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Sunday, May 5, 2013

बदले हुए प्रचंड

बदले हुए प्रचंड

Sunday, 05 May 2013 15:53

कुलदीप कुमार 
जनसत्ता 5 मई, 2013: प्रचंड अब फिर से पुष्प कमल बन रहे हैं। उन्होंने 1996 से 2006 तक नेपाल में माओवादी सशस्त्र विद्रोह का नेतृत्व किया। इस विद्रोह ने पूरे नेपाल को हिला डाला और माना जाता है कि उस दौरान कम से कम पंद्रह हजार लोग मारे गए। नेपाली शाही सेना और माओवादियों-दोनों की ओर से मानवाधिकारों का जम कर उल्लंघन किया गया। ऐसे हिंसक संघर्ष में आम लोगों को लामबंद करके बनाई गई जनसेना का नेतृत्व कोई प्रचंड व्यक्ति ही कर सकता था। 2006 तक प्रचंड करिश्माई व्यक्तित्व वाले किंवदंतीपुरुष बन चुके थे। संघर्ष की समाप्ति पर जब वे भूमिगत जीवन छोड़ कर जनता के बीच खुलेआम प्रकट हुए, तभी लोगों को पता चला कि वे कैसे दिखते हैं, क्योंकि तब तक उनके चित्र भी उपलब्ध नहीं थे। 2008 में हिंदू राजशाही की समाप्ति के बाद जब नेपाल एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणतंत्र के रूप में उभरा, तो प्रचंड ही उसके पहले प्रधानमंत्री बने। 
एक अनियमित छापामार सेना और भूमिगत क्रांतिकारी पार्टी को लोकतांत्रिक संसदीय राजनीति की मुख्यधारा में लाना कोई आसान काम नहीं है, न नेताओं के लिए और न ही पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए। लेकिन यह कठिन प्रक्रिया ही है जिसके कारण प्रचंड फिर से पुष्प कमल बन रहे हैं। उनका असली नाम पुष्प कमल दहाल है। प्रचंड उनके भूमिगत क्रांतिकारी जीवन का नाम है, लेकिन अब वे लेनिन की तरह सर्वत्र अपने छद्मनाम से ही जाने जाते हैं। 
मेरे पुराने मित्र देवीप्रसाद त्रिपाठी, जिन्हें अब हर कोई डीपीटी पुकारने लगा है, का व्यक्तित्व बहुआयामी है। चालीस साल पहले मेरी उनसे मित्रता साहित्य के कारण हुई थी, क्योंकि 'वियोगी' नाम से गीत वगैरह लिखने के बाद उन दिनों वे 'अग्निवेश' के उपनाम से कविताएं लिखते थे। कई वर्षों से वे राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के महासचिव और मुख्य प्रवक्ता हैं और एक वर्ष पहले राज्यसभा के सदस्य बने हैं। त्रिपाठी प्रखर वक्ता हैं और लंबे समय से भारत और नेपाल के बीच मैत्री को प्रगाढ़ बनाने के काम में लगे हैं। नेपाल के राजनीतिक वर्ग के बीच उन्हें बहुत माना जाता है। चाहे नेपाली कांग्रेस के प्रतिद्वंद्वी गुट हों या अलग-अलग तरह की कम्युनिस्ट पार्टियां या फिर कई रंगों के माओवादी-सभी के बीच उनकी व्यापक स्वीकृति है और सभी उनकी राजनीतिक सूझबूझ के कायल हैं। 
कई साल पहले नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री और नेपाली कांग्रेस से टूट कर बनी पार्टी के नेता शेर बहादुर देउबा के सम्मान में उन्होंने रात्रिभोज दिया था। कुछ साल पहले अपनी पार्टी के मुख्यालय में उन्होंने सुबह-सुबह प्रचंड के सम्मान में एक आयोजन किया था, जिसमें प्रचंड और बाबूराम भट््टराई तो थे ही, भारत की कई प्रमुख पार्टियों के नेता भी मौजूद थे। 
पिछले सोमवार देवीप्रसाद त्रिपाठी ने प्रचंड और उनकी पत्नी सीता दहाल के सम्मान में अपने निवासस्थान पर रात्रिभोज का आयोजन किया। इस अवसर पर प्रचंड से तो भेंट का अवसर मिला ही, और भी बहुत लोगों से मुलाकात हो गई। काठमांडो में भारत के राजदूत जयंत प्रसाद मिले, जो जेएनयू के इतिहास अध्ययन केंद्र में एमए में मुझसे एक साल सीनियर थे। उनके पिता प्रोफेसर विमल प्रसाद जेएनयू में प्रोफेसर थे। उनका समाजवादी राजनीति और नेपाल के साथ भी बड़ा गहरा जुड़ाव था। एक स्नेहिल व्यक्ति और विद्वान के रूप में उन्हें हर जगह बहुत सम्मान दिया जाता था और आज भी दिया जाता है। वे भी नेपाल में हमारे राजदूत रहे। पिता और पुत्र के एक ही देश में राजदूत बन कर जाने की शायद यह एकमात्र मिसाल है। आयोजन में कवि-आलोचक-स्तंभकार अशोक वाजपेयी, योजना आयोग की सदस्य सईदा हमीद, जेएनयू के कुलपति प्रोफेसर एसके सोपोरी, लेखक-पत्रकार और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ प्रोफेसर पुष्पेश पंत, जनता दल (एकी) के महासचिव और सांसद केसी त्यागी और प्रवक्ता शिवानंद तिवारी, मेजर जनरल (अवकाशप्राप्त) अशोक मेहता, मशहूर पत्रकार अदिति फड़नीस और भारतभूषण, प्रख्यात नृत्यांगना सोनल मानसिंह, 'जनसत्ता' संपादक ओम थानवी, माकपा की केंद्रीय समिति के सदस्य जोगेंद्र शर्मा और भाकपा के सांसद डी राजा के अलावा भी कई अन्य जानी-मानी हस्तियां मौजूद थीं। प्रचंड एकदम खिले पड़ रहे थे। जिस बात ने मुझे प्रभावित किया वह यह थी कि उन्होंने किसी भी सवाल से बच कर निकल जाने की कोशिश नहीं की। हर बात का वे खुल कर जवाब दे रहे थे। 
पिछली फरवरी में उनकी माओवादी पार्टी का महाधिवेशन हुआ, जिसमें अनेक मूलगामी फैसले किए गए। सबसे महत्त्वपूर्ण तो यही कि अब पार्टी ने सशस्त्र विद्रोह का रास्ता छोड़ कर पूरी तरह राजनीति की मुख्यधारा में शामिल होने का निर्णय कर लिया है। महाधिवेशन से पहले स्वाभाविक तौर पर पार्टी के भीतर इन सब प्रश्नों पर विचार-विमर्श होता रहा था। उनके एक महत्त्वपूर्ण साथी मोहन वैद्य 'किरण' अपने सहयोगियों के साथ पार्टी छोड़ गए, क्योंकि उन्हें लग रहा था कि अब क्रांतिकारी राजनीति को तिलांजलि देकर पार्टी सुविधापरस्त संसदीय राजनीति की राह पकड़ रही है। मैंने प्रचंड से उनकी पार्टी में हुई इस टूट के बारे में पूछा तो वे हंसने लगे और बोले, 'देखिए, मैं आपको एक दिलचस्प बात बताता हूं। कल जब मैं दिल्ली हवाई अड््डे से बाहर निकला तो देखा कि कुछ लोग हाथों में काले झंडे लिए मेरे स्वागत में खड़े हैं। वे सभी मेरे ही कार्यकर्ता थे जो अब मोहन वैद्य के साथ हैं। शाम को नेपाली दूतावास में एक आयोजन था। उसमें मोहन वैद्य की पार्टी   के भी चार-पांच लोग आए। वहां वे कहने लगे कि आपके साथ मतभेद हैं, यह तो ठीक है, लेकिन हमें लगता है कि आप ही नेपाल को आगे ले जा सकते और नेतृत्व दे सकते हैं। तो यह भावना भी है।' 

मैंने सोचा कि यों भी माओवादी पार्टियों में विभाजन होना आम बात है। प्रचंड खुद न जाने कितने अलग-अलग नामों वाली पार्टियों में रहे हैं। इसलिए जाहिर है कि इस टूट से वे कोई खास परेशान नहीं। कुछ समय पहले तो उनके और बाबूराम भट््टराई के बीच भी इतना तनाव बढ़ गया था कि कुछ समय के लिए बाबूराम को पार्टी से बाहर कर दिया गया था। बाबूराम भट््टराई भी जेएनयू के छात्र रहे हैं। प्रधानमंत्री के रूप में जब वे भारत आए थे तो जेएनयू में उनके सम्मान में एक सभा हुई थी, जिसमें उन्होंने एक शानदार और विचारोत्तेजक भाषण दिया था। 
प्रचंड से बात करके एक और चीज पर भरोसा हुआ कि शायद अब वे और उनकी पार्टी समझ गए हैं कि भारत के साथ तनावपूर्ण संबंध किसी के भी हित में नहीं हैं। पहले वे भारत को 'साम्राज्यवादी' और 'विस्तारवादी' बताया करते थे, लेकिन अब उनका स्वर पूरी तरह बदला हुआ है। मेरे पूछने पर उन्होंने बड़ी बेबाकी से स्वीकार किया कि भारत के साथ राजनीतिक-आर्थिक संबंध सुदृढ़ किए बगैर नेपाल आर्थिक समृद्धि के रास्ते पर आगे नहीं बढ़ सकता। उन्होंने कहा कि सामंती राजशाही चीन और भारत का कार्ड एक दूसरे के खिलाफ खेल कर अपना उल्लू सीधा करती थी। क्रांतिकारी आंदोलन पर भी इस प्रवृत्ति का कुछ असर था। लेकिन अब उनका विजन है कि नेपाल-चीन-भारत के बीच त्रिपक्षीय सहयोग हो। 'लेकिन यह सहयोग भारत-नेपाल संबंधों को एक नई ऊंचाई तक ले जाए बिना नहीं हो सकता। इसलिए मैं और मेरी पार्टी भारत के साथ घनिष्ठ संबंध के पक्ष में हैं।' 
प्रचंड का मानना है कि उनका विजन तुरंत वास्तविकता बन जाएगा, ऐसी कोई गलतफहमी उन्हें नहीं है। लेकिन उन्हें पूरा विश्वास है कि एक दिन यह असलियत का जामा पहनेगा जरूर। मेरा सवाल है कि क्या ब्रिक्स (भारत, ब्राजील, रूस, चीन और दक्षिण अफ्रीका का सहयोग संगठन) की तरह का कोई संस्थागत ढांचा बन सकता है, जिसके तहत भारत, चीन और नेपाल के बीच सुचारु ढंग से सहयोग विकसित हो सके? प्रचंड कहते हैं कि ऐसा संगठन न सिर्फ बनना चाहिए, बल्कि वह देर-सबेर बन कर ही रहेगा। उनका यह भी कहना है कि भारत और नेपाल को एक दूसरे के सुरक्षा सरोकारों को भी समझना होगा। तभी आपसी सहयोग बढ़ सकता है। 
प्रचंड के सामने असली समस्या नेपाल में चल रहे राजनीतिक गतिरोध को तोड़ने की है। पांच सालों में भी वहां अभी तक संविधान तैयार नहीं किया जा सका है और संविधान सभा का कार्यकाल समाप्त हो गया है। राजनीतिक निर्वात को भरने के लिए देश के प्रधान न्यायाधीश खिलराज रेग्मी इस समय एक अंतरिम सरकार का नेतृत्व कर रहे हैं। इस वर्ष जून तक चुनाव होने हैं। माओवादियों को राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करने की आदत है। लेकिन लोकतंत्र में दूसरी पार्टियों के साथ मिल कर चलने की क्षमता होनी चाहिए। प्रचंड को विश्वास है कि उनकी पार्टी लोकतंत्र की अग्निपरीक्षा में खरी उतरेगी। यह वर्ष नेपाल के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है।

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/43917-2013-05-05-10-24-24

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