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आर्थिक व्यवस्था के लिए जरूरी है घर की मजबूती |
अमेरिकी आवास बाजार से शुरू हुई मंदी का समाधान आवास संकट की तह में जाकर ही तलाशा जा सकता है। कैसे, बता रहे हैं सुबीर गोकर्ण |
सुबीर गोकर्ण / February 08, 2009 |
मौजूदा वैश्विक आर्थिक मंदी की शुरुआत अमेरिकी आवास के बाजार से हुई थी। ऐसे में एक व्यापक राय यह उभर कर सामने आ रही है कि आवास संकट की तह में जाकर ही इस मंदी का समाधान तलाशा जा सकता है।
जब तक मकानों की मांग बहाल नहीं हो जाती है और खाली पड़े मकानों को उनके खरीदार नहीं मिल जाते हैं, तब तक निर्माण क्षेत्र में नई परियोजनाएं शुरू नहीं होंगी। निर्माण क्षेत्र का पहिया धूमने के साथ ही उत्पादों और सेवाओं की पूरी एक श्रृंखला की मांग तेजी पकड़ने लगेगी।
इसके साथ ही ढांचागत क्षेत्र में सरकारी व्यय बढ़ने से निर्माण क्षेत्र में जारी सुस्ती के विपरीत असर को कुछ हद तक कम करने में मदद मिलेगी। इस तरह अर्थव्यवस्था का एक बार फिर विकास की राह पर बढ़ना, काफी हद तक आवास क्षेत्र में आने वाले बदलावों पर निर्भर करेगा।
अमेरिका और भारत के आवास क्षेत्र की संरचना में पर्याप्त अंतर होने के बावजूद, मुझे विश्वास है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की भरपाई में भी यह बात काफी महत्त्वपूर्ण है। ब्याज दरों में कमी, आय में बढ़ोतरी और कर छूट ने एक ऐसा तानाबाना तैयार किया जिसके कारण आवास क्षेत्र में तेजी से उछाल आया।
वर्ष 2003 के दौरान आर्थिक विकास में आवास ने काफी अधिक योगदान किया। इसी तरह हाल के महीनों में मकानों की मांग में आई भारी गिरावट ने विकास की रफ्तार को धीमा करने में खास भूमिका अदा की है।
शेष अर्थव्यवस्था के साथ आवास क्षेत्र के बहुपक्षीय संबंध हैं और यह क्षेत्र बड़ी संख्या में कम कुशल लोगों को रोजगार मुहैया कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है, विकास की प्रक्रिया में केंद्रीय भूमिका निभाता है और अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने में मददगार साबित होता है।
सरकार द्वारा पिछले कुछ महीनों के दौरान उठाए गए कदमों से भी निश्चित तौर से इस क्षेत्र की भूमिका साबित होती है। जहां तक ब्याज दरों की बात है तो रिजर्व बैंक ने नीतिगत दरों में तेजी से कमी की है।
इसके अलावा 20 लाख रुपये से कम के आवास ऋण पर उधारी दरों को अधिक आकर्षक बनाने के लिए प्रयास किए गए हैं। इसके अलावा डेवलपरों के लिए कर्ज लेने की शर्तों में कुछ बदलाव किए गए हैं। इस कारण वित्त की कमी के कारण परियोजना पूरी न हो पाने से जुड़े हुए जोखिम काफी कम हुए हैं।
इन सभी उपायों का क्या असर हुआ, इसका मूल्यांकन इस बात से होगा कि उन्हें मकानों के लिए कितने खरीदार मिलते हैं। जब तक ऐसा नहीं होता है, निर्माण गतिविधियों में फिर से तेजी नहीं आएगी और अर्थव्यवस्था से जुड़े उसके तारों को छेड़ा नहीं जा सकेगा।
यानी कि तेजी की टॉनिक नहीं मिल सकेगी। हमें यह बात भी स्वीकार करनी होगी कि लधु अवधि में काम को बहाल करना है तो केवल नई परियोजनाओं पर ही निर्भर नहीं रहा जा सकता है। उस अवस्था तक पहुंचने में काफी समय लगेगा जब निर्माण गतिविधियां वास्तव में जोर पकड़ लेंगी।
मौजूदा आर्थिक परिस्थितियों में सबसे आवश्यक यह है कि जिन परियोजनाओं को शुरू किया जा चुका है, उसे जारी रखा जाए। इस आधार पर कहा जा सकता है कि नीतिगत उपायों की सफलता इस बात से तय होगी कि क्या वे शुरू हो चुकीं परियोजनाओं में निर्माण जारी रख पाते हैं या नहीं।
क्या आवास मांग को बहाल करने और परियोजनाओं को जीवित रखने में अपर्याप्त साबित हुए हैं? सीधे शब्दों में जवाब है: नहीं। उठाए गए सभी कदम आवश्यक थे लेकिन पर्याप्त नहीं हैं। निकट भविष्य में किसी भरपाई की उम्मीद जगाने के लिए कई अन्य चुनौतियों से भी निपटना होगा।
इन्हें जोखिम और प्रतिफल के संदर्भ में बेहतर तरीके से समझा जा सकता है, जिसके आधार पर मकान खरीदने के फैसले किए जा सकते हैं। मकान की खरीद पर मिलने वाला प्रतिफल या मकानों की कीमतों में बढ़ोतरी की उम्मीद होनी जरूरी है, फिर चाहें वह मकान खुद के रहने के लिए ही क्यों न खरीदा जा रहा हो।
सामान्य तौर पर कीमतों में उतार-चढ़ाव से जोखिमों में बढ़ोतरी होती है लेकिन भारतीय संदर्भ में इसका बहुत अधिक असर नहीं पड़ता है। हालांकि नई परियोजनाओं में निवेश करने के उल्लेखनीय जोखिम भी हैं। यह जोखिम परियोजना के पूरा होने से जुड़ा हुआ है। सवाल यह है कि क्या मकान समय पर मिल पाएगा और जिस कीमत और गुणवत्ता का वादा किया गया, क्या उसे पूरा किया जाएगा।
मौजूदा दशाओं में रियल एस्टेट क्षेत्र में सबसे बड़ा जोखिम परियोजनाओं के पूरा होने से जुड़ा हुआ है। यहां तक कि काफी बेहतर कीमत और ब्याज दरों में कमी के बावजूद संभावित खरीदार बाजार में उतरने से परहेज कर सकते हैं। मान लीजिए आपको एक ऐसी प्रॉपर्टी मिलती है जिसकी स्थिति आपके लिए सुविधाजनक है, बजट आपके बस में है और आपको पूरा विश्वास है कि कर्ज मिल जाएगा।
आप मौके का मुआयना करने जाते हैं और वहां पाते हैं कि निर्माण अभी शुरूआती अवस्था में है और बहुत थोड़ा काम ही हो सका है। डेवलपर आपसे वादा करता है कि सौदे होने के साथ ही काम में तेजी आ जाएगी। लेकिन आपको लगता है कि दूसरे क्षमतावान ग्राहक ऐसी परियोजना में खरीदारी के इच्छुक नहीं होंगे।
अगर पर्याप्त संख्या में लोग खरीदेंगे नहीं तो परियोजना पूरी नहीं हो पाएगी। ऐसे में इस परियोजना में निवेश करने के लिए न तो आप कोई पहल करेंगे और न ही आप जैसे दूसरे लोग।
मौजूदा दशाओं में किसी भी प्रॉपर्टी के साथ परियोजना के पूरा होने का जोखिम जुड़ा हुआ है।
छोटे डेवलपरों के मामले में यह जोखिम और भी बढ़ जाता है, जिनका फैलाव एक छोटी दायरे में है और उनके पास पूंजी का कोई भंडार भी नहीं है। ऐसे सभी डेवलपर जो एक खास मूल्य वर्ग की परियोजनाएं लाएंगे, वे रियायती कर्ज के पात्र होंगे। आकर्षक कीमतों पर कर्ज की उपलब्धता परियोजना पूरी होने के जोखिम को खत्म करने के लिए पर्याप्त नहीं है।
प्रतिफल के लिहाज से बात की जाए तो नए लोगों को खरीदारी के लिए यह बात आकर्षित करेगी कि कीमतें कितनी गिर चुकी हैं। कीमतों में अधिक से अधिक गिरावट का अर्थ है कि भविष्य में कीमतें चढ़ेंगी और इसलिए अच्छा प्रतिफल मिलने की उम्मीद बनेगी।
तथ्य है कि कीमतों में गिरावट आने के बावजूद बाजार में अभी भी संभावित ग्राहक आने बाकी हैं। इस समय तीन तरह के हस्तक्षेपों पर विचार करने की जरूरत है। कुछ परियोजनाओं और खासतौर से छोटी परियोजनाएं सरकार को शुरू करनी चाहिए, ताकि बाजार में प्रतिस्पर्धा और कीमत की गारंटी सुनिश्चित की जा सके।
दूसरी बात यह है कि कीमत और तय समयसीमा की दशाओं को स्वीकार करने वाली परियोजनाओं के लिए वित्त पोषण विंडो तैयार करना चाहिए। तीसरी बात यह है कि अविकसित जमीन का अधिग्रहण करके और उचित समय पर उनकी नीलामी करके फंडों के प्रवाह को बढ़ाया जा सकता है।
निर्माण गतिविधियां आर्थिक विकास को पटरी पर लाने के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। अभी तक जो भी कदम उठाए गए हैं, वे पर्याप्त नहीं हैं। आवास बाजार में तेजी से और भी कदम उठाने की जरूरत है।
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केरल की अर्थव्यवस्था
विकिपीडिया, एक मुक्त ज्ञानकोष से
भारतीय संघ का अभिभाज्य अंग होने के कारण केरल की आर्थिक व्यवस्था को राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था से पृथक करना उचित नहीं है । फिर भी केरल की आर्थिक व्यवस्था की अपनी विशेषताएँ हैं । मानव संसाधन विकास की आधारभूत सूचना के अनुसार केरल की उपलब्धियाँ प्रशंसनीय है। मानव संसाधन विकास के बुनियादी तत्त्वों में उल्लेखनीय हैं - भारत के अन्य राज्यों की तुलना में आबादी की कम वृद्धि दर, राष्ट्रीय औसत सघनता से ऊँची दर, ऊँची आयु-दर, गंभीर स्वास्थ्य चेतना, कम शिशु मृत्यु दर, ऊँची साक्षरता, प्राथमिक शिक्षा की सार्वजनिकता, उच्च शिक्षा की सुविधा आदि आर्थिक प्रगति के अनुकूल हैं । परन्तु उत्पादन क्षेत्र में मंदी, ऊँची बेरोज़गारी दर, बढ़ता बाज़ार-भाव, निम्न प्रतिशीर्ष आमदनी, उपभोक्ता वाद का प्रभाव आदि के कारण केरल की अर्थ-व्यवस्था जटिल होती जा रही है । लम्बी आयु दर के मामले में केरल की तुलना दक्षिण कोरिया, मलेशिया, चीन आदि से की जा सकती है । किन्तु वे तीनों केरल से भिन्न देश हैं और आर्थिक विकास के पथ पर अग्रसर हैं । यद्यपि मानव संसाधन विकास के सूचकों के अनुसार केरल भारतीय राज्यों में अग्रणी है । भूतकाल में केरल की प्रति व्यक्ति आय दर राष्ट्रीय आय दर से नीचे थी । जबकि केरल की आर्थिक व्यवस्था विकास का गुण प्रकट करती है । अस्सी के दशक के अंत में केरल का आर्थिक विकास औसत राष्ट्रीय आर्थिक विकास की दर से आगे निकल गया है । यह विकास अभी भी जारी है । किन्तु मात्र इसी से राज्य की स्थिति मज़बूत नहीं बनती ।
वैश्वीकरण के प्रतिकूल प्रभाव ने कृषि तथा अन्य परम्परागत क्षेत्रों का खात्मा कर दिया है । इन क्षेत्रों में विगत छह - सात वर्षों से विकास नहीं हो रहा है । लेकिन अब इस स्थिति में बदलाव आना शुरू हुआ है जो शुभसूचक है । केरल को ऐसा आर्थिक विकास प्राप्त करना है जो न्यायनिष्ठ स्थाई तथा अविलम्ब हो । साथ ही विकास के क्षेत्र में जो नीति अपनाई गयी है उसमें सरकारी हस्तक्षेप कम करने या सामाजिक कल्याण के व्यय कम करने का कोई प्रयास नहीं दिखाई देता ।
स्वातंत्र्य पूर्व तिरुवितांकूर, कोच्चि, मलबार क्षेत्रों का विकास आधुनिक केरल की आर्थिक व्यवस्था की पृष्ठ भूमि है । भौगोलिक एवं प्राकृतिक विशेषताएँ केरल की आर्थिक व्यवस्था को प्राकृतिक संपदा के वैविध्य के साथ श्रम संबन्धी वैविध्य भी प्रदान करती हैं । केरल तीन प्रमुख भौगोलिक क्षेत्रों में बँटा है । तटीय क्षेत्र सर्वाधिक सघन आबादी वाला क्षेत्र है । (2001 जनगणना के अनुसार प्रति वर्ग किलो मीटर क्षेत्र में 819 का हिसाब भारतीय राज्यों में सबसे ऊँचा है ।) यहाँ की उर्वर मिट्टी, नदी तट क्षेत्र, झीलें आदि मछली उत्पादन, चावल, नारियल तथा साग - सब्जियों की खेती के लिए उपयुक्त है । पर्वतीय एवं समुद्र तटीय क्षेत्रों के बीच के प्रदेशों में नारियल, चावल, टप्योका, सुपारी के पेड, काजू के पेड, रबड़, कालीमिर्च, अदरक आदि की खेती होती है । पूर्वी पहाडी क्षेत्र में कॉफी, चाय, रबड़ की खेती औपनिवेशिक काल से चलती चली आ रही है । 20 वीं सदी के मध्य में पूर्वी पहाड़ी क्षेत्र में जनसंचार एवं स्थापन हुआ इससे केरल की आर्थिक व्यवस्था विकसित हुई ।
केरल में कृषि खाद्यान्न और निर्यात की जानेवाली फसलों के लिए बिल्कुल उपयुक्त है। शासन व्यवस्था तथा व्यापार के कारण निर्यात की जानेवाली फसलों बढोतरी हुई है। कयर उद्योग, लकडी उद्योग, खाद्य तेल उत्पादन आदि भी कृषि पर आधारित हैं । इसी के साथ ही धातुएँ, रसायन वस्तुएँ, इंजीनियरिंग आदि को आधार बनाने वाले बडे-बडे उद्योग भी विकास करने लगे हैं । इन क्षेत्रों में सार्वजनिक तथा निजी प्रतिष्ठान कार्य कर रहे हैं । कयर उत्पादन, कारीगरी, हैण्डलूम आदि केरल के परम्परागत व्यवसाय है ।
फिर भी यह कहना उचित नही कि केरल की आर्थिक व्यवस्था मात्र कृषि अधारित है। केरल के आर्थिक विकास का उल्लेखनीय पहलू न तो प्राथमिक क्षेत्र माने जानेवाला कृषि उद्योग है और न ही विभिन्न उत्पादन-निर्माण से युक्त उद्योग क्षेत्र है । आर्थिक विकास का मुख्य पहलू तीसरा क्षेत्र है जिसे सेवा - क्षेत्र कहा जाता है । केरलीय आमदनी तथा रोज़गार का अधिकांश भाग यहीं से प्राप्त होता है । केरल प्रायः सभी क्षेत्रों में भारत के अन्य राज्यों के आगे बढ रहा है, आश्चर्य की बात है कि कई विरोधी तत्वों के रहते हुए भी केरल का आर्थिक विकास हो रहा है । साधारणतः कोई भी राज्य प्रथम, द्वितीय और तृतीय क्षेत्रों को पार करके ही आर्थिक विकास के उच्च सोपान पर आरूढ हो सकता है । इस आर्थिक सिद्धांत के विरुद्ध प्रथम क्षेत्र एवं द्वितीय क्षेत्र को छोड तृतीय क्षेत्र में पहुँचकर केरल मृत्यु दर, साक्षरता, औरत आयु आदि में विकसित देशों के समक्ष स्थान ग्रहण कर सकता है । कम प्रतिशीर्ष आय तथा ऊँची ऊँची बेरोज़गारी को पूँजी बनाकर केरल कैसे यह स्थिति प्राप्त कर सका यह अनुत्तरित प्रश्न सा रहता है । भारत का कोई भी दूसरा राज्य इस प्रकार दुनिया का ध्यान आकृष्ट नहीं कर सका । आर्थिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि राजनैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्रों में भी जो विकास केरल में हुआ है उसकी चर्चा विकसित देशों में होती रहती है । 1980 के अंत में केरल की आर्थिक व्यवस्था ने जो उन्नति की उसकी Kerala Model नाम से विदेशों में भी चर्चा हुई । इस उदाहरण को लेकर आज बहुत से प्रश्न उठाये जाते हैं । उसके स्थायित्व पर कई अर्थशास्त्री संदेह प्रकट करते हैं। (13)
19 वीं शताब्दी से सरकार ने एक समाज कल्याण नीति अपनाई है और उसके कार्यान्वयन के अन्तर्गत आधारभूत सुविधाओं के लिए सरकार जो खर्च करती आ रही है वही केरल के सामाजिक विकास का मुख्य स्रोत है । इसके अतिरिक्त भारत के अन्यान्य क्षेत्रों तथा विदेशों, विशेषकर खाडी क्षेत्रों के अप्रवासी केरलीय (Non-resident Keralites) से प्राप्त धन राशी भी इस विकास का कारण है । (14)
[संपादित करें] अप्रवासी योगदान
आधुनिक केरल की आर्थिक व्यवस्था में अप्रवासी केरलीयों का महान योगदान है । आर्थिक व्यवस्था के विकास केलिए 2007 - 2008 का बजट कुछ कार्य पद्धतियाँ प्रस्तुत करता है उनमें मुख्य बिन्दु निम्नलिखित हैं -
1. कृषि तथा परम्परागत क्षेत्रों का संरक्षण । 2. शिक्षा, स्वास्थ्य आदि सार्वजनिक सेवाओं का गुण बढाना । 3. आई, टी. पर्यटन, लाइट इंजीनियरिंग आदि कड़ी प्रतियोगिता वाले क्षेत्रों पर आधिपत्य जमाने का प्रयास करना । 4. उपर्युक्त जो विकास क्षेत्रों के लिए आवश्यक सुविधाएँ प्रदान करना । 5. आदिवासी, दलित, मछुआरे इत्यादि वर्गों की पिछडी दशा का समाधान करना । स्त्रियों के प्रति न्याय करने का पूर्वाधिक दृढता से कार्यान्वयन । पर्यावरण की सुरक्षा। 6. जनतांत्रिक अधिकार विकेन्द्रीकरण तथा अन्य प्रशासन संबन्धी - सुधार । भ्रष्टाचार का उन्मूलन ।
केरल की आर्थिक व्यवस्था के सुदृढ आधार हैं - वाणिज्य बैंक, सहकारी बैंक, मुद्रा विनिमय व्यवस्था, यातायात का विकास, शिक्षा - स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों में हुई प्रगति, शक्तिशाली श्रमिक आन्दोलन, सहकारी आन्दोलन आदि ।
[संपादित करें] कृषि - क्षेत्र
जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि केरल की आर्थिक व्यवस्था कृषि संस्कृति से सेवा संस्कृति की ओर उन्मुख होती हुई विकास कर रही है । भारत की कृषि प्रधान आर्थिक व्यवस्था में केरल का प्रमुख स्थान है । केरल के कृषि जीवन को निर्धारित करनेवाले तत्व हैं : - विशिष्ट प्राकृतिक क्षेत्र, विविध प्रकार की मिट्टी और जलवायु । केरल की प्रमुख फसलें हैं - चावल, नारियल, दाल की विभिन्न किस्में, रबड़, सुपारी, इलायची, कॉफी, चाय, काजू, टप्योका, कालीमिर्च, अदरक, हल्दी, कोको, लौंग, जायफल आदि । यहाँ पर आलू, प्याज आदि उत्तर भारतीय फसलें भी उत्पन्न की जाती हैं । रबड़, कॉफी, इलायची, चाय आदि फार्म फसलें मानी जाती हैं । दूसरी प्रकार की फसलें मुख्यतः उन कृषक परिवारों के पास है जो कृषि को आजीविका रूप में अपनाए हुए हैं । (1)
केरल का कृषि क्षेत्र अनेक संकटों का सामना कर रहा है जिनमें चावल तथा नारियल दोनों के उत्पादन क्षेत्र में घोर संकट हैं । आज केरल को चावल तथा सब्जियों केलिए दूसरे राज्यों पर आश्रित रहना पड़ रहा है । यही नहीं कृषि भूमि का विस्तार भी घट गया है । कृषि भूमि में मिट्टी भरकर ज़मीन बनाने का जो काल चल रहा है वह केरल को गंभीर संकट की ओर धकेल रहा है । यद्यपि खेतों में मिट्टी डालकर उन्हें नारियल के बगीचे बनाया गया है फिर भी नारियल के उत्पादन में वृद्धि नहीं हुई है। 1992 - 1993 में नारियल का उत्पादन प्रति हेक्टर 5843 था जो 2000 में हेक्टर 5638 हो गया । (2) ऋण भार, फसलों का विनाश, दाम गिरावट के कारण कृषकों का जीवन कठिन बन गया है । अतः सरकार कृषि पैकेज तथा ऋण आश्वासन आयोग आदि का गठन करके कृषि के पुनरुद्धार का प्रयास कर रही है ।
केरल की कृषि का इतिहास नवीन प्रस्तर युग से प्रारंभ होता है । पुनम् कृषि जैसी आदिम कृषि रीतियाँ प्राचीन काल में प्रचलित थीं । आदिवासियों के पास उनकी निजी कृषि रीतियाँ थीं । प्राचीन कृषि संस्कृति के अभिन्न अंग थे, कृषि के विभिन्न औजार देशी बीज, बीज संरक्षण की पद्धतियाँ, कृषि काल, भिन्न प्रकार की कृषि भूमियाँ और कृषि से जुडे रीति-रिवाज़, कृषि अनुष्ठान, कृषि - उत्सव, कृषि गीत आदि। केरल के पास कृषि से संबन्धित देशी ज्ञान का बडा भण्डार है ।
केरल में विशेष कृषि क्षेत्र हैं, ये हैं - कुट्टनाड, पालक्काड, कान्तल्लूर, नेल्लियाम्पति आदि । कृषि क्षेत्र में दूसरे उल्लेखनीय तत्व हैं - छोटी-बडी जल-सिंचन योजनाएँ, जलाशयों के विकास की योजनाएँ आदि । मछली पालन और पशु पालन आदि भी कृषि क्षेत्र के प्रमुख कार्य हैं ।
[संपादित करें] =कृषि का इतिहास
नवीन प्रस्तर युग (Neolithic Age) में मनुष्य कृषि तथा पशु पालन की ओर अग्रसर हुआ था । उन दिनों मनुष्य के पास दो प्रकार के हथियार थे - पत्थर से बने फरसे और पेड की लकडी से बनी लाठियाँ । केरल में भी नवीन प्रस्तर युगीन कृषि रही होगी, क्योंकि सह्याद्रि के कुछ क्षेत्रों से तेज धार वाले प्रस्तर - फरसे प्राप्त हुए हैं । वयनाड के तिरुनेल्लि तथा बावलिप्पुष़ा के तट पर से तथा पूताटि नामक स्थान से जो प्रस्तर फरसे प्राप्त हुए वे इसी प्रस्तर युग के हैं । पशुपालन तथा पहाड की तराइयों के झाड-झंखड काट-छाँट कर खेती करना नवीन प्रस्तर युगीन कृषकों की जीवन शैली थीं । पश्चिमी घाट के इसी तरह के स्थानों पर संभवतः नवीन प्रस्तर युगीन कृषि रही होगी । (1) इसी युग में धान, फल, कंदमूल आदि को भोजन में प्रमुखता मिली होगी ।
दक्षिण भारत में ईसा से एक हज़ार वर्ष पूर्व लोहे का उपयोग शुरू हुआ था । केरल में भी लोह युग आरंभ हुआ होगा । महाप्रस्तर युगीन खनन से कृषि के क्षेत्र में हुए परिवर्तन भी दिखाई देते हैं । लोहे की कुदालें, फावड़े, बीजों की संरक्षण के लिए प्रयुक्त मिट्टी के बड़े पात्र आदि भी इन खुदाइयों में प्राप्त हुए हैं । संघमकालीन साहित्यिक कृतियाँ, जो महा प्रस्तर युग की मानी जाती हैं, उत्पादन प्रक्रिया को विस्तार से प्रतिपादित करती हैं ।
संघमकालीन रचनाएँ उत्पादन प्रक्रिया से जुडी हैं जो विभिन्न जन-जातियों का विवरण भी देती हैं । उन दिनों कृषि को आजीविका बनानेवाले लोग वेल्लालर कहलाते थे । केरल में वेल्लालर को विशिष्ट जाति विभाग के रूप में नहीं माना जाता है । यहाँ कृषकों को किसी जाति विशेष वर्ग का नहीं माना गया है । बाद में वेटर (शिकारी) और आयर वर्ग के लोग भी कृषि कर्म करने लगे । नदी तटों की उर्वरता देखकर वेटर, आयर, कुरवर आदि लोग वहाँ जाकर बस गये । वे लोग कालान्तर में हलवाले (उष़वर) और पुलयर कहलाने लगे । 'पुलम्' शब्द का अर्थ भूमि है । कृषि प्रदेश को 'मेनपुलम' तथा उसके चारों ओर के पहाडी प्रदेश जहाँ कृषि नहीं की जाती, 'वनपुलम' कहते थे । 'मेनपुलम' आदिम कृषि के विकास को सूचित करता था । (2) यद्यपि संघम साहित्य कृषि का विस्तृत वर्णन प्रस्तुत करता है तथापि इनमें उत्पादन के परिणाम का कोइ उल्लेख नहीं है । यह भी स्पष्ट नहीं है कि उस काल की कृषि विशाल आबादी का पालन पोषण कर सकती थी कि नहीं । संघमकालीन पाँच 'तिणकल' (ऐन्तणकल) रूपि भूमि के विभाजन की परिकल्पना भी प्राचीन कृषक - जीवन का चित्र प्रस्तुत करती है ।
कृषि के इतिहास का अगला चरण बौद्ध, जैन, ब्राह्मण आदि धर्म के लोगों के केरल आगमन के बाद का है । बौद्ध धर्म कृषि की प्रेरणा देता था । जब ब्राह्मण नदी तट पर बस गये तो उन्होंने कृषि पर अधिकार जमा लिया । खेतों का बड़ा हिस्सा ब्राह्मणों के ग्रामों में आ गया । ब्राह्मणों का खेतीबाडी पर आधिपत्य जमने का कारण उनका ज्योतिष ज्ञान था जिसके आधार पर उन्होंने कृषि की योजना तैयार की और उसका नियंत्रण भी अपने पास रखा । मंदिरों की स्थापना के द्वारा उन्होंने ज़मीन पर अपना आधिपत्य जमाया । इस तरह उन्होंने सीधे कृषि न करते हुए भी कृषि उत्पादन पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया । इस से उत्पादन व्यवस्था में भी परिवर्तन आया । उष़वर नामक जन, सामान्य विभाग के लोग, अनेक उपविभागों में बँट गये । कारालर, कुटिकल, अटियार प्रमुख उप विभाग बन गए । प्रमुख कृषक कारालर कहलाने लगे । कृषि भूमि के मंदिरों के नाम हो जाने से कारालर ब्राह्मणों के अधीन हो गये । खेतों में रहने वालों को कुटिमा अथवा कुटियान्मा कहा गया । निम्नतम अडियार कहलाए गए । अडियान्मा अथवा दास वर्ग का ज़मीन पर कोई अधिकार नहीं था । वे अपने स्वामी के लिए मेहनत - मज़दूरी करने को बाध्य थे ।
मध्यकालीन केरल में पहुँचे विदेशी यायावरों ने अपने यात्रावृत्तों में कालीमिर्च, अदरक आदि विदेशी मुद्र लाने वाली फसलों का उल्लेख किया है । 17 वीं शताब्दी में यूरोपीय लोगों ने केरल में स्थायी निवास शुरू किया था । तब सुगंधित मसाले का व्यापार भी फला-फूला । इसी युग में विदेशियों की प्रिय फसलों के बागान भी विकसित हुए। 18 वीं सदी में काली मिर्च का व्यापार बढा । केरल में काजू, अनन्नास, छोटे कटहल, आलू, लम्बे केले आदि की कृषि यूरोपीयों द्वारा प्रचलित की गयीं थी । 19 वीं सदी में तिरुवितांकूर में कुछ स्थल साफ कर खेतीबारी शुरू की गयी । इसी युग में समुद्रतटीय क्षेत्रों में भी कृषि का प्रचलन हुआ । 19 वीं शताब्दी में ब्रिटिश कंपनी ने तिरुवितांकूर और वयनाड के पहाडी इलाकों में कॉफी, चाय और इलायची के बागान बनाये । ब्रिटिश बागानों के देखा-देखी देशी लोगों ने सह्याद्रि में प्रवेश कर कृषि आरंभ की । 19 वीं शताब्दी के अंतिम चरणों और बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक चरणों में पहाडी इलाकों (हाईरेन्ज) का बहुत बडा हिस्सा बाग बन गया । वयनाड के अधिकांश बागानों के मालिक जैनधर्मी गौंडर थे । मध्यतिरुवितांकूर के लोगों ने भी वयनाड में बागान बनाये । धीरे - धीरे कालीमिर्च की व्यापारिक महत्त्व घटता गया और दूसरी वस्तुएँ (विदेशी मुद्रा देने वाली वस्तुएँ) प्रमुख बन गयीं ।
[संपादित करें] औद्योगिक क्षेत्र
केरल के औद्योगिक क्षेत्र के अंतर्गत नवीन ढंग के बडे़ उद्योग, मध्यम उद्योग तथा छोटे उद्योग, खादी ग्रामोद्योग, कारीगरी उद्योग आदि आते हैं । केरल के परम्परागत उद्योगों में प्रमुख कयर उद्योग है । कयर के बाद हैण्डलूम और काजू का स्थान है । भारत के कयर उत्पाद में 35% और कयर से बने साधनों में 90% केरल से है । कयर क्षेत्र में पाँच लाख श्रमिक काम करते हैं । इसके अतिरिक्त उस पर दूसरे 10 लाख लोग अवलबित हैं । लगभग 2 लाख लोग हैण्डलूम उद्योग में काम करते हैं । खपेरू, बीडी, रेशम उत्पादन, बाँस, बागान उद्योग आदि परंपरागत उद्योग के अंतर्गत आते हैं ।
19 वीं शताब्दी के मध्य में केरल में आधुनिक उद्योगों का आरंभ हुआ । ब्रिटिश बागान मालिकों तथा जर्मन ईसाई धर्म प्रचारकों ने इनका आरंभ किया था । 1859 में आलप्पुष़ा नगर में जेम्स डारा नामक अमीरिकी ने केरल की प्रथम कयर फैक्टरी स्थापित की । 1881 में कोल्लम नगर में कपड़े की प्रथम मिल स्थापित हुई । कोष़िक्कोड़ और पालक्काड में खपेरुओं और ईंटों की कंपनियाँ स्थापित की गयी । 20 वीं सदी के शुभारंभ के वक्त केरल के पास उपर्युक्त परंपरागत उद्योग थे । 1935 से - 1946 के बीच तिरुवितांकूर में अनेक उद्योग व्यवसाय शुरू हुए । रियोन्स, टैटेनियम डाई ऑक्साई़ड, अमोनियम साल्फेट, कॉस्टिक सोडा इत्यादि उत्पन्न करने वाले कारखाने भी खोले गये । इसी काल में तिरुवितांकूर में सार्वजनिक क्षेत्रों की स्थापना हुई ।
वर्तमान केरल में 727 बडे़ और मध्यम औद्योगिक व्यावसायिक प्रतिष्ठान हैं जिनमें 22 केन्द्रीय राज्य सरकार के सार्वजनिक उपक्रम हैं, 590 प्राइवेट हैं । सहकारी क्षेत्र के अंतर्गत कुछ उपक्रम हैं और इन्हीं के अंतर्गत सर्वाधिक औद्योगिक इकाइयाँ हैं । तत्पश्चात् पालक्काड, तिरुवनन्तपुरम, तृश्शूर जिले आते हैं । सबसे कम औद्योगिक उपक्रमों की स्थापना कासरगोड जिले में हुई है ।
यहाँ सूचना प्रौद्योगिकी, पर्यटन, खाद्योत्पाद समेत कृषि आधारित उद्योग, तैयार माल, आयुर्वेद औषधियाँ, खनिज, सामुद्रिक उत्पादन, लाइट इंजीनियरिंग, बायोटेक्नॉलोजी, रबड आधारित उद्योग आदि को विशेष प्रोत्साहन मिला है ।
केरल से सबसे अधिक निर्यात की जाने वाली सामग्री हैं काजू, सामुद्रिक उत्पादन, कयर उत्पादन, कॉफी, चाय और सुगंधित मसाले आदि । औद्योगिक विकास को तेज करने की बुनियादी सुविधाएँ प्रदान करने के लिए सरकार ने औद्योगिक प्रोत्साहन एजन्सियों का गठन किया है ।
[संपादित करें] केंद्रीय सार्वजनिक उपक्रम
केरल में स्थित नेशनल टेक्सटाइल कोरपरेशन के अंतर्गत पाँच कपडे की मिलें हैं । इनके अतिरिक्त दूसरे प्रमुख केन्द्रीय सार्वजनिक उपक्रम हैं -
- कोच्चि ऑयल रिफाइनरी
- कोच्चि शिप यार्ड
- फर्टीलाइज़र एण्ड केमिकल्स त्रावणकूर लिमिटेड (FACT)
- हिन्दुस्तान न्यूज़ प्रिन्ट, कोट्टयम
- हिन्दुस्तान लैटेक्स लिमिटेड
- इन्डियन रेयर एर्थ्स लिमिटेड, एरणाकुलम
- इन्डियन टेलिफोन इन्ड्रस्टीज़, पालक्काड
- इन्स्टुमेंशन लिमिटेड, पालक्काड
- हिन्दुस्तान इन्सेक्टिसाइड्स लिमिटेड, एरणाकुलम
- हिन्दुस्तान मशीन टूल्स (HMT) लिमिटेड, एरणाकुलम
- बामर लॉरी कम्पनी लिमिटेड, एरणाकुलम
- कोच्चि रिफाइनरीस बामर लॉरी लिमिटेड, एरणाकुलम
- हिन्दुस्तान आर्गेनिक केमिकल्स लिमिटेड, एरणाकुलम
- कण्णूर स्पिन्निंग एण्ड वीविंग मिल्स
- विजयमोहिनी मिल्स, तिरुवनन्तपुरम
- पार्वती मिल्स, कोल्लम
- केरल लक्ष्मी मिल्स, तृश्शूर
- अलगप्पा टेक्सटाइल (कोच्चि) मिल्स, तृश्शूर
[संपादित करें] राज्य सार्वजनिक उद्योग
- प्रमुख राज्य सार्वजनिक औद्योगिक प्रतिष्ठान
- आस्ट्रल वाच्स लिमिटेड
- ऑटोकास्ट लिमिटेड
- फॉम मैटिंग्स (इन्डिया) लिमिटेड
- फॉरस्ट इन्ड्रस्टीस (ट्रावनकूर) लिमिटेड
- हैन्डी क्राफ्ट डेवलेपमेन्ट कॉर्परेशन ऑफ केरला लिमिटेड
- केल्ट्रोन कम्पोनेन्ट कोम्प्लेक्स लिमिटेड
- केल्ट्रोन क्रिस्टलस लिमिटेड
- केल्ट्रोन इलेक्ट्रो सेरामिक्स लिमिटेड
- केल्ट्रोन मैग्नेटिक्स लिमिटेड
- केल्ट्रोन रेसिस्टोर्स लिमिटेड
- केरल आर्टिसान्स डेवलेपमेन्ट कॉर्परेशन लिमिटेड
- केरल ऑटोमोबाइल्स लिमिटेड
- केरल क्लेयस एण्ड सेरामिक्स प्रोडेक्टस लिमिटेड
- केरल इलेक्ट्रिकल एण्ड अलाइड इंजीनियरिंग कंपनी लिमिटेड
- केरल गार्मेन्ट्स लिमिटेड
- केरल इन्ड्रस्टियल इन्फ्रास्ट्रेक्चर डेवलेपमेन्ट कॉर्परेशन
- केरल खादी एण्ड विल्लेज इन्ड्रस्टीज़ बोर्ड
- केरल राज्य औद्योगिक विकास निगम लिमिटेड
- केरल स्टेट ड्रग्स एण्ड फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड
- केरल स्टेट इलेक्ट्रोनिक्स डेवलेपमेन्ट कॉर्परेशन लिमिटेड
- केरल स्टेट हैण्डलूम कॉर्परेशन लिमिटेड
- केरल स्टेट इन्ड्रस्टियल डेवलेपमेन्ट कोरपरेशन
- केरल स्टेट इन्ड्रस्टियल एन्टरप्राइसेस लिमिटेड
- केरल स्टेट इन्ड्रस्टियल प्रोडक्ट्स ट्रेडिंग कॉर्परेशन लिमिटेड
- केरल स्टेट पामीरा प्रोडेक्ट्स डेवलेपमेन्ट एण्ड वर्कस वेल्फेयर कॉर्परेशन लिमिटेड
- केरल स्टैट टेक्स्टाइल्स कॉर्परेशन लिमिटेड
- मलाबार सीमेन्ट्स लिमिटेड
- सीताराम टेक्स्टाइल्स लिमिटेड
- स्टील कॉम्प्लेक्स लिमिटेड
- स्टील इन्ड्रस्टियल केरल लिमिटेड
- स्टील एण्ड इन्ड्रस्टियल फार्जिंग्स लिमिटेड
- केरल सेरामिक्स लिमिटेड
- केरल मिनरेल्स एण्ड मेटल्स लिमिटेड
- केरल राज्य काजू विकास कॉर्परेशन लिमिटेड
- केरल राज्य कयर कॉर्परेशन लिमिटेड
- मेटल इन्ड्रस्टीज़ लिमिटेड
- त्रावनकूर सीमेन्ट्स लिमिटेड
- त्रावनकूर शूगर्स एण्ड केमिकल्स लिमिटेड
- त्रावनकूर कोच्चिन केमिकल्स लिमिटेड
- ट्रैको केबिल कंपनी लिमिटेड
- ट्रांसफार्मर्स एण्ड इलोक्ट्रिकल्स केरल लिमिटेड
- केरल अग्रोमशीनरी कॉर्परेशन लिमिटेड
- मीट प्रोडेक्ट्स ऑफ इन्डिया लिमिटेड
- ऑयल पाम इन्डिया लिमिटेड
- त्रिवेन्द्रम रबड वर्क्स लिमिटेड
- केरल फीड्स लिमिटेड
- केरल स्टेट फूड इन्ड्रस्टीज़ लिमिटेड
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