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Saturday, March 16, 2013

मन्टो का फन

मन्टो का फन-1

मन्टो पर लिखने में एक बड़ी दुशवारी यह सामने आती है कि बात कहाँ से शुरू की जाए इसलिए नहीं कि बाज़ लोगों की निगाह में वह बहुत मुतानाजा अफ़साना निगार हैं या जिन्सी मौज़्ाुआत का जि़क्र उनके यहाँ अक्सर ऐसा अन्दाज़ अख्तियार कर गया है जिसे आम एख़लाक़ी व तहज़ीबी कदरें क़ुबूल नहीं कर पातीं। मन्टो, इसमें शक नहीं कि जिन्स के बयान में ज़्यादा बेबाक हो जाते हैं लेकिन इससे बड़ी बात यह है कि अफ़सानानिगारी के फ़न और बयानिया पर कुदरत रखने वाले वह ऐसे फ़नकार हैं कि जिनके अफसानों के इतने अबयाद हैं कि इनके बारे में आसानी से कोई राय नहीं कायम की जा सकती है।
    आम अफ़साना निगारांे की दुनिया हमारी ख़ाक व आब की दुनिया की तरह महदूद होती है इसलिए इनका तजजि़या वाक़्या, किरदार, जब़ान और इज़हार के अहाते में आसानी से हो जाता है लेकिन मन्टो मुख्तलिफ तरह के फनकार हैं। इनके लिए तन्क़ीद कुछ और उसअते फि़क्र ओ नज़र का मतालबा करती है।
    मन्टो 1912 में पैदा हुए। आस्कर वाइल्ड के ड्रामे, विक्टर हियूगो के नावेल और रूसी व फ्ऱान्सीसी अफ़सानों के तरज़ुमों से अदब के दरवाज़े पर दस्तक दी। कब वह इसमे दाखिल हो गए और किस तरह वह इस पर छा गए ये महसूस भी नहीं हुआ। 1932 में उर्दू फ़साने की तारीख़ में एक तहलका मचा जब 'अंगारे' शाया हुई, जिसने सदियों में मुरŸाब हुए एख़लाकी ज़ाब्तो को हिला दिया। किताब ज़्ाब्त हो गई लेकिन ज़हनों में एक बेचैनी छोड़ गई। इसका हवाला यूँ आ गया कि उसी के आस-पास मन्टो ने अफ़साने लिखने शुरू किए लेकिन इतने बड़े अदबी धमाके का इन पर कोई असर नज़र नहीं आता। इनका पहला अफ़साना 'तमाशा' क़रार दिया जाता है जो उस वक्त के इनके अदबी व नज़रयाती रहनुमा या दोस्त कामरेडबारी के रिसाले 'ख़ल्क' में शाया हुआ। ये पहला अफ़साना फ़न्नी एतबार से जैसा भी हो लेकिन उस वक़्त के एक बहुत हस्सास मौंज़्ाू पर है जो मन्टो के अन्दर इंसानियत और ज़्ाुल्म के खि़लाफ एहतजाज का पहला तहरीरी इज़्ाहार है, यानी जलियाँ वाला बाग, का क़त्ले आम। इसके अलावा जब 1936 में इनके अफ़सानों का पहला मजमूआ, 'आतिश पारे', शाया हुआ जिसमें सिर्फ़ आठ अफ़साने थे और ये अफ़साने आम अन्दाज़्ा के अफ़साने थे। इसमें कोई अफ़साना ऐसा नहीं जिस पर उरियाँ नवीसी का इल्ज़ाम आयद किया जा सके। लेकिन इसके बाद 1940 में शाया होने वाले इनके मजमूए 'मन्टो के अफ़साने' में दो तब्दीलियाँ नज़र आती हैं अव्वल मजमूए का नाम जो इनके अन्दर छुपी हुई नरगिसियत का अहसास दिलाता है। दूसरे इन अफ़सानों में इनका लहजा बदला हुआ महसूस होता है। इज़हार पर इनकी गिरफ्त और कहानी के अन्दर पोशीदा तन्ज़ के साथ 'जिन्स के बारे में इनके खुले हुए रवय्ये के अंकुर फूटते नज़र आते हैं। इस मजमून में 22 अफ़साने हैं जिसमें तीन अफ़सानों को आप इनके जिन्सी रवय्ये के सिलसिले में नामज़द कर सकते हैं। पहला ब्लाउज़, दूसरा फाफा और तीसरा शोशो। इसके अलावा इस किताब के इन्तसाब से यह भी ज़ाहिर होता है कि अपने इन इब्तदाई 30 अफ़सानों से ही क़ारयीन का एक तबक़ा इनके खिलाफ रज़म आरा हो गया था। इन्होंने तन्ज़न उसे 'दीन दुनिया' अख़बार के नाम मानून किया जो इनके बारे में सबसे ज्यादा गालिया छापता रहता था।
    मतालए मन्टो में पहला वक़्फ़ा यहीं पर आता है कि आखि़र क्या वजह है कि शुरू ही से मन्टो की मुख़ालिफ़त होने लगी थी। इस मुख़ालिफ़त को उभारने और हवा देने में ख़ुद मन्टो का अपना कितना दख़ल था। मन्टो के जि़न्दगी नामे पर अगर एक निगाह डालें तो अन्दाज़ा होगा कि मन्टो इब्तदा से जिन्दगी के आखिर हिस्से तक नरगिसियत या खुद नज़री का शिकार रहे। और घरेलू मामलात की वजह से हमेशा माशी तंग दस्ती का शिकार रहे यही वजह है कि इब्तदा से ही इन्होंने तर्जुमा करने और उससे अपने अख़राजात निकालने की कोशिश शुरू कर दी थी। माली और जिस्मानी दोनांे सूरतों में वह अपने भाइयों के मुक़ाबले में कमतर थे। तालीम में भी आगे नहीं बढ़ सके। जिसने क़लम में तन्ज़ और तज़हीक की चुभन पैदा कर दी। इसका अन्दाज़ा इससे भी किया जा सकता है कि अदब में इनकी एक जगह बन जाने के बाद जब इन्हें 'हल्का', अरबाब ज़्ाौक का रुक्न, नामज़द करने को कहा गया तो इनका ये रद्देअमल था:- 
    ''यार मेरी वजह से किसी के एज़ाज़ में इज़ाफा होता है तो फिर मुझे क्यों एतराज़ हो? जाहिर है कि हल्का का मेम्बर बनना मेरे लिए तो बाइसे इफि़्तख़ार नहीं। अगर मैं हल्का का मेम्बर बन जाता हूँ और मेरे मेम्बर बनने से हल्के का मर्तबा बढ जाता है तो फिर मुझे एतराज़ नहीं होना चाहिए।'' मन्टो मेरा दोस्त बहवाला अफ़साने मन्टो के (डाॅ0 खालिद अशरफ़ सफा-153)
    मैं समझता हूँ कि इसी नरगिसियत ने इनसे अपनी क़ब्र का कुतबा लिखवाया और इनके अफ़सानों में पाई जाने वाली बेचैनी में भी इस नरगिसियत का एक हिस्सा है।
    लेकिन इस नफि़्सयाती उलझन का सबब क्या था। वे पैदाइशी तौर पर न जिस्मानी मरीज थे और न नफ़्सियाती। लेकिन ऐसा महसूस होता है कि बचपन ही से वे अपने ख़ानदानी हालात से मुतमइन नहीं थे और इसकी जड़ें इनके अन्दर कहीं बहुत गहराई में पैबस्त हो गई थीं। इनके बचपन के बारे में कहीं मालूमात नहीं हासिल हुईं, सिवाय इसके कि वे एक अच्छे बाइज्जत, मुतमव्विल ख़ानदान से तअल्लुक़ रखते थे और अपने वालिद की दूसरी बीबी की औलाद थे। इनके तीन सौतेले बड़े भाई बहुत आला तालीम हासिल कर रहे थे। बचपन में वालिद, भाइयों और अहले ख़ानदान का रवैया कैसा था कि मन्टो घर, अइज्जा, भाई और तालीम हर चीज से एक तरह से बाग़ी नज़र आते हैं। घर से भाग जाना, स्कूल न जाना, आवारागर्दी करना, ग़लत लोगों की सोहबत में बैठना, जुआ खेलना सारी बातें मुझे जि़द में की गई बगा़वत महसूस होती हैं। जिसका कोई अन्दरूनी सबब ज़रूर है। वरना इनके वालिद ने अपने बड़े बेटों की तरह ही इनको भी अच्छी तालीम दिलाने की कोशिश की लेकिन अपनी आवारगी में वे इण्टर में फेल हो गए। घर से भाग गए, जुआ और नशे में अपने को बरबाद करने की कोशिश की। इस तरह का जज़्बा उन्हीं लोगों में होता है जो अपने माहौल या ख़ानदानी हालात से मुतमुइन नहीं होते। मन्टो ने जान बूझकर अपने को हर तरह ख़राब करने की कोशिश की, वह तालीम के लिए अलीगढ़ भेज दिए गए कि शायद वहाँ
सुधर जाएँ। यहाँ उन्हें मजाज़, सरदार, सिब्ते हसन, अख्तर हुसैन रायपुरी वगैरह का साथ मिला लेकिन इन पर कोई अस़र नहीं हुआ, कुछ दिनों में बीमार हो गए डाक्टरों ने दिक़ का मजऱ् तशखीश किया और उन्हें बरोत (कश्मीर) इलाज के लिए भेज दिया गया।
    अज़ीम रूसी और फ्ऱांसीसी अफ़साना निगारों के तर्जुमे करने की वजह से कि़स्सागोई से एक तअल्लुक़ तो पैदा हो ही चुका था। कश्मीर की खूबसूरत फि़जा, बरोत के खूबसूरत पहाड़ और सरबुलन्द दीवार से शाम होते ही हवाओं की सहर अंगेज, आवाज़ें आने लगतीं तो एक अजीब सा समा पैदा हो जाता है इसी फि़ज़ा में मन्टो की अफ़साना निगारी की इब्तदा हुई; और फिर आखि़र, वक़्त तक इनके क़लम की नश्तरियत ने किसी को माफ नहीं किया। मन्टो बेहद बल्कि जरूरत से ज्यादा हस्सास और ज़्ाूद रंज इन्सान थे। मुझे मालूम नहीं क्यों ये लगता है कि इनके ज़हनी इरतक़ा इनके बागि़याना रवैये शिद्दते एहसास और इनके अन्दर कहीं छुपी हुई बुज़दिली में इनके साथ ख़ानदान के रवैये का ज़रूर द़ख़ल था जिसके असरात इनकी पूरी जि़न्दगी पर छाए रहे हैं।
    मन्टो का एक मसला और है इनकी तंगदस्ती और माली परेशानी का, बचपन से आखि़र तक इनकी जि़न्दगी का एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जिसमें मन्टो माली परेशानियाँ का शिकार रहे और ये परेशानियाँ मामूली नहीं थीं, चालीस रूपये महीने की मुलाज़मत जिसमें दफ्तर में सोने का किराया कट जाता था। इसके अलावा ये भी यक़ीनी नहीं था कि ये 38 रूपये हर महीने मिल ही जाएँगे। मन्टो बेहद अच्छे और मकबूल फि़ल्मी सहाफ़ी थे बहुत अच्छे अफ़साना निगार थे लेकिन हमेशा एक रिसाले के दफ्तर से किसी फि़ल्म स्टूडियो में या वहाँ से फिर किसी रिसाले के दफ्तर में या आॅल इण्डिया रेडियो में और फिर यहाँ की सियासत से परेशान, होकर मुम्बई। मुस्तकिल एक बेचैनी और परेशानी, न कोई बाक़ायदा ज़रिए आमदनी न कोई बाक़ायदा मुलाज़मत, रेडियो में नौकरी मिली भी तो चला न सके। 1938 में शादी हो गई इस वक़्त चालीस रूपये महीने के मुलाजि़म थे और 9 रूपये महीने पर एक बहुत ग़लीज़ किस्म की खोली ले ली थी जिसमें दुल्हन को लाने का एहतमाम था। इसलिए मन्टो के मआशी मसायल और नफ़्सियाती मसायल दोनों पर निगाह रखने के बाद ही इनके अफ़साने के बारे में कोई गुफ़्तगू हो सकती है।
    मन्टो पर हमेशा से इल्जाम रहा कि इनके यहाँ जिन्सी मसायल का इज़हार उरियाँ निगारी की हदों में पहुँच जाता है। इन पर फ़ोहश निगारी के मुक़दमे भी चले और अपने कलम की वजह से जो इनका ज़रिया मआश था, बहुत सी परेशानियाँ उठानी पड़ीं। ख़ुद तरक़्की पसन्द हल्क़ो में भी एक गिरोह ऐसा था जो मन्टो की बाज़ तहरीरों को गै़र तरक़्क़ी पसन्दाना क़रार देता था। सवाल इसका नहीं है कि इस वक़्त तरक़्क़ी पसन्द मुसन्नफीन का रद्देअमल क्या था? या मज़हबी मुबल्लग़ीन क्या कहते थे सवाल इसका है कि हमारे अफ़सानों में उस वक़्त जिन्स का मौज़्ाू जिस तरह पेश किया गया उसका मक़सद क्या है? क्या इसका मक़सद समाजी हक़ीक़त का इज़हार है? या सिर्फ लज़्ज़त अन्दोज़ी, इनफ़रादी कजरवी या एक बीमारी?
    जिन्स का गै़र मुतवाज़न इज़हार एक ज़माने में हमारे अदब में बड़ी शिद्दत से दर आया था और उसका सारा इल्ज़ाम तरक़्क़ी पसन्द तहरीक पर आया, हालाँकि जिन लोगों ने इसे फ़रोग दिया उनका तरक़्क़ी पसन्दी से दूर का तअल्लुक भी नहीं था लेकिन एक हद तक इन्हें बढ़ावा तरक़्क़ी पसन्द मुसन्नफ़ीन की इस तरह की तहरीरों से मिला जिसकी वजह से बाज़ लोगों को जिन्स के मौज़्ाू को अपनी तिजारत के फ़रोग के लिए इस्तेमाल का मौका मिला 'वही वहाँनवी' के नाम से गुज़श्ता सदी की चैथी दहाई में कितने ही ऐसे 'नावेल शाया हो गए जो समाज को जिन्स ज़दगी और बेहयाई में मुबतला करने वाले थे। कहा जाता है कि इस फ़र्जी नाम के पीछे इस वक्त के बाज पेशेवर मुसन्नफ़ीन का क़लम था जिसका बहरहाल कोई सुबूत अब नहीं है। तरक़्क़ी पसन्द मुसन्नफ़ीन जिन्स के समाजी मसले या नफ़सियाती पेचीदगियों से समाज पर पड़ने वाले असरात के इज़हार के खिलाफ कभी नहीं थे। हैदराबाद कान्फ्ऱेन्स में जिन्स के इज़हार के खि़लाफ तजवीज़ का वापस लिया जाना ख़ुद इसका सुबूत है।
    मन्टो ने इस मौज़्ाू पर जो अफ़साने लिखे उनमें सारे अफ़सानों को अच्छे अफ़सानों में शुमार नहीं किया जा सकता। इनके कई नाक़दीन ने इन पर फ़ोहाशी या इनके लिखे हुए जिन्सी इज़हार पर एतराज़ किया है। जिन्सी इज़हार में इनका रवैय्या किसी हद तक बेदर्द ज़रूर क़रार दिया जा सकता है। अज़ीज़ अहमद, मन्टो और इस्मत दोनों के सख्त तरीन नाकि़द है इनका कहना है किः-
    ''हक़ीक़त निगारी जो जि़न्दगी को मजऱ् में तब्दील कर दे किस काम की है''
    वह इनकी तहरीर को तरक़्क़ी पसन्द अदब का हिस्सा नहीं मानते थे इनका ख़याल है कि मन्टो और इस्मत दोनों के यहाँ जिन्सी मसायल का इज़हार इब्तज़ाल की हद तक बढ़ गया है। जिन्स के मामले में ये बात खुद मुतनाजे़ है। बाज़ लोगों का ख़याल है इसका बहुत कुछ इनहिसार ख़ुदक़ारी की अपनी सोच और रवैय्ये पर मुनहसर है।   
     मन्टो का अपना रवैय्या इन एतराज़ात के बारे में बिल्कुल अलग है। आप इनसे इत्तेफ़ाक़ करें या न करें लेकिन तख़लीक कार ख़ुद अपने हालात को जितना समझता है या अदब और इज़हार के बारे में जो इसके नज़रियात हैं उन्हें नज़र अन्दाज़ कर देना भी नाइंसाफ़ी होगी। नाकि़द एक व्नज ैपकमत की हैसियत से इन तहरीरों को पढ़ता है और दरून पर्दा चीज़ों को अपने तयीं मुन्कशिफ़ करने की कोशिश करता है। जो मुसन्निफ़ के मुक़ाबले में हक़ीकत से एक फ़ासले पर होता है। मन्टो अपनी तहरीर और अपने अन्दर पाई जाने वाली बुराइयों का इल्ज़ाम ज़माने पर रखते हैं इनका कहना है कि:-
    ''अगर आप मेरे अफ़सानों को बर्दाश्त नही ंकर सकते तो इसका मतलब यह है कि ये ज़माना नाक़ाबिले बर्दाश्त है। मुझमे जो बुराइयाँ हैं वे इस अहद की बुराइयाँ हैं जिस नुक़्स को आप मेरे नाम मनसूब करते है, दरअसल मौजूदा निज़ाम का नुक़्स है'' (मन्टो जदीद अदब बहवाला मुमताज़ शीरीं)
    मन्टो का फ़लसफ़ा ये है कि जब से दुनिया का वजूद हुआ इन्सान दो तरह की भूख का शिकार है जिसमें एक जिस्मानी भूख है और एक जिन्सी भूख। दुनिया के सारे मसायल इन्हीं दो के गिर्द घूमते हैं इसलिए इनका किसी न किसी तरह से इज़हार होता रहता है। मन्टो ने इस इज़हार पर पर्दा डालने की कोशिश नहीं की और जो कुछ जिस तरह देखा या इनके तर्जुबे में आया उसको उसी तरह बयान कर दिया। जाहिर है कि इसमें ऐसी बातें भी थीं जिनका बे महाबा इज़हार मुनासिब नहीं था। आज मन्टो की वफ़ात के तक़रीबन 60 साल बाद समाज में जिस तरह की बरहनगी राह पा चुकी है और जिसकी निगाहें एक हदतक आदी हो चुकी हैं इसके बावजूद अगर इसके पस पर्दा होने वाली सारी बातों को उसी तरह ज़ब्ते तहरीर में ले आया जाये तो तहज़ीब और क़ानून दोनों की निगाह में क़ाबिले एतराज़ हो सकता है। इसलिए कहीं पर एक हद तो कायम करनी होगी।
    लेकिन इनके वह तमाम अफ़साने जिनका मौज़ू जिन्स है इन्हें फ़ोहश कहकर रद नहीं किया जा सकता। इनमें बाज़ अफ़साने अपने मौज़्ाू फ़न और टेकनिक के लिहाज़ से ऐसे अफ़साने है जिन्हें दूसरी ज़बानों के अफ़सानों के बराबर रखा जा सकता है। लेकिन इस तरह के अफ़सानों से मन्टो को एक नुक़सान ज़रूर हुआ हर एक की निगाह उन्हीं अफ़सानों पर ठहर गई और असल मन्टो नजर अन्दाज हो गया।
    मन्टो ने दो सौ से ज़ायद अफ़साने लिखे हैं ज़ाहिर है कि इसमें इनके कमज़ोर अफ़साने भी होंगे। हर अफ़साना एक मेयार का नहीं हो सकता लेकिन मन्टो की एक बड़ी ख़ूबी यह है कि इनका हर अफ़साना आपको सोचने पर मजबूर करता है इनका कमज़ोर अफ़साना भी फ़न और टेकनिक के लिहाज़ से अच्छा अफ़साना क़रार पाएगा और अपने एख्तताम तक क़ारी के ज़ेहन में कई सवाल छोड़ जाएगा। इन्हें इन्सानी नफ़सियात पर क़ुदरत हासिल थी। शायद जितनी तरह के (अच्छे बुरें) लोगों से वह मिले थे और जिस तरह की जि़न्दगी खुद उन्होंने गुज़ारी थी उस तरह की जि़न्दगी किसी दूसरे क़लमकार ने नहीं गुज़ारी होगी। इसीलिए हर बात इनके ज़ाती मुशाहदे और तजुर्बे की दलालत करती है ऐसा लगता है कि इनके अफ़सानों में सिर्फ एक किरदार है ओर वह किरदार मन्टो है कहीं वह ज़ाहिर हो जाता है और कहीं वह किसी ओट के पीछे से होने वाली हर बात का मुशाहिदा कर रहा होता है।

-शारिब रुदौलवी
    मोबाइल: 09839009226

मन्टो का फन-2

'बाबू गोपी नाथ' में मन्टो कि़स्से के रावी नहीं बल्कि अब्दुल रहीम सैण्डो, गफ़्फ़ार साईं और ग़ुलाम अली की तरह एक किरदार है। वाहिद मुतकलिम में लिखे गए अफ़साने तो बेशुमार होंगे लेकिन किसी ने अपने को किसी अफ़साने का इस तरह किरदार नहीं बनाया। ये बड़ी जुर्रत की बात है कि कोई अपनी कमज़ोरियों या अपनी जि़न्दगी के कमज़ोर पहलुओं को इस तरह ज़ाहिर कर दे। बाबू गोपी नाथ एक अय्याश और शराबी इन्सान है लेकिन बबातिन इसके यहाँ कोई बेइमानी धोखा और फ़रेब नहीं है बल्कि बुराइयों के इस दलदल में अजीब तरह का किरदार है जिसके कितने ही पहलू हैं और हर पहलू इस बारे में पहले क़ायम की गई राय को ग़लत साबित कर देता है। वह बज़ाहिर बेवक़ूफ़ लगता है जो अपने साथियों पर बेदरोग़ पैसे खर्च करता है और ये जानते हुए कि ये सब इससे सिर्फ फ़ायदा उठाने के लिए इसके साथ है वह इनकी हर ख़्वाहिश पूरी करता रहता है। मन्टो ने चन्द सतरों में इसकी बड़ी मुकम्मल तस्वीर पेश कर दी है। अपने साथियों के बारे में गुफ़्तगू करते हुए वह कहता है:-
    'मन्टो साहब मैंने आज तक किसी का मशवरा नहीं किया। जब भी कोई मुझे राय देता है मैं कहता हूँ सुबहान अल्लाह। वह मुझे बेवकूफ़ समझते हैं। लेकिन मैं इन्हें अक़्लमन्द समझता हूँ इसलिए कि इनमें कम अज़ कम इतनी अक़्ल तो थी जो मुझमें ऐसी बेवकूफ़ी को शिनाख्त कर लिया जिससे इनका उल्लू सीधा हो सकता है। बात, दरअसल ये है कि मैं शुरू से फ़कीरों और कंजरों की सोहबत में रहा हूँ। मुझे इनसे कुछ मुहब्बत सी हो गई जब मेरी दौलत ख़त्म हो जाएगी तो किसी तकिए पर जा बैठूँगा। रण्डी का कोठा और पीर की मज़ार, बस ये दो जगह हैं जहाँ मेरे दिल को सुकून मिलता है। रण्डी का कोठा छूट जाएगा इसलिए कि जेब ख़ाली होने वाली है हिन्दुस्तान में हज़ारों पीर है किसी एक के मजार पर चला जाऊँगा। 
    इन दोनों जगहों पर फ़र्श से लेकर अर्श तक धोखा ही धोखा होता है। जो आदमी ख़ुद को धोखा देना चाहे उसके लिए इससे अच्छा मुक़ाम और क्या हो सकता है।'' (बाबू गोपी नाथ)
    मन्टो अपने नाम के साथ एक और अफ़साने 'जानकी' के किरदार की शक्ल में नज़र आते है। हालाँकि इस अफ़साने में इन्होंने मन्टो के बजाय अपने नाम का पहला जुज़ सआदत इस्तेमाल किया है। इत्तेफाक़ से ये अफ़साना भी उनके मजमूअे 'चुग़द' में शामिल है जिसका एक अफ़साना 'बाबू गोपी नाथ' है। जानकी और बाबू गोपी नाथ में बड़ा फ़र्क है। जानकी एक सादा सा बयानिया है जिसमें कोई ऊँच नीच नहीं जिसका मौज़्ाू फि़ल्म इण्डस्ट्री में औरत का जिस्मानी इस्तहसाल म्गचसवपजंजपवद है जिसे नरायन; अज़ीज और सईद तीन किरदारांे के ज़रिए ज़ाहिर करने की कोशिश की गई है। इसमें बार-बार जिन्सी तालुक़ात का जि़क्र है जिस पर जानकी कभी मोतरिज़ भी नहीं होती अपने किरदार के बावजूद मन्टो इस अफ़साने में कोई ऐसी चमक नही पैदा कर सके जिससे अफ़साने का क़द बुलन्द होता। उन्होंने अपना किरदार शामिल करके इसे हक़ीक़त का रंग देने की कोशिश की है। वह एक फिल्मी सहाफ़ी की हैशियत से भी मुम्बई फि़ल्म इण्डस्ट्री के बाज़ किरदारांे के बारे में लिखते रहते थे। ये कहानी कुछ इसी तरह जानकी, नरायन, अज़ीज़ और सईद के जिन्सी रवैयों और फि़ल्म इण्डस्ट्री के अन्दरूनी सूरत हाल का इज़हार है। 
    मन्टो अपने किरदारों की तरफ़ बहुत तवज्जों नहीं देते। बाज़ अफ़साना निगारों का क्राफ़्ट ही इनकी किरदार निगारी होती है लेकिन मन्टो बेख़ौफ लिखते चले जाते हैं। बाज़ वक़्त तो ये महसूस होता है कि वह सोच कुछ और रहे हंै और इनका क़लम लिख कुछ और रहा है और इसी कैफि़यत में इनके किरदार खुद कहानी में अपनी जगह बना लेते हैं। इनका एक और किरदार जो अपनी जे़हनी बेतरतीबी बेरब्ती और दीवानगी के बावजूद जे़हन पर नक़्श हो जाता है वह सरदार बिशन सिंह है। जो इनके अफ़साने टोबा टेक सिंह का बुनियादी किरदार है। तक़्सीम मुल्क के अलमिए पर इससे ज्यादा पुर असर और पुरदर्द अफ़साना कोई नहीं होगा। ये अफ़साना अपनी मिट्टी से लगाव और हिजरत के कर्ब की अजीबो ग़रीब कहानी है जिसे एक दीवाने किशन सिंह के किरदार के जरिए मन्टो ने पेश किया है। पागल ख़ाने के पस मन्ज़र में लिखे गए इस अफ़साने में कई किरदार हैं अफ़साने की टेकनिक और फ़न के लिहाज़ से ये अफ़साना उर्दू ही नहीं बल्कि आलमी अदब के चन्द अच्छे अफ़सानांे में शुमार हो गया। ये अफ़साना मन्टो के सियासी नज़रियात की भी ताबीर है। मन्टो के यहाँ जि़न्दगी का एक नज़रिया है और इनकी तहरीर में वह छुपा हुआ नहीं है। इन्होंने हिन्दुस्तान की सियासत और आज़ादी की मुत्तहदा कोशिशों को हिन्दू, मुसलमान फिरका परस्ती और दो क़ौमी नजरिए में तक़्सीम होते देखा था। वह जलियाँ वाला बाग के सानिहे से लेकर तक़्सीम मुल्क के सानिहे तक के गवाह थे। सरदार विशन सिंह कोई और नहीं मन्टो ख़ुद हैं जिसने उस तंग नज़र सियासत को कभी क़बूल नहीं किया।
    मन्टो ने मतनुअ मौज़्ाूआत पर अफ़साने लिखे हैं लेकिन तवायफ़ और तक़्सीम मुल्क से पैदा होने वाले हालात और फ़सादात के तहत औरतों के साथ होने वाली ज़्यादतियों और दर बदरी पर इन के बहुत से अफ़साने हैं। जिन में अक्सर को फ़ोहाशी में शुमार किया गया और बाज़ पर मुक़दमात भी चले जिनमें एक अफसाना 'ठण्डा गोश्त' है। आज इसे पढ़ने के बाद जे़हन में ये सवाल पैदा होता है कि इस पर मुकदमा क्यों चला? मुमकिन है कि अख़बारात में कुछ लोगों ने मन्टो के खि़लाफ जो मुहिम छेड़ रखी थी उसके नतीजे में हुकूमत ने ये कदम उठाया वरना ये एक नफ़्सियाती अफ़साना है जो ये ज़ाहिर करता है कि बुराई या ज़्ाुल्म का रद्देअमल ख़ुद उस शख़्स पर क्या हो सकता है। ईश्वर सिंह तक़्सीम मुल्क के बाद होने वाले फ़सादात का एक किरदार है जिसका काम लोगों को क़त्ल करना इनके जे़वरात और पैसे लूट लेना, इनकी औरतो को बेआबरू करना है ये एक किरदार नहीं ऐसे अनगिनत किरदार उस वक़्त मौजूद थे। ईश्वर सिंह एक बहुत ख़ूबसूरत लड़की से जिस्मानी तालुक़ात क़ायम करता है जो दहशत की वजह से मर चुकी थी जिसके ख़ानदान के छः अफ़राद को उसकी निगाहों के सामने क़त्ल करके ईश्वर सिंह उसे कांधों पर लादकर ले आया था जिसका नफ्सियाती रद्देअमल ये होता है कि वह ख़ुद अपनी बीबी कुलवन्त कौर के जिस्मानी मतालबे को पूरा नहीं कर पाता और कुलवन्त किसी दूसरी औरत से तालुक़ क़ायमकरने पर गुस्से में ईश्वर सिंह को उसी की कृपाण से ज़ख्मी कर देती है। ईश्वर सिंह मरते वक़्त उसका एतराफ़ इन अलफ़ाज़ में करता है। 
    ''ईश्वर सिंह ने अपनी बन्द होती आँखें खोलीं और कुलवन्त कौर के जिस्म की तरफ़ देखा जिसकी बोटी-बोटी थिरक रही थी।
    ''वह-वह मरी हुई लाश थी। बिल्कुल ठण्डा गोश्त। जानी मुझे अपना हाथ दे।''
    कुलवन्त कौर ने अपना हाथ ईश्वर सिंह के हाथ पर रखा जो बर्फ से ज्यादा ठण्डा था'' (ठण्डा गोश्त)
    फसादात के मौज़्ाूँ पर मन्टो की बहुत सी कहानियाँ हैं। उस वक़्त दहशत व बरबरीयत के बदले का जो भूत कुछ लोगांे पर सवार था उसने अच्छाई, बुराई, नेकी और बदी, गुनाह और सवाब की तफ़रीक़ ख़त्म कर दी थी। मन्टो ने इस सारे मन्ज़र को क़रीब से देखा था। ऐसा नहीं है कि उर्दू के दूसरे अदीबों और अफ़साना निगारों ने इसके बारे में न लिखा हो। कृष्ण चन्द्र, राजेन्द्र सिंह बेदी, इस्मत चुग्ताई, महेन्द्र नाथ, रामानन्द सागर ने ख़ास तौर पर इन हालात को अपने अफ़सानों का मौज़्ाूँ बनाया है। हर हस्सास इन्सान इन हालात से दिल बर्दाश्ता और दहशत ज़दा था। इसमें वह लोग भी थे जिन्हें ख़ुद अपना मुल्क छोड़ना पड़ा था लेकिन मन्टो ने इस मौज़्ाू के मुख्तलिफ पहलुओं पर और ख़ास तौर पर औरतों पर होने वाले मज़ालिम को शिद्दत से अपना मौज़्ाू बनाया है। इसके लिए बड़ी जुर्रत की ज़रूरत थी इन्हें इस जुर्रत की बड़ी क़ीमत भी चुकानी पड़ी। जमीनदार अख़बार ने तो इनके खि़लाफ एक महाज खोल दिया था। इनके अफ़साने दरअसल अफ़साने नहीं इनके जिन्दगी के तजुर्बात और मुशाहिदात हैं। इनके हर अफ़साने की बुनियाद कोई हक़ीक़ी वाकि़या या कोई हक़ीक़ी किरदार है। मन्टो का फन इसी के पेश करने के तरीके पर है। मन्टो ने उर्दू अफ़साने को जि़न्दगी के नए पहलू या उसकी हक़ीकतो और उसकी तल्खि़यों से आशना किया। मन्टो के अफ़सानों की दुनिया बहुत अजीब है। इसमें आम बेजरर इन्सान भी है। इसमें राज किशोर (मेरा नाम राधा) जैसे रियाकार भी हैं, ईश्वर सिंह जैसे क़ातिल और ममद भाई जैसे दोहरी शखि़्सयत वाले भी हैं, इनमें तवायफ़ें भी हैं, और मर्दो की दस्तदराज़ी का शिकार मज़लूम औरतें भी। ऐसी उसअत और जि़न्दगी की ऐसी मतनूअ तस्वीरें वहीं मिल सकती थीं जहाँ लिखने वाले का अपना तजुर्बा उतना ही मतनूअ हो। 
    मन्टो ने अफ़साने के फ़न को जिस तरह बरता और उसकी टेक्निक जो तजुर्बे किए उसने उर्दू अफ़साने की दुनिया को वसीअ कर दिया। इनके अफ़सानांे की ख़ूबी यही है कि इनका हर अफ़साना अपने क़ारी से मुकालमा करता हुआ नज़र आता है और उसके दायरे से ता द़ेर वह बाहर नहीं निकल पाता। यही मन्टो का फ़न है।

- शारिब रुदौलवी
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