| Sunday, 05 May 2013 15:53 |
मैंने सोचा कि यों भी माओवादी पार्टियों में विभाजन होना आम बात है। प्रचंड खुद न जाने कितने अलग-अलग नामों वाली पार्टियों में रहे हैं। इसलिए जाहिर है कि इस टूट से वे कोई खास परेशान नहीं। कुछ समय पहले तो उनके और बाबूराम भट््टराई के बीच भी इतना तनाव बढ़ गया था कि कुछ समय के लिए बाबूराम को पार्टी से बाहर कर दिया गया था। बाबूराम भट््टराई भी जेएनयू के छात्र रहे हैं। प्रधानमंत्री के रूप में जब वे भारत आए थे तो जेएनयू में उनके सम्मान में एक सभा हुई थी, जिसमें उन्होंने एक शानदार और विचारोत्तेजक भाषण दिया था। प्रचंड से बात करके एक और चीज पर भरोसा हुआ कि शायद अब वे और उनकी पार्टी समझ गए हैं कि भारत के साथ तनावपूर्ण संबंध किसी के भी हित में नहीं हैं। पहले वे भारत को 'साम्राज्यवादी' और 'विस्तारवादी' बताया करते थे, लेकिन अब उनका स्वर पूरी तरह बदला हुआ है। मेरे पूछने पर उन्होंने बड़ी बेबाकी से स्वीकार किया कि भारत के साथ राजनीतिक-आर्थिक संबंध सुदृढ़ किए बगैर नेपाल आर्थिक समृद्धि के रास्ते पर आगे नहीं बढ़ सकता। उन्होंने कहा कि सामंती राजशाही चीन और भारत का कार्ड एक दूसरे के खिलाफ खेल कर अपना उल्लू सीधा करती थी। क्रांतिकारी आंदोलन पर भी इस प्रवृत्ति का कुछ असर था। लेकिन अब उनका विजन है कि नेपाल-चीन-भारत के बीच त्रिपक्षीय सहयोग हो। 'लेकिन यह सहयोग भारत-नेपाल संबंधों को एक नई ऊंचाई तक ले जाए बिना नहीं हो सकता। इसलिए मैं और मेरी पार्टी भारत के साथ घनिष्ठ संबंध के पक्ष में हैं।' प्रचंड का मानना है कि उनका विजन तुरंत वास्तविकता बन जाएगा, ऐसी कोई गलतफहमी उन्हें नहीं है। लेकिन उन्हें पूरा विश्वास है कि एक दिन यह असलियत का जामा पहनेगा जरूर। मेरा सवाल है कि क्या ब्रिक्स (भारत, ब्राजील, रूस, चीन और दक्षिण अफ्रीका का सहयोग संगठन) की तरह का कोई संस्थागत ढांचा बन सकता है, जिसके तहत भारत, चीन और नेपाल के बीच सुचारु ढंग से सहयोग विकसित हो सके? प्रचंड कहते हैं कि ऐसा संगठन न सिर्फ बनना चाहिए, बल्कि वह देर-सबेर बन कर ही रहेगा। उनका यह भी कहना है कि भारत और नेपाल को एक दूसरे के सुरक्षा सरोकारों को भी समझना होगा। तभी आपसी सहयोग बढ़ सकता है। प्रचंड के सामने असली समस्या नेपाल में चल रहे राजनीतिक गतिरोध को तोड़ने की है। पांच सालों में भी वहां अभी तक संविधान तैयार नहीं किया जा सका है और संविधान सभा का कार्यकाल समाप्त हो गया है। राजनीतिक निर्वात को भरने के लिए देश के प्रधान न्यायाधीश खिलराज रेग्मी इस समय एक अंतरिम सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं। इस वर्ष जून तक चुनाव होने हैं। माओवादियों को राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करने की आदत है। लेकिन लोकतंत्र में दूसरी पार्टियों के साथ मिल कर चलने की क्षमता होनी चाहिए। प्रचंड को विश्वास है कि उनकी पार्टी लोकतंत्र की अग्निपरीक्षा में खरी उतरेगी। यह वर्ष नेपाल के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है।
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Sunday, May 5, 2013
बदले हुए प्रचंड
बदले हुए प्रचंड
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/43917-2013-05-05-10-24-24
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कुलदीप कुमार
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