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Thursday, February 13, 2014

आडवाणी की सांप्रदायिक राजनीति का ही विस्तार हैं मोदी

आडवाणी की सांप्रदायिक राजनीति का ही विस्तार हैं मोदी

Author:  Edition : 

advani-modiसांप्रदायिकता, कट्टरपंथ, धार्मिक उन्माद, घृणा और हिंसा से संचालित राजनीति अलग-अलग समय अंतराल में अपना नया 'नायक' तलाशती है, जो पहले वाले से ज्यादा आक्रामक, उन्मादी, ध्रुवीकरण की राजनीति में ज्यादा माहिर और एक साथ कई नकाब ओढऩे की कला में पारंगत होता है। नया 'नायक' भी पुराने 'नायक' की पाठशाला का ही छात्र होता है और उसके संरक्षण में आगे बढ़ता है, लेकिन समय के किसी खास मोड़ पर वह अपने गुरु से ज्यादा चालाक और विभिन्न तरह के रंगीन मुखौटों के साथ सामने आता है। भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार की राजनीति के दो अहम किरदारों लालकृष्ण आडवाणी और नरेंद्र मोदी के संदर्भ में यह बात शायद सबसे ज्यादा सटीक बैठती है।

यह विशिष्ट किस्म का संघी प्रहसन है कि लालकृष्ण आडवाणी अभी नरेंद्र मोदी के सबसे मुखर विरोधी के बतौर सामने हैं। इससे ऐसा आभास होता है कि आडवाणी एक धर्मनिरपेक्ष नेता बन गए हैं। क्या वास्तव में ऐसा है या फिर एक कट्टर हिंदुत्ववादी नेता ने धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा पहन लिया है, जैसा कि वाजपेयी ने पहना था। याद कीजिए, बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने से ठीक एक दिन पहले पांच दिसंबर 1992 को अटल बिहारी वाजपेयी ने एक जनसभा में कहा था, "सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया है उसका अर्थ मैं निकालता हूं… वह कारसेवा रोकता नहीं है। सचमुच में सुप्रीम कोर्ट ने हमें अधिकार दिया है कि वहां कारसेवा करें। रोकने का तो सवाल ही नहीं है… कारसेवा करके सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का सम्मान किया जाएगा।" या फिर प्रधानमंत्री बनने की चरम महत्त्वाकांक्षा का आडवाणी का ज्वार शांत होने का नाम नहीं ले रहा है। असल में आडवाणी में यह तथाकथित राजनीतिक बदलाव उतना ही छद्म और झूठा है जितना उनका उदारवादी चोला। आडवाणी चाहकर भी कट्टर हिंदुत्ववादी नेता की अपनी छवि के इतिहास को बदल नहीं सकते हैं। भले ही अपनी जीवनी 'मेरा देश मेरा जीवन' में वे अंग्रेजी उपन्यासकार और नाटककार विलियम सोमरसेट मॉम को उद्धृत करते हुए लिखें, 'एक तानाशाह को हर समय हर व्यक्ति को मूर्ख बनाना पड़ता है, और ऐसा करने का केवल एक ही तरीका है वह स्वयं को भी मूर्ख बनाए।' आडवाणी ने यह बात आपातकाल को लेकर इंदिरा गांधी के संदर्भ में कही थी। लेकिन इतिहास हमें यही बताता है कि राष्ट्रवाद-धर्म और विकास का मिश्रण बनाकर दक्षिणपंथ की जहरीली, उन्मादी और समाज को विभाजित करने वाली सांप्रदायिक राजनीति को जो संचालित करते हैं उनमें तानाशाही प्रवृत्ति न केवल गहरे तक मौजूद रहती है बल्कि वे उसका खतरनाक तरीके से इस्तेमाल भी करते हैं। तो यहां आडवाणी किसको मूर्ख बना रहे हैं? या उनके शब्दों में थोड़ा हेरफेर करें तो यह कहा जा सकता है क्या वे स्वयं को भी मूर्ख बना रहे हैं? भविष्य में मोदी के संदर्भ में वे क्या कहेंगे इसकी प्रतीक्षा की जानी चाहिए। क्योंकि मोदी हमारे समय का नए किस्म का फासीवादी चेहरा है जो अपनी जरा सी भी आलोचना बर्दाश्त नहीं करता, न पार्टी के अंदर और न ही पार्टी के बाहर। आलोचकों का मुंह बंद कराने के लिए उनका संघी गिरोह किसी भी हद तक जा सकता है। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमत्र्य सेन और सुप्रसिद्ध लेखक यू.आर. अनंतमूर्ति का ताजा उदाहरण हमारे सामने है। भाजपाई और संघी गिरोह उनका जिस तरह से विरोध कर रहा है वह यह समझने के लिए काफी है कि भविष्य में स्थिति क्या होगी। मोदी ने सांप्रदायिक राजनीति और प्रोपेगेंडा का सहारा लेकर विकास के तथाकथित एजेंडे को राष्ट्रवाद की चासनी में मिश्रित कर दिया है। अब आडवाणी किस मुंह से मोदी की आलोचना कर सकते हैं? नैतिकता के किस मानदंड पर वे मोदी को कठघरे में खड़ा कर सकते हैं? आखिर मोदी भी तो आडवाणी की सांप्रदायिक राजनीतिक विरासत का ही विस्तार हैं।

इतिहास से चाहकर भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता। इतिहास की प्रेत छायाएं हमेशा पीछा करती हैं। आडवाणी ने 25 सितंबर 1990 को गुजरात के सोमनाथ मंदिर से अयोध्या के लिए रथयात्रा शुरू की थी। दस हजार किलोमीटर की यात्रा तय करके इसे 30 अक्टूबर को अयोध्या पहुंचना था। लेकिन बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने 23 अक्टूबर को समस्तीपुर (बिहार) में आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया था। इसके बाद भाजपा ने केंद्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार से समर्थन वापस ले लिया और मोर्चा सरकार गिर गई थी। बाद के दिनों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके तमाम संगठनों (भाजपा सहित) ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद के स्थान पर मंदिर बनाने के लिए पूरे देश में सांप्रदायिक राजनीति को जबरदस्त तरीके से उभारा और धार्मिक उन्माद के जरिए वोटों के लिए ध्रुवीकरण का खतरनाक खेल खेला। पूरे देश ने देखा कि आडवाणी की राजनीति ने जो धार्मिक उन्माद पूरे देश में फैलाया उसकी परिणति छह दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के रूप में हुई। जिसके बाद पूरे देश में हुए दंगों में एक हजार से ज्यादा लोग मारे गए थे। इसमें महाराष्ट्र, गुजरात और उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा लोग मारे गए। इसी दौरान गुजरात में संघ अपनी सांप्रदायिक प्रयोगशाला को मजबूती के साथ स्थापित कर रहा था। इतिहास हमें यह कैसे भूलने देगा कि रथयात्रा में आडवाणी के साथ उनके प्रिय राजनीतिक शिष्य नरेंद्र मोदी साए की तरह साथ थे। अयोध्या आने वाले कार सेवकों की एक बड़ी तादाद गुजरात से थी।

आडवाणी के करीबी सहयोगी, उनके पूर्व राजनीतिक और वाजपेयी सरकार में प्रधानमंत्री कार्यालय में विशेष कार्य अधिकारी रहे सुधींद्र कुलकर्णी ने इंडियन एक्सप्रेस (17, सितंबर 2013) में लिखे अपने लेख में कहा कि एनडीए-2 को चाहिए अटल-2 उनका कहना है कि भाजपा को भारत की विविधता का सम्मान करना सीखना चाहिए और आरएसएस की राजनीतिक शाखा के बतौर काम करना बंद करना चाहिए। वह लिखते हैं, 'आरएसएस की केवल हिंदू या मुख्यत: हिंदू दृष्टिकोण, भारत की बड़ी मुस्लिम आबादी का जानबूझकर बहिष्कार, हमेशा भाजपा के लिए समस्याएं खड़ी करता है। हालांकि संघ निर्देशित सांप्रदायिक दृष्टिकोण से पार्टी को कुछ राज्यों में एक हद तक लाभ हुआ है पर दूसरी तरफ यह लाभ अल्पकालिक रहा है। भारत की सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में भाजपा का प्रभावहीन होना इसे असाधारण रूप से स्पष्ट कर देता है। देश में 15वें आम चुनाव से संबंधित तथ्य और आंकड़े निर्विवाद रूप से दर्शाते हैं कि हिंदुओं की बहुसंख्यक आबादी ने 'हिंदू राष्ट्र' की अवधारणा के संघ के समर्थन और समाज और राजनीति के प्रति उसके सांप्रदायिक दृष्टिकोण को हमेशा ही नकारा है।' इसी लेख में वे आगे लिखते हैं कि इंदिरा गांधी ने लोकतंत्र की खुली अवज्ञा की थी, जिसके लिए उन्हें बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी। कांग्रेसी नेताओं ने तबसे यह सीख लिया था कि भारत में निरंकुशता काम नहीं कर सकती है। …कांग्रेस पार्टी की सबसे बड़ी ताकत यह है कि उसने भारत की विविधता, विशेषकर उसकी धार्मिक विविधता के प्रति आस्था को कभी त्यागा नहीं- जिसे धर्मनिरपेक्षता कहा जाता है। कुलकर्णी ने मोदी पर कटाक्ष करते हुए ट्वीटर पर भी लिखा, 'सामाजिक रूप से ध्रुवीकरण करने वाले नेता ने अपनी खुद की पार्टी का ध्रुवीकरण कर दिया है। क्या वह केंद्र में सुचारू, स्थिर और प्रभावी सरकार दे सकेंगे। गंभीरता से सोचिए।' सुधींद्र कुलकर्णी ने अपने राजनीतिक प्रेरणास्रोत लालकृष्ण आडवाणी के लिए बल्ला घुमाते हुए जो बातें कही हैं वे एक नजर में बड़ी समझदारीपूर्ण लगती हैं। लेकिन सत्य उतना सरल नहीं होता जितना कुलकर्णी की बातों से लगता है। क्या भाजपा में सामाजिक रूप से ध्रुवीकरण करने वाले पहले बड़े नेता नरेंद्र मोदी हैं? सांप्रदायिक राजनीति के आधार पर ध्रुवीकरण करने वाले भाजपा के नेताओं की एक लंबी कतार रही है और जो निरंतर जारी है। अस्सी के दशक के बाद लालकृष्ण आडवाणी धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण की राजनीति के सबसे बड़े नेता बनकर उभरे। अस्सी के दशक के उत्तरार्द्ध और नब्बे के पूर्वार्द्ध में आडवाणी संघ के सबसे प्रिय नेता और संघी राजनीति के हिंदू हृदय सम्राट थे। उस दौर में वे संघ के हिंदू राष्ट्रवाद की परिकल्पना की ओर समाज का रुख मोडऩे के लिए अल्पसंख्यकवाद, छद्म धर्मनिरपेक्षता, राम बनाम बाबर, हिंदू गौरव, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मुहावरों से राजनीति को प्रभावित कर रहे थे। आडवाणी के पोर्टल में राम रथ यात्रा के बारे में जो लिखा गया है उससे इसे आसानी से समझा जा सकता है। उसमें लिखा है, "इसका उद्देश्य तीन मौलिक प्रश्न उठाना था जो राष्ट्र की सामूहिक अवचेतना में छिपे हुए थे, लेकिन उन छद्मनिरपेक्षवादियों- जिन्होंने सन् 1947 से गलती से भारत पर शासन किया है, के डर से किसी ने भी उनसे पूछने की हिम्मत नहीं जुटाई। पंथनिरपेक्षता क्या है? सांप्रदायिकता क्या है? क्या अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता का लगातार इस्तेमाल करके राष्ट्रीय एकता लाई जा सकती है? क्या सरकार अल्पसंख्यकवाद की संस्कृति को अस्वीकार नहीं कर सकती?" इसी में आगे लिखा गया है, "श्री आडवाणी ने अपनी रथयात्रा को सोमनाथ से आरंभ करना इसलिए चुना क्योंकि लूटपाट और तोडफ़ोड़ के स्थान पर मंदिर का पुनर्निर्माण करना, और एकता, सांप्रदायिक सौहार्द और सांस्कृतिक एकत्व के प्राचीन प्रतीकों का संरक्षण करना" इस यात्रा का पहला उद्देश्य था। यात्रा का समापन अयोध्या में किया जाना था क्योंकि राम जन्मभूमि को मुक्त कराना रथयात्रा का दूसरा उद्देश्य था। यात्रा का सीधा सा संदेश जनता में एकता और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की भावना जागृत करना, परस्पर समझदारी बढ़ाना और जनता को सरकार की तुष्टिकरण तथा अल्पसंख्यकवाद की राजनीति के बारे में समझाना था।" इसके अंत में लिखा गया है, "आज भारतीय जनता पार्टी देश में सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी है जिसका श्रेय सन् 1990 की नवरात्रि के दौरान सोमनाथ से शुरू हुई तीर्थयात्रा को जाता है। दृढ़प्रतिज्ञ राष्ट्रवादियों के नेतृत्व में कुछ राष्ट्रवादी लोगों के साथ शुरू हुई यह यात्रा राष्ट्रवादी उत्साह की एक तूफानी धारा बन गई। तीर्थयात्रा की विजय उस दिन होगी जिस दिन रामलला को अपने पवित्र जन्मस्थान पर बने मंदिर में उपयुक्त स्थान मिल जाएगा।"

आडवाणी भारतीय जनता पार्टी के नेता ही नहीं है बल्कि वे सबसे पहले एक स्वयंसेवक हैं। उनकी हेडगेवार और गोलवलकर के संघी दर्शन के प्रति गहरी आस्था है। अपनी जिस रथयात्रा को उन्होंने "एकता, सांप्रदायिक सौहार्द और सांस्कृतिक एकत्व के प्राचीन प्रतीकों का संरक्षण करना" बताया है उस यात्रा ने एकता और सांप्रदायिक सौहार्द की ऐसी मिसाल कायम की कि देश दंगों में झुलस गया। भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति को इस यात्रा ने तार-तार कर दिया। यह आडवाणी ही हैं जिन्होंने 80 और 90 के दशक में भारतीय समाज को सांप्रदायिक और धार्मिक आधार पर पूरी तरह से बांटने का हर मुमकिन कोशिश की। नब्बे के दशक का शुरुआती दौर इसका गवाह है। हिंदुओं और मुसलमानों के बीच की दरारों को लगातार चौड़ा करने का काम संघ परिवार करता रहा है। दंगे संघ परिवार के लिए हमेशा ऑक्सीजन का काम करते हैं। इसका ताजा उदाहरण उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में भड़क उठे दंगे हैं। भाजपा ने केंद्र में गठबंधन सरकार बनाने के लिए भले ही मंदिर मुद्दा, अनुच्छेद 370 और समान नागरिक संहिता जैसे विवादास्पद संघी मुद्दों को स्थगित कर दिया था लेकिन उन्हें छोड़ा नहीं है। क्या आडवाणी आज यह कह सकते हैं कि ये मुद्दे गैर जरूरी हैं और इनका हर हाल में त्याग किया जाना चाहिए। विवादास्पद मुद्दों को ठंडे बस्ते में डालना और उन्हें हमेशा के लिए त्यागना, दोनों अलग-अलग बातें हैं। अब तक इतिहास और संघ के निर्माण की पृष्ठिभूमि यही बताती है कि संघ परिवार (जिसमें भाजपा उसकी राजनीतिक शाखा है) के मूल केंद्र में हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक राजनीति है और उसका विविध सांस्कृतिक, धार्मिक और राष्ट्रीयताओं वाले भारतीय समाज के प्रति कोई सकारात्मक भाव नहीं है। इस हकीकत से भले ही आडवाणी के समर्थक मुंह मोड़ लें लेकिन सच्चाई यही है कि आडवाणी आज भी वही हैं जो वे नब्बे के दशक में थे। हां, फर्क सिर्फ इतना है कि नए दौर और नए समय के हिसाब से संघ परिवार ने अपना नया नायक चुन लिया है और उसका नाम है नरेंद्र दामोदरदास मोदी।

यह संयोग नहीं है कि आडवाणी का कद रथयात्रा ने बढ़ाया तो मोदी की राजनीति भी 2002 के गुजरात दंगों की जमीन से ही परवान चढ़ी। मोदी के गुजरात के मुख्यमंत्री बनने के चंद महीनों बाद गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस की दो बोगियों को जलाने की घटना, जिसमें 59 कारसेवक मारे गए थे जो अयोध्या से लौट रहे थे, के बाद पूरे गुजरात में जगह-जगह कत्लेआम शुरू हो गया था। राज्य कानून के आधार पर चलता है। एक मुख्यमंत्री के नाते मोदी चाहते तो गोधरा की घटना के बाद गुजरात में कत्लेआम नहीं होने देते, उनका पहला कर्तव्य राज्य में शांति कायम करना और कानून-व्यवस्था को हर हाल में बनाए रखना था। वे गोधरा की घटना की तुरंत जांच के आदेश देते और दोषियों को सजा दिलाते लेकिन गुजरात में संघ परिवार जिस मौके की तलाश में था उसे वह मिल गया था। यह उसकी राजनीति के मुफीद था और मोदी उसके स्वयंसेवक मुख्यमंत्री थे। दंगों में मोदी की सीधी संलिप्तता के कानूनी सबूत भले ही जांच एजेंसियों को नहीं मिले हों, लेकिन पर्दे के पीछे से उनकी भूमिका संदेह के घेरे से बाहर नहीं है। "सन् 2002 में, साबरमती एक्सप्रेस की दो बोगियों में 59 हिंदुओं-जो अयोध्या से आ रहे थे- के जिंदा जलने से हुई मौत के बाद, गुजरात मुस्लिम विरोधी व्यापक हिंसा का मंच बन गया था। इस हिंसा की चपेट में 151 शहर-नगर-कस्बे और 993 गांव आए थे। कई दिनों- यहां तक की हफ्तों- तक हुए दंगों के बाद 26 नगरों-शहरों-कस्बों में कफ्र्यू लगा दिया गया था। इस हिंसा ने तकरीबन दो हजार मुसलमानों की जिंदगी ले ली, जिसमें बहुत सारी महिलाएं और बच्चे भी शामिल थे। …इन घटनाओं के दस साल बाद, गुजरात में न्यायिक कार्यवाही के नतीजे चंद ही हैं। जबकि सबसे अधिक सजा के बतौर 11 लोगों को मौत की सजा उन मामलों में मिली जहां गोधरा में हिंदू हिंसा के शिकार हुए थे। हिंदू राष्ट्रवाद (एक विचारधारा और एक राजनीतिक आंदोलन के रूप में) ने गुजरात में राज्य मशीनरी (जिसमें न्यायिक व्यवस्था शामिल है) पर पकड़ बना रखी है जिसका प्रतिकार करने के लिए केंद्रीय सत्ता में (कार्यकारी और न्यायिक दोनों स्तर पर) शक्तिहीनता दिखती है।" (क्रिस्टोफ जेफरलॉट, गुजरात 2002 : व्हाट जस्टिस फॉर द विक्टिम्स?, ईपीडब्ल्यू 25 फरवरी 2012)।

प्रचार माध्यमों के जरिए भले ही मोदी को इस समय सबसे बड़ा करिश्माई नेता कहा जा रहा हो, लेकिन भारत जैसे विविधतापूर्ण समाज में उनकी छवि एक ऐसे नेता की है जिसके कपड़ों पर पड़े खून के धब्बे कभी भी साफ नहीं हो सकते। "बहुत सारे मुसलमानों के लिए वे एक घृणित व्यक्ति हैं। सन् 2002 में उनके मुख्यमंत्री बनने के एक साल से भी कम समय के भीतर गुजरात में दंगे फैल गए और एक हजार से ज्यादा लोग मार गए, जिसमें अधिकतर मुसलमान थे। मांओं को तार-तार कर दिया गया, बच्चों को जिंदा जला दिया गया और पिताओं के टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए थे। कुछ चश्मदीदों ने दावा किया कि मोदी ने हिंसा को बढ़ावा दिया, जिसे मोदी ने खारिज किया। उन्हें कभी भी आरोपित नहीं किया गया, लेकिन उनके करीबी साथी दंगा भड़काने के लिए दोषी पाए गए।" (गार्डिनर हैरिस, द न्यूयॉर्क टाइम्स; डेक्कन हेराल्ड, 20 सितंबर 2013)।

गुजरात में हुए नरसंहार में संघ परिवार के लोग किस तरह से शामिल थे इसका खुलासा तहलका के संवाददाता आशीष खेतान ने 2007 में एक स्टिंग ऑपरेशन के जरिए किया था। खेतान ने संघ परिवार के नेताओं की बातचीत खुफिया कैमरे में कैद की थी। इससे गुजरात के मोदीत्व की बहुत सारी बातें स्पष्ट होती हैं। बजरंग दल का नेता बाबू बजरंगी कहता है, "मुसलमानों को मारने के बाद मुझे महाराणा प्रताप जैसा महसूस हुआ। मुझे अगर फांसी भी दे दी जाए तो मुझे परवाह नहीं। बस मुझे फांसी के दो दिन पहले छोड़ दिया जाए। मैं सीधे जुहापुरा (अहमदाबाद का एक मुस्लिम बहुल क्षेत्र) जाऊंगा जहां इनके सात-आठ लाख लोग रहते हैं। मैं इन सबको खत्म कर दूंगा। इनके और लोगों को तो मरना ही चाहिए… जब मैंने साबरमती में हमारी लाशें देखीं, हमने उन्हें उसी वक्त चैलेंज कर दिया था कि इससे चार गुना लाशें हम पटिया में गिरा देंगे। उसी रात आकर हमने हमले की तैयारी शुरू कर दी थी। हिंदुओं से 23 बंदूकें ली गईं। जो भी देने से मना करता, हमने उसे कह दिया था कि अगले दिन उसे भी मार दूंगा, भले ही वो हिंदू हो। एक पेट्रोल पंप वाले ने हमें तेल भी मुफ्त में दिया और हमने उन्हें जलाया…।" बाबू बजरंगी के ही एक साथी प्रकाश राठोड़ ने कहा, "… मायाबेन (तत्कालीन स्थानीय एमएलए) दिन भर नरोदा पाटिया की सड़कों पर घूमती रहीं। वो चिल्ला-चिल्ला कर दंगाइयों को उकसा रहीं थीं और कह रही थीं कि मुसलमानों को ढूंढ-ढूंढकर मारो…।" क्रिस्टोफ जेफरलॉट ने आशीष खेतान की जांच-पड़ताल वाली रिपोर्ट को उद्धृत करते हुए अपने लेख में लिखा, "नरोदा पाटिया मामले के एक ओर आरोपी सुरेश रिचर्ड ने आशीष खेतान के सवालों के जवाब में कहा- 28 फरवरी को करीब 7.30… करीब 7.15 पर हमारे मोदीभाई आए… बिल्कुल यहां, इस घर के बाहर… मेरी बहनों ने गुलाबों के साथ पुष्पमाला से उनका स्वागत किया…

तहलका : नरेंद्र मोदी

रिचर्ड : नरेंद्र मोदी… वह ब्लैक कमांडो के साथ आए… अपनी एम्बेसडर कार से उतरे और यहां तक आए… मेरी बहनों ने फूलों की मालाओं से उनका स्वागत किया… बड़ा आदमी आखिर बड़ा होता है… फिर वे इस तरफ गए… देखा नरोदा में चीजें कैसी चल रही थीं…

तहलका : उसी दिन जब पाटिया में घटना घटी थी…

रिचर्ड : उसी शाम को …

तहलका : 28 फरवरी…

रिचर्ड : 28…

तहलका : 2002…

रिचर्ड : वे सभी स्थानों पर गए… उन्होंने कहा था कि हमारे समुदाय (ट्राइब) को आशीर्वाद मिला था… उन्होंने कहा था कि हमारी मांओं को आशीर्वाद (हमें पालने के लिए) मिला था। (तहलका विशेष अंक 2007) ।

"पुलिस बड़ी आसानी से निरपेक्ष हो गई, क्योंकि उसको पहले ही सांप्रदायिक किया जा चुका था। अक्टूबर 2001 में गुजरात का मुख्यमंत्री बनने के बाद राज्य की प्रणाली में मोदी का पहला निशाना पुलिस बल था। तब मुसलमान किसी भी कार्यकारी पद पर नियुक्त होने से, बड़े ही सुनियोजित ढंग से बाधित किए जा सकते थे। सन् 2002 में इन कार्यकारी पदों पर राज्य की गणनानुसार 65 आईपीएस अधिकारियों में से मात्र एक ही मुसलमान बचा था। अन्य सभी का तबादला ट्रेनिंग ड्यूटी, रेलरोड निगरानी आदि में किया जा चुका था। (कम्यूनलिजम कॉम्बेट, मार्च-अप्रैल 2002, वॉल्यूम 8, नंबर 77-78, पृष्ठ 119)। ठीक इसी समय मोदी ने बहुत बड़ी संख्या में हिंदूराष्ट्रवादी समर्थकों को गुजरात होमगार्ड में भर्ती किया। … नरसंहार के दौरान अधिकतर पुलिस अधिकारी मोदी के आदेशों का पालन कर रहे थे (अंदर की बात है, पुलिस हमारे साथ है- फरवरी-मार्च में गुजरात में सड़कों पर ये नारे लगाए जा रहे थे, कम्यूनलिजम कॉम्बेट जेनोसाइड 2002, मार्च-अप्रैल 2002)। … उनके दो मंत्री और करीबी सहयोगी आईके जडेजा (शहरी आवास मंत्री) और अशोक भट्ट (स्वास्थ्य मंत्री) अहमदाबाद के राज्य पुलिस नियंत्रण कक्ष में रहे, जहां उन्होंने कई दिनों तक पुलिस के काम में हस्तक्षेप किया था। … अहमदाबाद के पुलिस कमिश्नर पीसी पांडे ने 28 फरवरी 2002 को शहर में हिंसा को बढऩे दिया था, खासतौर से पड़ोस की गुलबर्ग सोसायटी में जहां पूर्व सांसद एहसान जाफरी सहित 70 मुसलमानों का मार डाला गया था। और वहां वे (पांडे) कुछ देर के लिए नमूदार हुए और फिर चलते बने थे। सजा मिलने के बजाय पांडे को पुरस्कृत किया गया। तत्कालीन केद्रीय गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी द्वारा उनका स्थानांतरण मई 2002 में नई दिल्ली में सीबाआई के अतिरिक्त महानिदेशक के पद पर किया गया। सन् 2004 के आम चुनाव में पार्टी की हार के बाद आडवाणी ने यह पद छोड़ा तो पांडे को गुजरात सरकार ने पुलिस का महानिदेशक नियुक्त कर दिया। सेवानिवृत्ति के बाद उन्हें गुजरात राज्य पुलिस आवासीय निगम का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया गया। … उनके एक अधीनस्थ एमके टंडन, जो गुलबर्ग सोसायटी, नरोदा गाम और नरोदा पाटिया इलाके में संयुक्त आयुक्त थे, का विभिन्न पदों पर प्रमोशन किया गया और वे पुलिस के अतिरिक्त महानिदेशक के पद से रिटायर हुए।" (क्रिस्टोफ जेफरलॉट, गुजरात 2002: व्हाट जस्टिस फॉर द विक्टिम्स?, ईपीडब्ल्यू 25 फरवरी 2012)।

गुजरात नरसंहार के बाद नरेंद्र मोदी भारी बहुमत से चुनाव जीते। संघ परिवार गुजराती समाज का धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण करने में कामयाब रहा। ऐसी ही कोशिश अब 2014 के आम चुनाव से पहले हो रही है। "भले ही भारत दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाला लोकतंत्र है, लेकिन चुनाव प्रचार यहां अक्सर नफरत और रक्त से लथपथ होते हैं। मोदी को (प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार) चुनकर, एक जोशीला वक्ता जो अपने भाषणों को मुस्लिम विरोधी मिथ्या आरोपों के साथ तैयार करता है, भाजपा ने यह संभावना बढ़ा दी है कि दशकों में इस बार का चुनाव सबसे घातक हो सकता है। भारतीय आबादी में हिंदुओं की जनसंख्या मौटे तौर पर 80 प्रतिशत है और मुस्लिम आबादी 13 प्रतिशत, यह प्रतिशत संयुक्त राज्य अमेरिका में अश्वेत आबादी के बराबर है। गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे का कहना है कि इस साल सांप्रदायिक हिंसा की 451 घटनाएं घट चुकी हैं, जो कि पिछले साल के 410 के आंकड़े को पार कर चुका है। उन्होंने चेताया कि चुनावों के निकट आते हिंसा के और भड़कने की संभावना है।" (गार्डिनर हैरिस, द न्यूयॉर्क टाइम्स; डेक्कन हेराल्ड, 20 सितंबर 2013)।

हास्यास्पद तो यह है कि जिस मोदी की आडवाणी आज मुखालफत कर रहे हैं उसी मोदी के आगे वे गुजरात में हुए नरसंहार के बाद ढाल के तरह खड़े रहे थे। भले ही आडवाणी ने गोधरा की घटना और उसके बाद हुए दंगों को कलंक कहा था, लेकिन मोदी की सरकार बनी रहे इसके लिए उन्होंने पूरी मजबूती से 'राजनीतिक' कार्य किया। उस समय की मीडिया रिपोर्टों के अनुसार तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी मोदी सरकार की बर्खास्तगी चाहते थे लेकिन भाजपा में आडवाणी गुट ने इसे नहीं होने दिया। आडवाणी शायद यह भूल गए हों कि संघ परिवार को मिथकों में बड़ा विश्वास है। वे शायद यह भी भूल गए हों कि रावण के भले ही दस सिर बताए जाते हों, लेकिन संघ परिवार के दस से ज्यादा सिर हैं। वह समय और काल के हिसाब से मुखौटों का चयन करता है। अभी उसकी राजनीति में मोदी का मुखौटा फिट बैठता है, जो खुद एक साथ कई मुखौटे लगाने में पहले से माहिर हो। जो धार्मिक भावनाएं भड़का सकता है और दूसरे ही विकास के मंत्र के साथ पूरे कॉरपोरेट जगत का लाड़ला भी हो सकता है। यह ताकत आडवाणी में नहीं है। कॉरपोरेट के लिए आडवाणी राजाओं का राजा नहीं हो सकता। वह मोदी ही हो सकता है। इस साल जनवरी में उद्योगपति अनिल अंबानी ने मोदी का स्तुतिगान करते हुए कहा, "पुरुषों का स्वामी, लीडरों में लीडर और राजाओं में राजा।" ये वही अनिल अंबानी हैं जिनका कंपनियां टू जी स्पेक्ट्रम से लेकर कोयला घोटाले तक में फंसी हुई है। लेकिन मोदी भ्रष्टाचार को लेकर लगातार कांग्रेस पर हमलावर हैं लेकिन यूपीए सरकार के इस कार्यकाल में बड़े-बड़े घोटालों में फंसे उद्योगपतियों के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोल रहे हैं। गौतम अडानी पर पर्यावरण मंत्रालय ने दौ सौ करोड़ रुपए का जुर्माना लगाया है, लेकिन अडानी के खिलाफ 'राष्ट्रवादी' मोदी एक शब्द भी नहीं बोले। वहीं कृष्णा-गोदावरी गैस बेसिन के मामले में मुकेश अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज ने सरकार के राजस्व को चुना लगाया है और कैग जैसी संवैधानिक संस्थाओं के हर आदेश की वे धज्जियां उड़ा रहे हैं, लेकिन मोदी इस मामले में पूरी तरह से खामोश हैं। मुकेश अंबानी 'वाइब्रेंट गुजरात समिट' में नियमित जाने वाले लोगों में शामिल हैं। अभी ऐसा कौन बड़ा उद्योगपति है जो उनके साथ नहीं है—मुकेश अंबानी, रतन टाटा, आनंद महिंद्रा, करशनभाई पटेल, गौतम अडानी, राहुल बजाज, सुनील मित्तल, अनु आगा आदि। सूची काफी लंबी है और चुनाव करीब आते-आते बढ़ रही है। सत्य तो यह है कि नए दौर में कारपोरेट घराने भारतीय राजनीति को अपने हितों के लिए सीधे-सीधे निर्देशित कर रहे हैं।

सच्चाई यही है कि जमीनी हकीकत और मोदी के कथित विकास के मॉडल में काफी अंतर है। नए विकास सूचकांक के अनुसार गुजरात कम विकसित राज्यों की श्रेणी में आता है। इसके अलावा गुजरात में मोदी के विकास के मॉडल को लेकर विरोध के स्वर भी मुखर होने लगे हैं। हालांकि कॉरपोरेट के कब्जे में जा चुका मीडिया का अधिकांश हिस्सा इन खबरों दबा रहा है। गुजरात के हंसलपुर में मारुति सुजुकी प्लांट के खिलाफ प्रदर्शनों के अलावा पचास हजार हेक्टेयर के प्रस्तावित मंडल-बेछारजी विशेष आर्थिक क्षेत्र के खिलाफ भी विरोध शुरू हो गया है। इतना ही नहीं, भावनगर में निरमा के प्रस्तावित सीमेंट प्लांट और भावनगर जिले में ही प्रस्तावित परमाणु संयंत्र के खिलाफ किसान प्रदर्शन कर रहे हैं। बड़ोदा के पास सावली में श्रमिकों में गहरे असंतोष की भी खबरें हैं। जैसा कि फ्रंटलाइन पत्रिका ने छह सितंबर 2013 के अंक में अपनी रिपोर्ट में लिखा, "गुजरात के पास जल्दी ही बहुत से नए टाउनशिप होंगे। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने 13 विशेष निवेश क्षेत्र (एसआईआर) प्रस्तावित किए हैं, जो कि वास्तव में इंडस्ट्रीयल हब हैं। … जाहिर है, वहां बड़ी लागत शामिल है। बड़े प्रोजेक्टों की विशेषता की तरह यह भी हजारों किसानों और चरवाहा समुदायों को भूमि का बड़ा हिस्सा देने के लिए बाध्य करेगा। निस्संदेह, मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की प्राथमिकताएं कृषि से अधिक उद्योग है, जैसा कि वे मानते हैं कि यह उद्योग ही है जो आर्थिक तरक्की का नेतृत्व करता है। उनके विकास के मॉडल का बड़ा हिस्सा किसानों, आदिवासियों, दलितों और अल्पसंख्यकों के हाशियाकरण पर आधारित है। विशेष निवेश क्षेत्रों के उभरने की योजनाओं के बतौर, यह लगातार स्पष्ट हो चुका है कि इनमें इन अलाभकारी समूहों के लिए कोई स्थान नहीं है।"

मोदी के गुजरात मॉडल को लेकर लगातार सवाल उठ रहे हैं और उनके तथाकथित विकास के आंकड़ों की पोल खुलकर सामने आ रही है। मोदी का विकास मॉडल समावेशी (सभी के लिए) नहीं है बल्कि विशिष्ट वर्ग के लिए है, जिसमें समाज के बड़े गरीब और वंचित तबकों के लिए कोई स्थान नहीं है। ठेठ संघी राजनीति की तरह, जहां सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता के लिए कोई स्थान नहीं है।

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