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Thursday, March 5, 2009

समकालीन भारतीय समाज और महात्मा गांधी








समकालीन भारतीय समाज और महात्मा गांधी


लेखक


डा० अमित कुमार शर्मा


समाजशास्त्र विभाग,


जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

 

Dr Amit Kumar Sharma





भाग 1भाग 2

 


समकालीन भारतीय समाज और महात्मा गांधी


1991-92 के आसपास नेहरू जी की विचारधारा अप्रासांगिक हो गई थी। पी. वी. नरसिंहराव की कांग्रेसी सरकार ने नेहरूवादी नीतियों को छोड़कर उदारीकरण का दामन थामा। उपरि तौर पर यह पूंजीवाद की नीति मानी जाती है लेकिन 1967 के आसपास भारत में और 1968 के आसपास पश्चिमी समाज में उत्तार आधुनिकता का जन्म हो चुका था। 1977 में कांग्रेस पार्टी का एकाधिकार टूट गया था। जनता पार्टी की सरकार में हर तरह के लोग थे। फिर भी 1991 तक नेहरू जी नीतियों का वर्चस्व किसी न किसी तरह बना रहा। इसी बीच 1 फरवरी 1979 को ईरान में इस्लामिक क्रांति हो गई। 1982 के ऐशियायी खेलों के प्रसारण के लिए रंगीन टी. वी. की तकनीक एवं इसके प्रसारण की व्यवस्था में इंदिरा गांधी और उनके सुपुत्र राजीव गांधी ने काफी सक्रीयता दिखलायी । प्रिंट मीडिया इस देश की वाचिक परम्परा के साथ असहज रही है। भारत जैसे अर्ध शिक्षित देश की अभिव्यक्ति के लिए रेडियो टी. वी. और सिनेमा ज्यादा सहज माध्यम साबित हुआ है। रंगीन टी. वी. युग में हमलोग, बुनियाद, रामायण, महाभारत, चाणक्य, भारत एक खोज जैसे सीरियलों ने पारम्परिक  मूल्यों , एवं ईश्वरीय तत्व के प्रति इस्लामिक क्राति की विचारधारा को अप्रत्याशित तरीके से स्वाभाविकता प्रदान किया। इसी बीच 1989 में द्वितीय विश्वयुद्व के बाद कृत्रिम तरीके से अलग कर दिए गए पूर्वी एवं पश्चिमी जर्मनी एक हो गए। 1991 में कृत्रिम तरीके से बनाया गया सोवियत संघ बिखर गया। 1993 तक आते-आते उपनिवेशवादी विचारधारा सूखने लगी और सभ्यताओं के बीच संघर्ष की स्थिति रेखांकित की जाने लगी। अमेरिकी विद्वान सैमुएल हटिंगटन ने 1993 में अपना लेख''सभ्यताओं के बीच संघर्ष'' प्रकाशित करवाया जिसमें उन्होने इस्लामिक एवं ईसायी सभ्यता के बीच संघर्ष तथा अमेरिकी एवं चीनी सभ्यता के बीच प्रतिद्वंद्विता के बारे में विश्लेषण प्रस्तुत किया। इस बीच जेहादी इस्लाम ने आतंकवाद का दामन थामा। दक्षिण एशिया में इस्लामिक आतंकवाद एवं माओवादी विचारधारा (नक्सलवाद) के बीच अप्रत्याशित समझौता हुआ। फलस्वरूप अचानक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गांधीवाद की प्रासंगिकता बढ़ने लगी। सभ्यताओं के संघर्ष का गांधीवादी विकल्प सभ्यताओं का संवाद है। जेहादी इस्लाम का गांधीवादी विकल्प सूफी इस्लाम है। नक्सलवादी वर्ग संघर्ष का गांधीवादी विकल्प सर्वोदय एवं स्वराज का विकेन्द्रित विकास वाला माडेल है। पश्चिमी उपभोक्तावाद का गांधीवादी विकल्प अपने शरीर को ईश्वर का मंदिर और अपने व्यवसाय को उपासना का माध्यम बनाना है। व्यक्तिवादी हिंसा का गांधीवादी विकल्प सत्याग्रह और अहिंसक प्रेम एवं करूणा का नैतिक अस्त्र है।


उपरोक्त संदर्भ में गंभीरता से विचार करने पर गांधीजी की प्रासंगिकता स्पष्ट है। लेकिन अन्य अर्थों में भी महात्मा गांधी की प्रासंगिकता समकालीन भारतीय समाज में बढ़ी है- गठबंधन की मोर्चा सरकारें गांधीवादी दृष्टियों की जीत है। 1947 में स्वतंत्र भारत के कर्णधारों को महात्मा गांधी ने स्पष्ट कहा था कांग्रेस पार्टी को सत्ता की राजनीति का माध्यम मत बनाओ। इसे या तो भंग कर दो या इसको भारत सेवक संघ के रूप में रूपांतरित कर दो। गांधीजी को डर था कि कांग्रेसी नेता अपनी सत्ता की राजनीति के लिए स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत का गलत इस्तेमाल करेंगे। किसी एक पार्टी या विचारधारा के लिए इतने बडे देश की विविधता के साथ राजनीतिक या आर्थिक न्याय करना संभव नहीं होगा। उल्टे इसकी कृत्रिम कोशिश में सांस्कृतिक प्रदुषण फैलेगा। परंतु नेहरू आदि ने गांधीजी की यह बात भी नहीं मानी।  फलस्वरूप इस देश की जनता ने ही 1967 से 2009 के बीच कांग्रेस को  एक राष्ट्रीय पार्टी की बजाय एक क्षेत्रीय पार्टी बना दिया। कांग्रेस के बेहतर विकल्प के रूप में अब तक कोई दूसरी राष्ट्रीय पार्टी भी नहीं बनी है। इससे लाचारी में ही सही संयुक्त मोर्चा की सरकारें बनने लगी हैं। केन्द्रीय सत्ता कमजोर हुई है। लोक की स्वायत्ता धीरे-धीरे ही सही परन्तु राज्य संस्था की तुलना में निश्चित रूप से बढ़ी है। अभी लोक के उपर राज्य के बदले बाजार और धार्मिक संस्थाएं हावी होती लग रही हैं लेकिन इससे अंतिम अर्थों में समुदाय और समाज का ही सबलीकरण होगा।


पर्यावरण प्रदुषण और पशु हत्या के प्रति भी गांधीवादी मूल्यों की प्रासंगिकता बढ़ी है। योग, प्राकृतिक चिकित्सा, शाकाहार का भी महत्व बढ़ा है। विश्वव्यापी महंगाई एवं मारक मंदी का उपाय भी गांधीवादी रास्ते से ही निकलेगा ऐसी मान्यता अर्थशास्त्रियों में बढ़ रही है। जब तक भारत और चीन जैसे देशों के गांवों का गांधीवादी रास्ते से सबलीकरण नहीं होगा तब तक पश्चिमी उद्योगों का माल खरीदेगा कौन? खरीददार नहीं होंगे तो मंदी घटेगी कैसे? पूंजीवादी खगोलीकरण मांग और पूर्ति के संतुलन पर टिका हुआ है। महात्मा गांधी पूंजीपतियों के खिलाफ नहीं थे। वे पूंजीवाद के खिलाफ अवश्य थे। उनके ट्रस्टीशिप का सिध्दांत पूंजीपतियों को सामूहिक सम्पत्तिा का रखवाला और व्यवस्थापक बनाया है। पश्चिमी अर्थों में न वे साम्यवादी थे और न पूंजीवादी । कुछ लोग उन्हें ईमाइल दुर्खीम और जॉन रस्किन की तरह गिल्ड - सोशलिस्ट मानते थे। दरअसल कुमारस्वामी की तरह वे भी परम्परावादी थे और विभिन्न प्रकार की परम्पराओं के बीच की सहधर्मिता या संरचनात्मक एकता को स्वीकार करते थे। वे आधुनिकता के घोर विरोधी थे। भ्रम वश कुछ लोग आधुनिकता की यूरोपीय अवधारणा से अनजान होने के कारण भारतीय आधुनिकता को समकालीनता के अर्थ में प्रयोग करते हैं। वास्तव में समकालीनता और आधुनिकता में उतना ही बड़ा अंतर है जितना मानववाद और मनुष्यता या मानव धर्म में। महात्मा गांधी भारतीय परम्परा के समकालीन प्रतिनिधि थे। वे वर्णाश्रम धर्म का युगानुकुल करना चाहते थे।


यूरोपीय आधुनिकता मूलत: ईश्वर विरोधी एवं ईश्वर-निरपेक्ष सभ्यता है जिसकी अभिव्यक्ति  साम्राज्यवादी संरचना को सार्वभौमिक स्वरूप प्रदान करने में हुई है। इस सभ्यता का आधार स्वार्थ, लालच एवं भोग की राक्षसी प्रवृत्ति है। इस सभ्यता में व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन का आधार धर्म एवं आस्था के बदले मानव निर्मित एवं मानव केन्द्रित कानून है। इस तरह के कानून के केन्द्र में सत्य के बदले तर्क को महिमा मंडित किया जाता है। निष्पक्ष कानून को आधुनिक लोग फख्र से अंधा एवं बहरा माना जाता है। फलस्वरूप वकील के तर्क एवं गवाह का पक्ष सत्य एवं न्याय पर भारी पड़ जाता है।

भारतीय समाज का आधार सत्य और अहिंसा रहा है। हम आपस में चाहे जितना लड़ते -  झगड़ते रहे हो लेकिन एक सभ्यता के रूप में भारत ने कभी भी किसी देश या सभ्यता पर आजतक आक्रमण नहीं किया है। भारत में सत्य या ईश्वर की व्याप्रि सार्वभौमिक मानी गई है। भारत में मनुष्य के बनाये सिध्दांत पर अड़ना अथवा लकीर का फकीर होना एक प्रकार का अहंकार माना जाता है जबकि नियति की इच्छा के आगे झुकना या लचीला रूख अपनाना सांसारिक युक्ति है। सोच समझकर या राय - मशविरा करके बनाये गए सामाजिक सिध्दांतों   एवं सांस्कृतिक आदर्शों का सामान्य स्थिति में महत्व एक हद तक तो स्वीकारा जाता है लेकिन विशेष, विषय एवं विकट परिस्थिति में हर व्यक्ति अपनी अंतरात्मा की आवाज या ईश्वरीय प्रेरणा के आधार पर निर्णय लेता है अथवा बलिदान देता है। भारतीय सभ्यता की हर संस्कृति के केन्द्र में ईश्वरीय तत्व, शक्ति या सत्ता मानी गई है। हर संस्कृति, मत या संप्रदाय इसी तत्व तक पहुंचने का एक माध्यम है। संस्कृति और प्रकृति परिभाषा से ही एक दूसरे की पूरक एवं संबंधिक अवधारणायें हैं। सनातनी हिन्दू के रूप में वे वर्णाश्रम व्यवस्था में विश्वास करते थे। लेकिन वे इस संस्था को एक विशेष अर्थ में देखते थे। उनकी दृष्टि भगवान बुध्द के अर्थों में वर्णाश्रम धर्म को कर्म एवं स्वगुण पर आधारित संस्था मानती है। वे इसे जन्म पर आधारित जाति व्यवस्था से गुणात्मक रूप से अलग मानते थे। वर्णाश्रम धर्म उनके लिए प्रोफेशनल इथिक जैसी चीज है। यह आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था का निर्माण करने का प्रयास था। यह समाज के चार वर्गों के कर्त्तव्यों को रेखांकित करने का प्रयास था। हर वर्ग (जिसे गांधी वर्ण के अर्थ में प्रयुक्त करते थे) के कुछ पारम्परिक अधिकार रहे हैं परन्तु उससे भी बढ़कर उनका पेशेवर (व्यावसायिक) कर्त्तव्य रहा है। आधुनिक सभ्यता के दोनों प्रमुख विचारधाराओं (पूंजीवाद एवं साम्यवाद) का जोर अधिकार के लिए संघर्ष पर रहा है। जबकि गांधीजी की दृष्टि में वर्णाश्रम धर्म का जोर आत्मानुशासन एवं कर्त्तव्यबोध द्वारा समाज एवं प्रकृति के साथ संसार की सेवा रहा है। इस तरह वे एक तीसरे मार्ग की चर्चा करते हैं जिसमें वे समकालीन भारतीय सभ्यता को एक संतुलित, मंगलमय सभ्यता के मॉडल को सर्वोदय नाम से प्रस्तुत् करते हैं। सर्वोदय उनके हिन्द स्वराज का सार्वभौमिक मॉडल प्रस्तुत करता है।

गांधी के मॉडल में नगर एवं उद्योग के लिए भी जगह है परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि इसका केन्द्र ग्रामीण समुदाय है। सभ्यता का जो स्वरूप यूरोप ने प्रस्तुत किया उसमें गाँव और शहर का एक साथ रहना संभव नहीं है। उसमें ऐसा भूगोल ही संभव नहीं है जिसमें वनवासी के लिए कोई जगह हो। पारम्परिक संस्कृति की आत्मा गांवों में फलती - फूलती है जबकि शहरों की भूमिका पूरक की होती है। इसके विपरीत आधुनिक सभ्यता शहर केन्द्रित होती है। गांवों की भूमिका कच्चे माल अप्रशिक्षित श्रमिकों की आपूर्ति करने वाले गौण सामुदायिक क्षेत्र की होती है। ग्रामीण जीवन में कृषि एवं हस्तशिल्प जीविका का साधन के साथ- साथ साधना क्षेत्र एवं उपासना पध्दति होता है। गांधी के हिन्द स्वराज में भी गांवों को साधना क्षेत्र और आत्म- परिष्कार की भूमि माना गया है जबकि नगरों को साधन मुहैया कराने वाला क्षेत्र ही माना गया है। आधुनिकता में साधना का संबंध आम आदमी से नहीं होता। साधना की जरूरत केवल दार्शनिकों, वैज्ञानिकों या कलाकरों को पड़ती है। आधुनिक साधक या तो महानगरों में होता है या महानगरों से लगे फार्म हाउसों में। जबकि गांधीजी की दृष्टि में साधना की भूमि ग्रामीण समुदाय कहलाता है और स्वराजी साधना की पारम्परिक संस्था    वर्णाश्रम मानी जाती है। गांधीजी ने जहां भी साधना एवं सत्याग्रह किया आश्रम में रहे और उन्होंने कभी भी राज- सत्ता लेने या पूंजीपति बनने की कोशिश नहीं की। वे या तो एक शुद्र की तरह सेवा में तल्लीन रहे या एक व्राहमण की तरह चिन्तन - मनन - नियमन - प्रशिक्षण में लगे रहे। 
                                 

9.2.2009

 


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