুমায়ুনের হিমু বাহিনী পদযাত্রার মাধ্যমে ব্রিটেনবাসীকে এটিই বোঝাতে 

দেশ একধাপ এগিয়েছে!

গত ২৪ দিনে দেশের ৩২টি জেলায় সংখ্যালঘু হিন্দুসম্প্রদায়ের ওপর হামলা হয়েছে। আজকের 'প্রথম আলো' অনুযায়ী ২৮ ফেব্রুয়ারি থেকে ২৩ মার্চ পর্যন্ত এসব হামলায় অন্তত ৩১৯টি মন্দির, বাড়ি, দোকানে ভাঙচুর ও অগ্নিসংযোগ করেছে জামায়াত-শিবির। এগুলোর মধ্যে দোকান ১৫২টি, বাড়ি ৯৬টি ও মন্দির ৭১টি।

এই আটাশে ফেব্রুয়ারির আগেও দেশের কোথাও কোনো একটি মন্দিরে একটি প্রতিমা ভাঙা হলেও আমরা উদ্বিগ্ন হয়েছি, রাজপথে মানববন্ধন করেছি, মিছিল করেছি, মিডিয়ায় ঝড় উঠেছে। এখন মোটামুটি সবকিছু গা-সওয়া হয়েছে। এখন হরতালে কেউ নিহত না হলে আমরা অবাক হই, হরতালে অন্তত কুড়িটা গাড়ি না পুড়লে এখন টিভির খবর জমেই না। অন্তত দশটা লাশ না পড়লে এখন হরতাল আমাদের কাছে পানসে লাগে। যেহেতু ইতোমধ্যে হিন্দুদের দেড়শো দোকান, একশো বাড়ি বাড়ি, পৌনে একশো মন্দির ভাঙা বা পোড়ানো হয়েছে; সেহেতু পরের তাণ্ডবে অন্তত আড়াইশো দোকান, দুশো বাড়ি আর পৌনে দুশো মন্দির ভাংচুর না হলে আমাদের চায়ের কেতলিই গরম হবে না!

পাকিস্তান বা আফগানিস্তানে বোমা মেরে প্রতিদিন রুটিন করে শ খানেক মানুষ মারা হয় বলে একশোটাকে পাকিস্তানিদের বা আফগানদের কাছে কোনো ফিগারই মনে হয় না, এখন থেকে আমাদের কাছেও দশ-বিশকে ফিগারই মনে হবে না, হরতালে পাঁচ-সাতজন মরলে সেই 'ছোট্ট' খবরটা এখন থেকে আর মিডিয়ায়ই আসবে না! ২০০১-এর নির্বাচনের পর বিএনপি-জামায়াত সংখ্যালঘুদের ওপর চালিয়েছিল নজিরবিহীন তাণ্ডব, সেই একই তাণ্ডব চলছে সংখ্যালঘুবান্ধব আওয়ামি লিগের আমলেও! আওয়ামি লিগের যখন সংখ্যালঘুদের নিরাপত্তা বিধান করার কথা, তখন আওয়ামি লিগ ব্যস্ত ধর্মব্যবসায়ী জামায়াত-হেফাজতের কাছে নিজেদেরকে ধার্মিক প্রমাণে!

লেখার শুরুতেই বলেছি, দেশ একধাপ এগিয়েছে। কই এগিয়েছে? দেশ পাকিস্তান বা আফগানিস্তান হবার দিকে একধাপ এগিয়েছে!
Akhtaruzzaman Azad
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  • Sumon Ahmed গত ২৮ ফেব্রুয়ারি থেকে ৬ মার্চ পর্যন্ত এক সপ্তাহে সারাদেশে পুলিশ-বিজিবি ও র্যাবের নির্বিচার গুলিবর্ষণে গণহত্যার শিকার ৯৭ জনের মধ্যে সাধারণ নাগরিকের সংখ্যাই ৩৩ জন। এরমধ্যে চারজন মহিলা ও চারটি শিশুসহ আলেম-ওলামাও রয়েছেন। সাধারণ নাগরিক ছাড়া নিহত হয়েছেন জামায়াত-শিবিরের ৪৬ জন, বিএনপি, ছাত্রদল ও যুবদলের ৬ জন, আওয়ামী লীগ ও ছাত্রলীগের ৫ জন, এলডিপির ১ জন এবং ৭ জন পুলিশ সদস্য।
  • Sumon Ahmed বগুড়ার শেরপুরে যুবলীগের নেতৃত্বে স্থানীয় শহীদিয়া আলীয়া মাদরাসা শহীদ মিনার ভাঙচুরের সময় এলাকাবাসী এক যুবলীগ নেতাকে আটক করেছে। তার নাম তবিবুর রহমান টিপু। তিনি শহর যুবলীগের যুগ্ম আহ্বায়ক। এ ঘটনায় স্থানীয় সরকার দলীয় এমপি হাবিবুর রহমান নিন্দা ও ধিক্কার জানি...See More
    www.mzamin.com
    শফিকুর রহমান শফিক, শেরপুর (বগুড়া) থেকে: বগুড়ার শেরপুরে যুবলীগের নেতৃত্বে স্থানীয়...See More
  • Khalid Zaman Ai bitorko natun kore shame acheche jedin kono deher pm bol len bd te 50% lok jamat. Tar par thekei natun kore dhormike heyo korar ops chalu hoeche to make that pm happy. In the next door ~24% major minority ~2% if them only employed by govt. Does anybody have statistics about hiw many OC, DC, Magistrate, Secy/Jt Sec, judges Munsef And other controling pist? And compare the numbers with the next door. Thnx
  • Khalid Zaman I mean to say how may of these controling post is manned by major minority in BD We saw how the ultra religious Hinubadi party destroted Babry Mosque in a live coverage by BBC & CNN. This BJP posed to be back in power. They BJP will get more than 50% support. There us no problem having a ultra religios party in the next door.
  • Mir Md Mofazzal Hossain ফেরাউন, আবু জাহেল, এজিদ ও মীরজাফরের রক্ত থেকে সৃষ্ট জামাত-শিবিরচক্র ও দোসররা হরতালের নামে নিরীহ মানুষ দের বাড়ী-ঘর লুট-পাট, মসজিদ, মন্দির, প্যাঘোডা, বাসে-ট্রাকে আগুন দিচ্ছে, চোরাগুপ্তা হামলা চালিয়ে হত্যা করছে দেশের মেধাবী সন্তান্ দেরকে। বাংলাদেশের পতাকা পুড়িয়ে দিচ্ছে এবং ফাকিস্তানের পতাকা মাথায় বাঁধছে । 
    ব্যক্তি, সমাজ, রাষ্ট্র, ধর্মের এসব ভয়ংকর দুশমনদের ব্রাশফায়ার করে মারা উচিৎ।

















ब्राह्मण/द्विज वर्ण है ,जाति नहीं ,सचमुच जातियां श्रम का विभाजन का स्वरूप है ,जिनका आर्थिक उत्पादन से ही कुछ लेना देना है

ब्राह्मण/द्विज वर्ण है ,जाति नहीं ,सचमुच जातियां श्रम का विभाजन का स्वरूप है ,जिनका आर्थिक उत्पादन से ही कुछ लेना देना है ,परन्तु केवल शूद्र वर्ण में जातियां होती है ब्राह्मण ,क्षत्रिय ,वैश्य वर्ण में जातियाँ नहीं होती ,बल्कि गोत्र होता है और शूद्र गोत्र विहीन क्यों ? इस विषय पर उस गोष्ठी में कुछ नहीं कहा गया है ,न ही इस विषय पर चर्चा की गयी है की वर्ण के उत्पति का उद्गम क्या था और जातियों के यानी शूद्र के बिच क्रमागत विभेद के कोई सह्त्यिक और पुरातात्विक प्रमाण नहीं मिलता है तो क्यों ? 
Ashok Dusadh8:22pm Mar 27
अब चंडीगढ़ में ''जाति -प्रश्न और मार्क्सवाद '' पर गोष्ठी हुई जिसका अंततः निष्कर्ष निकल गया वह इस प्रकार व्यक्त हुआ ....
1) उत्पादन के साधन और श्रम -विश्लेषण से तय हुआ जाति व्यस्था सामंत व्यस्था की दें है ,अब पूंजीवाद इस जाति व्यस्था को जिन्दा रखे है .

2) डॉ अम्बदेकर एक विफल चिन्तक थे ,उनके पास कोई परियोजना नहीं थी जिसे जाति व्यस्था ख़त्म हो .

3) मार्क्सवाद को अब एक परियोजना तैयार करनी होगी ,जिससे जाती व्यस्था ख़त्म हो।

तीनो स्थापनाओ में कोई जान नहीं है ,नहीं ये ब्राह्मण/द्विज 'मार्क्सवादी 'कोई क्रांतिकारी वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत कर पाए ,उन्हें ये तो पता नहीं है की ब्राह्मण/द्विज वर्ण है ,जाति नहीं ,सचमुच जातियां श्रम का विभाजन का स्वरूप है ,जिनका आर्थिक उत्पादन से ही कुछ लेना देना है ,परन्तु केवल शूद्र वर्ण में जातियां होती है ब्राह्मण ,क्षत्रिय ,वैश्य वर्ण में जातियाँ नहीं होती ,बल्कि गोत्र होता है और शूद्र गोत्र विहीन क्यों ? इस विषय पर उस गोष्ठी में कुछ नहीं कहा गया है ,न ही इस विषय पर चर्चा की गयी है की वर्ण के उत्पति का उद्गम क्या था और जातियों के यानी शूद्र के बिच क्रमागत विभेद के कोई सह्त्यिक और पुरातात्विक प्रमाण नहीं मिलता है तो क्यों ? और क्यों इन शूद्र जातियों के परस्पर आपस में जातिभेद पनप गया ,जाति व्यस्था पर वर्ण का शास्त्रीय वर्ण -विभेद का असर क्योंकर हुआ कोई विश्लेषण ये मार्क्सवादी नहीं प्रस्तुत कर पाए ?.डॉ आंबेडकर को बिना कारण और तर्क के विफल कहना उनके जातीय पूर्वाग्रह का नग्न पर्दर्शन क्यों न माना जाए ?.वे भविष्य कोई परियोजना बनाना चाहते है तो बनाये जिससे जाती व्यस्था ख़त्म हो जायेगी ,पहले वो परियोजन प्रस्तुत करे तब बहुजन से संवाद करे .

सर्वस्वहाराओं के मसीहा:डॉ.आंबेडकर

      मित्रों !चंडीगढ़ के भकना भवन में गत 12-15 मार्च,2013 तक 'जाति विमर्श और मार्क्सवाद' पर पांच दिवसीय संगोष्ठी हुई.मार्क्सवादियों द्वारा आयोजित उस संगोष्ठी में डॉ आंबेडकर के भारतीय इतिहास में योगदान को नकारने के साथ ही दलित मुक्ति में उनकी भूमिका को भी पूरी तरह खारिज किया गया.ज़ाहिर है आंबेडकर को खारिज करने के पीछे अभीष्ट मार्क्स की छवि को दलित-बहुजन मुक्तिदाता के रूप में स्थापित करना रहा.बहरहाल डॉ.आंबेडकर को खरिज कर एक बौद्धिक उदंडता का परिचय दिया गया है,यह प्रमाणित करने के लिए ही अपना यह लेख आपको मेल/पोस्ट कर रहा हूँ-दुसाध       

                    सर्वस्वहाराओं के मसीहा:डॉ.आंबेडकर  

                        एच एल दुसाध

   अमेरिका के न्यूयार्क का कोलंबिया विश्वविद्यालय दुनिया के श्रेष्ठतम  विश्वविद्यालयों में एक है.इसे 1901 से शुरू नोबेल पुरस्कारों के इतिहास के अबतक के कुल 826 में से 95  नोबेल विजेता देने का गौरव प्राप्त है.इसी विश्वविद्यालय में अज्ञानता का पुजारी और अशिक्षा का पीठस्थान भारत के एक अछूत महार को बडौदा के महाराज  सयाजीराव गायकवाड  के सौजन्य से मिला था विश्व-विद्यार्जन का दुर्लभ अवसर.करोड़ो-करोड़ों शूद्र-अतिशूद्र बहुजन समाज के सहस्रों वर्षों के वंचित व अंधकारपूर्ण जीवन के प्रतिनिधि आंबेडकर आये थे कोलंबिया विश्व विद्यालय,यह प्रमाणित करने के लिए कि ईश्वर भ्रांत है.उनको प्रमाणित करना था ,भारत की भूमि पर 'प्रतिभा' एकमात्र कथित ईश्वर के उत्तमांग से जन्मे लोगों की बपौती नहीं.यह सब प्रमाणित करने के लिए वहां अवसर और परिवेश की कमी नहीं थी.समानता के सिद्धांत का व्यवहार में कैसे उपयोग होता  है,इसका अहसास युवक आंबेडकर को न्यूयार्क की धरती पर कदम रखते ही होने लगा.वहां 'स्वतंत्रता की देवी की प्रतिमा' अपने त्रयी सिद्धांतों-स्वतंत्रता,समानता एवं बंधुता - को सत्य रूप देने के लिए खड़ी थी.दुनिया उस समय तक जार्ज वाशिंग्टन,अब्राहम लिंकन,थामस जेफरसन,बुकर टी वाशिंगटन जैसे मानवतावादी नेताओं के प्रभाव से ओत-प्रोत थी.जाति के देश भारत से मनुष्यों के देश में पहुंचकर अम्बेडकर टूट पड़े ज्ञान के अमोघ अस्त्र से खुद को लैस करने में ताकि इसके जोर से शोषण,उत्पीडन और विषमता से बहुजनों को निजात दिलाया जा सके.

    दिन नहीं रात नहीं,ज्ञान की भूख की तृप्ति के लिए ,निरंतर स्वयं को डूबोये रखे,बस किताबें और किताबें पढ़ने में.भागते रहे कोलंबिया विश्व विद्यालय के कारीडर में,अध्यापकों के पीछे-पीछे.राजा का दिया धन और उनका खुद का समय सिमित था.इसलिए प्रायः निद्रा और आहारहीन रहकर  प्रतिदिन अट्ठारह-अट्ठारह घंटे पढ़ाई करते रहे.

दो वर्ष के अक्लांत परिश्रम और अनुसन्धान के बाद आंबेडकर ने 1915 में 'प्राचीन भारत में वाणिज्य'विषयक थीसिस लिखकर कोलंबिया विश्व विद्यालय से एम.ए.की डिग्री अर्जित कर ली.उन्होंने मई 1916 में डॉ.गोल्डन वेझर अन्थ्रापोलिजी सेमिनार में'भारत में जातियां,उनकी संरचना,उत्पत्ति और विकास'नामक स्वरचित शोध-पत्र पढ़ा.उसी वर्ष जून में उन्होंने पीएचडी के लिए 'नेशनल डिविडेंड फार इंडिया:ए हिस्टोरिक एंड एनालिटीकल स्टडी' जमा किया .इसी थीसिस के आधार पर कोलंबिया विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉक्टर ऑफ फिलोसफी से भूषित किया और वे आंबेडकर से डॉ.आंबेडकर बन गए.डॉ आंबेडकर यहीं नहीं थमे.कालांतर में उन्होंने एमएससी,डीएससी (लन्दन स्कूल ऑफ इकोनामिक्स),बारएटला(ग्रे इन लन्दन),एलएलडी(कोलंबिया विवि) और डीलीट(उस्मनिया) की भी डिग्री हासिल कर यह साबित कर ही दिया कि जो हिंदू धर्म-शास्त्र-ईश्वर यह कहते हैं कि शूद्र –अतिशूद्रों में सिर्फ दासत्व गुण होता है,वे पूरी तरह भ्रांत हैं.

   बहरहाल अमेरिका के जिस कोलंबिया विश्वविद्यालय में असाधारण ज्ञानी डॉ आंबेडकर का उदय हुआ ,उसमें डॉ.आंबेडकर की याद  में 24 अक्तूबर,1995 को उनकी मूर्ति का अनावरण किया गया.परवर्तीकाल में जब 2004 में कोलंबिया विश्व विद्यालय की स्थापना की 250 वीं वर्षगांठ मनाई गयी,तब 'स्कूल ऑफ इंटरनेशनल एंड पब्लिक अफेयर्स(सीपा) की और से कई कार्ड जरी किये गए,जिसमे विश्वविद्यालय के 250 सौ सालों के इतिहास के ऐसे 40 महत्त्वपूर्ण लोगों के नाम थे जिन्होंने यहाँ अध्ययन किया तथा 'दुनिया प्रभावशाली ढंग से बदलने'में महत्वपूर्ण  योगदान किया .ऐसे लोगों में डॉ.आंबेडकर का नाम पहले स्थान पर था.यहां एक दिलचस्प सवाल पैदा होता है,वह यह कि क्या डॉ.आंबेडकर दुनिया को बदलने वाले सिर्फ कोलंबिया विवि से संबद्ध लोगों में ही श्रेष्ठ थे या उससे बाहर भी?                   

     जहां तक दुनिया में प्रभावी बदलाव का सवाल है उसकी शुरुवात जर्मन शूद्र संतान मार्टिन लूथर की धार्मिक क्रांति के बाद से होती है.यूरोप में मार्टिन लूथर के नेतृत्व में बुद्धिवादी प्रोटेस्टेंटो के विचारों की विजय के बाद सारे उत्तरी-पश्चिमी यूरोप में क्रांति का परचम लहरा उठा.सबसे पहले वहां वैज्ञानिक क्रांति हुई,जिसके अग्रदूत थे लेओनार्दो विंसी,कोपर्निकस,ब्रूनो,गैलेलियो,जिन्होंने अपनी खोजों से 'ब्रह्माण्ड' के विषय में सदियों पुरानी धार्मिक मान्यताओं को  खंड-खंड कर दिया.अपने पूर्ववर्ती मनीषियों के निष्कर्षों को आधार बनाकर आइजक न्यूटन ने 'सार्वजनिक गुरुत्वाकर्षण'(यूनिवर्सल ग्रेविटेशन) सिद्धांत का प्रतिपादन कर यह साबित कर दिया कि पृथ्वी कोई ईश्वरीय सृष्टि नहीं,अपितु एक ऐसी चीज है जो प्रकृति के सुव्यवस्थित नियम के अनुसार गतिमान है.उनके द्वारा सारी दुनिया ने जाना कि गतिमान ग्रह सर्वत्र कायम गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण ही इधर-उधर न भागकर अपनी कक्षा में स्थिर रहते हैं.इस सिद्धांत ने अंतरिक्ष विजय का मार्ग प्रशस्त कर दिया.कोपर्निकस के स्कूल सह्पाठी जीरो लामो फ्रांकास्टोरो तथा अंग्रेज वैज्ञानिक विलियम हार्वे ने शरीर क्रिया की दैविक अवधारणाओं को ध्वस्त कर चिकित्सा जगत में क्रांति घटित कर दी.  

   धर्मों के फैलाये अंधकार को चीरने के लिए पश्चिम के मनीषियों ने जिस वैज्ञानिक क्रांति को जन्म दिया ,उसी के गर्भ से जन्म हुआ औद्योगिक क्रांति का जिसके मूल में रहे जेम्सवाट और जार्ज स्टीफेंसन.जेम्सवाट ने जहां शक्तिशाली 'इंजन' को जन्म दिया वहीँ  स्टीफेंसन ने धरती की छाती पर दौड़ा दिया,'रेल इंजन'.वैज्ञानिक उपकरणों के कल-कारखानों और कृषि क्षेत्र में प्रयोग से हुई बेतहाश वृद्धि ने जन्म दिया उत्पादों के खपत की समस्या को.इससे निजात दिलाने के लिए नए-नए देशों की खोज में निकल पड़े जान व सेवेस्टाइन कैबेट,ड्रेक हाकिंस,फ्लेशियर,बार्थेल्मू डियाज,,वास्को दी गामा,कोलम्बस,मैगेलेन जैसे साहसी नाविक .इन्होने दिल दहला देनेवाली समुद्र की लहरों और क्षितिज को पार कर आविष्कार कर डाला नई-नई दुनिया-अमेरिका,आस्ट्रेलिया,अफ्रीका इत्यादि जैसे देश.व्यापर को नई-नई दुनिया का विशाल बाज़ार सुलभ होने के बाद ही दुनिया में वैपल्विक परिवर्तन आया.      

  किन्तु प्रकृति की प्रतिकूलता को जय कर मानव-जाति को भूरि-भूरि उपकृत करने के बावजूद भी उपरोक्त मनीषियों को दुनिया बदलने वालों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता. इसमें तो उन महामानवों को शुमार किया जाता है जिन्होंने ऐसे समाज-जिसमें लेश मात्र भी लूट-खसूट,शोषण-उत्पीडन नहीं होगा;जिसमें मानव-मानव समान होंगे तथा उनमें आर्थिक विषमता नहीं होगी-का न सिर्फ सपना देखा,बल्कि उस सपने को मूर्त रूप देने के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया. ऐसे लोगों में बुद्ध,मज्दक,अफलातून,सैनेका,हाब्स-लाक,रूसो-वाल्टेयर,पीटर चेम्बरलैंड,टामस स्पेन्स,विलियम गाडविन,फुरिये,प्रूधो,चार्ल्सहाल,राबर्ट ऑवेन,मार्क्स,लिंकन,लेनिन,माओ,आंबेडकर इत्यादि की गिनती होती है. ऐसे महापुरुषों में बहुसंख्य लोग कार्ल मार्क्स को ही सर्वोतम मानते है.ऐसे लोगों का दृढ़ विश्वास रहा है कि मार्क्स पहला व्यक्ति था जिसने विषमता की समस्या का हल निकालने का वैज्ञानिक ढंग निकाला;इस रोग का बारीकी के साथ निदान किया और उसकी औषधि को भी परख कर देखा.किन्तु मार्क्स को  सर्वश्रेष्ठ विचारक माननेवालों ने कभी उसकी सीमाबद्धता को परखने कि कोशिश नहीं की.मार्क्स ने जिस आर्थिक गैर-बराबरी के खात्मे का वैज्ञानिक सूत्र दिया उसकी उत्पत्ति साइंस और टेक्नालोजी के कारणों से होती रही रही है.उसने जन्मगत कारणों से उपजी शोषण और विषमता की समस्या को समझा ही नहीं.जबकि सचाई यह है कि मानव-सभ्यता के विकास की शुरुवात से ही मुख्यतः जन्मगत कारणों से ही सारी दुनिया में विषमता का साम्राज्य कायम रहा जो आज भी काफी हद तक अटूट है.इस कारण ही सारी दुनिया में महिला अशक्तिकरण हुआ.इस कारण ही नीग्रो जाति को पशुवत इस्तेमाल होना पड़ा.इस कारण ही भारत के दलित-पिछड़े हजारों साल से शक्ति के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक-धार्मिक)से पूरी तरह शून्य रहे.

  दरअसल तत्कालीन यूरोप में औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप पूंजीवाद के विस्तार ने वहां के बहुसंख्यक लोगों के समक्ष इतना भयावह आर्थिक संकट खड़ा कर दिया कि मार्क्स पूंजीवाद का ध्वंस और समाजवाद की स्थापना को अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य बनाये बिना नहीं रह सके.इस कार्य में वे जूनून की हद तक इस कदर डूबे कि जन्मगत आधार पर शोषण,जिसका चरम प्रतिबिम्बन भारत की जाति-भेद और अमेरिका-दक्षिण अफ्रीका की नस्ल-भेद व्यवस्था में हुआ,शिद्दत के साथ महसूस न कर सके.पूंजीवादी व्यवस्था में जहाँ मुट्ठी भर धनपति शोषक की भूमिका में उभरता है वहीँ जाति और नस्लभेद व्यवस्था में एक पूरा का पूरा समाज शोषक तो दूसरा शोषित के रूप में नज़र आते हैं.भारत में ऐसे शोषकों की संख्या 15 प्रतिशत और शोषितों की 85 प्रतिशत रही.जबकि अमेरिका में लगभग पूरा का पूरा गोरा समाज ही ,जिसकी संख्या 70 प्रतिशत रही,अश्वेतों के खिलाफ शोषक की भूमिका में दंडायमान रहा.पूंजीपति तो सिर्फ सभ्यतर तरीके से आर्थिक शोषण करते रहे हैं,जबकि जाति और रंगभेद व्यवस्था के शोषक अकल्पनीय निर्ममता से आर्थिक शोषण करने के साथ ही शोषितों की मानवीय सत्ता को पशुतुल्य मानने की मानसिकता से पुष्ट रहे.खैर जन्मगत आधार पर शोषण से उपजी विषमता के खात्मे का जो सूत्र न मार्क्स न दे सका,इतिहास ने वह बोझ डॉ.आंबेडकर के कन्धों पर डाल दिया,जिसका उन्होंने नायकोचित अंदाज़ में निर्वहन किया.

  जन्माधारित शोषण- का सबसे बड़ा दृष्टान्त भारत की जाति-भेद व्यवस्था में स्थापित हुआ.भारत में सहस्रों वर्षों से आर्थिक और सामाजिक विषमता के मूल में रही है सिर्फ और सिर्फ वर्ण-व्यवस्था.इसमे अध्ययन-अध्यापन,पौरोहित्य,राज्य संचालन में मंत्रणादान,राज्य-संचालन,सैन्य वृति,व्यवसाय-वाणिज्य इत्यादि के अधिकार सिर्फ ब्राह्मण-क्षत्रिय और वैश्यों से युक्त सवर्णों के हिस्से में रहे .चूँकि इस व्यवस्था में ये सारे अधिकार जाति/वर्ण सूत्र से पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांरित होते रहे इसलिए वर्ण-व्यवस्था ने एक आरक्षण –व्यवस्था का रूप ले लिया,जिसे हिंदू आरक्षण-व्यवस्था का नाम दिया जा सकता है.इस हिंदू आरक्षण में दलित-पिछडों के साथ खुद सवर्णों की महिलाएं तक शक्ति के सभी स्रोतों से पूरी तरह दूर रखीं गयीं.

   हिंदू आरक्षण के वंचितों में अस्पृश्यों की स्थिति मार्क्स के सर्वहाराओं से भी बहुत बदतर थी.मार्क्स के सर्वहारा सिर्फ आर्थिक दृष्टि से विपन्न थे,पर राजनीतिक,आर्थिक और धार्मिक क्रियाकलाप उनके लिए मुक्त थे.विपरीत उनके भारत के दलित सर्वस्वहारा थे जिनके लिए आर्थिक,राजनीतिक,धार्मिक और शैक्षणिक गतिविधियां धर्मादेशों से पूरी तरह निषिद्ध थीं.यही नहीं लोग उनकी छाया तक से दूर रहते थे.ऐसी स्थिति दुनिया किसी भी मानव समुदाय की कभी नहीं रही.यूरोप के कई देशो की मिलित आबादी और संयुक्त राज्य अमेरिका के समपरिमाण संख्यक सम्पूर्ण अधिकारविहीन इन्ही मानवेतरों की जिंदगी में सुखद बदलाव लाने का असंभव सा संकल्प लिया था डॉ.आंबेडकर ने.किस तरह तमाम प्रतिकूलताओं से जूझते हुए दलित मुक्ति का स्वर्णीय  अध्याय रचा,वह एक इतिहास है जिससे हमसब भली भांति वाकिफ हैं.

    डॉ.आंबेडकर ने दुनिया को बदलने के लिए किया क्या?उन्होंने हिंदू आरक्षण के तहत सदियों शक्ति के सभी स्रोतों से बहिष्कृत किये गए मानवेतरों के लिए संविधान में आरक्षण के सहारे शक्ति के कुछ स्रोतों(आर्थिक-राजनीतिक) में संख्यानुपात में हिस्सेदारी सुनिश्चित कराया.परिणाम चमत्कारिक रहा.जिन दलितों के लिए  कल्पना करना दुष्कर था,वे झुन्ड के झुण्ड एमएलए,एमपी,आईएएस,पीसीएस डाक्टर,इंजिनियर इत्यादि बनकर राष्ट्र की मुख्यधारा जुड़ने लगे.दलितों की तरह ही दुनिया के दूसरे जन्मजात सर्वस्वहाराओं-अश्वेतों,महिलाओं इत्यादि-को जबरन शक्ति के स्रोतों दूर रखा गया.भारत में अम्बेडकरी आरक्षण के ,आंशिक रूप से ही सही,सफल प्रयोग ने दूसरे देशों के सर्वहाराओं के लिए मुक्ति के द्वार खोल दिए.अम्बेडकरी प्रतिनिधित्व(आरक्षण)का प्रयोग अमेरिका,इंग्लैण्ड,आस्ट्रेलिया,न्यूजीलैंड,मलेशिया,आयरलैंड ने अपने –अपने देश के जन्मजात वंचितों को शक्ति के स्रोतों में उनकी वाजिब हिस्सेदारी देने के लिए किया.इस आरक्षण ने तो दक्षिण अफ्रीका में क्रांति ही घटित कर दिया.वहां जिन 9-10प्रतिशत गोरों का शक्ति के समस्त  केन्द्रों पर 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा था ,वे अब अपने संख्यानुपात पर सिमट रहे है,वहीँ सदियों के वंचित मंडेला के लोग अब हर क्षेत्र में अपने संख्यानुपात में भागीदारी पाने लगे हैं.इसी आरक्षण के सहारे सारी दुनिया में महिलाओं को राजनीति इत्यादि   में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित कराने का अभियान जारी है.यह सही है कि  सम्पूर्ण विश्व में ही अम्बेडकरी आरक्षण ने जन्मजात सर्वस्वहाराओं के जीवन में भारी बदलाव लाया है.पर अभी भी इस दिशा में बहुत कुछ करना बाकि है.अभी भी शक्ति के सभी स्रोतों में मुक्कमल रूप से अम्बेडकरी प्रतिनिधित्व का सिद्धांत लागू नहीं हुआ है,यहाँ तक कि  अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका में भी.इसके लिए लड़ाई जारी है और जब ऐसा हो जायेगा,फिर इस सवाल पर माथापच्ची नहीं करनी पड़ेगी कि दुनिया को सबसे प्रभावशाली तरीके से बदलने वाला कौन?

  दिनांक:27 मार्च,2013.                            

   (लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के संस्थापक अध्यक्ष हैं)