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Thursday, February 13, 2014

दंगों का लोकतंत्र

संपादकीय : दंगों का लोकतंत्र

Author:  Edition : 

PTI9_9_2013_000089Bमुजफ्फरनगर दंगे भारतीय लोकतंत्र के भविष्य को लेकर एक गंभीर आशंका पैदा करते हैं। ये सत्ता पर कब्जा करने के एक निश्चित पैटर्न की ओर इशारा करते हैं जिसका इस्तेमाल सारे लोकतांत्रिक दल अपने-अपने तरीके से करते रहे हैं और कर रहे हैं। पर चिंता का विषय है कि यह तरीका बढ़ता जा रहा है। सरकारी तौर पर भले ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अमन की घोषणा की जा रही हो, लेकिन सांप्रदायिक विद्वेष और घृणा का जहर समाज को तेजी से नए सांप्रदायिक राजनीतिक ध्रुवीकरण की ओर धकेल रहा है। पचास से अधिक मौतों, करीब 40 से 50 हजार लोगों को पलायन और करोड़ों के आर्थिक नुकसान के पीछे के घटनाक्रम ने साबित कर दिया है कि राजनीति के पुरोधा, अपने सत्ता स्वार्थों के लिए किस सीमा तक जा सकते हैं।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के राजनीतिक समीकरणों में राष्ट्रीय लोकदल, भाजपा, कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी के बीच वोटों का बंटवारा रहा है। परंपरागत रूप से जाट-मुस्लिम एकता के बलबूते पहले कांग्रेस और फिर चरण सिंह की परंपरा में राष्ट्रीय लोकदल ने अपना वोट प्रतिशत बनाए रखा है, लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनावों में मुस्लिम समुदाय ने बसपा के पक्ष में मतदान किया, जो समाजवादी पार्टी सहित सभी दलों के लिए चिंता का कारण बन चुका है। केंद्र में अगली सरकार बनाने के गणित में उत्तर प्रदेश अस्सी लोकसभा सीटों के साथ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने जा रहा है। भाजपा के नरेंद्र मोदी के लिए गुजरात से बाहर उत्तर प्रदेश में भाजपा की स्थिति सुधारना बेहद आवश्यक है। सन् 2012 विधानसभा चुनाव परिणामों से उत्साहित मुलायम सिंह यादव भी 50 सीटों के लक्ष्य के साथ अगले प्रधानमंत्री की दौड़ में शामिल हैं। इसलिए कुल मिलाकर इन दंगों के लिए भाजपा और समाजवादी पार्टी जिम्मेदार हैं जो व्यवस्थित तरीके से अपनी-अपनी चाल चल रहे हैं।

पर जो आज हुआ है वह अचानक नहीं है। कांग्रेस अपनी नीतियों और संस्कृति में धर्मनिरपेक्षता के नारे के भीतर अल्पसंख्यक समुदायों के भय को लगातार वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करती रही है। इस खेल में हिंदूवादी राष्ट्रवादी ताकतों को लगातार अपनी राजनीतिक शक्ति बढ़ाने का तथा मजबूत होने का पर्याप्त आधार और मौका मिला। अल्पसंख्यक समुदायों को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया जाना भारतीय राजनीति का एक महत्त्वपूर्ण अस्त्र बन चुका है। कटु सत्य तो यह है कि राजनीतिक पार्टियां- चाहे वह दक्षिणपंथी हों, मध्यमार्गी हों या वामपंथी, आज कोई भी हिंदूवाद के खुले विरोध का जोखिम नहीं उठाना चाहतीं। केंद्र में गैर कांग्रेसी शासन की विफलता के बाद, अस्सी के दशक में उपजे कई क्षेत्रीय दलों ने धर्मनिरपेक्षता के खेल में जातीय चेतना का भरपूर उपयोग अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं के लिए किया लेकिन जातीय समूहों के वास्तविक आर्थिक-सामाजिक पिछड़ेपन को दूर करने और उन्हें एक आधुनिक समाज की ओर लाने की जरूरत को राजनीतिक दलों ने हमेशा वोट की राजनीति के नीचे दफन कर दिया।

राष्ट्रीय लोकदल, बसपा और कांग्रेस के कुछ नेता मुजफ्फनगर दंगों के कारणों की सीबीआई जांच की मांग कर रहे हैं। देश में जांच आयोगों और सीबीआई की भूमिका मारे गए लोगों के पक्ष में खड़ी हो पाएगी इसके अनुभव अब तक सकारात्मक नहीं रहे हैं। राजनीतिक रूप से यह मांग क्षेत्र में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के खिलाफ एक प्रगतिशील विचार को सामने लाने के बजाए पुन: वोटों की राजनीति में सपा सरकार को पछाडऩे की ज्यादा है। जबकि तथ्य यह है कि पूरे इलाके का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो चुका है। कट्टर हिंदूवादी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पहुंच निश्चय ही शहरी सीमाओं को तोड़ यहां गांवों के भीतर पहुंच चुकी है।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए फिर संप्रदाय विशेष के अंतर्गत जातियां, व्यापक तौर पर मूल संप्रदाय—'धर्म' के अंतर्गत ही परिभाषित होती हैं। इसीलिए जातीय चेतना को धार्मिक उन्माद में बदलते देर नहीं लगती। चरण सिंह ने जाट-मुस्लिम वोटों की एकता के बल पर भले ही प्रधानमंत्री पद तक पहुंच बनाई हो मगर इस वोट आधार के आर्थिक-सामाजिक-पिछड़ेपन को दूर करने और उन्हें आधुनिक समाज के मानवीय, वास्तविक धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की और ले जाने की कोई कोशिश नहीं की। समाज में व्याप्त पिछड़ेपन, बेरोजगारी, आर्थिक कमजोरी और अलोकतांत्रिक जीवन मूल्य निश्चित ही समाज में धार्मिक भावनाओं के लिए स्थान बनाये रखते हैं जिन्हें सांप्रदायिक ताकतें झूठे पर लुभावने नारों से भड़काने में सफल हो सकती हैं, और यही मुजफ्फरनगर में हो रहा है। क्षेत्रीय जातिगत राजनीति करने वाले नेताओं को समझ लेना चाहिए कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की यह प्रक्रिया उनके सामाजिक आधार में भी हो सकती है।

मुलायम सिंह को इससे सबक लेते हुए यह नहीं भूलना चाहिए कि एक सामंती समाज को जातिवादी आधार पर गोलबंद कर अल्पसंख्यकों को उतने ही परंपरागत नेतृत्व के साथ अपना सत्ता का खेल अब ज्यादा नहीं खेल सकते। उनके यादव समर्थकों का हिंदू सांप्रदायिकों के साथ जाना मुश्किल नहीं होगा ठीक उसी तरह जिस तरह पश्चिम उत्तर प्रदेश में जाट-मुस्लिम गठबंधन टूटा है। भाजपा का अगला निशाना सपा ही होने जा रही है।

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