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Sunday, March 17, 2013

यौन संबंधों में न रहे उम्र का बंधन

यौन संबंधों में न रहे उम्र का बंधन


स्त्रियाँ एक बार फिर अपने उत्पीड़न का कानून बनाने की जिम्मेदारी पुरुषों को दे रही हैं. पुरुष कानून भी बनायेंगे, बलात्कार भी करेंगे. ऐसे में पैर छूने और हाथ जोड़ना सिखाने से ज्यादा जरूरी है कि पहले अपने घरों में लड़के-लड़कियों के भेद ख़त्म करें...

आवेश तिवारी


छत्तीसगढ़ महिला आयोग की अध्यक्ष विभा राव ने 15 मार्च को बातचीत के दौरान कहा कि अब पुरुषों को काला चश्मा लगा लेना चाहिए, घूर के देखा तो जायेंगे अन्दर. उन्होंने ये भी कहा कि हमने लड़कियों को बहुत सिखा–पढ़ा लिया, अब लड़कों को सुसंस्कृत बनाए जाने की जरूरत है.

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दरअसल, दिल्ली बलात्कार काण्ड के बाद केन्द्रीय कैबिनेट द्वारा बलात्कार विरोधी कानूनों की मंजूरी को लेकर जो कुछ भी चल रहा है, वो एक किस्म की ठोकाई और पिटाई है. ऐसे में छत्तीसगढ़ महिला आयोग की अध्यक्ष विभा राव ही नहीं, स्त्री चिंतकों का एक बड़ा वर्ग ऐसी ही ठोकाई –पिटाई के पक्ष में है. अजीबोगरीब है कि पूरे देश में स्त्री अस्मिता के नाम पर भय का ऐसा वातावरण पैदा कर दिया गया है, जहाँ स्त्री-पुरुष के बीच संवाद की सारी संभावनाएं एक काल कोठरी में बंद हो गई हैं.

बलात्कार को रोकने के लिए जो कानून बनाया जा रहा है, उसे लेकर दक्षिणपंथियों के अलग तर्क हैं वामपंथियों के अलग। भाजपा और अन्य दल इसको नैतिकता से जोड़ कर देख रहे हैं, तो वामपंथी धड़े अराजकता बता रहे हैं, लेकिन ईमानदार बात कहने से सभी गुरेज कर रहे हैं. इसकी वजह साफ़ तौर पर ये है कि देश की समूची राजनीति भी घोर पुरुषवाद से ग्रसित है.

सरकार अगर 16 वर्ष की उम्र में सहमति के साथ यौन संबंधों को मंजूरी दे रही है तो इसमें गलत क्या है? हम कहेंगे हर एक उम्र के यौन संबंधों को मंजूरी दे दो. सेक्स का नियमन चाहे वो संस्थाओं के माध्यम से हुआ हो, कानून के माध्यम से या तथाकथित नैतिकताओं के माध्यम से, बलात्कार के मूल में यही है.

हमारे हिंदुस्तान में ही नहीं, पूरी दुनिया में पुरुषों ने ही अपने फायदे के लिए और स्त्री को संपत्ति की तरह इस्तेमाल करने की प्रक्रिया में इन संस्थाओं, नैतिकताओं और कानूनों का इस्तेमाल किया. ऐसे में स्त्री पुरुष का यौन व्यवहार एक तिलिस्म की चीज बनता चला गया और बलात्कार बढ़ते चले गए, उधर पुरुषों ने जो बोया था, वही काटने लगे.

स्त्रियाँ एक बार फिर अपने उत्पीड़न का कानून बनाने की जिम्मेदारी पुरुषों को दे रही हैं. पुरुष कानून भी बनायेंगे, बलात्कार भी करेंगे.एक दूसरी बात सहमति-असहमति से जुडी है. निश्चित तौर पर सहमति का मतलब स्त्री की सहमति है. कम उम्र की अवयस्क लड़कियां तो ईमानदारी से सहमति-असहमति की बात कुछ हद तक स्वीकार भी कर लेंगी, लेकिन स्त्रीवाद का नारा लगा रही वयस्क स्त्री इसका वैसे ही इस्तेमाल करेंगी जैसा पुरुष एमएमएस बनाकर करते हैं.

जरूरत एक ऐसा सिस्टम बनाने की है जिसमें विपरीत लिंगी एक दूसरे का सम्मान करना सीखें। विशेष-वाद और संरक्षण की अराजकता हमेशा अपराध को जन्म देती है. दरअसल सरकार ये दिखाना चाहती है हम स्त्रियों के साथ खड़े हैं. मत भूलिए, मणिपुर से कश्मीर तक हमारी सेना बलात्कार को हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर रही है और न सिर्फ सत्ता बल्कि फेसबुक से लेकर राजपथ तक 'हमें बचाओ, हमें बचाओ' चिल्ला रही स्त्रियों की एक पूरी भीड़ खामोश बैठी है. दरअसल सरकार ये दिखाना चाहती है हम स्त्रियों के साथ खड़े हैं.

ये कानून ,सरकार और समाज की जिम्मेदारी है कि वे स्त्री और पुरुष के बीच साम्यता को स्थापित करने में स्त्रियों की मदद करें. हमारे सामने समाज का एक संस्कारहीन हिस्सा भी मौजूद है. ऐसे में पैर छूने और हाँथ जोड़ना सिखाने से ज्यादा जरूरी है पहले अपने घर से ही लड़के और लड़कियों में भेद ख़त्म किया जाए और उन्हें इसके लिए तैयार किया जाए.

जैसे–जैसे संयुक्त परिवार टूट रहा है और एकल परिवार की परम्परा बढ़ रही है, वैसे अपराधों की संख्या में भी इजाफा हो रहा है. इस सच को भी समझना चाहिए कि शहरों महानगरों में पड़ोस, चाचा, भतीजा, भाई जैसे विशेषण ख़त्म हो रहे हैं, उन्हें भी जिन्दा करना होगा. याद रखिये कानून संस्कार और समाज में जीने का तरीका नहीं पैदा कर सकते, इसके लिए आत्म मूल्यांकन की जरूरत है. यौन शुचिता से ज्यादा जरुरी सम्प्रेषण की शुचिता है.

awesh-tiwariआवेश तिवारी नेटवर्क 6 डॉट कॉम के संपादक हैं. 

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                       http://www.youtube.com/watch?feature=player_embedded&v=CbMlyog-XCY

http://www.janjwar.com/society/1-society/3802-yaun-sambandhon-men-khatm-ho-umra-ka-bandhan

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