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Tuesday, May 14, 2013

कारवां दुनिया और इंसानियत के वजूद, पहचान और बेहतरी के वास्ते जब तलक चलता रहेगा, तब तक मौत का कोई फरिश्ता उन्हें छू भी नहीं सकता!

कारवां दुनिया और इंसानियत के वजूद, पहचान और बेहतरी के वास्ते जब तलक चलता रहेगा, तब तक मौत का कोई फरिश्ता उन्हें छू भी नहीं सकता!


पलाश विश्वास

असगर अली किसी भी तरह की धार्मिक कट्टरता के खिलाफ थे.

प्रख्यात मुस्लिम विद्वान, प्रतिशील चिंतक, लेखक और दाऊदी बोहरा समुदाय के सुधारवादी नेता असगर अली इंजीनियर का लम्बी बीमारी के बाद यहां मंगलवार को निधन हो गया!


मुंबई के सांताक्रुज रेलवे स्टेशन के एकदम नजदीक न्यू सिल्वर स्टार के छठीं मंजिल पर स्थित सेंटर आफ स्टडी आफ सोसाइटी एंड सेकुलरिज्म के ​​दफ्तर में अब उनके बेटे इरफान इंजीनियर और तमाम साथियों के लिए सबकुछ कितना सूना सूना लग रहा होगा, यह कोई क्लपना करने की बात नहीं है, वहीं सूनापन, वहीं सन्नाटा हम सबके, इस देश के सभी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक नागरिकों के दिलोदिमाग में छोड़ कर यकायक चल बसे हमारे सहयोद्धा, हमारे सिपाहसालार असगर अली इंजीनियर!


असगर अली इंजीनियर भारत के उन चुनिंदा इस्लामिक मुद्दों के विशेषज्ञ रहे हैं, जिन्हें दुनिया भर में सम्मान के साथ जाना जाता था. 1940 में जन्मे असगर अली ने विक्रम विश्वविद्यालय से सिविल इंजीनियरिंग में बीएससी किया. 1980 से उन्होंने 'इस्लामिक परिप्रेक्ष्य' नामक एक पत्रिका का संपादन करना शुरु किया था. इस दौर में ही भारत में इस्लाम और सांप्रदायिकाता जैसे मुद्दों पर उनके लेखन के कारण उनकी एक विशिष्ठ पहचान बनी. 1993 में "सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म' के नाम से एक संस्था स्थापित की. इस संस्था के वे अध्यक्ष रहे. (रविवार)


इस्लामिक विद्वान और प्रख्यात चिंतक, सेंट्रल बोर्ड ऑफ दाऊदी बोहरा कम्यूनिटी के चेयरमेन डॉ. असगर अली इंजीनियर का मंगलवार सुबह 9.30 बजे मुंबई में उनके निवास पर इंतकाल हो गया। वे 74 वर्ष के थे। पिछले एक माह से बीमार थे। मुंबई के ही एक अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था। डॉ. असगर अली इंजीनियर के निधन का समाचार सुन दाऊदी बोहरा जमात (यूथ) में शोक की लहर दौड़ गई है। इसके बाद बड़ी संख्या में समाज के लोग मुंबई के लिए रवाना हुए। सुबह 10 बजे होंगे सुपुर्द ए खाक: मरहूम असगर अली को बुधवार सुबह 10 बजे मुंबई में ही दफनाया जाएगा। उनकी मय्यत में उदयपुर सहित देश भर से कई समाज जन मौजूद रहेंगे।(दैनिक भास्कर)


इंजीनियर का जन्म 1940 में हुआ था। 1980 के दशक में उन्होंने भारत में इस्लाम और सांप्रदायिक हिंसा पर किताब लिखी थी जो काफी मशहूर हुई। किताब आजादी के बाद के भारत पर शोध पर आधारित थी।


1987 में उन्हें यूएसए इंटरनैशनल स्टूडेंट असेंबली और यूएसए इंडियन स्टूडेंट असेंबली की तरफ से प्रतिष्ठित पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। 1990 में उन्हें सांप्रदायिक सौहार्द के लिए डालमिया पुरस्कार से सम्मानित किया गया और डॉक्टरेट की मानद उपाधि प्रदान की गई।(नवभारत टाइम्स)


आजीवन अपने विचारों ​और सक्रियता से वे दुनियाव्यापी एक विशाल कारवां पीछे छोड़ गये हैं, जिसमे हमारे जैसे तमाम लोग हैं और  हमारे पास उसी कारवां के साथ चले चलने के सिवाय कोई दूसरा रास्ता नहीं है। कल ही उनका अंतिम संस्कार हो जाना है, जैसा कि परिजनों ने बताया लेकिन उनके बनाये हुए कारवां में उनके साथ संवाद का सिलसिला शायद कभी खत्म नहीं होगा और यह कारवां दुनिया और इंसानियत के वजूद, पहचान और बेहतरी के वास्ते जब तलक चलता रहेगा, तब तक मौत का कोई फरिश्ता उन्हें छू भी नहीं सकता। यकीनन यह हम पर है कि हम उन्हें कब तक अपने बीच जिंदा और सक्रिय रख पाते हैं! यह देशभर के लोकतांत्रिक औऱ धर्मनिरपेक्ष लोगों के लिए चुनौती है और शायद उनके लिए भी जो अपने को गांधी का अनुयायी कहते हैं।जिस गांधीवाद का अभ्यास इंजीनियर साहब करते थे , वह सत्ता हासिल करने वाला गांधीवाद नहीं है, दुनिया को गांव देहात और आम आदमी की सहजता सरलता से देखने का गांधीवाद है।


इंजीनियर साहब न मौलवी थे न कोई मुल्ला और न ही उलेमा। पर इस्लामी मामलों में अरब देशों में भी उनकी साख बनी हुई थी।​​ उन्होने साम्य, सामाजिक यथार्थ और इंसानियत के जब्जे से लबालब एक वैश्विक मजहब, जिसका आधार ही भाईचारा और जम्हूरियत में है, ​​कट्टरपंथ में नहीं, समझने और आजमाने की नयी दृष्टि, नया फिलसफा देकर हमें उनका मुरीद बना दिया।गांधी ने यह प्रयोग बेशक किया कि धर्म से देश जोड़ने का काम करते रहे वे तजिंदगी और उनके जीते जी धर्म के ही कारण देश टुकड़ों में बंट भी गया। लेकिन फिरभी उनके पक्के अनुयायी हमें बताते रहे कि मजहब को फिरकापरस्ती के खिलाफ मजबूत हथियार कैसे बनाया जा सकता है।


मुझे बहुत संतोष है कि मुंबई में असगर साहब और राम पुनियानी जी की छत्रछाया में मेरे बेटे एक्सकैलिबर स्टीवेंस को काम करने का मौका मिला। सेक्युलर प्रेसपेक्टिव दशकों से हम लोगों के पाठ्य में अनिवार्यता बनी हुई थी। इस बुलेटिन में जो जबर्दस्त युगलबंदी असगर साहब और पुनियानी जी की हो रही थी, उसकी झलक हमारे सोशल माडिया के ब्लागों में इधर चमकने ही लगी थी , बल्कि धूम मचाने लगी थी कि असगर साहब चले गये।पहले तो हम अंग्रेजी में ही उन्हे पढ़ पाते थे, लेकिन इन ब्लागों के जरिये हरदोनिया साहब के अनुवाद मार्फत हमें असगर साहब और पुनियानी जी​​ दोनों को पढ़ने को मिलता रहा है। हाल में पुनियानी जी से इस लेखन के दक्षिण भारतीय भाषाओं में प्रसार पर भी बात हुई, ऐसा कुछ किया जाता कि असगर साहब चले गये।


इसी बीच संघ पिरवार के राम मंदिर आंदोलन फिर शुरु करने और बांग्लादेश में लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्षक्ष आंदोलन के सिलसिले में कई दफा इरफान साहब और पुनियानी जी से बातें हुई और उनके मार्फत हमने असगर साहब से एक अविराम अभियान भारत में धर्मनिरपेक्ष संयुक्त मोर्चा बनाने के लिए छेड़ने का आग्रह करते रहे। पर आज जब असगर साहब के निधन की खबर मिली तो इराफान को तुरंत फोन मिलाया , वे घर में थे पर फोन पर बात करने की हालत में नहीं थे। परिवार की एक महिला ने बताया कि असगर साहब तो महीनों से बीमार चल रहे थे। इससे बड़े अफसोस की बात नहीं हो सकती। हम मार्च में ही मुंबई के दादर इलाके में ​​हफ्तेभर थे और बहुत नजदीक सांताक्रुज में अपने घर में हमारे बेहद अजीज असगर साहब बीमार पडे थे। हम हाल पूछने भी न जा सकें।​इससे ज्यादा अफसोस क्या हो सकता है?

​​

​पिछले दशकों में ऐसा ही होता रहा है। अपनी सेहत, परेशानियों और निजी जिंदगी को उन्होंने अपने सामाजिक जीवन में से बेरहमी से काटकर अलग फेंका हुआ था।वे पेशे से इंजीनियर थे और मुंबई महापालिका में काम करते थे।जहां से वे रिटायर हुए। जहां ऐसी भारी समस्याओं से रोजना वास्ता पड़ता था कि कोई मामूली शख्स ​​होते तो उसी में मर खप गये होते हमारे इंजीनियर। पर वे अपने कार्यस्थल पर तमाम दिक्कतों से जूझते रहे और कभी अपने सामाजिक कार्यकलाप में उसकी छाया तक नहीं पड़ने दी। यह उनकी शख्सियत की सबसे बड़ी खूबी थी। अपने रचनाकर्म के प्रति तठस्थ किसी क्लासिक कलाकार की तरह।


छात्रजीवन से उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी से जुड़े होने के कारण सत्तर के दशक से लगातार अविच्छिन्न और अंतरंग संबंध रहा है असगर साहब के​​साथ। हिमालय और पूर्वोत्तर भारत, आदिवासीबहुल मध्य भारत के प्रति नस्ली भेदभाव से वे वाकिफ थे। वे पक्के गांधीवादी थे और गांधीवादी तरीके​​ से देश और दुनिया को देखते थे। गांधीवाद के रास्ते ही वे समस्याओं का समाधान सोचते थे। लेकिन सत्तर के दशक के ज्यादातर सामाजिक कार्यकर्ता जो उनसे आजतक जुड़े हुए हैं, ज्यादातर वामपंथी से लेकर माओवादी तक रहे हैं। वे उत्तराखंड आदोलन, झारखंड आंदोलन और छत्तीसगढ़ आंदोलन से हम सबकी तरह जुड़े हुए थे और पर्यावरण आंदोलन के संरक्षक भी थे। हिमालय से उनका आंतरिक लगाव था। पूर्वोत्तर में सशस्त्र सैन्य बल अधिनियम के खिलाफ निरंतर जारी संगर्ष के साथ भी थे वे। वे महज विचारक नहीं थे। विचार और सामाजिक यथार्थ के समन्वय के सच्चे इंजीनियर थे।


हमने सीमांत गाधी को नहीं देखा। पर हमने एक मुसलमान गांधी को अपने बीच देखा . यह हमारी खुशकिस्मत है। खास बात यह है कि गांधीवादी होने के बावजूद  जो हिंदुत्व गांधीवादी विचारधारा का आधार है, उसके उग्रतम स्वरुप हिंदू राष्ट्र, हिंदू साम्राज्यवाद और हिंदुत्व राजनीति के खिलाफ उलके विचार सबसे प्रासंगिक हैं।


इस लिहाज से सांप्रदायिक कठघरे से गांधीवाद को मुक्ति दिलाने का काम भी वे कर रहे थे। लेकिन गांधीवादियों ने शायद अभी इसका कोई मूल्यांकन ही नहीं किया।शायद अब करें!


जिस गांधीवाद की राह पर असगर साहब और उनके साथी चलते रहे हैं, वह बहुसंख्य बहुजनों के ​​बहिस्कार के विरुद्ध सामाजिक आंदोलन का यथार्थ है।


गांधीवाद के घनघोर विरोधियों के भी असगर साहब के साथ चचलने में कभी कोई खास दिक्कत नहीं हुी होगी। हम जब पहली बार मेरठ में मलियाना नरसंहार के खिलाफ पदयात्रा के दौरान मुखातिब हुए, तब उनके साथ शंकर गुहा नियोगी और शमशेर सिंह से लेकर इंडियन पीपुल्स फ्रंट के तमाम नेता कार्यकर्ता, मशहूर फिल्म अभिनेत्री शबाना आजमी समेत तमाम लोग थे, जो गांधीवादी नहीं थे।


हमारा भी गांधीवाद से कोई वास्ता नहीं रहा है और न रहने की कोई संभावना है। असगर साहब यह भली भांति जानते थे। पर लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष मोर्चा बनाने में वे किसी भी बिंदु पर कट्टर नहीं थे।


आज जो ढाका में शहबाग आंदोलन के सिलसिले में लोकतांत्रिक ताकतों को जो इंद्रधनुषी संयुक्त मोर्चा कट्टरपंथी जमायत ​और हिफाजत धर्मोन्मादियों के जिहाद से लोहा ले रहे हैं, उसे असगर साहब के विचारों का सही प्रतिफलन बताया जा सकता है।


हम नहीं जानते कि हम अपने यहां ऐसा नजारा कब देखेंगे जब यह देश धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद के खिलाफ मोर्चाबद्ध होगा!


इस सिलसिले में पिछली दफा मराठा पत्रकार परिषद, मुंबई में पिछले ही साल राम पुनियानी जी की एक पुस्तक के लोकार्पण के सिलसिले में जब मुलाकात हुई तो वे सिलसिलेवार बता रहे थे कि भारत के लोकतांत्रिक ढांचे की अनिवार्य शर्त इसकी धर्मनिरपेक्षता है, जिसकी हिफाजत हर कीमत पर करनी होगी।उनकी पुख्ता राय थी कि इसी लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष संयुक्त मोर्चा के जरिये ही समता और सामाजिक न्याय की मंजिल तक पहुंचने का रास्ता बन सकता है।


क्या हम उनके दिखाये रास्ते पर चलने को तैयार हैं?


मशहूर विचारक असगर अली इंजीनियर नहीं रहे

मंगलवार, 14 मई, 2013 को 16:01 IST तक के समाचार

बहुत बड़े इस्लामिक विद्वान के रुप में पहचाने जाने वाले असगर अली इंजीनियर अब नहीं रहे. लंबी बीमारी से जूझते हुए मंगलवार को उनकी मौत हो गई.

पारिवारिक सूत्रों के अनुसार 73 साल के इंजीनियर ने मंगलवार सुबह सांताक्रूज स्थित अपने घर में अंतिम सांस ली.

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टॉपिक

'सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म' के अध्यक्ष और इस्लामिक विषयों के जानकार डॉ. असगर अली इंजीनियर के परिवार में एक बेटा और एक बेटी हैं. बेटे का नाम इरफान और बेटी का नाम सीमा हैं.

सम्मान

1940 में जन्मे असगर अली ने विक्रम विश्वविद्यालय से सिविल इंजीनियरिंग में बीएससी किया. 1980 से उन्होंने एक पत्रिका का संपादन करना शुरु किया था. वह पत्रिका थी, 'इस्लामिक परिप्रेक्ष्य'.

1980 के दशक मे ही असगर अली ने इस्लाम और भारत में सांप्रदायिक हिंसा पर किताबों की पूरी कड़ी प्रकाशित की.

उनकी असाधारण सेवा कार्यों के यूएसए इंडियन स्टूडेंट असेंबली और यूएसए इंटरनेशनल स्टूडेंट असेंबली की ओर से 1987 में सम्मानित किया गया.


धार्मिक अमन चैन के लिए उन्हें 1990 में 'डालमिया अवार्ड' मिला. डॉ. असगर इंजीनियर को डॉक्टरेट की तीन सम्मानित डिग्रियों से भी नवाजा जा चुका है.

1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद डॉ. इंजीनियर बेहद आक्रोशित और दुखी हुए. उन्होंने 1993 में "सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म' के नाम से एक संस्था स्थापित की. इस संस्था के वे अध्यक्ष रहे.

धर्मनिरपेक्ष पत्र-पत्रिकाओं सहित विभिन्न विषयों पर उनकी करीब 52 किताबें, कई अखबार और लेख प्रकाशित हुए हैं. उन्होंने 'इंडियन जर्नल ऑफ सोसलिज्म' और एक मासिक पत्रिका, 'इस्लाम एंड मार्डन एज' का भी संपादन किया.

http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2013/05/130514_asgar_ali_died_sk.shtml




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