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Sunday, August 4, 2013

Rajiv Nayan Bahuguna मेरे संपादक , मेरे संतापक ---४ डॉ. अंसारी की हवेली में कुछ दिन

मेरे संपादक , मेरे संतापक ---४ 

डॉ. अंसारी की हवेली में कुछ दिन 

दिल्ली में राधा कृष्ण बजाज उर्फ " भाया जि " दिल्ली गेट के पास अंसारी रोड के पास एक कोठी से अपना सत्याग्रह चलाते थे . यह कोठी किसी सेठ ने खरीदी थी और इसको लेकर लफडा था , सो उसने यहाँ भाया जि को अपना आंदोलन यहीं से संचालित करने के लिए प्रेरित किया , ताकि वहां भजन - कीर्तन होता रहे , और भीड़ - भाड़ बनी रहे . दो - चार साल बाद झगडा सुलट जाने के बाद उसने अपनी कोठी खाली करवा ली , और भाया जी कुछ दिन एक गेराज में रहने के बाद अंततः वापस वर्धा चले गए . यह ऐतिहासिक हवेली थी , जो कभी महात्मा गांधी और स्वामी श्रद्धा नन्द के निकट सहयोगी रहे डॉ . अंसारी की संपत्ति थी . यहाँ मेरा काम भाया जी के पत्र और लेख टाइप करने का था . लेकिन ड्यूटी चूंकि स्वेच्छिक थी , इस लिए जब मुझे फुर्सत मिलती तब करता , वरना नहीं भी करता . उन्हें पत्र लिखने का बड़ा चाव था . रोज गांधी जी की तर्ज़ पर गो रक्षा को लेकर दर्ज़नों पत्र लिखते , यद्यपि जवाब शायद ही किसी का आता हो . गाय के दूध , गोबर , मूत्र आदि के फायदे को लेकर लंबेलंबे लेख और प्रेस नोट बना कर मुझे सौंपते , जिन्हें अखबार वाले रद्दी की टोकरी के हवाले कर देते थे , लेकिन वह हार नहीं मानते , और सतत लिखते रहते . अपने साथ रहने वाले हम पांच - छह स्थायी अन्तेवासियों को वह रोज प्रार्थना के बाद गाय के दूध पर प्रवचन देते . एक दिन हम में से सबसे वरिष्ठ महावीर त्यागी ने उलाहना दिया - आप हमेशा कहते रहते हो कि गाय का दूध हर भारत वासी को रोज कम से कम आधा सेर मुहैय्या होना चाहिए , जबकि यह हमें कभी नहीं मिलता तो औरों की बात क्या करें ? भाया जी किन्कर्ताव्य्विमूढहो गए , और नतीजतन हमें रोज रात को दो सौ ग्राम दूध मिलने लगा . गाय का दूध लेने प्रायः मै ही जाता . एक दिन गाय का दूध उपलब्ध न होने पर सप्लायर ने भैंस का दूध दे दिया . भाया जी बहुत नाराज़ हुए और वह दूध वापस फेरना पड़ा . यह नौबत एकाधिक बार फिर आई , लेकिन अब प्रदाता ने मुझे साध लिया था . वह भैंस के दूध में चुटकी भर हल्दी पावडर मिलाता , और भाया जी देख कर खुश होते - देखो यह हुआ न असली गाय का दूध , रंग और स्वाद में कितना खरा है . मै हामी भरता . यहाँ मुझे रहने - खाने की कोई दिक्कत न थी , फिर भी मै माथुर साहब से बार - बार कहता कि खाना कभी मिलता है कभी नहीं , जल्दी मेरा उद्धार कीजिए . लेकिन वह अडिग होकर कहते कि कम खाने से आज तक कोई नही मरा , दुनिया के तमाम लोग ज्यादा खाने से मर रहे हैं . प्रतीक्षा करो . मै प्रतीक्षा न करता तो क्या करता ? नव भारत टाइम्स में भी मै स्वयं सेवा ही कर रहा था . असल में माथुर साहब का उद्देश्य यह था कि मै कुछ काम सीख लूं , ताकि उन पर कोई आंच न आये . एक सतूना उन्होंने मेरा यह बिठा दिया था कि अखबार के उत्तर प्रदेश संस्करण में मेरे लेख या रपटें छप जातीं , जिनका मुझे भुगतान होता था . मै हर माह एकाउंट में जाकर पूछता - मेरा चेक बना क्या ? और जब पता चलता कि बन गया तो सौ या दो सौ रूपये का चेक लेने अपने गाँव टिहरी चला जाता , तीन सौ रूपये खर्च करके . चेक गाँव के पते पर ही जाता था , क्योंकि दिल्ली में मेरा कोई स्थायी ठिकाना तो था नहीं . गाँव आने - जाने का किराया भाया जी सहर्ष दे देते , लेकिन उन्हें वापसी में बस के टिकट सौंपने पड़ते . दो रुपये की चाय भी रस्ते में पी तो उसका भी अलग से पर्चा बना के देना होता था . यह साधन शुचिता का गांधी माडल था , जिसके तहत चवन्नी का हिसाब देना भी लाजमी था .
( जारी रहेगा मित्रों )

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