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Tuesday, February 18, 2014

इन चीखों का जवाब चाहिए हमें

इन चीखों का जवाब चाहिए हमें

इन चीखों का जवाब चाहिए हमें


क्रान्ति का स्वर हाशिये पर है, भ्रांतियाँ वर्चस्व को मजबूती दे रही हैं

पलाश विश्वास

उत्तराखण्ड स‌े अबकी स‌ुधा राजे ने आवाज दी है, जो बहस तलब है

जब गली में चीखती आवाज़ें गूँजी तुम नहीं उठे।

जब घर में सिसकने की आवाजें गूँजी तुम नहीं उठे।।

जब खुद तुम्हारे हृदय में चीखने के स्वर गूँजे तब भी तुम नहीं उठे!!!!!!

तो सुनो मेरी कोई पुकार तुम्हारे लिये नहीं है क्योंकि पुकारा सिर्फ़ जीवितों को जाता है और सुनकर सिर्फ वे ही दौड़ कर आते हैं जो हाथ पाँव कान और आवाज रखते हैं दिमाग और दिल की धधक धड़क के साथ जाओ तुम सो जाओ मैं तुम्हें नहीं किसी और को बुला रही हूँ अगर मेरी आवाज वहाँ तक पहुँचेगी तो वह जरूर उठेगा और मेरी आवाज थक गयी तो तो भी जिंदा लोग मेरी बात वहाँ तक पहुँचाते रहोगे।

धन्यवाद सुधा। इस बीच तमाम घटनाक्रम इतने तेज हो गये कि इस जरूरी बहस को समेट ही नहीं सके। कोलकाता से बाहर होने के कारण यह देरी हो गयी है।इसी बीच पहाड़ में हमारे सबसे प्रिय लोग शेखर पाठक,राजीव लोचन साह,शमशेर सिंह बिष्ट, कमला पंत, उमेश तिवारी और चिपको आन्दोलन, उत्तराखण्ड आन्दोलन समेत तमाम जनान्दोलनों के साथी आप के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के बहाने राजनीति में शामिल हो गये हैं।

परिप्रेक्ष्य तेजी से बदल रहे हैं, मगर जिन सिसकियों की चर्चा इन पंक्तियों में हैं, जिन चीखों की गूँज है, उसके जवाब में सिर्फ सन्नाटा और सन्नाटा ही दर्ज है और कुछ भी तो नहीं। मेरी एक लंबी कहानी डीएसबी की पत्रिका में 1978 में छपी थी, जिसकी प्रतिक्रिया में समाजशास्त्र की मैडम दीपा खुलबे ने अपने घर बुलाकर कहा था कि तुम्हारी हिंदी और अंग्रेजी दोनों अच्छी है। तुम लिखते रहो। उन्होंने कहा था, मैं तुम्हारे लिये कुछ भी कर सकती हूँ। तब मैं एमए अंग्रेजी का प्रथम वर्ष का छात्र था। कितनी ही यादें हैं, नैनीताल से और पहाड़ों से। हम तो तब से इन्हीं सिसकियों और चीखों के जवाब तलाशते हुये भटक रहा हूँ।

एक तरफ अरविंद केजरीवाल हैं जिन्होंने रिलायंस साम्राज्य को राष्ट्रीय मुद्दा बनाने में पहली बार कामयाबी हासिल की है और हमारे सारे पुराने साथी एक के बाद एक देश भर में उनके आन्दोलन के साथ जुड़ रहे हैं।

दूसरी तरफ अपने इंडियन पीपुल्स फ्रंट के संयोजक पुरातन मित्र अखिलेंद्र प्रताप सिंह का जंतर- मंतर पर अनशनहै,जिसके मार्फत वे कॉरपोरेट और एनजीओ के भ्रष्टाचार पर सवाल दागते हुये तमाम जरूरी मुद्दों को फोकस करने में कामयाब रहे।

 इसी के मध्य कश्मीर से कन्याकुमारी तक देश भर में विभिन्न अंबेडकरी संगठनों से जुड़े वे लोग हैं, जो अब कॉरपोरेट साम्राज्यवाद के खिलाफ अस्मिता, पहचान और सत्ता के दायरे से बाहर राष्ट्रव्यापी जनान्दोलन की बात कर रहे हैं तो जमीन पर लड़ने वाले तमाम लोग हैं, जैसे देश भर के आदिवासी, मारुति उद्योग के मजदूर, शहरीकरण और औद्योगीकरण से बेदखल लोग, डूब में शामिल तमाम जनपद, कुड़नकुलम के ग्रामीण, कश्मीर और पूर्वोत्तर में सशस्त्र सैन्य विशेषाधिकार के विरुद्ध मानवाधिकार और लोकतंत्र की बहाली के लिये लड़ रहे लोग, इरोम शर्मिला हैं, सोना सोरी हैं, हिमांशु कुमार हैं, गोपालकृष्ण हैं।

दूसरे हजारों लाखों सक्रिय जाने अनजाने मशहूर गुमनाम लोग अपने अपने तरीके से जल जंगल जमीन आजीविका नागरिकता और मानवाधिकार की लड़ाई में पूरी ईमानदारी, आस्था और प्रतिबद्धता के साथ लड़ रहे हैं। इतने सारे लोग।

सत्ता वर्ग में चट्टानी एकता है। उनका एजेण्डा एक है। उनमें नूरा कुश्ती के निरन्तर प्रदर्शन के बावजूद अद्भुत अटूट समन्वय, संयोजन और रणनीतिक एकता है। उनकी सेनाएं, निजी सेनाएं तकनीक विशेषज्ञ हैं। मारक हथियारों से लैस हैं। वे जनसंहार के विशेषज्ञ हैं तो मनोरंजन और विवाद परोसकर मस्तिष्क नियन्त्रण के निराले कारीगर भी।

दूसरी तरफ हम सभी लोग अलग-अलग झंडों, अलग-अलग पहचान, अलग-अलग अस्मिता के दायरे में लड़ रहे हैं। पार्टीबद्ध पैदल सेनाएं हैं हम धर्मोन्मादी। हम वार करते हैं तो अपने ही लोग जख्मी होते हैं। हम हमला करते हैं तो अपनो के खिलाफ ही। हमारी सारी रणनीतियाँ नीतियाँ हमारे अपनों के विरुद्ध हैं। हम पर्दाफाश करते हैं तो सिर्फ अपनों का। हम मुद्दों और समस्याओं को स्पर्श भी नहीं करते। अपनी अपनी बूंदी सजाकर हम नकली किले की हिफाजत में नकली शहादत की आत्मरति मग्न लोग हैं निःशस्त्र। शत्रुपक्ष को हमारे विरुद्ध लड़ने की कोई जरूरत ही नहीं है क्योंकि हमारे शत्रु हम स्वयं हैं और अपने ही विरुद्ध युद्ध से हमें फुरसत नहीं है।

बस्तियों और मोहल्लों  से प्रमोटर बिल्डर राज की वजह से बेदखल होते लोग, नागरिकता वंचित तमाम लोग, मातृभाषाओं से बेदखल लोग, रोज फर्जी मुटभेड़ों, दंगों और संघर्षों में सलवाजुड़ुम जैसे नाना अभियानों, गृहयुद्ध में मारे जा रहे लोग और उनके लहूलुहान परिजन, बेरोजगार छात्र युवाजन, उपभोक्ता बना दी जा रही स्त्रियाँ और जातीय,वर्गीय नस्ली व भौगोलिक बेदभाव के शिकार लोग जो अपने हक हकूक के लिये देश भर में अलग अलग लड़ रहे हैं, अराजनीतिक राजनीति के तहत। लेकिन इस राष्ट्रव्यापी जनआन्दोलन के खण्डित चेहरे का कोई मुकम्मल चरित्र नहीं है।

चीखें बदस्तूर जारी हैं। सिसकियाँ अनन्त हैं।

यातनाओं के महासमुंदर में गोताखोरी कर रहे हैं हम लोग।

दमनतन्त्र के औजार में तब्दील हैं हम लोग।

उत्पीड़न, अत्याचार के पक्ष में खड़े है हम लोग धर्मोन्मादी अंध राष्ट्रभक्त। जबकि देश बेचो महाब्रिगेड का किसी भी स्तर पर कोई प्रतिरोध हो ही नहीं रहा है।

इनके मध्य हम कहां हैं, मुझे अपना अवस्थान सही-सही मालूम ही नहीं पड़ रहा है। आपको अपना अवस्थान और परिप्रेक्ष्य साफ-साफ मालूम हो तो हमारी मदद जरूर करें। क्या यह असम्भव है कि ये तमाम लोग एक साथ संगठित करके इस देश की व्यवस्था ही बदल दें।

हम अपने मित्र आनंद तेलतुंबड़े से सहमत हैं जो लिखते हैं :

एक तरफ दलित आन्दोलन को जाति के मसलों पर संघर्ष करते हुये खुद को वर्ग की लाइन पर लाना होगा तो दूसरी ओर वाम आन्दोलन को इस तरह से निर्देशित किया जाना होगा कि वह जाति के यथार्थ को पहचान सके और संघर्षरत दलितों के साथ एकजुटता कायम करने की जरूरत को महसूस कर सके। यह पहल हालांकि वाम आन्दोलन की ओर से ही पूरे वैचारिक संकल्प के साथ की जानी होगी जो उसकी ओर से अब तक बकाया है तथा इस क्रम में खुद को सही मानने की अपनी प्रवृत्ति को उसे छोड़ना होगा। जैसा कि मैंने अपनी पुस्तक एंटी इम्पीरियलिज्म एंड एनिहिलेशन ऑफ कास्ट्स में लिखा थाएक बार इस प्रक्रिया की शुरुआत हो गयी तो यह एक ऐसे सिलसिले में तब्दील हो जाएगी जिसका अंत बहुप्रतीक्षित भारतीय क्रान्ति में ही होगा। मुझे कोई और विकल्प नहीं दिखाई देता।

हमने आन्दोलन कम नहीं देखे हैं।

ढिमरी ब्लॉक आन्दोलन के मध्य हम आन्दोलनकारियों के घर और गांव में जनमे। कैशोर्य में नक्सली आन्दोलनके मुखातिब हुये और सम्पूर्ण क्रान्ति की आग से भी झुलसे। छात्र जीवन में ही चिपको में निष्णात हुये और फिर झारखण्ड और छत्तीसगढ़ तक विस्तृत भी हो गये। पेशेवर पत्रकारिता कोयलांचल से शुरु किया तो झारखण्ड आन्दोलन की तीव्रता और कोयलाखानों की भूमिगत आग के मध्य जन संस्कृति मंच से लेकर इंडियन पीपुल्स फ्रंट का सफर देखा। बिहार के मुक्तांचलों को भी देखा। फिर मंडल-कमंडल की जंग भी।

सम्पूर्ण क्रान्ति की कोख से जनता पार्टी की गैर कांग्रेसी सरकार निकली तो भ्रष्टाचार विरोधी युद्ध के सिपाहसालार को प्रधानमंत्री बनते और मंडल में विसर्जित होते देखा। उत्तर प्रदेश की युद्ध भूमि से कमंडल से निकली खून की महागंगा को भी देख लिया। सिखों का जनसंहार देखा। देखी भोपाल गैस त्रासदी और गुजरात के नरसंहार से लहूलुहान भी हुये। माओवादी चुनौती के मुकाबले युद्धक्षेत्र बना दिये गये मध्यभारत के युद्धबंदी भूगोल और सशस्त्र सैन्य विशेषाधिकार कानून के शिकंजे में कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर में नस्ली भेदभाव के तहत कत्ल की जाती मानवता और मणिपुर के नग्न मातृत्व का दर्शन भी किया।

आतंक के विरुद्ध युद्धऔर हिन्दुत्व के पुनरुत्थान के दंश तो झेल ही रहे हैं लेकिन पिछले बीस साल से इस मुक्त बाजार में कॉरपोरेट अश्वमेध के खिलाफ नपुंसक आक्रोश के अलावा हमारा कोई जवाब नहीं है।

चीखें और सिसकियाँ रोज ब रोज तेज होती जा रही हैं और तेज होती जा रही हैं,हिमालय से कन्याकुमारी तक विस्तृत केदार आपदाओं की बारम्बारता पुनरावृत्त हो रही हैं।

दसों दिशाओं में विकास के नाम तबाही का आलम है। देश मृत्युउपत्यका है और यह महादेश एक अखण्ड अनन्त वधस्थल।

हम खुल्ला बाजार में नंगे खड़े हैं और अपने रिसते जख्म को चाट रहे हैं। अपना खून पी रहे हैं। अपनी ही हड्डियाँ चबा रहे हैं। इस स्वादिष्ट जायकेदार जश्न में दिलोदिमाग और इंद्रियाँ पूरी तरह विकल हैं।

हर बार यही हो रहा है। तेलंगना, ढिमरी ब्लॉक नक्सलबाड़ी में जो हुआ। उत्तराखण्ड, छत्तीसगढ़ और झारखण्ड में जो हो रहा है। सम्पूर्ण क्रान्ति का हश्र वहीं हुआ। विश्वनाथ प्रताप सिंह के भ्रष्टाचार विरोधी महाविद्रोह का भी वही हुआ। ममता बनर्जी के भूमि आन्दोलन ताजा नजीर है। इनके साथ खड़े हो गये हैं अरविंद केजरीवाल। अन्ना हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी, आरक्षण विरोधी आन्दोलन तीन धड़ों में बँटकर अलग-अलग विकल्प पेश कर रहे हैं। तीनों विकल्प लेकिन कॉरपोरेट विकल्प हैं। मजा तो यह है कि सियासी बिसात में मेधा पाटेकर और अरविंद केजरीवाल एक तरफ हैं तो दूसरी तरफ है ममता बनर्जी।

सर्वहारा और सर्वस्वहारा के बीच घमासान है।

क्रान्ति का स्वर हाशिये पर है। भ्रांतियाँ वर्चस्व को मजबूती दे रही हैं।

हर बार जनता क्रान्ति के लिये उठ खड़ी होती है और हर बार प्रतिक्रान्ति हो जाती है।

हर बार मोहभंग होने तक हम स्वर्ण मृग के पीछे भागते रहते हैं। लक्ष्मणरेखा का उल्लंघन हो जाता है अनायास और सीता अपह्रत हो जाती है। लंकाकांड के बावजूद हाथ में मृगमरीचिका के अलावा कुछ नहीं आता।

हमारी सत्तर दशक की पीढ़ी आन्दोलन की पीढ़ी रही है। जो आन्दोलनकारी शहीद हो गये, अब हमें उनकी कुर्बानियाँ तक याद नहीं हैं। जो बच गये, उनमें सबसे ज्यादा तेज लोग न जाने कब व्यवस्था का विरोध करते-करते व्यवस्था के अंग बन गये हैं। हम जैसे लोग जो न शहीद हो सकें और न व्यवस्था में कहीं अपने को समायोजित कर पाये, पुरातन आन्दोलनों और विचारधाराओं की जुगाली करते रहते हैं। जबकि राष्ट्रविरोधी तत्व रोज इस देश को खण्डित कर रहे हैं। सन् सैंतालीस से चालू देश विभाजन की इस प्रक्रिया को रिवर्स गीयर में डालने की तकनीक हम अब भी ईजाद नहीं कर पा रहे हैं। हम देश जोड़ नहीं पा रहे हैं। हमारी हर गतिविधि देश तोड़ने समाज बिखेरने जनता का सत्यानाश करने और जनपदों को श्मसान में तब्दील करने के लिये इस्तेमाल होती रही है और हमें इसका पता भी नहीं चल रहा है। कोई आत्मालोचना के लिये तैयार नहीं है।

आपातकाल के विरोध में देश एकजुट था। नक्सलबाड़ी आन्दोलन के समान्तर शांति पूर्ण तरीके से देश और व्यवस्था को बदलने के लिये छात्र युवाओं के उस जनान्दोलन की पुनरावृत्ति अब भी होनी है। लेकिन नतीजा निकला, लोककल्याणकारी राज्य के अवसान और खुल्ला बाजार में तब्दील अमेरिकी उपनिवेश का निरंकुश जश्न। डिजिटल रोबोटिक बायोमेट्रिक यन्त्रमानव में तब्दील होते होते हमने दिलोदिमाग को भी तिलांजलि दे दी और तब से लगातार देश धनपशुओं और बाहुबलियों के हवाले करते जा रहे हैं। तबसे लगातार अबाध विदेशी पूँजी प्रवाह है। कालाधन है। भ्रष्टाचार है। कॉरपोरेट राज है। विकास और कायाकल्प के नाम जनसंहार का निरंकुश लाइसेंस है।

फिर भ्रष्टाचार के विरुद्ध भारतीय इतिहास के सबसे बड़े ईश्वर का अवतरण हुआ। सत्ता में आते ही वे भ्रष्टाचार का राग अलापना भूल गये। वोट बैंक साधने लग गये। मंडल कमीशन लागू करने के कारण बाबासाहेब अंबेडकर के बाद सामाजिक परिवर्तन के मसीहा बनने के बजाय अपनी अदूरदर्शिता की वजह से अब तक खारिज हिंदू राष्ट्र की नींव उन्होंने डाल दी। तब से यह देश हिंदू राष्ट्र है। हिन्दुत्व की अस्मिता के सिवाय सारी पहचान बेकार है। पक्ष-विपक्ष से लेकर सारे विकल्प हिन्दुत्व के हैं। नरम या गरम या छद्म हिन्दुत्व के कॉरपोरेट विकल्प।

दूध का जला छाछ भी फूँककर पीता है। लेकिन बिना जाँच पड़ताल के हम लोग अगिनखोर हैं।

जेएनयू में सन अस्सी में इलाहाबाद से निकलकर बजरिये उर्मिलेश हम पेरियर हास्टल में कवि गोरख पांडेय के कमरे में दाखिल हो गये थे। उस कवि के ख्वाबों को हमने दिलोदिमाग में खूब महसूस किया। पाश और अमरजीत सिंह चंदन से मिले बगैर उनकी कविताएं हमारे दिलों की धड़कनों में तब्दील हुयी। कविता में तब हम लोग हर पौधे को बंदूक की ऊँचाई दे रहे थे।

गोरख जनता के आने के इंतजार में खुद ही दुनिया छोड़कर चले गये। क्यों गये, उस पर बहुत चर्चा हो चुकी है। जन संस्कृति मंच और इंडियन पीपुल्स फ्रंट के गठन में गोरख पांडेय का अवदान भी बड़ा था। लेकिन गोरख पांडेय के अवसान के बाद उनके साथी, जिनमें अपने शमशेरदाज्यू भी थे,कौन कहाँ छिटक गये, क्यों बिखर गये बामसेफ की तरह किसी ने खबर तक नहीं ली।

हम तो हर वक्त जनता के लिये सिंहासन खाली बताते हैं और जुगाड़ लगाकर खुद उसपर काबिज होने की कवायद में स्मृतिभ्रंश के शिकार हो जाते हैं।

और नतीजतन फिर वहीं नजारा।

जैसा कि सुधा ने लिखा हैः

जब गली में चीखती आवाज़ें गूँजी तुम नहीं उठे ।

जब घर में सिसकने की आवाजें गूँजी तुम नहीं उठे

जब खुद तुम्हारे हृदय में चीखने के स्वर गूँजे तब भी तुम नहीं उठे!!!!!!

तो सुनो मेरी कोई पुकार तुम्हारे लिये नहीं है क्योंकि पुकारा सिर्फ़ जीवितों को जाता है और सुनकर सिर्फ वे ही दौड़ कर आते हैं जो हाथ पाँव कान और आवाज रखते हैं दिमाग और दिल की धधक धड़क के साथ जाओ तुम सो जाओ मैं तुम्हें नहीं किसी और को बुला रही हूँ अगर मेरी आवाज वहाँ तक पहुँचेगी तो वह जरूर उठेगा और मेरी आवाज थक गयी तो तो भी जिंदा लोग मेरी बात वहाँ तक पहुँचाते रहोगे ।

कोलकाता में भी पहाड़ी लोग बसते हैं। इनमें से एक विजय गौड़ कोलकाता में सिनेमा आफ रेसीसटेंस फेस्टिविल के मौके पर सपरिवार मिले तो पूछा उन्होंने कि कोलकाता में कब आये। जब मैंने कहा कि मैं तो तेईस साल से कोलकाता में हूँ, उन्हें यकीन नहीं आया। बोले, हम तो आपको अब भी पहाड़ में रहते हुये मान रहे हैं।

सही मायने में 1979 से पहाड़ छोड़े हुये होने के बावजूद अब भी मैं पहाड़ों, घाटियों,  नदियों से घिरा हुआ हूँ और मैदानों के रंग बिरंगे तिलिस्मों से बाहर हूँ। लेकिन मैं न तो खांटी बंगाली हूँ और न खांटी पहाड़ी।

हम नैनीताल में बृजमोहन शाह के नाटक त्रिशंकु का मंचन करते रहे हैं और हो सकते हैं तबसे अबतक खांटी त्रिशंकु ही बने हुये हैं।

कोलकाता में मैं और राजीव शायद ऐसे दो पहाड़ी रहते हैं जिन्हें पहाड़ में कोई पहाड़ी मानने को तैयार ही न हों। नागपुर से लौटते हुये मैं सविता के साथ घर पहुँचने के बजाये, नये कोलकाता में राजीव के घर चला गया।

  

About The Author

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना ।

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