गंगा सहाय मीणा जनसत्ता 21 अप्रैल, 2013: अस्मितावादी विमर्शों के दौर में भाषा का सवाल एक बार फिर प्रासंगिक हो गया है। इसके कुछ समकालीन संदर्भ भी हैं- भारत में अंग्रेजी-विरोधी मुहिम के पुरोधा और समाजवादी आंदोलन के अग्रणी नेता राममनोहर लोहिया को अपना आदर्श मानने वाली समाजवादी पार्टी के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने विद्यार्थियों को लैपटॉप बांटने के दौरान कंप्यूटर-तकनीक के साथ अंग्रेजी से दोस्ती की जरूरत पर बल दिया। अधिकतर दलित चिंतक अंग्रेजी को मुक्ति का पर्याय मान रहे हैं। भाषाओं की स्थिति को दर्शाने वाले यूनेस्को के 'इंटरेक्टिव एटलस' के मुताबिक भारत की कई भाषाएं बेहद खतरे में हैं। उनमें से अधिकतर भाषाओं का संबंध आदिवासी समाज से है, इसलिए आदिवासी मामलों के अध्येता इसे खतरे की घंटी बता रहे हैं। सारे संदर्भों से मूल सवाल यह निकल रहा है कि भाषाओं का सामुदायिक मुक्ति से क्या संबंध है और क्या भूमंडलीकरण के दौर में भाषाओं की मुक्ति का मुद्दा प्रासंगिक है? औपनिवेशिक मानसिकता की वजह से, लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रवेश के बाद भी भारतीय मानस में अपनी मातृभाषाओं के प्रति हीनताबोध और अंग्रेजी को लेकर श्रेष्ठताबोध जारी रहा। भारतीय संविधान ने इसे वैधता प्रदान कर दी और विभिन्न संविधान संशोधनों के जरिए आगे भी यह सिलसिला चलता रहा, जिसके फलस्वरूप अंग्रेजी वर्चस्व और श्रेष्ठताबोध की भाषा बनी रही। अनेक देशों में यह प्रक्रिया कमोबेश इसी रूप में चली, जिसके परिणामस्वरूप धीरे-धीरे अंग्रेजी दुनिया की संपर्क भाषा के रूप में विकसित होने लगी। आजादी के बाद लगभग दो दशक तक भारतीय समाज और राजनीति में भाषा का प्रश्न छाया रहा। हिंदी को भारत की राजभाषा बनाने का गैर-हिंदीभाषी राज्यों, खासकर दक्षिण भारतीय राज्यों में जमकर विरोध हुआ और विरोध की राजनीति भी हुई। उसी दौर में उत्तर भारत में डॉ. राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में अंग्रेजी को सह-राजभाषा बनाए जाने के विरोध में बड़ी संख्या में लोग लामबंद हुए। लोहिया जब अंग्रेजी हटाने की बात करते थे तो उसका मतलब हिंदी लाना नहीं था। वे भारतीय जनता पर थोप दी गई अंग्रेजी के स्थान पर सभी भारतीय भाषाओं को प्रतिष्ठा दिलाने के पक्षधर थे। भाषा का सवाल उनके लिए पेट का सवाल था। वे 'पेट और दिमाग' के सवालों को आपस में जुड़ा हुआ मानते थे। खुद को लोहिया का अनुयायी कहने वाले समाजवादी पार्टी के नेतृत्व की भाषा-नीति में बदलाव को लोहिया की भाषा-नीति के अप्रासंगिक होने के रूप में नहीं, बल्कि 'समाजवादियों' की राजनीति में बदलाव के एक अंग के रूप में देखा जाना चाहिए। दलित चिंतकों द्वारा नई आर्थिक व्यवस्था को मुक्ति की विचारधारा और इसी क्रम में अंग्रेजी को मुक्ति की भाषा कहा जाना कई सवाल खड़े करता है। हिंदी अकादमिक जगत में वैश्विक पूंजीवाद को लेकर मतभिन्नता या संशय दिख सकता है, लेकिन भाषा के मसले पर व्यापक आम सहमति है कि अंग्रेजी शोषण की भाषा है और हिंदी को उससे भारी खतरा है। दलित विमर्श इसकी विरोधी राय लेकर आया है। क्या दलित चिंतकों की इस बात से सहमत हुआ जा सकता है कि अंग्रेजी मुक्ति की भाषा है? किसी भाषा के मुक्ति या शोषण की भाषा होने के सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ होते हैं। भारतीय संदर्भ में सरकारी नीतियों के कारण रोजगार और प्रतिष्ठा की भाषा होने के कारण अंग्रेजी ज्ञान प्राप्त कर चुके दलितों (हालांकि इनकी संख्या बहुत कम है) को उन पारंपरिक पेशों से मुक्ति मिली है, जो सदियों से उनके शोषण का कारण बने हुए थे। चूंकि हिंदी ने दलितों के संदर्भ में ऐसी कोई भूमिका नहीं अदा की, शायद इसलिए दलितों को अंग्रेजी मुक्ति की भाषा नजर आती है। अब सवाल है कि हिंदी के खतरे में होने की आशंका में कितनी सच्चाई है? अगर हम भारत और विश्व के आंकड़े देखें तो पाएंगे कि हिंदी बोलने वालों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है। धीरे-धीरे हिंदी बाजार की भाषा के रूप में भी विकसित हो रही है। पर यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि अंग्रेजी की तरह हिंदी भी वर्चस्ववादी भाषा है- अपनी जुड़वां बहन उर्दू, सगी बहनों, पूर्वोत्तर भारत की भाषाओं, दक्षिण की भाषाओं और देश की तमाम आदिवासी भाषाओं के लिए। इन सब भाषाओं को अंग्रेजी के साथ और अंग्रेजी से अधिक हिंदी प्रतिस्थापित कर रही है। हम सब अपनी मातृभाषाएं छोड़ कर हिंदी अपना रहे हैं, अंग्रेजी नहीं। आदिवासी विमर्श में मुक्ति की भाषा का संदर्भ और इसकी समझ दलित विमर्श से एकदम भिन्न है। आज देश के आदिवासी बेहद कठिन दौर में जी रहे हैं और अपने अस्तित्व तथा अस्मिता की रक्षा के लिए संघर्षरत हैं। जिन तत्त्वों से आदिवासी अस्मिता परिभाषित होती है, उनमें उनकी विशिष्ट भाषा भी एक प्रमुख तत्त्व है। इसलिए आदिवासी भाषाओं को बचाने का सवाल आदिवासी विमर्श का एक अहम मुद्दा है। हिंदी किसी आदिवासी की मातृभाषा नहीं है, इसलिए 'हिंदी के समक्ष उपस्थित खतरा' या हिंदी की मुक्ति का प्रश्न आदिवासी विमर्श के किसी काम का नहीं है। ईसाई धर्म ग्रहण करने के बाद आदिवासियों ने अंग्रेजी के रास्ते तथाकथित मुख्यधारा में जगह बनाना शुरू किया। इसलिए अंग्रेजी से उनका ऐसा कोई वैरभाव भी नहीं है, जैसा हिंदी-हितैषियों का है। अंग्रेजी के प्रभाव में वे अठारहवीं-उन्नीसवीं सदी से हैं। इसके बावजूद उन्होंने अपनी भाषाओं को बचाए रखा। आज आदिवासियों की मूल चिंता अपनी भाषा को बचाने की है। आदिवासी भाषाओं के सामने अंग्रेजी और हिंदी, दोनों ने ही अस्तित्त्व की चुनौती खड़ी कर दी है। एक आदिवासी भाषा का मरना हजारों वर्ष पुरानी सभ्यता, उसकी स्मृति और ज्ञान परंपरा का खत्म होना है। इसलिए भारतीय संदर्भ में अंग्रेजी और हिंदी के वर्चस्व से आदिवासी भाषाओं की मुक्ति जरूरी है। मुक्ति की भाषा के सवाल से लेकर भाषाओं की मुक्ति के संदर्भ तक चीजों को ठीक से समझने और सावधानी बरतने की जरूरत है। जिस तरह वैश्विक पूंजीवाद और अमेरिकी साम्राज्यवाद गरीबों के हक की विचारधारा और व्यवस्था नहीं है, उसी तरह अंग्रेजी बहुत सीमित संदर्भों में ही वंचितों के हित की भाषा हो सकती है। दूसरी बात यह कि जैसे अंग्रेजों के शोषण के अलावा सामंती, जातिवादी और लैंगिक शोषण भारतीय समाज का सच है, वैसे ही छोटी और आदिवासी भाषाओं के संदर्भ में अंग्रेजी के अलावा हिंदी के वर्चस्व का सच भी हमें स्वीकार करना चाहिए। बाजार और सत्ता द्वारा निर्मित मुक्ति के संदर्भ स्थायी महत्त्व के नहीं हैं, इसलिए इनके प्रति सतर्कता अपेक्षित है। अगर हम सचमुच अपनी भाषाओं को बचाना चाहते हैं तो उनका व्यवहार जारी रखने के लिए उन्हें रोजगार से जोड़ना और उचित सम्मान देना होगा। |
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